- कृपाशंकर शर्मा 'अचूक'
सूरज भोर दोपहर में रोज होत बे - हाल
मास वर्ष सदियाँ सभी सोए चादर तान
सागर मन मदहोश है पल में उठे उफान
मन का मृग फिरता फिरे स्मृतियों संग रोज
शनै: शनै: जीवन चले, पड़ी अधूरी खोज
सांसे कूड़े ढेर पर करतीं करूण पुकार
वादों की बोतल चढ़ी तन सब कोन्हा छार
कई पड़ावे देखकर शंका शंकित होत -
मृग मरीचिका में फॅसा जन निज जीवन खोत
तितली से तितली मिली करे दुखित हो बात
फूल सभी निष्ठुर दिखे भूल गए औकात
उड़ते - उड़ते थक गया पंछी का समुदाय
चले बसेरा करेंगे थोड़ी दूर - सराय
इस बइरे संसार की रीति नीति पहचान
सुबह शाम नित खींचता इक दूजे के कान
तन बेचा मन बिक गया, नहीं वाणी का मोल
सुर सारे बे - सुर लगें, कहे ढोल की पोल
वाणी में संयम नहीं संतो पद नहीं नेह
उन घर जम डेरा करे नहीं कुछ भी संदेह
एक विधाता एक है सरयू एक ही नीर
मन अनेक अनुभव करें बिना मारे मरजात
यह गति जाने संत ही मंद - मंद मुस्कात
कौन यहाँ दीखे सुखी कौन यहाँ पर मस्त
कारण रहित अचूक हैं अब तक सारे व्यस्त
- 38 ए, विजयनगर, करतारपुरा, जयपुर 302006
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