कृपाशंकर शर्मा ' अचूक'
दुहराने जो आज लगे सब उसी कहानी को।
चला कबीरा देखो फिर से, पीने - पानी को॥
शब्द हठीले समझ सके न मन की बातों को,
पथराई आँखें अब देखें नित उत्पादों को,
शपथ निरर्थक हुई बुराई मिली जवानी को।
चला कबीरा देखो फिर से, पीने - पानी को॥
करते साधन हीन साधना नई सदी पाने,
गुमशुम कहीं - कहीं पर रहते खुद से अनजाने,
चक्रवात से कौन छुड़ाए, राजा रानी को।
चला कबीरा देखो फिर से, पीने - पानी को॥
अचरज यह कैसी निठुराई अपनी लाचारी,
नदियां सूखीं रेत उड़ रहा विपदाएं भारी,
परिवर्तन तो अटल सदा से , पानी धानी को।
चला कबीरा देखो फिर से, पीने - पानी को॥
हुई विभाजित मन की रेखा मकड़ी जाल बना,
वक्रदृष्टि ने घर में घुस के किया अपना काम,
नश्तर चुभते रहें रात - दिन अब तो ज्ञानी को।
चला कबीरा देखो फिर से, पीने पानी को॥
- 38 ए, विजयनगर, करतारपुर, जयपुर
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