विटठराम साहू ' निश्छल'
हाय रे पैसा क्या तेरी यही कहानी?बूढ़ों में भी भर देती है तू नई जवानी ॥
दुर्भाग्य से मैं एक ख्यातिनाम कलमकार हूं। मेरे पास कई देशी - विदेशी विश्वविद्यालयों की डिग्री व मानद उपाधियां हैं। मुझको देश के कई बड़े - बड़े साहित्यिक संस्थओं द्वारा सम्मान पत्र भेंट किया गया है। इसलिए मैं गौरवान्वित हूं। लेकिन तुम्हारे सामने मैं बौना हो जाता हूं। भला सूर्य के सामने दीपक का क्या महत्व ? तुम्हारे सामने दो कौड़ी के साहित्यकार का क्या मोल? रही - सही इज्जत को श्रीमती सुपर निरमा में धोकर अरगसनी में टांग देती है।
मैंने तुम्हें हमेशा पुकारा लेकिन तुम केवल लक्ष्मी पुत्रों की पुकार सुनती रही हो। और दौड़े चली जाती हो, भले ही वे अनपढ़, गंवार, जाहिल हो। उन्हें हमेशा सम्मान दिलाती हो। और उन्हें अपना गुलाम बना लेती हो। सद्आचरण वाले को भ्रष्टï कर देती हो। तुम ही समाज में अशांति व अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार हो। समाज में जितने भी हत्या - बलात्कार - अपहरण व अनैतिक आचरण होते हैं उन सब कृत्यों के लिए तुम ही जिम्मेदार हो।
तुम्हें सरस्वती पुत्रों पर किंचित मात्र दया नहीं आई। जिसने तुम्हारी ख्याति जन - जन तक फैलायी है। उन्हें भी भूल गई। जैसे वोट पाने के बाद नेता मतदाता को भूल जाता हैं। साहित्यकारों की सेवा का तेरे सामने कोई कीमत नहीं। अरे, सरकार उन्हें गरीबी रेखा से उठा नहीं सकी,यह बात समझ में आती है। जिस तरह एक अंधा आंख वाले को क्या राह दिखाएगा ? उसी तरह एक दरिद्र दूसरे की दरिद्रता भला कैसे दूर कर सकेगा। राजा को रंक और रंक को राजा बना दे।
किसी साहित्य अकादमी से लाख दो लाख नगदी वाला वाला सम्मान ही दिलवा दे। या किसी प्रकाशक से मेरी रचनाएं ही छपवा दे। रायल्टी से मेरी बेटी की शादी हो जाएगी। भले ही मेरी रचनाओं में कोई दम न हो। ख्यातिनाम प्रकाशक तो लेखक का भगवान होता है। जिस प्रकार टी.वी. में घटिया माल का जितना ज्यादा प्रचार होता है, उतना ही उसका डिमांड बढ़ता है। बस ख्यातिनाम कम्पनी का लेबल होना चाहिए। ठीक उसी तरह साहित्य में भी प्रकाशक के नाम का प्रभाव होता है। लेखक काला चोर ही क्यों न हो, उसकी किताब हाथों - हाथ बिक जाती है।
तेरे अभाव में जवानी में भी अब मैं बूढ़ापा का अनुभव करने लगा हूं। आये दिन पत्नी - बच्चे कोसते रहते हैं। कहते हैं - तुम आंख फोड़कर रात - दिन लिखते पढ़ते रहते हो इससे तुम्हारा व परिवार का भला हुआ ? घर में नमक तक तो नहीं है, न चाँवल न दाल। चूहे भूखे मर रहे हैं। न तन ढंकने के लिए ढंग के कपड़े हैं न सिर छिपाने के लिए ठौर। बाप - दादाओं से मिली जमीन जायजाद तक तो बेच - बेच खा गये। अरे, कुछ तोर सोचो - बच्चे अब बच्चे नहीं रहे।ष्
मुआ पेपर वालों को भी मुफ्त में आर्टिकल मिल जाता है, कम से कम टाइप व पोष्टï का खरचा तो दे देते।
मैं पत्नी को कैसे समझाऊं। पड़ोसियों से प्रभावित होकर मेरे छाती में मूंग दलती है। कहती है - फलां के घर यह है, वह है। शर्माजी नई गाड़ी ले आये। तिवारीजी नये प्लैट बनवा लिए। उसकी हमेशा यही शिकायत होती है कि लोग हर वर्ष दीवाली में सोने - चांदी के गहने बनवाते हैं। कीमती कपड़े खरीदते हैं। नये सोफा, पलंग, दीवान, तकिये, कुशन, परदे सब आती है, और तुम तो कंगाल हो कंगाल।
अपने मां - बाप को कोसते हुए कहती है- कहां - कहां ऐसे कंगाल का हाथ धरा दिए, मेरे तो भाग्य ही फूटे हैं। गुस्सा और दुख के मिश्रित भाव के आवेग में करीब - करीब दोनों आँखें डबडबा गई। मन की भड़ास निकालने के लिए अपनी नारीत्व को कठोरता का कवछ पहना कर प्रहारक मुद्रा में मेरे पुरूषार्थ का परदाफास करती हुई बोली - वही टूटा चारपाई, टूटा सोफा, सोफे में फटा कुशन, परदे का स्थान अब टाट ले रखा है। एक पुरानी साइकिल जिसमें टायर - ट्यूब है न सीट। बाड़ी में पड़ी - पड़ी सड़ रही है। दो महीने से बिजली का बिल नहीं पटा सके इसलिए लाईन कट गया है। और तो और ढेबरी के लिए एक लीटर घासलेट भी नहीं भिड़ा सके।
घर का म्यान पिछले बरसात से ही टूट गया है। किसी दिन पुराना छत ही बैठ जाएगा। तुम तो दब कर मरोगे ही, अपने बीबी - बच्चों को भी मारोगे। बड़े साहित्यक ार बनते हैं।
पत्नी की जहर बुझे वाकबाणों से मेरा ह्रïदया छल्ली - छल्ली हो जाता है। मुझको पीड़ित कर खुद ही आहत होकर सुबकने लगती है। आज तो खाना बनाने के लिए सिलेंडर में गैस भी नहीं है। तुम्हारे कागज - पातर से भरी आलमारी को चूल्हें में डाल दूं? तब भी खाना न बने।
पत्नी की मेरी साहित्यिक अभिरूचि में सौतडाह रखने के पीछे सिर्फ एक ही कारण है वह है पैसा। परन्तु करूं तो करूं क्या? चोरी करूं? डाका डालूं? जिसे मेरा बाप भी नहीं कर सका उसे भला मैं कैसे कर सकता हूं? ऐसा काम एक साहित्यकार को क्या, कोई भी इंसान को नहीं करना चाहिए। बाल्याकाल में एक गीत सुना था, आज तक यादहै -
दुनिया में सब चोर ही चोर।
कोई छोटा, कोई बड़ा चोर ॥
मैं इनमें से एक भी नहीं। पत्नी कहती है - देश में अंधेर हो रहा है। अपराध बढ़ रहा है। ईमानदार भूखों मर रहे है, बासी चोर छोटा चोर को दंड और बड़े चोर निर्भय होकर घूम रहे है। करोड़ों का घोटाला कर अपना तिजोरी भर रहे हैं। फिर भी समाज में इज्जतदार बन कर बैठे हैं। जनता के हित के लिए जो पैसा मिल रहा है, वह उनके हित में लग रहा है।
पत्नी अपनी ऊंगलियाँ फोड़ती हुई कोसती है - हे दुर्गा मइया, इन पापियों का नाश कब होगा ? इन्हें अपनी खप्पर में भर ले। इनकी संख्या दिनों दिन कीचक के रक्त कणों की भांति बढ़ता ही जा रहा है।
मैंने जीवन में आज तक कभी किसी से हार नहीं माना, किन्तु पत्नी से हार मान गया। कागज कलम पटक कर भाग खड़ा हुआ। अक्सर आये दिन ऐसा ही होता रहता है। तब मैं कहीं एकांत स्थान में बैठकर गहन चिंतन में खो जाता हूं। बड़े - बड़े कवि, साहित्यकारों के प्रेरणाश्रोत उनकी धर्म पत्नियाँ ही हुआ करती है, सो मेेरी भी प्रेरणा का श्रोत मेरी धर्मपत्नी ही हो सकती है। चिंतन का विषय तो उन्हीं के द्वारा लादा गया है न?
पैसा पर मेरी चिंतन का अविरल धारा प्रस्फुटित हो रही थी। काश, मेरे पास भी पैसा होता तो आज पत्नी की धारदार वाणी सुनना न पड़ता। उल्टा उसे ही खरा खोटा सुना कर उसके मायका भगा देता। जब तक वह अपनी मायका से लाख दो लाख नगदी, कलर टी.वी. और एक नई मोटरसाइकिल नहीं लाती तब तक उसे प्रताड़ित करते रहता। यहां तक उसे तलाक के लिए प्रेरित भी करता और जब तलाक हो जाता तो किसी नामी गिरामी प्रकाशक की लड़की से शादी रचा लेता। नाम भी होता और शोहरत भी मिलती। पर क्या करूं, बहुत देर हो चुकी है। आज शादी के तीस बरस बीत चुके हैं। इस उमर में ऐसा करूं? लोग क्या कहेंगे?
आनुवंशिकता आज भी बरकरार है। राज नेता का बेटा नेता, व्यापारी का बेटा व्यापारी,डाक्टर का बेटा डाक्टर, मास्टर का बेटा मास्टर बनता है। मैं भी चाहता हूं - मेरा भी मेरी तरह एक नेक इंसान माने कवि - साहित्यकार, आदर्शवादी बने। किन्तु वे सब अपनी मां पर गये हैं। मेरी धर्मपत्नी का मानना है कि आज के जमाने में पैसा ही सब कुछ है। बल्कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पैसा ही भगवान है।
पैसे से ही राष्टï्र की आर्थिक नीति सुदृढ़ होती है। विश्व में उसकी छाप बनती है। पैसे से ही सरकार चलती है बनती व गिरती है। चाहे वह सरकार घर की हो या राष्टï्र की। इसलिए तो मेरे दादा कहा करते थे -
सबसे बड़े रूपैया, दादा चिन्हे न भइया ।
मौवहारी भाठा,महासमुन्द 6छ.ग.8
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