- आलोक तिवारी -
तुम कहो और मैं चुप रहूं,
ऐसा तो नहीं होता है।
प्रथम रात्रि ही मांगो मुझसे मेरे अक्षत होने का प्रमाण
खुद जीवन पर्यन्त तुम अप्रमाणित रहो
ऐसा तो नहीं होता है।
मैं लगाऊं सिन्दूर पहनू मंगल सूत्र
सुहाग के चिन्ह और तुम आजीवन
अचिन्हित रह जाओ ऐसा तो नहीं है।
भरी सभा में स्वजन मुझे तार - तार कर दे
और मैं कृष्ण से विलाप करु ऐसा तो नहीं है।
मैं तुम्हारे लिये करु आजीवन अपने आँखों में अंधेरा
गंधारी सी और तुम मेरे सतित्व को
परखने मुझे अग्रि में चलवाओ राम सा ऐसा तो नहीं होता है।
मैं स्व:र्स्फुत हूं ना कि अहिल्या सी जड़ जो तुम मुझे पैरों से
छू के चैतन्य करो ऐसा तो नहीं होता है।
तुम अकेले जाओ जंग के मोर्चे में इतिहास में अमर होने के लिए
और मैं तुम्हारी याद में शोक गीत गाऊ ऐसा तो नहीं होता है।
मैं स्त्रीयोचित लज्जा के नाम पे गड़ी - गड़ी जाऊ
तुम पुरूषोचित विरता पे दम भरो ऐसा तो नहीं होता है।
संख्या और शक्ति में मैं तुम्हारे आधे के बराबर
और तुम मेरा संपूर्ण अस्तित्व ही नकारो
ऐसा तो नहीं होता।
तुम कहो और मैं चुप रहूं
ऐसा तो नहीं होता।
- पता - रत्ना निवास, पाठक वार्ड, कटनी (म.प्र.)
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