
- जितेन्द्र ' जौहर '
देव ! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।
सच्चाई के पथ पे मानव,
चलने से सकुचाता है।
अन्यायी की कारागृह में,
न्याय बड़ा अकुलाता है।
दुर्दिन की रजनी का चहुँदिशा, दिखता प्रसृत घेरा है।
देव ! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।
खुद अपनी ही $कबर खोदता,
खड़ा मनुज निज हाथों से।
फूलों का सीना ज़ख्मी है,
अपने सोदर काँटों से।
राजनीति ने कैनवास पर, कैसा चित्र उकेरा है ?
देव ! आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।
दिशाहीन यूँ देश कि जैसे,
तरणी तारणहार बिना।
चूल्हे मकड़ी के क्रीडाँगन,
प्रजा सुपालनहार बिना।
सर्दी - गर्मी- वर्षा ऋतु में, अम्बर तले बसेरा है।
देव ! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।
हिंसा, भ्रष्ट्राचार, लूट,
घोटालों के अंधे युग में।
राजहंस आँसू टपकाएँ
काग लगे मोती चुगने।
अंधकार के कुटिल जाल में, उलझा हुआ सवेरा है।
देव ! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।
- आई आर - 13 / 6 रेणुसागर सोनभद्र (उ.प्र.) 231218
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