- समीक्षक - डॉ. जीवन यदु -
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1.'' भले ही मैं आपकी नज़रों में गिर जाऊँ, लेकिन क्रिकेट के विषय में सार्वजनिक चर्चा करके शायद दूसरों की नज़रों में देश - भक्तों की श्रेणी में शामिल हो सकूं। ''
2.'' उन्होंने कहा - बेटा, तू उल्लू उद्योग लगा ले। आजकल यह उद्योग काफी फल - फूल रहा है। बहुत सारे लोग इस उद्योग को कर रहे हैं। कोई धर्म के नाम पर, कोई राजनीति के नाम, तो कोई ज्योतिष के नाम पर और कोई - कोई गरीबी, भूखमरी, बेकारी मिटाने के नाम पर और बहुत जल्दी करोड़पति बनने के नाम पर।''
3. '' आम आदमी की नाराज़गी पर सख्त प्रतिबंध है। इसके लिए सरकार से विशेष परमिशन लेनी पड़ती है।'' 4. '' भगवान किसी को चाहे जो भी बनाए, पर बेरोजगार मत बनाए।''
5. '' केवल यही क्षेत्र (नेतागिरी का) ही एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें शिक्षा का कोई महत्व नहीं। यहाँ अनपढ़ या अल्प शिक्षित व्यक्ति भी ऊंचे ओहदे पा सकता है। नहीं तो, चपरासी तक के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता चाहिए।''
6.'' लगता है पूरा बाजार ही विज्ञापन की नींव पर टिका है। छूट और महाहंगामा सेल विज्ञापन की दो मजबूत बाहें हैं।''
7.'' जब मंहगे सूट के साथ गंडे - ताबीज हमारी शोभा बढ़ती है, तब हमारा वैज्ञानिक - दृष्टिकोण परिलक्षित होता है।''
8.'' उदारीकरण के दौर में राजनैतिक स्वतंत्रता चाहने वाले लोग आर्थिक गुलामी पसंद करते हैं।''
9.'' जब बकरों में हलाल होने की प्रतिस्पर्धा हो, तब कसाइयों का बाजार - मूल्य बढ़ेगा ही।''
10.'' फिर उसने मुझे एक बहुत सुन्दर खाट दिखाते हुए बताया - यह आजादी की खाट है। मैंने देखा उस खाट में बहुत ज्यादा खटमल पनप गए थे।''
11.'' टी.वी. के संक्रमण से महानगरीय संस्कृति गाँवों में अपना पाँव पसार रही है। देर रात तक टी.वी. से चिपके रहना और दिन चढ़ते तक सोना आजकल सभ्यता की निशानी होने लगी है।''
12.'' जब से व्ही.आई.पी. लोगों को जूता दिखाने या उनकी ओर जूते उछालने की छिटपुट घटनाएँ घटित होने लगी है, तब से मैं जूता से आतंकित रहने लगा हूं। इसका महत्वपूर्ण कारण है कि ऐसे अवसरों पर न्यूज चैनलों के लिए सारे राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय समाचार गौण हो जाते हैं और जूता कांड ही मुख्य। .... दर्शकों को दिन भर जूते दिखाते रहते हैं। ''
लीजिए, मैंने वीरेन्द्र ' सरल' को सरल ढंग से मैदान में उतार दिया। मैदान में उतरने की अब मेरी बारी है। इन अंशों को पढ़ने से यह स्पष्ट हो गया होगा कि प्रस्तुत लेखक का दृष्टिकोण क्या है? लेखक की चेतना अपने आसपास की चीजों को लेकर जागरुक है और उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी जानता है - बिलकुल बेबाक। यही वह गुण है, जो किसी व्यक्ति को लेखक बनने की दिशा में प्ररित करने का काम करता है। और नहीं तो व्यक्ति को एक सही और जिम्मेदार नागरिक बनाता ही है। वीरेन्द्र का हाथ अपने समय की नब्ज़ पर है और नज़र देश - दुनिया की बदली हुई या बदलती हुई स्थितियों पर।
आज का युग बाज़ार - युग है। बाजार के प्रभाव से कोई अछूता नहीं। चाहे राजनीति हो, धर्म हो या संस्कृति हो- सब पर बाज़ार का प्रभाव स्पष्ट है। क्रिकेट का खेल कभी गोरे किसानों के ग्राम्य - जीवन का खेल हुआ करता था और जिसे बाद में च् सभ्य ज् लोगों का खेल कहा जाने लगा। यद्यपि खिलाड़ियों के बीच हाथा - पाई या गालियां चलती रहती हैं, तथापि वह सभ्यों का खेल है। आज वह बाज़ार का खेल हो गया है। खेल बिकने लगा है, महिमा - मंडित खिलाड़ी बिकले लगे हैं। बाजार में खरीद - फरोख़त के सिवा और क्या होता है? न जाने कौन से ग्रह नक्षत्र में इस खेल से राष्ट्रीय भावना भी जुड़ गई। इसे देश के च् मरने - जीने ज्का प्रश्न बना दिया गया है। हजारों कि.मी. दूर चौका - छक्का लगता है और इधर वाह की आवाज निकल जाती है। जिन्दाबाद के नारे लगने लगते हैं। उधर अपना कोई खिलाड़ी आउट हुआ, इधर ' हाय - हाय ' होने लगता है। हार पर टी. व्ही. बॉक्स तोड़ दिए जाते हैं, हृदयाघात भी हो जाता है। इस खेल के अपने भगवान हैं और अपने नायक। यह सब बाज़ार की माया है, बाज़ार की करतूत है। वीरेन्द्र ने इसे बखूबी पकड़ा है। बाजार और बाजारवाद पर उनकी कई तीखी टिप्पणियां हैं।
बाज़ार के नए - नए विज्ञापनों ने मनुष्य को वीरेन्द्र के नज़रिए से देखे तो हलाल होने के लिए उत्सुक च् बकरा ज् बना दिया है। एक विद्वान ने बाजारवाद के जाल में फँसे मनुष्य को च् उपभोक्ता - पशु की संज्ञा दी है। उसे ही वीरेन्द्र ने बकरा कहा है। अज - प्रजाति का पशु बिना सोचे - समझे कहीं भी मुँह मारने लगता है। सब कुछ उसे चारा दिखाई देता है। वह भूल जाता है कि ऐसा करके वह स्वयं चारा बन रहा है। ' उदारीकरण ' की अंतिम परिणति ' आर्थिक - गुलामी ' ही है। इस पर भी वीरेन्द्र की तीखी टिप्पणी है। युवा - रचनाकार जब ऐसे गंभीर मामलों पर अपनी गंभीर सोच को लेखबद्ध करते हैं तो आशा बंधती है - लेखन और देश दोनों के भविष्य के प्रति।
देश की आजादी के बाद बहुत सारे नए दृश्य बने - राष्ट्रीय स्तर पर। लेखक की उन पर सतत नज़र है। हर क्षेत्र में शोषक - जमात का वर्चस्व हो गया। आम आदमी को विकास का उतना ही हिस्सा मिलता है, जो उस जमात की हथेलियाँ से रिस - रिस कर जमीन पर गिर जाता है। दूर से अथवा ऊपरी तौर पर देखने से आम - आदमी की स्थिति गुलामी के दौर की तुलना में अच्छी दिखती है। लेकिन आजादी के मल से उत्पन्न शोषक मलासुरों की स्थिति की तुलना में कण बराबर नहीं है आमजन की स्थिति। ऐसी तुलना करने पर आम जन के मन में आजादी को लेकर निराशा पैदा होती है या ' आजादी की खाट में पलने वाले खटमल के प्रति नाराजगी? ' यहीं पर वीरेन्द्र की बड़ी सटीक टिप्पणी है। उनका कहना है कि आम आदमी सत्ता की विशेष परमिशन के बगैर ' नाराज ' नहीं हो सकते। यदि होते हैं तो वह अवैध माना जाएगा। यानि आपका हक भी आपके हक में नहीं है। आपके ' हक ' को सरकार चाहे तो उपहार में दे सकती है। कैसी विडंबना है।
एक तरफ यह स्थिति है और दूसरी तरफ देश के हर क्षेत्र में ' उल्लू उद्योग ' धड़ल्ले से चल रहा है। राजनीति, धर्म - संस्कृति आदि क्षेत्रों में ' उल्लू बनाओ ' यज्ञ में ' लूटम - लूट ' का सतत् मंत्रपाठ चल रहा है। आज जो नई समस्या पैदा होगी, उस पर कल एक नया उल्लू उद्योग शुरु हो जाएगा। पहले आपके अंदर उल्लू बनने की तृष्णा पैदा की जाएगी। यह भी बाजारवाद की शाखा है। ऐसे उद्योग के लिए राजनीति और धर्म सबसे अच्छी जमीन हैं। उर्वरा जमीन है। वीरेन्द्र का कहना है कि राजनीति में किसी शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं। अपढ़ और अल्पशिक्षित भी पढ़े लिखों पर राज कर सकता है। बशर्ते की उन्हें लोगों को उल्लू बनाने की कला आती हो, आम को इमली और इमली को गन्ना सिद्ध करने में कुशल हो, दबंग हो, बातूनी हो आदि। जो गुण धर्म के क्षेत्र में बाबा बाजी के लिए आवश्यक है, वे ही गुण राजनीति के क्षेत्र में नेतागिरी के लिए जरुरी है। अभिनय की कला में दोनों को पारंगत होना पड़ता है इसीलिए दोनों क्षेत्रों के लोगों को अपने - अपने क्षेत्रों में नट (खट) राज होना ही है। हमारे देश में - धर्मक्षेत्र में नए - नए बाबाओं का उदय हो रहा है। अरबों की कमाई है इस क्षेत्र में। यदि आपमें एकाध टी.व्ही. चैनल खरीदने का सामर्थ्य हो या चैनल का मालिक टी.पी.आर. बढ़ाने के चक्कर में आप पर मेहरबान हो गया हो तो आप रातों रात देश - स्तर के बाबा बन सकते हैं। वंदनीय और प्रात: स्मणीय हो सकते हैं। आपकी बकवास को लोग ज्ञान समझेंगे। चाहे तो आप रातों - रात बीच चौराहें पर मंदिर खड़ा कर दीजिए। कौन बोलेगा? जो बोलेगा, वह अधर्मी समझा जाएगा। मारा जाएगा मुफ्त में। टी.व्ही. और लक्ष्मी का गहरा संबंध है। यदि टी.व्ही. चैनल की मेहरबानी हो गई, लक्ष्मी जी धन - वर्षा करने में पीछे नहीं रहेगी। टी.व्ही. उल्लू का आधुनिक संस्करण है।
टी.व्ही. की बढ़ती लोकप्रियता ने मनुष्य की जीवन - शैली ही बदल के रख दी है। यह आदमी के पास च्सभ्यज् होने का प्रमाण - पत्र है। वीरेन्द्र कहते हैं कि टी. व्ही. ने गाँव और महानगरीय जीवन - शैली को एकमेव कर दिया है। देर रात जगने और सुबह देर से उठने वाली जीवन - शैली। यदि कोई जीवंत प्रसारण चल रहा हो (जो की रोज चलता है ) तो लोग उसे देर तक देखना पसंद करते हैं। हिंसा को मनोरंजन में बदल देना टी.व्ही. के बांये हाथ का खेल है। ' जूता - काण्ड ' के दृश्य को इतनी बार दिखाया गया कि यदि हकीकत में वह घटना उतनी बार घटे तो जूता खाने वाला व्यक्ति स्वर्ग सिधर जाए। इन मनोरंजन - प्रिय टी.व्ही. संस्कृति ने लोगों पर ऐसा जादू किया कि लोग अपनी सारी समस्याएं भूल गए। बढ़ती महँगाई और नव जवान पीढ़ी की बेरोजगारी पर किसी का ध्यान नहीं। कभी जब जादू टूटता है तो सरकार - विरोधी एकाध नारा लगाकर, पुन: मनोरंजक कार्यक्रम की प्रतीक्षा में टी.व्ही. के आगे बैठ जाते हैं। रोगी - मानस सोचता है कि जो समस्या है, वह उसकी अपनी नहीं है, पड़ोसी की है,किसी दूसरे की है। वह उस पर क्यों सोचे? जो समस्याग्रस्त है, वे सोचे, उसके दुख से मेरा क्या वास्ता? अब दुख सामाजिक या सामुहिक नहीं रहा, व्यक्तिगत भर रह गया है। कैसी घटिया सोच विकसित हो रही है समाज में। संवेदना का ऐसा ह्रास शायद कभी नहीं हुआ।
देश में विचारों का अजीब घालमेल हो गया है। जो खुद को वैज्ञानिक - दृष्टि से लैस समझते हैं, वे अधिक से अधिक पाश्चात्य - पंथी हो जाना चाहते हैं, लेकिन पुराणपंथ की डोर हाथ से छूट नहीं रही है। यह भ्रमित दृष्टिकोण है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं। वे सूट - बूट के साथ गंडे - ताबीज भी पहनते हैं। वीरेन्द्र का व्यंग्य इन पर भी है।
अभी वीरेन्द्र का व्यंग - लेखन पूरी तौर पर परवान नहीं चढ़ा है, लेकिन चढ़ेगा जरुर। उन्होंने अपने प्रथम संग्रह से ही विश्वास दे दिया है। लाइन पकड़ ली है। विश्लेषण - परक दृष्टि है। समाज को देखने का अपना साफ नजरिया है। अभी वीरेन्द्र के लेखों में हास्य की प्रधानता है। कहीं - कहीं ऐसा भी हुआ है कि हास्य के तेज - प्रवाह में व्यंग के छीटें भर पढ़ते प्रतीत हुए हैं। इसे व्यंग - लेखन के क्षेत्र में अच्छी स्थिति नहीं मानी जाती। देखना यह होगा कि व्यंग लेखन हास्य का मुहताज न हो। व्यंग लेखन में हास्य के छीटें सुखद लगते हैं। यदि व्यंग हास्य के आश्रित होकर आता है तो व्यंग की धार बोथरी हो जाती है। इन सबके बावजूद, इतना तो स्वीकार किया जाएगा कि वीरेन्द्र ' सरल ' में लेख को बुनने की जबरदस्त कला है। वे समयानुकूल दृश्य बनाते चलते हैं। पाठक को ऐसा लगता होगा कि वह कोई चलचित्र देख रहा हो। यदि दृश्य को उभारने में संवाद - शैली आवश्यक लगती है, तो वे संवादों की निर्मिति करते हैं।
वीरेन्द्र ' सरल ' के लेखन में दो ऐसी बातों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया, जिस पर कुछ लिखना आवश्यक लगता है। प्रथम यह कि वीरेन्द्र स्वप्न बहुत देखते हैं। संग्रह के अधिकांश लेखों में लेखक ने स्वप्न देखे हैं। शायद यह लेखक की शैली हो। यानि सपनों के माध्यम से यथार्थ को कह देना। यह ठीक है, किन्तु इससे शैलीगत दुहराव आता है। पाठक लेख की समाप्ति से पहले समझ जाता है कि लेखक अब सपने से जागेगा और लेख समाप्त हो जाएगा। दूसरी बात, वीरेन्द्र ने लगभग लेखों में पात्रों के नाम रखे हैं। पूरी पुस्तक में इतने नाम हैं कि उन नामों की एक लम्बी सूची बन सकती है। मुझे शिकायत पात्रों के नाम होने से नहीं है। शिकायत है तो इस बात को लेकर कि वे नाम पात्रों के चरित्र को शुरु में ही खोल देते हैं। पात्रों के चरित्र पात्रों के क्रियाकलाप से खुलना चाहिए। यदि हम शुरुवाती दौर के हास्य लेखकों या व्यंगकारों के लेखों को देखें तो इस शैली के नमा यदा - कदा दिखाई देते हैं। बाद में बालकथा लिखने वालों ने इसे अपनाया था। लेकिन गंभीर सोच वाले लेखों में सत्यनाशी ' निराश', अशुभचंद ' ' निर्दयी' परजीवी लाल जैसे नाम अगंभीरता पैदा करते हैं। अब ऐसे नामों से न हास्य पैदा और न व्यंग। ऐसे नाम बच्चों के कॉमिक्स में ही ठीक लगते हैं।
वीरेन्द्र ' सरल' ने कहीं -कहीं सूत्र वाक्य या सूत्र - पद की भी रचना की है। इससे एक नया भाषायी मुहावरा भी बनता है। यथा पढ़ा - लिखा शानदार बेरोजगार, या छाती भ्रष्टाचार की तरह तन गई या आराम से हॉफने लगा। इन सूत्र वाक्यों या पदों की अलग से व्याख्या की जा सकती है। व्यंग लेखकों के पास एक बड़ी सुविधा यह होती है कि वे भाषा में व्यंजनात्मकता का खुल कर प्रयोग कर सकते हैं, भाषायी मुहावरे गढ़ सकते हैं। कभी - कभी तो ऐसे सूत्र - पद ही लेखक की पूंजी बन जाते हैं।
अच्छे लेखों को चिन्हाकिंत किया जाना चाहिए। च् जंगल में चुनाव ज् एक अच्छी व्यंग - कथा होते - होते रह गया। आज के समाज में शेर और तेंदुआ चरित्रधारी लोगों का हृदय परिवर्तन किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। अगर होगा भी तो वह रचना के लिए वर्ग - चरित्र नहीं बन सकता। पहले हृदय परिवर्तन की घटना गाँधीवादी लेखकों में अधिक दिखाई देती थी। आज की स्थिति तो यह है कि खूंखार चरित्र वाले व्यक्ति का हृदय निकाल करके दूसरा हृदय लगा दिया जाए, तो भी उसका चरित्र नहीं बदल सकता। फिर भी ' जंगल में चुनाव ' अच्छा व्यंग है। रावण की आत्मा, मुद्दे की बात, उल्लू उद्योग, गरीबी रेखा, खतरनाक हड़ताल, सम्मान की चाह अच्छे लेख हैं।
वीरेन्द्र ' सरल' की कुछ लेखों की बुनावट में कहानी की बुनावट का प्रभाव है। वे अच्छी व्यंग कथा लिख सकते हैं। वीरेन्द्र की एक और अच्छी बात - उनकी भाषा है, जो जलधारा की तरह कलकल बहती है। उन्होंने समाज को एक अच्छी पठनीय पुस्तक दी है। व्यंग रचना - संसार उनका बाट जोह रहा है।
पुस्तक का नाम - कार्यालय तेरी अकथ कहानी
( व्यंग्य संग्रह)
लेखक - वीरेन्द्र ' सरल '
मूल्य - 295 /-
- प्रकाशक -
यश पब्लिकेशन्स
1/ 10753 गली नं. - 3 सुभाष पार्क
नवीन शाहदरा, नियर कीर्ति मंदिर
दिल्ली - 110032
- पता - '' गीतिका '' दाऊ चौरा, खैरागढ़ , जिला - राजनांदगांव (छ. ग. )

- समीक्षक - यशवंत मेश्राम -
पुस्तक दो भागों में विभाजित है, संस्मरण और निबंध। संस्मरण खण्ड - (में लेखक ने) उत्पादन संबंधों में नवीन परिवर्तन, मुद्दों को उठाकर मंडल की तुलना मार्टिन से की है। कालों ने संघर्ष की लौ बुझने नहीं दी। शूद्रों हेतु ही नहीं, संपूर्ण भारतीयों के लिए अंबेडकर जीवन भर लड़ते रहे, और एक सीमा तक मानवीय अधिकार दिलाने में सफल भी रहे। वे इस युद्धभूमि में अकेले रह गये। सामाजिक गुलामी का मुद्दा उठाकर फ्रांसिस हार्पर के संकल्पों को यादव जी ने स्वीकार किया है - मुझे वहाँ दफन करना जहाँ कोई गुलाम नहीं । (पृ. 20) इसे, वर्तमान संदर्भ में मनरेगा को लेकर प्रश्न उठता है - रोजगार का अधिकार मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं तो गुलामी ही तो होगी? क्या कहा जाय! मंडल विरोध में कमंडल हुआ? यादव मार्क्सवाद प्रतिबद्ध हैं तो भारतीय मार्क्सवादियों के समक्ष धर्म-अफीम का कोई ईलाज है? या उनके द्वारा दिया गया।
संस्मरणों में एस.सी., एस.टी., ओ.बी.सी. हेतु मजबूत अगुआ की तलाश में दिखाई देते हैं, रामचन्द्र यादव जी; जरूरी भी है। पूर्व संघर्षकर्ताओं की मूर्तियों पर मात्र माल्यार्पण करने से कुछ नही होगा! उनके संघर्षों को व्यवहारिकता में तब्दील करने पर ही सामाजिक न्याय (हासिल हो) पायेंगे। आखिर पिछड़ों के साहित्य का मुल्यांकन तो हुआ ही नहीं? (32) शास्त्र-शस्त्र संघर्ष मजबूत करेगा, पर होना तो अहिंसक ही चाहिए? श्रमशोषक ही सामाजिक शोषक हैं। सर्वोत्तम उदाहरण निजी कंपनियाँ हैं। ' इस बदलते मौसम में ' यही उजागर हुआ है।
जब नस्लगत मतगणना में अमेरिका में बवाल नहीं तो जातिगत भारतीय जनगणना से भय क्यों? उत्तर इसी किताब में मिलेगा। (पृ.39, 40) गरीबों को निर्वाण नही, अधिकार निर्माण चाहिए। (पृ.42) रामचन्द्र शुक्ल जी ' उत्साह ' निबंध में सामाजिक उत्साह पचा गये! (पृ.44) सामाजिक उत्साह के लिए जाति-धर्म को निपटाना ही पड़ेगा। (पृ. 46) इसकी कमी से शिक्षाधिकार में 45 प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा में बालक-बालिकाओं को अयोग्य बना दिया। कैसा शिक्षा का अधिकार? सार्थक परिणाम क्यों नहीं मिला? तब शिक्षक और शिक्षा कैसी हो? इसका उत्तर बखूबी देते हैं यादव जी। सुकरात का कथन कोड है - '' शिक्षक वही है जो व्यक्ति को नई आत्मा के जन्म देने में दाई का, मिडवाईफ का काम करे।'' इस भाग में परंपरा-रूढ़ी मापदण्ड तोड़ते मिलेंगे यादव जी। विशेष कर अंतिम संस्मरण ' शहीद शंकर ' में।
निबंध खण्ड में, जो साहित्य रचना समसामयिक धारा में मनुष्य को खड़ा नहीं करती; धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक विषमता देती है; उसे बोझ की तरह ढोना कोई औचित्य प्रदान नहीं करता। (पृ. 59) धार्मिक साहित्य इतना प्रभावित है कि एटम बम आदि के निर्माण को रोक नहीं सका। नये साहित्यिक मापदण्ड की आवश्यकता नहीं। साहित्यिक मुल्यांकनकर्ता की अपेक्षा पाठकीय मुल्यांकन वास्तविक है। प्रेमचंद ने आधे समीक्षकों को साहित्यिक गुण्डापन कहा ही था।
आखिरकार कुछ ही घरानों में पूँजी सिमट गई? इसके चलते संवैधानिक अधिकारों के रहते हुए भी मनुष्य विकास नहीं कर पा रहा है। ' मार्क्स की साम्यवादी व्यवस्था में अंबेडकर को हिंसा का आक्रामक रूप मिला ' (पृ. 68), अनुचित लगता है। साम्यवादी भी कारखानों में अस्पृश्यों से भेदभावपूर्ण व्यवहार रखते थे। डॉ. यादव का निष्कर्ष - समाज में ज्ञान व श्रम अलग-थलग पड़ गये, (पृ. 71) अनुचित लगता है। यादव जी जाति व संघर्ष को एक मानते हैं। साम्यवादियों की यही जबरदस्त भूल है। ' पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है।' (परसाई जी) भारतीय साम्यवादियों ने कभी जाति-संघर्ष को महत्व नहीं दिया। उनका मजदूर आंदोलन भी 6 प्रतिशत औद्योगिकीकृत लेबरों के लिये जूझ रहा है।जीवन संघर्षों पर लिखा साहित्य कैसे बाजारवादी साहित्य हो सकता है? समाज-प्रशासन द्वारा नारी प्रताड़ित है ही। अर्थहीन स्थापित मान्यताओं और मरे हुए मूल्यों तले सामाजिक न्याय साहित्य में मिलना दुर्लभ है। साहित्य किस समाज का दर्पण है? भारत का किंवा इण्डिया का? रामायण-महाभारत की उचित समीक्षा कर निष्कर्ष निकाला गया - '' बहुसंख्यक लोगों के जीवन का वर्णन ही नहीं तो वह साहित्य कैसे श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में आयेगा? '' (पृ.85) तो निश्चित ही नये सौंदर्य साहित्य मापदण्ड निर्मित होने ही चाहिए।
भाषा पर भी सुतर्क है। रूस, चीन, जापान, फ्रांस ने अपनी भाषा में ज्ञान-तकनीकी का विकास किया तो हम उधारी की भाषा से क्यों चारचांद लगाते हैं? उधारी के बने या बनाये अधिकारी ही उधारी भाषा पर अवलंबित रहते है। मैला आँचल का उदाहरण - '' आदमी की ऊपरी आमदनी ही असली आमदनी है।'' जो श्रम करे जमीन उनकी तो नहीं होती। स्पष्ट है, फूट डालो राज करो, अंग्रजों की नहीं देशीय परंपरा का ही घी है जिसे अंग्रजों ने खूब चाँटा। '' आधी आबादी नैतिकता ढोते हुए थक गई।'' मतलब आचार-विचार सहित सर्वांगीण विकास उत्तम होगा न कि विकास ढिंढोरा पीटने से।
साहित्य अपने समय का विशुद्ध इतिहास होता है, मात्र दर्पण ही नहीं। इन्हीं उद्देश्यों को लेकर पुस्तक पठनीय-संग्रहणीय है।
पुस्तक का नाम - इस बदलते मौसम में
( संस्मरण एवं निबंध )
मूल्य - 100/-रू.
- प्रकाशक -
वातायन,
अयोध्या अपार्टमेंट
, बोर्ड आफिस के सामने
फ्रेजर रोड, पटना - 800001
- पता - शंकरपुर, वार्ड नं. 7, गली नं. 4, राजनांदगाँव, (छ.ग.) पिन 491441
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