लक्ष्मीनारायण राय
अलस उनीदी भीगी पलकें,
जोह रही है बाट तुम्हारी।
मास बरस बीते निर्मोही,
सूखी जाये केशर की क्यारी॥
आवारा सपने आकर के,
मुझको हर दम फुसलाते हैं।
नयनों के निर्मल झरनों से,
झर - झर मोती टपकाते हैं।
किस से कहूं मैं मन की पीड़ा,
नयन बसी है छवि तिहारी॥
सूखी जाये केशर ..........
शशि हुआ बड़ा बैरी है अब तो,
लिखता पुष्पों पर परिभाषा।
सौतन जैसी हाय चंदनियाँ,
नित पढ़ती विरहा की भाषा।
यह बासन्ती हवा चलत है,
हिय में जाय जस धंसी कटारी।
सूखी जाये केशर ..........
सावन जैसा दिल है रोता,
भादों जैसी झड़ी लगी है।
आठों पहर जतन से जी लूं,
पीड़ा तू ही सखी सगी है।
अन्तस व्यथा कही न जाती,
मैं विष तू अमृत की झारी॥
सूखी जाये केशर ..........
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें