राजेश जगने ' राज '
(1)
दर्द मैं उधार चाहता हूं
थोड़ा नहीं, बेशुमार चाहता हूं
जख्मों के गुलिस्तां में दर्द का
बनाना मैं मज़ार चाहता हूं
जिन हाथों में ईबादत के छाले हैं
तड़प का वहां दरबार चाहता हूं
बदन के पुर्जों पर जब दर्द नवाजेगा
मजलूम आँसुओं की बौछार चाहता हूं
दर्द में कयामत और कायनात है
राज दर्द का मैं तलबगार चाहता हूं।
(दो)
जिन्दगी तैरती मौत के समंदर में
जिन्दा लाश देखा जनाजे सफर में
दफ़न हो गये वो तमाम इंसा
फरिश्ते मिले भी तो कबर में
जीवन के अर्थों को अर्थी में रख
रूखसत हो जायेंगे आखरी डगर में
खुदा न फरिश्ता बन नेक इंसा
गुनगुनायेंगे गजल गॉव - शहर में।
स्टेशन पारा, सोली खोली, राजनांदगांव (छ.ग.)
जिन्दा लाश देखा जनाजे सफर में
दफ़न हो गये वो तमाम इंसा
फरिश्ते मिले भी तो कबर में
जीवन के अर्थों को अर्थी में रख
रूखसत हो जायेंगे आखरी डगर में
खुदा न फरिश्ता बन नेक इंसा
गुनगुनायेंगे गजल गॉव - शहर में।
स्टेशन पारा, सोली खोली, राजनांदगांव (छ.ग.)
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