- इब्राहीम कुरैशी -
जग की तृष्णा रोज - रोज आके हमें सताए बाबा।
दुर्जन हैं चहुँ ओर में इनसे कोई बचाए बाबा।।
छुपकर बैठे हैं हत्यारे यहां राहों में चौराहों में,
पथिकों की प्रतीक्षा करते शस्त्र छुपाए बाहों मे।ं
मंजिल को हम कैसे पहुंचे कोई हमें बताए बाबा।।
जितना रोकूं उतना बढ़ता मन में जग का आकर्षण,
यौवन बीत गया ये मुझको याद दिलाता हर दर्पण।
कुछ ऐसा प्रबंध करो ये फिर न कभी सताए बाबा।।
संबंधों के सेतु रचते जीवन अक्सर जाता बीत,
और विदा की बेला में क्या गाएं बासंती गीत?
वो सागर क्या जिसमें कोई सरिता आ न समाए बाबा।।
गहरे उतरें सागर में तो मोती मिल सकते हैं,
संकल्प करें तो सहरा में भी फूल खिल सकते हैं।
आशा ही हममें जीने का नव विश्वास जगाए बाबा।।
पता - स्टेशन रोड, महासमुंद [छ.ग.]
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