- रमेश कुमार शर्मा

मुर्गी-मुर्गा प्रात: की सूर्य रश्मियों से सर्वप्रथम अमिभूत होकर बांग द्घारा आम दुनिया को जगाने की कोशिश करते हैं। यह अलग बात है कि कितने जागते हैं? और कितने ही नहीं, उठ जाग मुसाफिर भोर भई... और जागो मोहन प्यारे... के बाद भी। समाज में लेखक सबसे संवेदनशील प्राणी होता है जो जमाने की हर घटनाओं में सुख-दु:ख की तलाश कर उसे शब्दबद्घ करते हुए समाज के सम्मुख साहित्य रूपी दर्पण में दिखाने की कोशिश करता है। कुछ लोग समाज को दर्पण में देखकर वाह-वाह और आह-आह करते हैं तो कुछ को दर्पण से भय भी लगता है, पता नहीं सामने क्या दिख जाये? वैसे खुद को दिखे तो चलेगा लेकिन पड़ोसी को वह भयानक चेहरा न दिख पाए तो अच्छा रहेगा। वैसे भी उजड़े चमन के लोगों को आइने से नफरत ही होती है क्योंकि इनकी बंजर भूमि में उपज की गुंजाइश नहीं रहती।
विज्ञान के इस आधुनिक युग में मुर्गियों की कई किस्मे है-देशी,विदेशी,पोल्ट्री फार्म एवं सोने की अण्डे देने वाली मुर्गियाँ। इसी के समकक्ष लेखकों की भी प्रजातियाँ हैं- हिन्दी, अंग्रेजी, भाषायी लेखक, कवि, हाइकुकार, कहानीकार स्तंभ लेखक, स्वतंत्र लेखक, देशी एवं शासकीय लेखक आदि-आदि। इनमें देशी टाईप के लोग सर्वाधिक ताकतवर होते है. जिनकी सिर्फ जीवाश्मीय प्रजाति उपलब्ध हैं। कुछ किस्मों के जीवाश्म भी गला फाड़कर कफन से बाहर निकलते हुए कभी-कभी अपनी उपस्थिति का एहसास कराते रहते हैं।
अण्डे देने की प्रक्रिया में मुर्गा-मुर्गी और पोल्ट्री फार्म के मालिक का पूरा-पूरा योगदान होता है। एक आम आदमी को जिंदगी के पति-पत्नि और वो की तरह। वो के चाहने पर मुर्गी अण्डे नहीं देती है जैसे यौवन समाप्ति सुंदरता की डर से अति आधुनिकाएं अपनी संतानों को स्तनपान नहीं कराती। वो के ही इशारे पर चूजे, अण्डों में ही दम तोड़ देती हैं, कन्या भू्रण हत्या की तरह। खतरनाक अपराधियों का सरगना है- वो। इस वो की सूरत कुछ-कुछ हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों से मिलती है। इनकी एक सी इच्छाएं, क्रियाएं - गब्बर, मोगेम्बो और शाकाल की तरह। अपनी पत्र-पत्रिकाओं में ये लोग बकायदा विज्ञापन देकर प्रकाशनार्थ रचनाएं आमंत्रित करते है अपनी-अपनी शर्तों के अधीन। लेखक बिचारा मुर्गी जो ठहरा, अण्डा देना जैसी फितरत हो। थक हारकर भेज ही देता है अपनी रचनाएं, प्रकाशनार्थ निवेदन के साथ। फिर ताकते बैठा है प्रकाशित होगी कि नहीं? अस्वीकृत - स्वीकृत या बिना किसी सूचना के कर दिया जाएगा उसका गर्भपात ?
पता नहीं कब अण्डे से चूजे निकलेगे ? अण्डे कब बिकेगें ? कुछ रूपए आएंगे या नहीं ? संपादकीय तंदूर वैसे भी सब कुछ स्वाहा करने के लिए पर्याप्त होता है। संपादकीय तानाशाही की अपनी अलग जमात एवं कानून है, जहाँ पूरे एक नंबर से खुले आम सबके सामने वह लेखक के खून - पसीने की मेहनत पर उसके प्रकाशित होने की भूख की आग पर रोटी सेंकता है और उसे इसका कोई मतलब नहीं होता, उस पर तुर्रा यह कि पाठक - लेखक, सदस्य, प्रतिनिधि और विज्ञापनदाता भी आप ही रहेंगे। वो आपका सर्वस्व लूटकर चूसे हुए आम की गुठली की तरह फेंक देता है। कुछ वो लोग आकर्षक बनाए रखने थोड़ा - थोड़ा चारा पारिश्रमिक के रूप में बीच - बीच में डालते रहते हैं।
कलम उठाना, लिखना छपवाना, पढ़ाना, बंटवाने की तपस्या एक लेखक को हर बार जिंदगी देता है। हर बार वह मरता है और फिर जी उठता है - ईसा की तरह। बार - बार के प्रसव से उसकी कलम नयी नयी धारदार रचनाएं पैदा करते - करते खोखली हो जाती हैं। पता नहीं इन लेखकों को बर्ड फ्लू क्यों नहीं हो जाता ? ऐसा कुछ वर्ग जरूर सोचता होगा। यदि ऐसा हो जाए तो यह वर्ग खुले आम नंगाई कर सड़कों पर आतंक का कहर ढायेंगे जो आज साहित्यिक दर्पण से डरे हुए हैं।
अण्डे देते - देते अंतत: दोनों हलाक कर दिए जाते हैं वो की भूख मिटाने और फिर तलाश शुरू होती है - नई मुर्गियों की। सारी दुनिया बाद भी वो का चेहरा नहीं बदला। मुर्गियों एवं लेखकों का शोषण करने के लिए वो ने बकायदा लाइसेंस भी ले रखा है। लेखक रचनाकार जमात सदैव दड़बों में ही कैद रहेंगे जाने कब तक ?ï काश ये लोग सुन सकते कार्ल मार्क्स की आवाज - सारी दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ की तर्ज पर रचनाकार सारे एकत्र होते और बांध सकते बिल्ली के गले में घंटी और फिर देखे कि किस वो और किस फकीर की ताकत है जो खा सके अण्डे। आपकी मेहनत एक दिन जरूर रंग लाएगी। आखिरकार पारिश्रमिक रायल्टी पर कब तक नागराज कुण्डली मारे बैठे रहेगा। आइए हम सब एक होकर अपनी मेहनत के अण्डे से चूजे निकालकर उसे स्वतंत्र रूप से जीवन जीने दें।
- जे पी रोड, बसना (छग)
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