जसवन्त सिंह विरदी
जल्दी करो, जल्दी करो, मैं अपने राहगीरों को गुहार लगा रहा था ... हां, गुहार ही। फौरन दीवारें खड़ी करके छत्त डाल दो।
वे मुझे देखते तो लालटेन की प्रकाश में उनके चेहरे कह रहे होते - आप देखते जाइये।
निर्माण उसारी करने में वे पूरा जोर लगा रहे थे। मगर काम करने की उनकी एक सामर्थ्य थी, जिससे आगे उनका जा पाना कठिन था। मैं तो केवल उन्हें प्रेरणा ही दे पा रहा था।
वे लोग दिन को कहीं अन्य जगह दिहाड़ी लगाते थे, रात के वक्त मेरा घर बनाने के लिए आये थे। गैर मं$जूर शुदा $जमीन पर घर बसाने की मनाही थी। नक्शा भी पास नहीं होता था, इसलिए नगर निगम के घर गिराने वाले विभाग के लोग दिन के वक्त काम करने वालों कामगारों - कारीगारों को भी पकड़ कर ले जाते थे ... इसलिए काम करने वाले मिलते ही कहाँ थे ?
- आप घबराइये नहीं। उनके चेहरे मुझे विश्वास दिला रहे थे, मगर तनाव मुझे नहीं छोड़ रहा था।
काम करने वाले दोनों राहगीर और कामगार करिहार के समीप के किसी गांव के थे ...। राहगीर और कामगार एक ही गाँव के ...।
बिहार के जो लोग कुछ बरस पूर्व आ गए थे वे राहगीर हो गए थे। पंजाब के कारीगर तो नई चारागाहों की तलाश में दूसरे देशों की तरफ भाग गए थे। गाँव के गाँव खाली हो गए थे। ... हमारे इधर के कारीगरों के साथ जो कामगार थे, वक्त के साथ वे इमारतों के ठेके लेते थे ..।
मेरे घर बनाने वाले दोनों कारीगर के साथ रामलखन और उसकी पत्नी रामकली कामगार थे। रामलखन गारा बना रहा था और उसकी पत्नी रामकली ईंटें दे रही थी।
सूर्योदय से पूर्व हर हाल में आठ नौ फीट की दीवालों पर छत पड़ जानी चाहिए थी, फिर मेरा घर नहीं गिरेगा। नगर निगम का नोटिस आयेगा तो देख लेंगे, जुर्माना होगा तो दे देंगे ... कुछ रिश्वत भी देनी पड़ सकती थी मगर कमरा बच जाता, जो घर का एक इमेज बनता था - हमरा घर ... धरती पर ...
दोनों कारीगर - दुखिया और उसका छोटा भाई रामप्रसाद ईंटें लगाने में तेज थे, इसलिए मैं शिकायत नहीं कर सकता था ... फिर यह भी तय था कमरे पर छत्त पड़ जाने की सूरत में ही मेहनत के पूरे पैसे वे लेंगे ... नहीं तो आधे ... मैंने तो कह ही दिया था - कुछ भी हो जाए, पैसे पूरे ही दूंगा ...।
आधी रात के पश्चात जब दीवारें छत्त के बराबर होने को थीं तो सांवले लम्बे चेहरे वाली रामकली ने गदगद भाव से मुझे कहा - भाई साहब, अब बन गया घर ...।
मैंने उसकी चेहरे की मासूमियत को देखा और उसके शब्दों में प्रकट हो रही अपनत्व की भावना को महसूस किया तो मुझे सुख मिला, और मैंने आभार से उसे देखा, तो उसने अपना सपना मेरे कान के निकट होकर मुझे बताया - भाई जी, कहीं हमरा भी घर होगा ? फिर उसने इधर - उधर देखा कि कहीं, किसी ने सुन न लिया हो।
हर व्यक्ति अपना सबसे प्रिय सपना सात पर्दों के भीतर छुपाकर रखता है ...।
मैं समझ गया - घर बनाने का जो सपना रामकली भी देखती है, उसे छुपाकर रखती है। फिर मैंने सोचा - जबभी ये लोग कोई घर बनाते हैं तो इन्हें लगता है जैसे वे अपना ही घर बना रहे हैं। अपने घर बनाने की कैसी तमन्ना है। मैंने धीरे से रामकली के कान में कहा - वक्त आ रहा है, जब सबके पास घर होगा।
रामकली ने उतावलेपन से पूछा - कब ?
मैंने एक विश्वास के साथ फिर कहा - वक्त आ रहा है।
- फिर भी .... कब ?
- जल्दी ही ...।
मेरी बात सुनकर रामकली की आंखों में रौशनी भर गई। उसकी आंखों की उस रौशनी में, मैं एक घर बनता हुआ देखा रहा था .... घर, प्यारा घर।
घर, जैसे एक नग्मा हो।
किसी ने ठीक ही कहा है - ब्रम्हा्रण्ड को संगीतमय बनाने वाला नग्मा घर से ही फूटता है।
पता नहीं, उस वक्त कौन हमारी बातें सुन रहा था ... शैतान अथवा कोई और विनाशकारी शक्ति ....
सूर्योदय से पूर्व मेरी पत्नी ने चाय बनाई थी और वह गदगद भाव से सबको पिला रही थी ... तभी एक क्षण के भीतर नगर निगम के घर गिराने वाले विभाग के कर्मचारी पुलिस के साथ दनदनाते हुए आ गए ... और फिर लगे हमारे घर की दीवारें गिराने ... दीवारें जो छत्त के बराबर पहुंच गई थीं और उस पर सरकण्डों को बांसों के ऊपर फैलाकर छत का रूप दे दिया जाना था ... उस वक्त बच्चे खुले आंगन में सोये पड़े थे। वे जाग रहे थे, तो पता नहीं ... मेरी पत्नी मूर्छित हो गई थी ...। उसका एक घर का सपना कांच की भांति टूट - टूट कर भूमि पर बिखर गया था। मैंने इस तरह के दृश्य की कभी कल्पना नहीं की थी ...
मैंने तो की थी ...
एक घर
घर में पत्नी
चहकते हुए बच्चे
घर के एक कोने में कुछ वृक्ष, जो अभी कल्पना में ही थे ...
मुझे अपने कमरे की दीवारों के साथ, सब कुछ, सारा संसार गिरता हुआ दिखाई देने लगा ... जैसे भूकम्प हो रहा हो। मैं होश और बेहोशी की सीमा रेखा, पर पता नहीें कहाँ भटक रहा था ...।
शायद पागल ही हो जाता ... मगर उसी समय रामकली मेेरे गले लग कर बिलखने लगी - भाई साब, हाय ... हमरा घर ...।
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