समीक्षक - डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी -

पुस्तक का नाम पाश्चात्य काव्य चिंतन होना चाहिए था। इसे पाश्चात्य काव्य दर्शन कहने से एक ओर दार्शनिकता की गंध आती है और दूसरी ओर यूरोपीय काव्यशास्त्रियों के गैरदार्शनिक आचरण का निषेध होता है। छोटे - छोटे उपशीर्षकों, अनुच्छेदों में विभक्त सामग्री को डॉ. शंकर मुनि राय बहुत ही सहजतापूर्वक सहझाया है। इससे पाश्चात्य काव्य शास्त्र के प्रमुख हस्ताक्षरों की काव्यधारणा पूरी तरह उजागर हुई है। अपनी ओर से कोई निष्कर्षात्मक टिप्पणी देने से लेखक ने अधिकतर परहेज किया है,लेकिन सभी यूरोपीय काव्यचिंतकों के व्यक्तित्व और अवदान की संक्षिप्त झांकी अवश्य दी है। अपनी संक्षिप्त भूमिका में उन्होंने यूनान के पिंडार, गार्गियस, अरिस्तोफेनिस की चर्चा हिन्दी पाठकों के लिए एक नई जानकारी के तौर पर की है। यही देमेत्रियस का उल्लेख भी होना चाहिए था। पाश्चात्य काव्य दर्शन अपनी सीमा में पश्चिमी काव्यचिंतन का स्पष्ट और बेबाक भाषा में किया गया विवेचन है। इस संक्षिप्त प्रस्तुति के लिए डॉ. शंकर मुनि राय बधाई के पात्र है।
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