- विट्ठल राम साहू 'निश्छल'
भरे - भरे सब खेत खार हे मुसकावत हे साँझ॥
अँगना म तुलसी हाँसे, बरसा गाये गीत।
डोहड़ू फूल मगन होगे, आगे मोर मनमीत॥
धीरे - धीरे गाँव के, सबो खेत होगे लीलाम।
परलोखिया सहर होगे, नउकरी हे न काम॥
दिन - दिन बदलत जात हे, लोगन के बेवहार।
तईहा ल बईहा लेगे, रीसता तीज - तिहार॥
बिसनी बासन मांजथे, नॉगर जोताय बलराम।
दाई बेटा के भाग म, इही लिखे हे काम॥
कहां खोजव आज मैं वो बुढ़ुवा बर के छाँव।
अपन गोदी म बइठारे जउन, धर के दुनों बाँह॥
मोल कोनो नई जाने गा, पीरा हे अनमोल।
बिते काल गवाही हे, का जानही गा भूगोल॥
अब न ये मोर घर लगे, न मोर मयारूक गाँव।
मया पिरीत नई हे इहाँ, चल मया पिरीत के ठाँव॥
मन कहिथे अब महूँ लिखैं, एक ठन अइसे किताब।
सुख - दुख के आखर जिंहा, मिलजुर करय हिसाब॥
निश्छल ये जग म आ के, करनी कर ले नेक।
अपन बर तो सबो जीथे, पर बर जी के देख॥
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