- ज्ञानेन्द्र साज
बरसों पहले हुई जुदाई की,
आज फिर दिल को याद आई थी।
साजिशें ही रची तबाही की,
दोस्ती इस तरह निबाही की।
वो ही मुंसिफ है वो ही फरियादी,
कौन सुनता है बेगुनाही की।
नजर अंदाज करके अच्छाई,
उन्होंने हर जगह बुराई की।
काट जब पर दिये सभी उसने,
परिन्दों की तभी रिहाई की।
दाग दिल पर लगे रहे कितने,
जिस्म की रोज ही सफाई की।
वह उसी बात से मुकर बैठा,
बात उसने ही जो बताई थी।
भरी महफिल में साज की उसने,
सजा के तौर पे रूस्वाई की।
सम्पादक - जर्जर कश्ती (मासिक),एम आई जी - 61,
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,मो . - 9411800023
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