इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख : साहित्य में पर्यावरण चेतना : मोरे औदुंबर बबनराव,बहुजन अवधारणाः वर्तमान और भविष्य : प्रमोद रंजन,अंग्रेजी ने हमसे क्या छीना : अशोक व्यास,छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति का पर्व : हरेली : हेमलाल सहारे,हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली : अंकुुर सिंह एवं निखिल सिंह, कहानी : सी.एच.बी. इंटरव्यू / वाढेकर रामेश्वर महादेव,बेहतर : मधुसूदन शर्मा,शीर्षक में कुछ नहीं रखा : राय नगीना मौर्य, छत्तीसगढ़ी कहानी : डूबकी कड़ही : टीकेश्वर सिन्हा ’ गब्दीवाला’,नउकरी वाली बहू : प्रिया देवांगन’ प्रियू’, लघुकथा : निर्णय : टीकेश्वर सिन्हा ’ गब्दीवाला’,कार ट्रेनर : नेतराम भारती, बाल कहानी : बादल और बच्चे : टीकेश्वर सिन्हा ’ गब्दीवाला’, गीत / ग़ज़ल / कविता : आफताब से मोहब्बत होगा (गजल) व्ही. व्ही. रमणा,भूल कर खुद को (गजल ) श्वेता गर्ग,जला कर ख्वाबों को (गजल ) प्रियंका सिंह, रिश्ते ऐसे ढल गए (गजल) : बलबिंदर बादल,दो ग़ज़लें : कृष्ण सुकुमार,बस भी कर ऐ जिन्दगी (गजल ) संदीप कुमार ’ बेपरवाह’, प्यार के मोती सजा कर (गजल) : महेन्द्र राठौर ,केशव शरण की कविताएं, राखी का त्यौहार (गीत) : नीरव,लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की नवगीत,अंकुर की रचनाएं ,ओ शिल्पी (कविता ) डॉ. अनिल कुमार परिहार,दिखाई दिये (गजल ) कृष्ण कांत बडोनी, कैलाश मनहर की ग़ज़लें,दो कविताएं : राजकुमार मसखरे,मंगलमाया (आधार छंद ) राजेन्द्र रायपुरी,उतर कर आसमान से (कविता) सरल कुमार वर्मा,दो ग़ज़लें : डॉ. मृदुल शर्मा, मैं और मेरी तन्हाई (गजल ) राखी देब,दो छत्तीसगढ़ी गीत : डॉ. पीसी लाल यादव,गम तो साथ ही है (गजल) : नीतू दाधिच व्यास, लुप्त होने लगी (गीत) : कमल सक्सेना,श्वेत पत्र (कविता ) बाज,.

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

उदार मना बख्शी जी

हीरालाल अग्रवाल
साहित्य वाचस्पति डा. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जिनके नाम के सामने तत्कालीन परम्परानुसार च्च्प्रेमचंद बी. ए. ज्ज् की तरह च्च् बी. ए . ज्ज् जुड़ा हुआ होता था, आधुनिक हिन्दी साहित्य की नीव के पत्थरों में से एक थे। चूँकि उनका जन्म खैरागढ़ मेें हुआ था, यही पले बढ़े , पढ़े - पढ़ाये इसलिए उन्हें देखना - सुनना कोई बड़ी बात नहीं थी। वे खैरागढ़ के प्रथम अखिल भारतीय हस्ती थे। विद्यार्थी जीवन में ही कथा - साहित्य के प्रति उनकी गहन अनुरक्ति एवं सादगी से संबंधित अनेक संस्मरण सुनने को मिलते थे। वे जब कभी स्थानीय पुराने बस स्टैंड, जहां मेरा घर हुआ करता था के जय स्तंभ में बीड़ी पीते बैठे होते, मैं उन्हें श्रद्धाभाव से निहारा करता। मेरे मन में प्रश्र भी उठता कि मटमैले रंग का कुर्ता और साधारण सी धोती पहने बीड़ी फूंक रहा क्या यही आदमी तब की सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका च्च् सरस्वती ज्ज् का सम्पादक था ? क्या यही वह आदमी है, जिसके कार्यालय में सामान्य सी दरी पर बैठने में पं. जवाहरलाल नेहरू को संकोच नहीं हुआ ? क्या यही वह आदमी है जिसने पाण्डेय बेचन शर्मा च्च् उग्र ज्ज् की रचना लौटा दी थी ? क्या यही वह आदमी है, जिसने सुमित्रानंदन पंत जैसे कवि से पंगा ले लिया था ? और क्या यही वह आदमी है जिस पर निराला जी ने पंतजी के प्रति पक्षपात का आरोप मढ़ा था ?
बख्शी जी अक्सर यहाँ गोलबाजार में कोठारी जी की कवेलू वाली दूकान, जहॉ अब गौतम सांखला का किराना स्टोर्स है, में बैठा करते थे। तब कुर्सी की जगह गद्दी बिछी हुई होती थी। पूर्व विधायक विजयलाल ओसवाल तो उन पर असीम श्रद्धा रखते थे। इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति गुलाबचंद मुणोत के यहॉ तो उनके नाम पर एक कमरा ही बुक रहा करता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि सनï् 1966 के आसपास स्थानीय बाँके बिहारी मंदिर परिसर में दुर्गोसत्सव के अवसर पर बख्शी जी का भी कार्यक्रम रखा गया था। अब इसे आप भाषण कहिए या प्रवचन। गणेशजी एवं दुर्गासप्तशती से संबंधित मधु कैटभ आदि पात्रों की आधुनिक संदर्भों में पहली बार बौद्धिक व्याख्या मैंने बख्शी जी से सुनी। काश मैं उसे लिपिबद्ध कर लिया होता। बख्शीजी की आदत बोलकर लिखाने की थी, अत: उनका बोला हुआ अपने आप में सुसंपादित होता। गणेशजी के संबंध में, जितना मुझे याद है, उन्होंने कहा था कि एक कुशल नेता के उनमें सारे गुण थे। इसका प्रमाण है, पहली बौद्धिक - परीक्षा [ इसे कूट परीक्षण भी कह सकते हैं ] जिसमें उन्हें देवताओं के साथ प्रतिस्पर्धा के अंर्तगतï् पृथ्वी की परिक्रमा करनी थी, में त्रिकोकीनाथ की परिक्रमा कर एवं तार्किक तौर पर उसे सिद्ध कर सफलता अर्जित कर लेना। उनकी आँखें छोटी है,इसका तात्पर्य है कि उनकी दृष्टिï पैनी है। उनके कान इतने बड़े हैं कि दूरदराज के लोगों की आवाज भी उन्हें सुनाई दे देती है। वे कान के  कच्चे नहीं है कि दूसरे उन्हें कुछ का कुछ कहकर गुमराह कर सकें। उनकी सूंड इतनी लंबी है कि जन - समस्याओं को वे दूर से ही सूंघ लेते हैं, परिणाम यह होता है कि उनके विकराल रूप धारण करने के पूर्व ही समाधान ढूंढ लेते हैं। उनके पैर ऊँचे। वे दौड़ने पर नहीं वरनïï् लम्बे - लम्बे डग भरने पर विश्वास रखते हैं। इससे विकास की गति थमती नहीं। उनके पेट बड़ी से बड़ी बातों को पचाने की क्षमता रखते हैं। गरिष्ठ वस्तुएँ भी अनुकुल हो जाती है। उनका शरीर विशाल है। जनता को उनकी शक्ति पर भरोसा है। वह शारीरिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टिï से सक्षम है।
बख्शी जी से मेरी पहली मुलाकात इसी अवधि में हुई। वे प्राय: सराय भवन, जहाँ उनके ज्येष्ठï पुत्र महेन्द्र कुमार बख्शी का निवास था, से प्राय: तुरकारी पारा एवं दीवानबाड़ा होते हुए गोलबाजार की ओर जाया करते थे। दीवान बाड़ा के सामने वाले उसी मकान में जहॉ बख्शी जी कभी रहा करते थे, हमारे एक मित्र एम. एस. खान बतौर किरायेदार रहा करते थे। हमेशा की तरह अपने साथियों के साथ हम वहां गपियाते बैठे हुए थे कि खिड़की से मेरी नजर पैदल चले आते बख्शी जी पर पड़ी। चादर ओढ़े हुए बख्शीजी, बस बख्शीजी - सी वेशभूषा में थे। हमारे बीच उपस्थित शिवकुमार तिवारी ने जो हमसे उम्र में काफी बड़े थे, बख्शी जी को प्रणाम कर साग्रह आमंत्रित किया। स्वाभाविक है कि हम सबने चरण स्पर्श कर उनका आर्शिवाद लिया। यहां मैं जो रेखांकित करना चाहता हूं, वह यह है कि जिस प्रकार आत्मा शरीर छोड़ देने के पश्चात् उस ओर लौटकर नहीं देखती, बख्शीजी अपने उस पुराने मकान के प्रति रंचमात्र उत्सुकता प्रगट नहीं की और इस तरह आकार उस कमरे में बैठे कि जैसे वे पहिली बार इस  उस मकान में प्रवेश कर रहे हों। तब मकान का स्वरूप लगभग पूर्ववतïï था। न उन्होंने इधर - उधर झांका और न ही उस संबंध में कोई पूछताछ की। मैं तो उनके सामने बैठने के सुख से गौरवान्वित एवं हर्षाभिभूत था। अपनी ओर से हमने साहित्य पर ही चर्चा केन्द्रित रखी। उन्होंने एक कहानी सुनाकर कहानी लेखन प्रक्रिया पर ही विस्तार से प्रकाश डाला था। हम मंत्रमुग्ध भाव से उन्हें सुने जा रहे थे। अंधों में काना राजी की हैसियत से मैं उनसे प्रतिप्रश्र करता। उस समय तक कुछ मुक्तक सहित मात्र मेरे दो आलेख प्रकाशित हुए थे। एक युगधर्म रायपुर - नागपुर संस्करण में और दूसरा बद्रीविशाल अग्रवाल द्वारा संपादित एवं रायपुर से प्रकाशित च्च्विजयेता ज्ज् मासिक के द्वितीयांक में। संयोग से उसी अंक में बख्शीजी का भी एक आलेख प्रकाशित हुआ, जिसके कारण मैं विशेष आल्हादित था। उन्होंने कहा था - च्च् अब देखो न बाबू, हम तो नांदगांव म रहिथी। हमला का मालूम कि इहॉ के कोन - कोन लइका मन लिखत हे। कभू नांव के नीचे खैरागढ़ लिखे दिखथी त बड़ खुशी होथे। तुम्हार लेख ल तो पढ़े रेहेन, फेर तु्म्हीं हीरालाल हो कहिके आज जानेन, काखर लइका हो तुम ? ज्ज्यहां यह  उल्लेख करना आवश्यक है कि बातचीत में बख्शीजी की पहली प्राथमिकता छत्तीसगढ़ी होती, गैरछत्तीसगढ़ियों के साथ ही वे हिन्दी में बात करते। उन्होंने आगे कहा था - च्च् लिखो बाबू, खूब लिखो। कहानी, कविता, लेख नई लिख सको त डायरी लिखो, हर व्यक्ति म मौलिकता होथे। का पता तुम कोन से अइसे वाक्य लिख दो कि अमर हो जाय। ज्ज् बख्शीजी लगभग घंटा भर हमारे बीच बैठे रहे। उनका व्यक्तिव आतंक पैदा करने वाला नहीं, श्रद्धाभाव जगाने वाला था। वे हमारे बीच घर के बुजुर्ग जैसा लगे। खान साहब ने चाय की व्यवस्था की। बीड़ी तो उनके पास रहती ही थी।
ऊपर जिस मकान का उल्लेख हुआ है, उसी कारण एक अप्रिय प्रसंग ने समाचार पत्रों में सुर्खियों का रूप ले लिया था। दरअसल यह मकान रानी पदï्मावती देवी [पूर्व मंत्राणी म.प्र. एवं सांसद राजनांदगांव ] के नाम पर था, जिसे रहने के लिए बख्शी परिवार को दिया गया था किन्तु उसे वापस ले लिया गया था। समूचा म.प्र. साहित्य जगत बख्शीजी के समर्थन में एकजूट एवं उद्वेलित था। लेकिन उदारमना बख्शीजी ने एक बयान में रानी साहिबा को च्च् मातृ - स्वरूपा ज्ज् बतलाकर उस पर विराम लगा दिया। स्वाभाविक है कि समूचा खैरागढ़, व्यंग्योक्तियों का शिकार होने लगा, जबकि नगरवासियों में बख्शीजी के प्रति हमेशा से अगाध श्रद्धा रही है। इस श्रद्धा - भाव को अभिव्यक्ति देने के उद्देश्य से स्थानीय नवयुवक साहित्य समिति ने, जिसका मैं भी एक सक्रिय कार्यकर्ता हुआ करता था, बख्शीजी के सार्वजनिक अभिनंदन का बीड़ा उठाया। एक बार फिर से बख्शीजी से रूबरू होने का अवसर मिला। मेरे साथ शिवेन्द्र संस्कृत पाठशाला [आज नगर पंचायत भवन] के प्राचार्य, बख्शीजी के लगभग हम उम्र एवं सुपरिचित, पं. कृष्णानंद शास्त्री भी थे। महेन्द्रकुमार बख्शी इन्हीं के अधीन सहायक शिक्षक थे। मैंने बख्शी जी से मिलने वाली सहमति के दौरान यह अनुभव किया कि अभिनंदन की अपेक्षा खैरागढ़ आने का अवसर लाभ प्राप्त करने की उत्कंठा उनमें अधिक थी। आमजन में साहित्याभिरूचि उत्पन्न करने की दृष्टिï से रात्रिकालीन कवि - सम्मेलन की योजना बनाई गई, जिसमें तब के अंर्तराष्टï्रीय ख्याति के हास्य रस सम्राट काका हाथरसी सहित बाबू जांजगिरी, प्रभाकर चौबे, केदारनाथ झा च्च् चंद्र ज्ज्, शरदकपूर, एवं स्थानीय कवि के बतौर मैंने सिरकत की थी। संचालन डां. नंदूलाल चोटिया ने किया था। चूंकि काकाजी को हाथरस से सीधा खैरागढ़ आना था, इसलिए यह अपेक्षा थी कि वे समय के पूर्व आ जायेंगे और बख्शीजी के मध्यान्हकालीन आयोजन की गरिमा बढ़ जायेगी, किन्तु दुर्भाग्यजनक से ट्रेन लेट हो जाने के कारण अभिनंदन समारोह के बाद ही वे आ पाये। उनके प्रिय शिष्य विधायक विजयलाल ओसवाल भी किन्ही अपरिहार्य कारणों से उपस्थिति नहीं दे पाये थे। इस अभिनंदन समारोह की विशेषता यह थी कि खैरागढ़, छुईखदान एवं गंडई के आमजन ने छोटी - छोटी राशि के माध्यम से अपनी सहभागिता प्रदर्शित की। यही कारण है कि एक ठेठ साहित्यकार के अभिनंदन समारोह में भी इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय का दरबार हाल दिनांक 24 मार्च 67 को, भरी दोपहरी में भी, ठसाठस विशेषकर गैरसाहित्यकारों से भरा हुआ था। बख्शीजी वाणी सिद्ध थे। उनके संबोधन का एक एक वाक्य सरस्वती के पूर्व संपादक के मुख से स्वमेव संपादित निकलते। नामवर सिंह में यह विशेषता है। राजनीतिज्ञ होने के बावजूद डां. द्वारका प्रसाद मिश्र के भाषण में भी ऐसी परिपक्वता की झलक मिलती थी। बख्शीजी के भाषण में जहां खैरागढ़ के प्रति प्रणाम - भाव था, वहीं नवरचनाकारों के लिए प्रेरक शब्द। अभिनंदन के अवसर पर भेंट की गई तुच्छ राशि को उन्होंने नगर से मिलने वाले च्च् प्रसाद ज्ज् की तरह ग्रहण किया। जब मैंने काका हाथरसी को अभिनंदन समारोह में न पहुंच पाने के लिए उल्हाना दी तो उन्होंने छूटते ही कहा था - अरे, आपसे ज्यादा बख्शीजी से नहीं मिल पाने का अफसोस हमें है। हम तो मात्र लोगों का मनोरंजन करने वाले हैं। वे तो सही मायने में साहित्य मनीषी है। बख्शीजी के लिए अभिनंदन पत्र डां. नंदूलाल चोटिया ने अपनी संपूर्ण भाषिक एवं वैचारिक क्षमता के साथ सश्रद्ध तैयार किया था। इस बहाने बख्शीजी से मेरा तीसरी बार सान्निध्य हुआ।
सनï् 1971 में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एक पद व्याख्याता के रिक्त होने का विज्ञापन निकला। दसवीं की बदौलत च्च् निम्र श्रेणी शिक्षक ज्ज् का पद पा जाने के बाद घिसटते - घिसटते मैंने निजी तौर पर हिन्दी विषय में द्वितीय श्रेणी में एम. ए. कर लिया था। पिछले दस वर्षों से प्राथमिक एवं पूर्व माध्यमिक स्तर पर पढ़ा रहे इस शिक्षक का च्च् हीनता बोध ज्ज् ही कहिए, मुझमें आवेदन के लिए कोई उत्सुकता नहीं थी लेकिन अपनी छुटपुट साहित्यिक गतिविधियों के कारण मैं यहां साहित्यकार समझा जाने लगा था। अंतत: विश्वविद्यालय के ही पटेल बाबू ने मुझसे साग्रह आवेदन करवाया। तब संगठनात्मक गतिविधियों में मेरी इस कदर व्यस्तता थी कि इस कर्तव्यभीरू शिक्षक के पास जो अतिरिक्त समय बचता, उसका बहुलांश उसमें एवं शेष नून- तेल - लकड़ी की चिंता में चला जाता था। तात्पर्य यह कि लेखन उतना ही जितना कि ऊपर का उल्लेख है। मेरे जेहन में था, बख्शीजी द्वारा मेरा एक आलेख पढ़ा जाना। मैंने सोचा आवेदन कर्त्ताओं के पास यदि पी. एच . डी . हो तो मेरे पास कम से कम बख्शीजी का दिया प्रमाण पत्र ही सही। तुच्छ बुद्धि कहिए या कूट बुद्धि मैंने एक चारित्रिक प्रमाण पत्र रानी पदï्मादेवी, विश्वविद्यालय की संस्थापिका से भी जुगाड़ लिया था। दस जनवरी 71 को मैं अपने अग्रज लोक संगीत मर्मज्ञ पं. रामकृष्ण तिवारी के साथ राजनांदगांव पहुंचा। चरण वंदना एवं इधर उधर की बातों के बाद तिवारीजी ने भूमिका बांधी। बख्शीजी ने कहा - च्च् का चाहत हो, एक नमूना लिख के दे दो बाबू।ज्ज् मैंने एक नमूना तैयार किया। जिसमें आधा झूठ आधा सच के रूप में एक वाक्य लिखा - मैं उनके एक दो लेख पढ़ चुका हूं। मेरे कुल  जमा दो लेख तो प्रकाशित ही हुए थे। अब प्रमाण पत्र देखिए - इसमें पूरी की पूरी बख्शीजी की भाषा है। बख्शीजी बोल रहे थे और तिवारीजी लिख रहे थे -  च्च् मैं श्री हीरालाल अग्रवाल जी को बचपन से जानता हूं। प्रारंभ से उनमें विद्याभिरूचि थी। यही कारण है कि अध्ययनशील होने के कारण स्वाध्याय द्वारा एम. ए . हो गये। उनमें एक विशेष प्रतिभा है और साहित्य की सेवा करने के लिए एक उत्साह है, उनके दो - तीन लेखों को मैं पढ़ चुका हूं। शिक्षा केे  प्रति भी उनकी विशेष अभिरूचि है। उसी क्षेत्र में वे अभी तक काम करते आ रहे हैं। मैं समझता हूं कि यदि महाविद्यालय मेें काम करने का अवसर मिल जाए तो वे अवश्य एक सफल अध्यापक सिद्ध होंगे।ज्ज् प्रमाण पत्र तो मैंने सादर ग्रहण कर लिया। इसी बीच मुझे ज्ञात हुआ कि डां. रमाकांत श्रीवास्तव वर्तमान अध्यक्ष प्रगतिशील लेखक संघ छत्तीसगढ़ मेरे प्रमुख प्रतिद्वंदी हैं। मेरा दुर्भाग्य था कि डां. साहब को मैं एक साहित्यकार के रूप में जानने लगा था। उनके स्थान पर कोई भी अज्ञात नामधारी होने पर नि: संकोच मैं मैदान में उतर जाता। इंटरव्यूह की तिथि एवं बी. एडï् प्रशिक्षण हेतु शिक्षा - महाविद्यालय सागर में ज्वायन करने की तिथि एक थी। मैंने सागर प्रस्थान करना उचित समझा। एक दो, दो - तीन आज भी मेरे पीछे हैं। उस महानात्मा की दयालुता का न जाने कितनों ने शोषण किया होगा। इस बात का मुझे संतोष है कि उस प्रमाण - पत्र का मैंने दुरूपयोग नहीं किया और उनके एक - दो को दो - तीन करने आज भी थोड़ा बहुत कलम चला रहा हूं। एक सौ चौदहवीं जयंती के अवसर पर क्षमा - याचना सहित उन्हें शतश: प्रणाम। यह मेरी उनसे अंतिम मुलाकात थी।
 नया बस स्टैण्ड, खैरागढ़
जिला - राजनांदगांव 6 छग. 8
      भाषा चमत्कार को नकारते थे बख्शीजी
कृष्णा श्रीवास्तव गुरूजी
 पर पूज्य गुरुदेव पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को लोग मास्टर जी के संबोधन से ही जानते थे। साहित्य प्रिय बख्शी जी सम्पूर्ण जीवन संत स्वरूप रहे। जीवन के प्रारम्भ 16 -17 वर्ष के उम्र से जो साहित्य साधना उन्होने प्रारम्भ की वह जीवन के अंतिम अध्याय 1971 तक अविरल चलती रही। इन तमाम वर्षो में बख्शी जी न जाने कितने कष्टïों को झेले लेकिन मुस्का कर उन्हें सुखद साहित्य में बदल दिए। वास्तव में उनका लेखकीय कर्म जन जीवन में आये विसंगतियों का एक दार्शनिक हल था। आज भी उनकी कविताएँ लेख निबंध प्रासंगिक हैं।
खैरागढ़ के एक संभ्रात कायस्थ परिवार में 26 मई सन्ï 1894 को शनिवार को बख्शी जी का जन्म हुआ था।  बख्शी जी को परिवार में पूर्णत: साहित्यिक वातावरण मिला। खैरागढ़ रियासत से जुड़े बख्शी के परिवार में सरस्वती, भारत मित्र, हित वार्ता पत्रिका आती थी। जिसका अध्ययन बख्शी जी नियमित किया करते थे। यही नहीं उनके दादा पिता माता जी एवं अन्य परिवार के सदस्य भी साहित्य साधना किया करते थे। इस प्रकार एक अच्छे सुशिक्षित परिवार में बख्शी जी का जन्म हुआ था। बख्शी का प्राम्भिक शिक्षा खैरागढ़ में हुई वे पढ़ाई में बहुत अच्छे नही थे उनकी गणित कमजोर थी। कक्षा में वे अनुत्तीर्ण भी हुए लेकिन बाद के वर्षो में वे उन्होने असफलता का मुंह नही देखा। उन्ही दिनों वे श्री देवकी नंदन खत्री के उपन्यास चन्द्रकांता संतति के दिवाने थे। इसके कई किस्से लोगों में प्रचलित है। 1912 में वे मेट्रिक उत्तीर्ण हुए और अपने बड़े भाई के साथ बनारस पढ़ने भेजे गये। यहाँ उन्हे पूरा साहित्यिक वातावरण मिला और 1913 से उनकी रचनाएँ हित कारिणी में प्रकाशित होने लगी। 1916 में बख्शी जी ने बी ए की परीक्षा उत्त्तीर्ण की।  इस समय तक तत्कालीन स्व नाम घन्य पत्रिका सरस्वती में उनकी कई कहानी  प्रकाशित हुई।
बख्शी जी का विवाह 18 वर्ष की उम्र में 1912 में ही हो गया था लेकिन उनकी धर्म पत्नी लक्ष्मी देवी 1916 मेें ही बहू बनकर आई जब वे बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
बख्शी 1916 में ही राजनांदगांव रियासत के हाईस्कूल में अध्यापन करने लगे थे तब तक उनकी साहित्यिक प्रतिभा का ज्ञान उस समय के महान विभूतियों को हो गया था। उसी समय श्री माधवराव सप्रे जी उन्हें कर्मवीर के सह सम्पादक के लिए आमंत्रित करने आये। तब तक बख्शी को सरस्वती के सम्पादन के लिए स्वीकृति आ चुकी थी इस प्रकार उन्होंने 1920 में सरस्वती का भार सम्हाल पाया। सरस्वती का सम्पादन करते उन्हें पांच वर्ष हुए थे कि उनके पिताजी का देहावसान हो गया। वे इलाहाबाद छोड़ खैरागढ़ आ गये। खैरागढ़ में उन्हें कोई उनके लायक काम नहीं मिलने के कारण 1926 में वे पुन: इलाहाबाद चले गये। स्थापित प्रतिष्ठïा के अनुरूप बख्शी जी ने सरस्वती पत्रिका को उच्च शिखर तक पहुंचाने में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। जो हिन्दी साहित्य के लिए उल्लेखनीय है। 1929 में उनके छोटे पुत्र रविन्द्र कुमार की मृत्यु के बाद उन्हें इलाहाबाद से विरक्ति हो गई और वे  खैरागढ़ आ गये। राजनांदगांव के राजामहंत सर्वेश्वरदास के कर्मचारी श्री सखाराम दुबे के सहयोग से उन्हें शासकीय शाला में नियुक्ति मिल गई। बाद में उन्होंने 1952 से 55 तक सरस्वती का सम्पादन खैरागढ़ से ही करते रहे। पर विषमताओं ने बख्शीजी का पीछा नहीं छोड़ा और उन्हें 1934 से शासकीय शाला से अलग कर दिया गया। 1935 से 1959 तक उन्होंने यायावर जिन्दगी जी। कभी खैरागढ़ में अध्यापन तो कभी राजकुमारियों को पढ़ाना तो कभी महाकौशल रायपुर में सम्पादन इस प्रकार बख्शीजी को जीवन निर्वाह में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। अंत में पंडित किशोरीलाल शुक्ल ने उन्हें राजनांदगांव दिग्विजय कालेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति दिलायी। जीवन के अंतिम पड़ाव तक वे राजनांदगांव में ही रहे। 28 दिसम्बर 1971 को महान साहित्यिक मनीषी ने दिवस का अंत पूर्ण करने की अपूर्णिनीय इच्छा के लिए देह त्याग दिए।
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी बख्शी जी साहित्य से भरा पूरा एक लम्बी विरासत छोड़ गये। उनके कृतित्व आज भी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए शोध का विषय है। बख्शीजी अपनी किस विद्या के लिए पहचाना जायेंगे ? एक कवि के रूप में ... बख्शी जी जहां महान रचनाकारों रविन्द्र नाथ टैगोर, वर्डसवर्थ के कविताओं का अनुवाद किया वहीं भक्तिभाव लिए काव्य रचनाएं की। उन्होंने काव्य में आत्म अभिव्यक्ति को विशेष महत्व दिए। एक निबंधकार के रूप में बख्शी को पूर्ण सफलता मिली। उनका दार्शनिक आत्मान्वेषी व्यक्तित्व निबंध के रूप में साकार हुआ। निबंधकार के रूप में उन्होंने जीवन के विभिन्न मूल्यों को कथानात्मक स्वरूप में प्रस्तुत कर जन मानस में भावनात्मक अभिरूचियों को आत्मसात करने का मार्ग प्रशस्त किया। कथाकार के रूप में वे कहानी में अपनी विशिष्टï शैली में पारिवारिक वातावरण  को स्पष्टï करते हुए भावना को प्रमुख रूप से रेखांकित करते हैं।
बख्शीजी के सम्पूर्ण रचनाओं के अध्ययन से पता चलता है कि वे भाषा के चमत्कार को नकारते हैं। वे शब्दों के पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन की अपेक्षा भावों को महत्व देते हैं। उनकी रचनाओं में भावों के स्वाभाविक विस्तार देखने को मिलता है। सजीवता व भावों को यथेष्टï चित्रण उनकी रचनाओं को पठनीय बनाते हैं।
बख्शी जी का साहित्य संसार जीवन की विपदाओं के विरूद्ध मौन सहनशीलता का बोध कराती है। उनके साहित्यिक साधना का अमृत आज भी हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल है। विश्व साहित्य के इस संत की जीवन यात्रा के समस्त पड़ाव उनके रचनाओं के माध्यम से हमारे समक्ष है। उनकी सरसता, आत्मपरकता, चिन्तनशीलता, दार्शनिकता हमारे लिए आज भी प्रासंगिक है। महान मनीषी के चरणों में सादर नमन।
संकल्प, दिग्विजय कालेज रोड, जमातपारा, राजनांदगांव 6 छग. 8

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