- ज्ञानेन्द्र साज
मन को खुशी दे ऐसा सामान नहीं कोई।
है इससे भी जि़यादा हैरत की बात कोई
अरबों की आबादी में इन्सान नहीं कोई।
वीरानगी का अपनी क्या जिक्र करें हम भी
दिल है उदास बस्ती, मेहमान नहीं कोई।
औरों के ही कांधों पे लदे हुए हैं सब ही
अब आदमी की अपनी पहचान नहीं कोई।
इस दौरे सियासत में पैसे की हवस इतनी
सब लूट में लगे हैं, नादान नहीं कोई।
मां - बाप बुजुर्गी में अब गैर हो गए हैं
अपने ही घर में उनका सम्मान नहीं कोई।
आमदनी एक रूपया खर्चा है तीन रूपया
इस दौर में जीना भी आसान नहीं कोई।
रहबर तमाम भटके, रहजन ही बन गए हैं
अब इनकी रहजनी में व्यवधान नहीं कोई।
हर ओर बेईमानी हर चीज में मिलावट
अब शेष किसी में भी ईमान नहीं कोई।
भक्तों की पुकारों पर अब आए भी तो कैसे
ऐ साज अब तो लगता है भगवान नहीं कोई।
- संपादक - जर्जर कश्ती,17/212, जयगंज, अलीगढ़
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