- सुनील कुमार ' तनहा ' -
जब से गिद्धों की बस्ती में धावा बोल रहे हैं।
काँप रही है धरती सारी पर्वत डोल रहे हैं।।
आकर इक शोला ने फेंका, मस्तक पर चिंगारी।
भीतर का यह तोप सुलगकर करने लगा बमबारी।।
अब तो सारे खूनी पंजे, राख बनेंगे जलकर।
दु:साहस करने वालों को, रख देंगे हम तलकर।।
अब अपने अस्तित्व का, हम होना तोल रहे हैं।
काँप रही है धरती सारी, पर्वत डोल रहे हैं।।
सुनो - सुनो ओ तूफानों के, तेज नहीं अब इतराना।
ताकत है फैलादी अपनी, नहीं भूल से टकराना।।
हुनरमंद हम अपने हित में, मौसम को भी साधेंगे।
तिनकों से हम बने डोर हैं, जिसको चाहे बांधेंगे।।
अब सदियों की दासता का, बंधन खोल रहे हैं।
काँप रही है धरती सारी, पर्वत डोल रहे हैं।।
ओ काँटों को बोने वालों, नींद चैन की सोने वालों।
छोंड़ भागो यह सेज सुमनमय, स्वर्णिम सपन संजोने वालों।।
देखो सूरज की किरणों ने लाया नव संदेश।
समवेत स्वरों में उद्घोषित है समता का परिवेश।।
निर्भय होकर गर्जन करके अब हम बोल रहे हैं।
काँप रही है धरती सारी, पर्वत डोल रहे हैं।।
तुम सफल यज्ञ का श्रेय लिये, हम पशु बलि के बने रहे।
हम सदा नींव में धंसे रहे, तुम शिखर पुरूष बन तने रहे।।
एक पारस ने हमको छुआ, खुद को तब पहचाना है।
हम ही असली कंचन है, ओ कीचड़ तुम्हें बताना है।।
अनमोल हैं, अनमोल रहेंगे, हम अनमोल रहे हैं।
काँप रही है धरती सारी, पर्वत डोल रहे हैं।
पता - पुष्पगंधा प्रकाशन, राजमहल चौक, कवर्धा, (छ.ग.) मो. 9893741944
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