- सुशील भोले
गांव म जब कोनो काम - बुता के सुरूवात होवय त बड़े आदमी के हाथ ले होवय। तरिया म गोदी कोड़वाय के काम होवय,चाहे संगसी - कोलकी म मुरमी पटकाय के। बड़े आदमी आतीस, हूम - धूप देके नारियर फोरतीस तब जा के बुता करइया मन बुता धरयं। ए रिवाज ह तइहा - तइहा ले आवत हे। ऐकरे सेती आजो बड़े आदमी के अगोरा होवत हे। फेर आज बेरा बुलके ले धर लिस हे, सुरूज नरायन के कोंवर घाम ह चरमराए ले धर लिस हे, तभो ले कइसे बड़े आदमी के डोला ह मसान घाट म आबेच नइ करत हे।
मजूरी करइया मन आपस म फुसफुसावयं - कइसे मेहतरू, आज गौटिया ल का होगे हे ... आन बखत तो ठउका बेरा म आ जावत रिहिसे, आज कइसे बेरा ल बुलका डारिस ?''
- हौ भाई महूं उही ल गुनत हौं जी, झपकन आतीस त हमरो रोजी पक जातीस, नइते जानत तो हस ठेकेदार ल, एको घंटा बुलकिस ते आधा दिन के रोजी ल काट दिही।''
- ठउका केहेस भइया ... गौंटिया के बेरा - बखत म अवई जवई म हामर मन के कोनो हाथ बात नई हे, तभो ले रोजी हमरेच मन के कटही न ...।'' काहत बुधारू ह सलूखा के खीसा ले चोंगी हेर के मेहतरू करा माचिस मांगीस, तहां ले दूनो झन पेड़ के छइहां म बइठ के चोंगी चुहके लागिन।
गाँव के मरघट्टी म पक्का ईंटा - सिरमिट के चौंरा बनइया रिहिसे। बादर पानी के दिन म घलोक लास ल जलाए म सोहलियत होवय। कोतवाल बतावत रिहिसे सरकारी खजाना ले पइसा आए हे का मुक्तिधाम कहिथें तइसने योजना म तेकर नेंव कोड़े अउ तहां ले ईंटा रचे के काम के आज सुरूवात होवइया हे। बस बड़े आदमी के एकरे सेती अगोरा होवत हे, काबर ते वो हर गांव के सरपंच घलोक आय। कोन जनी कइसे ढंग के चुनाव जीतगे रिहिसे ते ? अइसे तो गांव के एको आदमी ल वोहर भावय नहीं, फेर बताथे के ठउकार चुनाव के दू दिन पहिली ले दारू - कुकरा अउ लुगरा - धोती के मोटरा ल वोहर घरों - घर बगरा दे रिहिसे।
जब पइसा कौड़ी अउ पद - पदवी के बाद चलथे त वोहर अपन छोड़ अउ कोनो ल न तो अपन ले बड़े मानय, न अपन जोड़ के। लोगन ल गारी - गुफ्तार देके वो पद म बइठे के जोंग जमा लेथे, फेर जब वोट बटोरे के खातिन लोगन के मुंहाटी म जाये के बेरा आथे, त वोकर ले बड़े समाजवादी अउ गरीब - गुरबा मन के हितु - पिरितु अउ कोनो नइ होवय। अइसन बेरा म कोनो तो कहि लेवय के वोहर दारू - कुकरा के बंटई म ककरो संग भेदभाव करे हे कहिके, या कोनो बैरी दुश्मन के घर घलोक नइ अमराय होही कहिके। राम राज के साक्षात दरसन होथें अइसन बेरा म।
बड़े आदमी अतेक करथे - धरथे तभो ले गांव के एक झन पढंता बाबू ह वोकर लंदी फंदी अउ दांत - खिसोरी के छोड़ काही गोठ ल नइ करय। वो दिन कहत रिहिसे - इही बड़े आदमी मन के सेती हमन आज तक बिगड़े हवन ग। ए मन ल बड़े आदमी हे कहिके पूरा समाज के नेतृत्व ल सौंप देथन अउ ए मन सिवाय जोजवा गिरी के अउ कुछु नइ करयं। चाहे इहां के छोटे सभा म भेज दे चाहे दिल्ली के बड़े सभा म। ऐमन सिवाय दूसर के पाछू किंजरे अउ हथउटठा बरोबर बिना कुछु सोचे - गुने सिरिफ हाथ उठाए के अउ कुछु नइ करय।
अब तो जमों समाज के मनखे मन ला बड़े आदमी बने अउ बनाए के मापदण्ड ल बदलना परही। सिरिफ धन भर के रेहे ले कोनो बड़े नइ हो जाय, ज्ञान कर्म अउ ईमानदारी घलोक होना चाही, अपन अस्मिता के समझ अउ ओकर बढ़वार खातिर समरपन के भाव होना चाही। आज बाहिर ले आय आदमी हमर मन के छाती म चढ़त जावत हें त वोहर अइसने जोजवा मन के सेती आय, जे मन ल किंजर - किंजर के पतरी चांटे के छोड़ अउ कुछु नइ आवय। जेकर मन के न कोनो आदर्श होवय, न सिद्धांत , न दरसन बस सुवारथ अउ सिरिफ सुवारथ होथे अइसन मन के भरोसा न तो हम अपन गौरव के रकछा कर सकन न आगू बढ़ सकन, जनम - जनम तक सिरिफ पिछड़ा के पिछड़ा रहि जाबो।
गांव के दू चार झन टूरा मन पढंता बाबू के हाँ घलो मिलाथे वो मन जघा - जघा पढंतच ल अवइया बेरा म गाँव के सरपंच बनाए के गोठ घलो करयं। फेर जीवन भर बड़े आदमी के गुलामी भोगत बुढुवा मन उंकर मन के बात ल बेलबेली ले जादा अउ कुछु नइ मानयं, उल्टा टूरा मन ला फटकार देवयं - अरे, जावव न परलोखिहा हो। सइकिल म किंजर - किंजर के लोगन ल कविता - कहिनी सुनावत रहिथे तेला गाँव के सरपंच बनाबो रे ... ? जब देखबे तब का - का लिख के कागज ल करियावत रहिथे अउ गजट - सजट म का अंते - तंते छपवावत रहिथे। ओकर घर म देखबे त लोग लइका मन दाना - दाना बर लुलुवावत रहिथे अउ ए पढंता बाबू ह सिरिफ क्रांति, न्याय अउ धरम युद्ध के बात करथे, अइसने बइहा - भूतहा ल गाँव के सरपंच बनाबो रे ... ?
पढंता बाबू के अइसनहा चारी करइया मन म मेहतरू अउ बुधारू घलो हे, जेमन बड़े आदमी के अगोरा करत आज के अपन रोजी कटे के गोठ गोठियावत हें। दूनो के चोंगी चुहकागे रिहिसे। बर पान के सेंध मन ले झांकत घाम के चरमरई ले बांचे बर ऐती - तेती के पेड़ मन के छांव म जाके बइठगे रिहिन हे। सबो के चेहरा म आज रोजी चुके के भाव झांकत रिहिसे फेर कोन जनी बड़े आदमी के संवागा ह अभी ले कइसे नइ पूरे रिहिसे ते ?
मेहतरू मन गोठियातेच रिहिन हे। वतके बेर कोतवाल ह बस्ती मुड़ा ले माखुर झर्रावत आवत रिहिसे। खखौरी म एक ठन चार हाथ के लउड़ी ल चपके अल्लर बानी के रेंगत रिहिसे। वोला देखके मेहतरू गोठिया परिस - का बात हे कोतवाल साहेब, अकेल्ला आवत हस। सरपंच कहां हे गा ...?
बुधारू - अरे हां भई, अइसे में तो हमर मन के रोजीच बुलक जाही ग ?''
कोतवाल - अरे देखना भई, मैं तो अबड़ केहेंव गरीब मन के आज के दिन अकारथ हो जाही कहिके फेर घर ले निकलबेच नइ करिस।''
मेहतरू - आखिर बात का आय तेमा ?''
कोतवाल - कोन जनी, ठेकेदार के संग का पइसा - पइसा कहिके गोठियावत रिहिसे।''
बुधारू - कहूं लेन - देन के बात तो नइ होही ?''
मेहतरू - हां, पढंता बाबू कहिथे तेने तो सिरतोन तो नइ होही ?''
कोतवाल - का कहिथे पढंता बाबू ह ?''
बुधारू - वो तो जघा - जघा एके ठन बात ल कहिथे ग ... ए बड़े आदमी ह नीयत के एकदम छोटे हे। तुमन आज तक गरीब - गुरबां अउ पिछड़े हौ तेकर असली कारन इही आय। तुंहर मन जगा तो मोहलो - मोहलो गोठियाथे फेर पेट ल घलोक तुहंर इहीच हर काटथे। तुमन ल कभू बने पढ़न - लिखन नइ दय, कभू पेट भर खावन नई देवय, न बने गतर के कपड़ा - लत्ता ल पहिरन देवय, ये सबके दोसी इही बड़े आदमी आय ...?''
कोतवाल - अच्छा ... अइसे कहिथे।''
मेहतरू - अतके भर ... अरे अउ अड़बड़ अकन गोठियाथे।''
कोतवाल - अच्छा, का का गोठियाथे ? ''
मेहतरू - एक दिन कहत रिहिस हे - सरकारी खजाना ले जतका रूपिया - पइसा आथे तेकर आधा हर तो इही बड़े आदमी के खजाना म समा जाथे, ओकर बाद ठेकेदार के कोठी म हमाथे अउ जेन थोक - बहुत बांच जाथे, तेमा नेंग छूटे असन अल्लर - सट्टा काम - बूता ल करवा देथे।''
कोतवाल - अच्छा, त पइसच के बंटवारा के सेती दूनों के बीच रूपिया - पइसा के गोठ होवत रिहिसे का जी ? ठेकेदार ह अबड़ जोजियावत रिहिसे ... तभो ले बड़े आदमी के घेक्खरई ह देखते बनत रिहिसे ... अब तो तुहंर मन के मनसा - भरम ह महूं ल सिरतोन असन लागत हे जी ...।''
पढ़ंता बाबू ह साहित्यकार के संगे - संगे पत्रकार घलो हे। तेकर सेती वो हा लोगन ल किस्सा - कहिनी अउ कविता तो सुनाबेच करथे, पेपर मन म गाँव - गंवई के समस्या अउ बड़े आदमी सही मनखे मन के गलत काम के खुलासा ल घलोक करत रहिथे। एकरे सेती भस्टाचार म बूड़े मन ओकर संग ततेरे असन गोठियावयं। फेर जे मन समझदार के संगे - संग ईमानदार अउ सिद्धांतवादी राहयं ते मन वोकर संग मया करयं। भले वोहर गरीब घर म जनमे हे फेर वोकर जीवन - दरसन ह कोनेा योगी पुरूष अउ उच्च कोटि गियानी - धियानी ले कम नइये। वो घर परिवार में रहिके घलोक उच्च कोटि के संत मन कस जिनगी जीथे। संझा - बिहनिया एक - एक घंटा पूजा - पाठ करथे। एकदम सादा - सरबदा जीथे। वोकर हाथ म अतका कला अउ योग्यता हे कि वो कहूं लंदी - फंदी करके पइसा कमइया मन संग छिन भर ठाड़ हो जाय त लखपति - करोड़पति बने बर दू - चार दिन ले जादा नइ लागय,फेर वोला सुवारथ, लालच अउ नीयत खोरी के छइहां तक ह नइ छू सकत रिहिसे। एकरे सेती बड़े आदमी सही लंदी - फंदी मन वोकर खिलाफ म गलत - सलत बात परचार करयं।
फेर पढ़ंता बाबू ए सबके बिना चिंता - फिकर करे अपन ईमान अउ सत् धरम के रद्दा मं रेंगते राहय। वोकर एके मिसन राहय - अपन गाँव ल सरग जइसे बनाना, नीति नियाव अउ आपसी मेल - जोल के माध्यम से, सही मायने म रामराज के स्थापना करना अउ अइसन तभे हो सकत रिहिसे जब बड़े आदमी जइसन पाखण्डी समाज सेवक मन के हाथ ले सत्ता ल नंगा के जे मन सही सेवा - चाकरी करथे, अपन मेहनत अउ ईमानदारी ले आगू बढ़े रहिथे, अउ जेमन सिरिफ पद - पइसा अउ पदवी के घमंड म बूड़े दूसर संग हमेसा घेक्खरई अउ अपमान करे कस गोठ करथें ते मन कभू ककरो सेवा नई करे सकयं, अइसन मन सेवा के नांव म सिरिफ पाखण्ड करथें ते मन कभू ककरो सेवा नई कर सकयं। अइसन मन सेवा के नांव म सिरिफ पाखण्ड कर सकथें, ऐकर ले जादा कुछु नहीं। तुमन राजनीति अउ सासन - सत्ता ल सेवा के माध्यम बनाना चाहथौ त सिरिफ उही आदमी मन ला सत्ता म बइठारौ जे मन सेवा - चाकरी करत आगू बढ़े हें।
पढ़ंता बाबू गाँव म कोनो किसम के काम - बुता होथे तिहां अवस के जाथे, पत्रकार होए के सेती पेपर म खभर भेजे के बुता ह घलो सिध पर जाय, फेर गाँव वाले मन संग मेल- जोल के कारज घलो पूरा हो जाय। वोला जानबा रिहिसे के आज मसानघाट म मुक्तिधाम के बुता चालू होवइया रिहिसे ऐकरे सेती बिहिनिया ले पूजा - पाठ करे के बाद सइकमा भर बासी झड़किस तहां ले मसानघाट आगे। इहां देखिस त काम - बुता चालू नइ होय राहय। बुता करहया मन ऐती - तेती रूख राई के छंइहा म बइठे राहयं। कोतवाल ल देख के वोहर मेहतरू अउ बुधारू खड़े राहय तेने कोती आइस, तहां ले पूछिस - कइसे कोतवाल, मुक्तिधाम के काम अभी ले कइसे चालू नई होए हे, काल तो तंय हंाका पारे रेहे हस आज बिहनिया ले काम चालू हो जाही कहिके ?
- काला बताबे बाबू, देखना सरपंच अभी ले आय नईये।''
- कइसे आय नईये, वोला जुड़ - खांसी धर ले हे का ?''
- नहीं, अइसन नोहय।''
- त अउ कइसन ये ... सरकारी पइसा के अनपचक धर लेहे का ?''
- टार बाबू तंय अतेक पढ़े - लिखे होके कइसे - कइसे गोठियाथस ग ...।''
- मंय बने ल गोठियाथौं कोतवाल ... अपन के मेहनत अउ सत ईमान के पइसा ह पचथे ... ऐती - तेती के पइसा म अनपचक होबे करथे, चाहे वोमा पेट - पीठ पिरावय चाहे मती छरियावय ... लड़ई - झगरा अउ देखिक - देखा के रस्ता निकली जाथे।''
पढंता बाबू के गोठ म धंधमंदाय कोतवाल ल आखिर कहना परिस - हां, ठेकेदार संग वइसने उंचहा भाखा व गोठ तो होवत रिहिसे ...।''
- देख मंय केहेव न, जरूर चार सौ बीसी के खेल होवत हे ... भगवान जानय अइसन मनखे मन ला तुमन कब तक मुड़ी म लादे रइहौ ते ... आज देस ल अजाद होए तीन कोरी बछर ले जादा होगे हे, सरकार ह साल के साल तुंहरे जइसन गरीब - गुरबा मन के बिकास खातिर सउहंत खजाना ल खोल देथे, फेर आज तक वो खजाना के सुख समरिधि ह तुंहर मन के घर - कुरिया म नइ हमा पाए हे ... आखिर कब चेत चघही तुंहर ... अरे तुंहर नही ते तुंहर लोग लइका मन के भविस ल तो सोचौ ...।''
रोजी के चुकई अउ घाम के तपई म बुधारू के मति थोकिन तीपे सहीं होगे रिहिसे, वो कहिस - सहीं काहत हस बाबू ... अइसने आदमी मन के सेती हमन आज तक पिछड़े अउ गरीब - गुरबा बने हावन, तोर कहे एकक बात ह सत ये। अब अवइया बेरा म तोरे असन मनखे के हाथ मं गाँव के मरजाद अउ विकास के रस्ता ल सौंपबो।''
मेहतरू घलो वोकर संग हां म हां मिलाइस, तहां ले कोतवाल घलो वोकरे कोती संघरगे, फेर तो मसानघाट म जुरियाए जम्मों मनखे देखते - देखत पढ़ंता बाबू के रंग म रंगगे।
मजूरी करइया मन आपस म फुसफुसावयं - कइसे मेहतरू, आज गौटिया ल का होगे हे ... आन बखत तो ठउका बेरा म आ जावत रिहिसे, आज कइसे बेरा ल बुलका डारिस ?''
- हौ भाई महूं उही ल गुनत हौं जी, झपकन आतीस त हमरो रोजी पक जातीस, नइते जानत तो हस ठेकेदार ल, एको घंटा बुलकिस ते आधा दिन के रोजी ल काट दिही।''
- ठउका केहेस भइया ... गौंटिया के बेरा - बखत म अवई जवई म हामर मन के कोनो हाथ बात नई हे, तभो ले रोजी हमरेच मन के कटही न ...।'' काहत बुधारू ह सलूखा के खीसा ले चोंगी हेर के मेहतरू करा माचिस मांगीस, तहां ले दूनो झन पेड़ के छइहां म बइठ के चोंगी चुहके लागिन।
गाँव के मरघट्टी म पक्का ईंटा - सिरमिट के चौंरा बनइया रिहिसे। बादर पानी के दिन म घलोक लास ल जलाए म सोहलियत होवय। कोतवाल बतावत रिहिसे सरकारी खजाना ले पइसा आए हे का मुक्तिधाम कहिथें तइसने योजना म तेकर नेंव कोड़े अउ तहां ले ईंटा रचे के काम के आज सुरूवात होवइया हे। बस बड़े आदमी के एकरे सेती अगोरा होवत हे, काबर ते वो हर गांव के सरपंच घलोक आय। कोन जनी कइसे ढंग के चुनाव जीतगे रिहिसे ते ? अइसे तो गांव के एको आदमी ल वोहर भावय नहीं, फेर बताथे के ठउकार चुनाव के दू दिन पहिली ले दारू - कुकरा अउ लुगरा - धोती के मोटरा ल वोहर घरों - घर बगरा दे रिहिसे।
जब पइसा कौड़ी अउ पद - पदवी के बाद चलथे त वोहर अपन छोड़ अउ कोनो ल न तो अपन ले बड़े मानय, न अपन जोड़ के। लोगन ल गारी - गुफ्तार देके वो पद म बइठे के जोंग जमा लेथे, फेर जब वोट बटोरे के खातिन लोगन के मुंहाटी म जाये के बेरा आथे, त वोकर ले बड़े समाजवादी अउ गरीब - गुरबा मन के हितु - पिरितु अउ कोनो नइ होवय। अइसन बेरा म कोनो तो कहि लेवय के वोहर दारू - कुकरा के बंटई म ककरो संग भेदभाव करे हे कहिके, या कोनो बैरी दुश्मन के घर घलोक नइ अमराय होही कहिके। राम राज के साक्षात दरसन होथें अइसन बेरा म।
बड़े आदमी अतेक करथे - धरथे तभो ले गांव के एक झन पढंता बाबू ह वोकर लंदी फंदी अउ दांत - खिसोरी के छोड़ काही गोठ ल नइ करय। वो दिन कहत रिहिसे - इही बड़े आदमी मन के सेती हमन आज तक बिगड़े हवन ग। ए मन ल बड़े आदमी हे कहिके पूरा समाज के नेतृत्व ल सौंप देथन अउ ए मन सिवाय जोजवा गिरी के अउ कुछु नइ करयं। चाहे इहां के छोटे सभा म भेज दे चाहे दिल्ली के बड़े सभा म। ऐमन सिवाय दूसर के पाछू किंजरे अउ हथउटठा बरोबर बिना कुछु सोचे - गुने सिरिफ हाथ उठाए के अउ कुछु नइ करय।
अब तो जमों समाज के मनखे मन ला बड़े आदमी बने अउ बनाए के मापदण्ड ल बदलना परही। सिरिफ धन भर के रेहे ले कोनो बड़े नइ हो जाय, ज्ञान कर्म अउ ईमानदारी घलोक होना चाही, अपन अस्मिता के समझ अउ ओकर बढ़वार खातिर समरपन के भाव होना चाही। आज बाहिर ले आय आदमी हमर मन के छाती म चढ़त जावत हें त वोहर अइसने जोजवा मन के सेती आय, जे मन ल किंजर - किंजर के पतरी चांटे के छोड़ अउ कुछु नइ आवय। जेकर मन के न कोनो आदर्श होवय, न सिद्धांत , न दरसन बस सुवारथ अउ सिरिफ सुवारथ होथे अइसन मन के भरोसा न तो हम अपन गौरव के रकछा कर सकन न आगू बढ़ सकन, जनम - जनम तक सिरिफ पिछड़ा के पिछड़ा रहि जाबो।
गांव के दू चार झन टूरा मन पढंता बाबू के हाँ घलो मिलाथे वो मन जघा - जघा पढंतच ल अवइया बेरा म गाँव के सरपंच बनाए के गोठ घलो करयं। फेर जीवन भर बड़े आदमी के गुलामी भोगत बुढुवा मन उंकर मन के बात ल बेलबेली ले जादा अउ कुछु नइ मानयं, उल्टा टूरा मन ला फटकार देवयं - अरे, जावव न परलोखिहा हो। सइकिल म किंजर - किंजर के लोगन ल कविता - कहिनी सुनावत रहिथे तेला गाँव के सरपंच बनाबो रे ... ? जब देखबे तब का - का लिख के कागज ल करियावत रहिथे अउ गजट - सजट म का अंते - तंते छपवावत रहिथे। ओकर घर म देखबे त लोग लइका मन दाना - दाना बर लुलुवावत रहिथे अउ ए पढंता बाबू ह सिरिफ क्रांति, न्याय अउ धरम युद्ध के बात करथे, अइसने बइहा - भूतहा ल गाँव के सरपंच बनाबो रे ... ?
पढंता बाबू के अइसनहा चारी करइया मन म मेहतरू अउ बुधारू घलो हे, जेमन बड़े आदमी के अगोरा करत आज के अपन रोजी कटे के गोठ गोठियावत हें। दूनो के चोंगी चुहकागे रिहिसे। बर पान के सेंध मन ले झांकत घाम के चरमरई ले बांचे बर ऐती - तेती के पेड़ मन के छांव म जाके बइठगे रिहिन हे। सबो के चेहरा म आज रोजी चुके के भाव झांकत रिहिसे फेर कोन जनी बड़े आदमी के संवागा ह अभी ले कइसे नइ पूरे रिहिसे ते ?
मेहतरू मन गोठियातेच रिहिन हे। वतके बेर कोतवाल ह बस्ती मुड़ा ले माखुर झर्रावत आवत रिहिसे। खखौरी म एक ठन चार हाथ के लउड़ी ल चपके अल्लर बानी के रेंगत रिहिसे। वोला देखके मेहतरू गोठिया परिस - का बात हे कोतवाल साहेब, अकेल्ला आवत हस। सरपंच कहां हे गा ...?
बुधारू - अरे हां भई, अइसे में तो हमर मन के रोजीच बुलक जाही ग ?''
कोतवाल - अरे देखना भई, मैं तो अबड़ केहेंव गरीब मन के आज के दिन अकारथ हो जाही कहिके फेर घर ले निकलबेच नइ करिस।''
मेहतरू - आखिर बात का आय तेमा ?''
कोतवाल - कोन जनी, ठेकेदार के संग का पइसा - पइसा कहिके गोठियावत रिहिसे।''
बुधारू - कहूं लेन - देन के बात तो नइ होही ?''
मेहतरू - हां, पढंता बाबू कहिथे तेने तो सिरतोन तो नइ होही ?''
कोतवाल - का कहिथे पढंता बाबू ह ?''
बुधारू - वो तो जघा - जघा एके ठन बात ल कहिथे ग ... ए बड़े आदमी ह नीयत के एकदम छोटे हे। तुमन आज तक गरीब - गुरबां अउ पिछड़े हौ तेकर असली कारन इही आय। तुंहर मन जगा तो मोहलो - मोहलो गोठियाथे फेर पेट ल घलोक तुहंर इहीच हर काटथे। तुमन ल कभू बने पढ़न - लिखन नइ दय, कभू पेट भर खावन नई देवय, न बने गतर के कपड़ा - लत्ता ल पहिरन देवय, ये सबके दोसी इही बड़े आदमी आय ...?''
कोतवाल - अच्छा ... अइसे कहिथे।''
मेहतरू - अतके भर ... अरे अउ अड़बड़ अकन गोठियाथे।''
कोतवाल - अच्छा, का का गोठियाथे ? ''
मेहतरू - एक दिन कहत रिहिस हे - सरकारी खजाना ले जतका रूपिया - पइसा आथे तेकर आधा हर तो इही बड़े आदमी के खजाना म समा जाथे, ओकर बाद ठेकेदार के कोठी म हमाथे अउ जेन थोक - बहुत बांच जाथे, तेमा नेंग छूटे असन अल्लर - सट्टा काम - बूता ल करवा देथे।''
कोतवाल - अच्छा, त पइसच के बंटवारा के सेती दूनों के बीच रूपिया - पइसा के गोठ होवत रिहिसे का जी ? ठेकेदार ह अबड़ जोजियावत रिहिसे ... तभो ले बड़े आदमी के घेक्खरई ह देखते बनत रिहिसे ... अब तो तुहंर मन के मनसा - भरम ह महूं ल सिरतोन असन लागत हे जी ...।''
पढ़ंता बाबू ह साहित्यकार के संगे - संगे पत्रकार घलो हे। तेकर सेती वो हा लोगन ल किस्सा - कहिनी अउ कविता तो सुनाबेच करथे, पेपर मन म गाँव - गंवई के समस्या अउ बड़े आदमी सही मनखे मन के गलत काम के खुलासा ल घलोक करत रहिथे। एकरे सेती भस्टाचार म बूड़े मन ओकर संग ततेरे असन गोठियावयं। फेर जे मन समझदार के संगे - संग ईमानदार अउ सिद्धांतवादी राहयं ते मन वोकर संग मया करयं। भले वोहर गरीब घर म जनमे हे फेर वोकर जीवन - दरसन ह कोनेा योगी पुरूष अउ उच्च कोटि गियानी - धियानी ले कम नइये। वो घर परिवार में रहिके घलोक उच्च कोटि के संत मन कस जिनगी जीथे। संझा - बिहनिया एक - एक घंटा पूजा - पाठ करथे। एकदम सादा - सरबदा जीथे। वोकर हाथ म अतका कला अउ योग्यता हे कि वो कहूं लंदी - फंदी करके पइसा कमइया मन संग छिन भर ठाड़ हो जाय त लखपति - करोड़पति बने बर दू - चार दिन ले जादा नइ लागय,फेर वोला सुवारथ, लालच अउ नीयत खोरी के छइहां तक ह नइ छू सकत रिहिसे। एकरे सेती बड़े आदमी सही लंदी - फंदी मन वोकर खिलाफ म गलत - सलत बात परचार करयं।
फेर पढ़ंता बाबू ए सबके बिना चिंता - फिकर करे अपन ईमान अउ सत् धरम के रद्दा मं रेंगते राहय। वोकर एके मिसन राहय - अपन गाँव ल सरग जइसे बनाना, नीति नियाव अउ आपसी मेल - जोल के माध्यम से, सही मायने म रामराज के स्थापना करना अउ अइसन तभे हो सकत रिहिसे जब बड़े आदमी जइसन पाखण्डी समाज सेवक मन के हाथ ले सत्ता ल नंगा के जे मन सही सेवा - चाकरी करथे, अपन मेहनत अउ ईमानदारी ले आगू बढ़े रहिथे, अउ जेमन सिरिफ पद - पइसा अउ पदवी के घमंड म बूड़े दूसर संग हमेसा घेक्खरई अउ अपमान करे कस गोठ करथें ते मन कभू ककरो सेवा नई करे सकयं, अइसन मन सेवा के नांव म सिरिफ पाखण्ड करथें ते मन कभू ककरो सेवा नई कर सकयं। अइसन मन सेवा के नांव म सिरिफ पाखण्ड कर सकथें, ऐकर ले जादा कुछु नहीं। तुमन राजनीति अउ सासन - सत्ता ल सेवा के माध्यम बनाना चाहथौ त सिरिफ उही आदमी मन ला सत्ता म बइठारौ जे मन सेवा - चाकरी करत आगू बढ़े हें।
पढ़ंता बाबू गाँव म कोनो किसम के काम - बुता होथे तिहां अवस के जाथे, पत्रकार होए के सेती पेपर म खभर भेजे के बुता ह घलो सिध पर जाय, फेर गाँव वाले मन संग मेल- जोल के कारज घलो पूरा हो जाय। वोला जानबा रिहिसे के आज मसानघाट म मुक्तिधाम के बुता चालू होवइया रिहिसे ऐकरे सेती बिहिनिया ले पूजा - पाठ करे के बाद सइकमा भर बासी झड़किस तहां ले मसानघाट आगे। इहां देखिस त काम - बुता चालू नइ होय राहय। बुता करहया मन ऐती - तेती रूख राई के छंइहा म बइठे राहयं। कोतवाल ल देख के वोहर मेहतरू अउ बुधारू खड़े राहय तेने कोती आइस, तहां ले पूछिस - कइसे कोतवाल, मुक्तिधाम के काम अभी ले कइसे चालू नई होए हे, काल तो तंय हंाका पारे रेहे हस आज बिहनिया ले काम चालू हो जाही कहिके ?
- काला बताबे बाबू, देखना सरपंच अभी ले आय नईये।''
- कइसे आय नईये, वोला जुड़ - खांसी धर ले हे का ?''
- नहीं, अइसन नोहय।''
- त अउ कइसन ये ... सरकारी पइसा के अनपचक धर लेहे का ?''
- टार बाबू तंय अतेक पढ़े - लिखे होके कइसे - कइसे गोठियाथस ग ...।''
- मंय बने ल गोठियाथौं कोतवाल ... अपन के मेहनत अउ सत ईमान के पइसा ह पचथे ... ऐती - तेती के पइसा म अनपचक होबे करथे, चाहे वोमा पेट - पीठ पिरावय चाहे मती छरियावय ... लड़ई - झगरा अउ देखिक - देखा के रस्ता निकली जाथे।''
पढंता बाबू के गोठ म धंधमंदाय कोतवाल ल आखिर कहना परिस - हां, ठेकेदार संग वइसने उंचहा भाखा व गोठ तो होवत रिहिसे ...।''
- देख मंय केहेव न, जरूर चार सौ बीसी के खेल होवत हे ... भगवान जानय अइसन मनखे मन ला तुमन कब तक मुड़ी म लादे रइहौ ते ... आज देस ल अजाद होए तीन कोरी बछर ले जादा होगे हे, सरकार ह साल के साल तुंहरे जइसन गरीब - गुरबा मन के बिकास खातिर सउहंत खजाना ल खोल देथे, फेर आज तक वो खजाना के सुख समरिधि ह तुंहर मन के घर - कुरिया म नइ हमा पाए हे ... आखिर कब चेत चघही तुंहर ... अरे तुंहर नही ते तुंहर लोग लइका मन के भविस ल तो सोचौ ...।''
रोजी के चुकई अउ घाम के तपई म बुधारू के मति थोकिन तीपे सहीं होगे रिहिसे, वो कहिस - सहीं काहत हस बाबू ... अइसने आदमी मन के सेती हमन आज तक पिछड़े अउ गरीब - गुरबा बने हावन, तोर कहे एकक बात ह सत ये। अब अवइया बेरा म तोरे असन मनखे के हाथ मं गाँव के मरजाद अउ विकास के रस्ता ल सौंपबो।''
मेहतरू घलो वोकर संग हां म हां मिलाइस, तहां ले कोतवाल घलो वोकरे कोती संघरगे, फेर तो मसानघाट म जुरियाए जम्मों मनखे देखते - देखत पढ़ंता बाबू के रंग म रंगगे।
- रिक्शा स्टेण्ड, रायपुर (छग)
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