- समीक्षक - आचार्य बालचंद्र कछवाहा
गुण्डाधुर अमिधेय, डॉ. रामकुमार बेहार की यह नयी खण्डकाव्य - सर्जना, महाकान्तार - निवासी आदिवासियों की स्वछंद जीवन शैली, धार्मिक वृत्ति, सरलता एवं प्रज्वलित देशभक्ति के भावों की समालंकृत चित्र शाला तो है ही, यह उनके गौरवपूर्ण किन्तु विस्मृत इतिहास की पुनसर्जना भी है। इतिहास के सत्य और कवि के सत्य का रमणीय कलात्मक, सामंजस्य इस कृति की रचनात्मकता का श्लाघनीय वैशिष्टय है।
आचार्य बेहार मूलत: इतिहासकार हैं किन्तु उनकी मनीषा और ह्रïदय कविता की उर्वर भूमियां हैं। कल्पना की समाहार - शक्ति से वे इतिहास को पुराण में बदल देते हैं। इनकी रचनाएं रसाद्र ही नहीं बल्कि लोक मंगल की आराधना की बाग्वैश्वरी हैं।
प्रस्तुत कृति का समारंभ काकतीयों एवं वनवासियों की अधिष्ठात्री देवी दंतेश्वरी की आराधना से हुआ है। प्रेम, भक्ति, शक्ति और समृद्धि की देवी दंतेश्वरी आदिवासियों की कल्याणिनी मां है। कवि ग्रंथ की पूर्णता के लिए देवी की प्रार्थना करतें हैं। शांत रस से परिपूर्ण काव्यारंभ निश्चय ही आनंद विधायक है। डॉ. बेहार ने दण्डकारण्य के प्राकृतिक वैभव और नयनाभिराम सौन्दर्य का भी सुंदर चित्रण किया है। इन्द्रावती बस्तर की जीवन रेखा है। इस नदी के प्रति आदिवासियों की भक्ति और श्रद्धा भी अपार है। इस महाकान्तार, मंदाकिनी के प्रति कवि के ह्रïदय में श्रद्धा और भक्ति का पवित्र प्रवाह है। कवि ने महावन के और द्वापर युगीन गौरव को भी स्मरण किया है। इस कृति के महानायक की महागाथा के विन्यास में बस्तर की प्रकृति का अत्यंत मूल्यवान अवदान है।
योजना गुण्डाधुर के चरित्र को संवारने के लिए कवि ने सहायक पात्रों की भी सफल सृष्टि की है। बस्तर राजवंश दीवान पंडा बैजनाथ और नुसरब खॉं, प्रति नायक की भूमिका में शोषण और अत्याचार के प्रतीक हैं। अल्पवयस्क राजा को अनीति की ओर ले जाकर अंग्रेजों का वफादार बनाने में दीवान सफल रहता है। राजमाता विवश लाचार हैं। गुण्डाधुर के शैशव का चित्रण कृति में नहीं हुआ है, परंतु युवावस्था में एक स्वाभिमानी, स्वातंत्र्य प्रिय नायक के रूप में उसके व्यक्तित्व के आरोहण की प्रेरक स्थितियों का काव्य में प्रभूत वर्णन किया गया है। गुण्डाधुर के मन और प्राणों में क्रांति चेतना का विकास उसकी माता कके द्वारा सुनाई गई गाथाओं से हुआ, साथ ही राजमाता और कालिन्दर ने भी उसे क्रांति पथ पर सर्वस्व समर्पण के लिए प्रेरित किया। इन सबके अतिरिक्त दण्डकारण्य की प्रकृति ने भी गण्डाधुर के व्यक्तित्व को सजाया और संवारा।
महात्मा गांधी ने 09 अगस्त 1942 को अंग्रेजों भारत छोड़ों का नारा दिया और भारतीय अवाम को उन्होंने करों या मरो का संदेश दिया। गीता से अनुप्रमाणित इस महावाक्य ने भारतीयों को निर्भय नहीं बनाया बल्कि उन्हें क्रांति ज्वाला के रूप में प्रज्जवलित भी कर दिया और फिर भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति खतरे में पड़ गई। इसके पूर्व फरवरी 1910 में ही गुण्डाधुर ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का शंख फूंक दिया था। गुण्डाधुर के निर्भय, निर्मल चरित्र ने समूचे बस्तर को गहराई से प्रभावित किया और उन्होंने अंग्रेजों के अन्याय का प्राणोत्सर्ग करके प्रतिरोध किया। अंग्रेजों के अभिमान रथ का चक्का बस्तर में धंस गया और स्वतंत्रता के सूर्योदय में मानसिक स्वतंत्रता के सूर्योदय में दण्डकारण्य जाग उठा। इतिहास, आगे चलकर गुण्डाधुर के महान कार्यों को किस तरह रेखांकित करता है यह भविष्य के गर्भ में हैं। परन्तु डॉ. बेहार ने मातृभूमि के लिये सर्वस्व समर्पण करने वाले गुण्डाधुर की महागाथा रच कर बस्तर और वहां के निवासियों की गौरवगाथा को प्रकाश में लाकर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। कविता की नई शैली में अभिव्यक्त गुण्डाधुर आख्यान से भी परिपूर्ण है, विकास है, कथा के सूत्र को आचार्य बेहार फैलाएंगे और सतरंगी कल्पनाओं का जाल बिछाकर इस लम्बी कविता को खंडकाव्य के रूप में विकसित करेंगे। इस कृति की मूल संवेदना वीर रसात्मक है, करूण और श्रृंगार आदि रसों की उदभावना कर कवि इस कृति को अधिकाधिक रसमय बनाने में सफल हुए हैं।
आचार्य बेहार मूलत: इतिहासकार हैं किन्तु उनकी मनीषा और ह्रïदय कविता की उर्वर भूमियां हैं। कल्पना की समाहार - शक्ति से वे इतिहास को पुराण में बदल देते हैं। इनकी रचनाएं रसाद्र ही नहीं बल्कि लोक मंगल की आराधना की बाग्वैश्वरी हैं।
प्रस्तुत कृति का समारंभ काकतीयों एवं वनवासियों की अधिष्ठात्री देवी दंतेश्वरी की आराधना से हुआ है। प्रेम, भक्ति, शक्ति और समृद्धि की देवी दंतेश्वरी आदिवासियों की कल्याणिनी मां है। कवि ग्रंथ की पूर्णता के लिए देवी की प्रार्थना करतें हैं। शांत रस से परिपूर्ण काव्यारंभ निश्चय ही आनंद विधायक है। डॉ. बेहार ने दण्डकारण्य के प्राकृतिक वैभव और नयनाभिराम सौन्दर्य का भी सुंदर चित्रण किया है। इन्द्रावती बस्तर की जीवन रेखा है। इस नदी के प्रति आदिवासियों की भक्ति और श्रद्धा भी अपार है। इस महाकान्तार, मंदाकिनी के प्रति कवि के ह्रïदय में श्रद्धा और भक्ति का पवित्र प्रवाह है। कवि ने महावन के और द्वापर युगीन गौरव को भी स्मरण किया है। इस कृति के महानायक की महागाथा के विन्यास में बस्तर की प्रकृति का अत्यंत मूल्यवान अवदान है।
योजना गुण्डाधुर के चरित्र को संवारने के लिए कवि ने सहायक पात्रों की भी सफल सृष्टि की है। बस्तर राजवंश दीवान पंडा बैजनाथ और नुसरब खॉं, प्रति नायक की भूमिका में शोषण और अत्याचार के प्रतीक हैं। अल्पवयस्क राजा को अनीति की ओर ले जाकर अंग्रेजों का वफादार बनाने में दीवान सफल रहता है। राजमाता विवश लाचार हैं। गुण्डाधुर के शैशव का चित्रण कृति में नहीं हुआ है, परंतु युवावस्था में एक स्वाभिमानी, स्वातंत्र्य प्रिय नायक के रूप में उसके व्यक्तित्व के आरोहण की प्रेरक स्थितियों का काव्य में प्रभूत वर्णन किया गया है। गुण्डाधुर के मन और प्राणों में क्रांति चेतना का विकास उसकी माता कके द्वारा सुनाई गई गाथाओं से हुआ, साथ ही राजमाता और कालिन्दर ने भी उसे क्रांति पथ पर सर्वस्व समर्पण के लिए प्रेरित किया। इन सबके अतिरिक्त दण्डकारण्य की प्रकृति ने भी गण्डाधुर के व्यक्तित्व को सजाया और संवारा।
महात्मा गांधी ने 09 अगस्त 1942 को अंग्रेजों भारत छोड़ों का नारा दिया और भारतीय अवाम को उन्होंने करों या मरो का संदेश दिया। गीता से अनुप्रमाणित इस महावाक्य ने भारतीयों को निर्भय नहीं बनाया बल्कि उन्हें क्रांति ज्वाला के रूप में प्रज्जवलित भी कर दिया और फिर भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति खतरे में पड़ गई। इसके पूर्व फरवरी 1910 में ही गुण्डाधुर ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का शंख फूंक दिया था। गुण्डाधुर के निर्भय, निर्मल चरित्र ने समूचे बस्तर को गहराई से प्रभावित किया और उन्होंने अंग्रेजों के अन्याय का प्राणोत्सर्ग करके प्रतिरोध किया। अंग्रेजों के अभिमान रथ का चक्का बस्तर में धंस गया और स्वतंत्रता के सूर्योदय में मानसिक स्वतंत्रता के सूर्योदय में दण्डकारण्य जाग उठा। इतिहास, आगे चलकर गुण्डाधुर के महान कार्यों को किस तरह रेखांकित करता है यह भविष्य के गर्भ में हैं। परन्तु डॉ. बेहार ने मातृभूमि के लिये सर्वस्व समर्पण करने वाले गुण्डाधुर की महागाथा रच कर बस्तर और वहां के निवासियों की गौरवगाथा को प्रकाश में लाकर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। कविता की नई शैली में अभिव्यक्त गुण्डाधुर आख्यान से भी परिपूर्ण है, विकास है, कथा के सूत्र को आचार्य बेहार फैलाएंगे और सतरंगी कल्पनाओं का जाल बिछाकर इस लम्बी कविता को खंडकाव्य के रूप में विकसित करेंगे। इस कृति की मूल संवेदना वीर रसात्मक है, करूण और श्रृंगार आदि रसों की उदभावना कर कवि इस कृति को अधिकाधिक रसमय बनाने में सफल हुए हैं।
- पूर्व अध्यक्ष, पं. सुन्दरलाल शर्मा,
शोधपीठ पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय सुन्दर नगर, रायपुर (छग.)
सवालों को नया परिवेश देती ग़ज़लें
सवालों को नया परिवेश देती ग़ज़लें
- समीक्षक - कुबेर
शायर की आत्मस्वीकृति है कि मैं ऐसी शायरी को जियादा पसंद करता हूं, जिसमें भारतीय संस्कृति सांस लेती है और जिस शायरी में अपने दौर के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक हालात के साथ - साथ भरपूर रचनात्मकता हो और यह भी कि मैं शायरी को शायर की तसकीन के सामान से जियादा किसी रचनाकार का बुनियादी सामाजिक फर्ज समझता हूं ... मैं आम आदमी को एक दोस्त की तरह समझना चाहता हूं और उसे शातिर राजनेताओं से बचाना चाहता हूं।
ये न सिर्फ शायर की आत्मस्वीकृतियाँ हैं बल्कि अपने रचनाकर्म के लिए खुद के द्वारा बनाये गये पैमाने भी हैं, ऐसे सार्वजनिक, सार्वभौम पैमाने जो किसी भी शायर किसी भी अदीब के लिए अनिवार्य हैं।
अपनी मारक क्षमता और गागर में सागर भर देने की सामर्थ्य के लिहाज से दोहों और ग़ज़लों का कोई जवाब नहीं है। गजल का संरचनात्मक सौन्दर्य भी अपने आप में विलक्षण होता है। प्रत्येक शेर का अपना अलग निज़ाम और नज़ाकत होते हुए भी आंतरिक दृष्टि से सभी आपस में गुंथे हुए होते हैं। इसी से शायद यह संप्रेषणीयता की तरलता, सरलता, सहजता और असीमता प्राप्त करती है। इस संग्रह में शायर ने इसका बखूबी निर्वाह किया है।
इस संग्रह में शायर बहुत कुछ पूछता है, बहुत कुछ कहता है। वही बातें कहते हैं जिसे हजारों सालों से दरवेश और मलंग कहते आ रहे हैं और जिसे कबीर और गालिब ने भी कही है।
शायर को पता है कि इस दुनिया से अलग और कहीं, कोई दुनिया नहीं है। इसीलिये वह इसी दुनिया में रहकर नई दुनिया,बेहतर दुनिया बनाने की बात कहता है। हालांकि उन्हें असीम पीड़ा है कि -
नहीं होना था, ऐसा हो गया है।
मेरा शहर, सहरा हो गया है।
सारी दुनिया को सहरा और दलदल में तब्दील होते चुपचाप देखना शायर की फितरत नहीं है। वह ऐसा नहीं होने देने के लिए भरपूर कोशिशें करता है। वह नाउम्मीद भी नहीं है। उन्हें पक्का यकीन है कि दुनिया की सूरतेहाल एक दिन जरूर बदलेगी क्योंकि मोहब्बत और इन्सानियत से बड़ी ताकत इस दुनिया में और कुछ नहीं है। वे कहते हैं -
न दीवारों से कुछ मतलब,
न सरहद अपनी राहों में,
मोहब्बत के उजाले से,
नया नक्शा बनाते हैं।
000
हमारे बाद भी जिंदा रहेंगे ख्वाब रियाज,
हमारे ख्वाबों का रिश्ता आदमी से है।
शायर ने इस दुनिया को सहरा और दलदल में तब्दील करने वालों की अच्छी तरह शिनाख्त भी कर ली है और उन्हें बेनकाब करते हुए कहीं इशारों में तो कहीं खुलेआम कहते हैं कि -
मुहब्बत उठ गई हिन्दुस्तां से,
कि अब तिरशूल - भाला बोलता है।
000
इधर आओ मंजिल मिलेगी इधर,
सभी रास्ते झूठ कहते हैं।
इसी बहाने वे जमाने वालों से बेहिसाब सवाल भी पूछते हैं। कुछ बानगी देखिये -
रब की बातें रब ही जाने,
मौलाना फरमाते कुछ हैं।
( मौलाना की बातों में फर्क क्यों हैं ? )
000
जितने खुदा हैं, सबने मिलकर,
बांट ली अपनी - अपनी दुनिया।
( कितने खुदा हैं ? सबकी अलग - अलग दुनिया क्यों हैं ? )
000
जुल्म जो ढाता है, उसको मेहरबां कहते हैं सब।
( कौन सी मजबूरी है ? )
उजाले सहमे - सहमे से, डरे से,
अंधेरे को कोई खटका नहीं है।
(अंधेरा बेखौफ क्यों है ?)
000
रास्तों के फेर में, हर कोई मंजिल से दूर है।
( रास्तों का यह फेर क्यों ? )
000
कहना था कुछ, कहते कुछ हैं,
शहर में ऐसे साये कुछ हैं।
( ये किसके साये हैं ? )
गांव से शहर आने वाला कुछ ही दिन में शहर में रहकर बेचेहरा क्यों हो जाता है ?
कोई भी उजाला मुकम्मल उजाला होता नहीं, अंधेरा भी कोई मुकम्मल होता नहीं है। हर उजाले के पीछे अंधेरे की चंद लकीरें जरूर होती है। और हर अंधेरे के भीतर रोशनी की चंद शुआएँ भी जरूर होती है। शायर इनकी भी शिनाख्त करता है और कहता है -
भरोसा करें तो किस पर करें
अंधेरे गलत और उजाले गलत।
शायर की नज़रें इतनी बेहतर है कि वे अंधेरे के भीतर भी झांक लेते हैं। उनकी संवेदनाएं इतनी गहन है कि वे सन्नाटों के भीतर छिपी शोर भी सुन लेते हैं और कहते हैं -
सिर्फ सन्नाटे शोर करते हैं,
चीखने वाले मर गये होंगे।
और शायद इसीलिए आज सच्चा चुप है, और झूठ बोलता है। संग्रह की ग़ज़लें बहुत कुछ पूछती हैं और बहुत कुछ कहती भी हैं। दुनिया के बारे में, दुनिया में रहने वालों के बारे में, दुनिया की रहनुमाई करने वालों के बारे में । और इसी कश्मकश में शायर सन्नाटों के भीतर छिपे शोर के बारे में और वर्तमान परिदृष्य में अपने सवालों को और शब्दों को नया अर्थ, नया विस्तार और नया परिवेश भी देता है।
ग्राम - भोढि़या,जिला - राजनांदगांव (छग)
ये न सिर्फ शायर की आत्मस्वीकृतियाँ हैं बल्कि अपने रचनाकर्म के लिए खुद के द्वारा बनाये गये पैमाने भी हैं, ऐसे सार्वजनिक, सार्वभौम पैमाने जो किसी भी शायर किसी भी अदीब के लिए अनिवार्य हैं।
अपनी मारक क्षमता और गागर में सागर भर देने की सामर्थ्य के लिहाज से दोहों और ग़ज़लों का कोई जवाब नहीं है। गजल का संरचनात्मक सौन्दर्य भी अपने आप में विलक्षण होता है। प्रत्येक शेर का अपना अलग निज़ाम और नज़ाकत होते हुए भी आंतरिक दृष्टि से सभी आपस में गुंथे हुए होते हैं। इसी से शायद यह संप्रेषणीयता की तरलता, सरलता, सहजता और असीमता प्राप्त करती है। इस संग्रह में शायर ने इसका बखूबी निर्वाह किया है।
इस संग्रह में शायर बहुत कुछ पूछता है, बहुत कुछ कहता है। वही बातें कहते हैं जिसे हजारों सालों से दरवेश और मलंग कहते आ रहे हैं और जिसे कबीर और गालिब ने भी कही है।
शायर को पता है कि इस दुनिया से अलग और कहीं, कोई दुनिया नहीं है। इसीलिये वह इसी दुनिया में रहकर नई दुनिया,बेहतर दुनिया बनाने की बात कहता है। हालांकि उन्हें असीम पीड़ा है कि -
नहीं होना था, ऐसा हो गया है।
मेरा शहर, सहरा हो गया है।
सारी दुनिया को सहरा और दलदल में तब्दील होते चुपचाप देखना शायर की फितरत नहीं है। वह ऐसा नहीं होने देने के लिए भरपूर कोशिशें करता है। वह नाउम्मीद भी नहीं है। उन्हें पक्का यकीन है कि दुनिया की सूरतेहाल एक दिन जरूर बदलेगी क्योंकि मोहब्बत और इन्सानियत से बड़ी ताकत इस दुनिया में और कुछ नहीं है। वे कहते हैं -
न दीवारों से कुछ मतलब,
न सरहद अपनी राहों में,
मोहब्बत के उजाले से,
नया नक्शा बनाते हैं।
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हमारे बाद भी जिंदा रहेंगे ख्वाब रियाज,
हमारे ख्वाबों का रिश्ता आदमी से है।
शायर ने इस दुनिया को सहरा और दलदल में तब्दील करने वालों की अच्छी तरह शिनाख्त भी कर ली है और उन्हें बेनकाब करते हुए कहीं इशारों में तो कहीं खुलेआम कहते हैं कि -
मुहब्बत उठ गई हिन्दुस्तां से,
कि अब तिरशूल - भाला बोलता है।
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इधर आओ मंजिल मिलेगी इधर,
सभी रास्ते झूठ कहते हैं।
इसी बहाने वे जमाने वालों से बेहिसाब सवाल भी पूछते हैं। कुछ बानगी देखिये -
रब की बातें रब ही जाने,
मौलाना फरमाते कुछ हैं।
( मौलाना की बातों में फर्क क्यों हैं ? )
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जितने खुदा हैं, सबने मिलकर,
बांट ली अपनी - अपनी दुनिया।
( कितने खुदा हैं ? सबकी अलग - अलग दुनिया क्यों हैं ? )
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जुल्म जो ढाता है, उसको मेहरबां कहते हैं सब।
( कौन सी मजबूरी है ? )
उजाले सहमे - सहमे से, डरे से,
अंधेरे को कोई खटका नहीं है।
(अंधेरा बेखौफ क्यों है ?)
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रास्तों के फेर में, हर कोई मंजिल से दूर है।
( रास्तों का यह फेर क्यों ? )
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कहना था कुछ, कहते कुछ हैं,
शहर में ऐसे साये कुछ हैं।
( ये किसके साये हैं ? )
गांव से शहर आने वाला कुछ ही दिन में शहर में रहकर बेचेहरा क्यों हो जाता है ?
कोई भी उजाला मुकम्मल उजाला होता नहीं, अंधेरा भी कोई मुकम्मल होता नहीं है। हर उजाले के पीछे अंधेरे की चंद लकीरें जरूर होती है। और हर अंधेरे के भीतर रोशनी की चंद शुआएँ भी जरूर होती है। शायर इनकी भी शिनाख्त करता है और कहता है -
भरोसा करें तो किस पर करें
अंधेरे गलत और उजाले गलत।
शायर की नज़रें इतनी बेहतर है कि वे अंधेरे के भीतर भी झांक लेते हैं। उनकी संवेदनाएं इतनी गहन है कि वे सन्नाटों के भीतर छिपी शोर भी सुन लेते हैं और कहते हैं -
सिर्फ सन्नाटे शोर करते हैं,
चीखने वाले मर गये होंगे।
और शायद इसीलिए आज सच्चा चुप है, और झूठ बोलता है। संग्रह की ग़ज़लें बहुत कुछ पूछती हैं और बहुत कुछ कहती भी हैं। दुनिया के बारे में, दुनिया में रहने वालों के बारे में, दुनिया की रहनुमाई करने वालों के बारे में । और इसी कश्मकश में शायर सन्नाटों के भीतर छिपे शोर के बारे में और वर्तमान परिदृष्य में अपने सवालों को और शब्दों को नया अर्थ, नया विस्तार और नया परिवेश भी देता है।
ग्राम - भोढि़या,जिला - राजनांदगांव (छग)
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