- श्रीमती रवि रश्मि अनुभूति -
एक घर में रहकर भी अजनबी थे हम तुम
हर हाल में मुझ से कमतर थे जी तुम।
हमको ठाठ से रहना तुमको न रास आया
मेरा अस्तित्व न जाने तुमको क्यों न भाया।
कुछ न होकर भी सातवें आसमां पर सिर था
पास होकर भी लगा दिल मुसाफिर था।
कटुता से हृदय कलुषित था तुम्हारा
हृदय तोड़ा तुम ने बार - बार हमारा।
तंग आ गए हम तुम्हारी बेहुदगी के मारे
जुबां से अपनी तुम ने उगले सदा अंगारे।
नारी की मान मर्यादा की रक्षा का करके दावे
जुबां से तुने ही अपनी उगले रोज अंगारे।
इस तरह भला जिंदों को कोई मारता है
अपना कुकृत्य क्या तुम्हें नहीं कभी सालता है।
प्यार करते हो गर किसी से उसी के हो के रहो
चाहत की छाँव में सदा दोनों ही जीते रहो।
- पता - 9 - बी, नालंदा, अणुशक्ति नगर, मुंबई - 400094
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