कवि नंदूलाल चोटिया भले हमारे बीच नहीं रहे परन्तु वे अपनी रचनाओं की बदौलत आज भी हमारे बीच हंै। नंदूलाल चोटिया एक ऐसे व्यक्ति थे जो लाग लपेट से सदैव दूर रहे। वे सच बोलते वक्त यह कभी नहीं सोचे कि उनके कथन का किस पर क्या असर होगा। वर्ष 1992 में अर्थात आज से सत्रह वर्ष पूर्व राजनांदगांव से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र सबेरा संकेत के दीपावली विशेषांक में उनकी लौ शीर्षक से प्रकाशित एक रचना प्रस्तुत है।
- नन्दूलाल चोटिया
आज दिये की लौ पर हमले
हिलती दिखती है दीवारें
दिये हटाएं, खुद हट जाएं
किसे बचाएं, किसे पुकारें॥
इससे तो बचपन अच्छा है
अब भी टिकुली फोड़ रहा है
हम सपनों से दूर भागते
वो सपनों को जोड़ रहा है॥
भय से कांप रही है बाती
एक जलाए, एक बुझाए
किस रस का हम नाम इसे दें
एक हंसाए, एक रुलाए॥
कहते हैं जब राम अयोध्या
आये थे तब दिये जले थे
मिली ज्योति से ज्योति और वे
बिछुड़े भाई, गले मिले थे॥
आज अयोध्या जाने से भी
जाने कैसा डर लगता है
भाई से भाई डरता है
अवध पराया घर लगता है॥
आज दीवाली है संस्कृति का
अर्थ पराया मत होने दो
आज दिये की लौ, जगने दो
इसको नई ज्योति बोने दो॥
हिलती दिखती है दीवारें
दिये हटाएं, खुद हट जाएं
किसे बचाएं, किसे पुकारें॥
इससे तो बचपन अच्छा है
अब भी टिकुली फोड़ रहा है
हम सपनों से दूर भागते
वो सपनों को जोड़ रहा है॥
भय से कांप रही है बाती
एक जलाए, एक बुझाए
किस रस का हम नाम इसे दें
एक हंसाए, एक रुलाए॥
कहते हैं जब राम अयोध्या
आये थे तब दिये जले थे
मिली ज्योति से ज्योति और वे
बिछुड़े भाई, गले मिले थे॥
आज अयोध्या जाने से भी
जाने कैसा डर लगता है
भाई से भाई डरता है
अवध पराया घर लगता है॥
आज दीवाली है संस्कृति का
अर्थ पराया मत होने दो
आज दिये की लौ, जगने दो
इसको नई ज्योति बोने दो॥
राजनांदगांव (छ.ग.)
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