- समीक्षक - कुबेर.
’जेठ की धूप’ डॉ. रामचंद्र यादव की
कहानियों का संग्रह है, जिसमें 1986 (सात भर सोना) से लेकर अक्टूबर 2011
(गौरैया) तक की अवधि में लिखी उनकी चौबीस कहानियाँ संग्रहित हैं। पच्चीस
वर्ष की इस लंबी अवधि में भी डॉ. यादव की संग्रहित कहानियों की भाषा व
शिल्प में किसी प्रकार का विकास नजर नहीं आता। एक कथाकार के रूप में यह
उनकी विफलता है।
संग्रह की कहानियों को स्पष्टतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में उन दो तिहाई कहानियों को रखा जा सकता है जिनमें कहीं न कहीं, चाहे सेवानिवृŸा हो या कार्यरत, एक प्रोफेसर (या शिक्षक) अवश्य उपस्थित है, और जिसकी वजह से ये सभी कहानियाँ किसी एक ही कथानक का विस्तार प्रतीत होती हैं। प्रोफेसर समाज का बौद्धिक वर्ग होता है। किसी भी कहानी मंे इस वर्ग की उपस्थिति से पाठक एक गंभीर और वैचारिक कथानक की अपेक्षा करता है। ’अपनी रोटी’ कहानी की प्रोफेसर डॉ. सरोज के अलावा पाठक की इस अपेक्षा को किसी और कहानी का दूसरा प्रोफेसर पूरा नहीं कर पाता। ’अपनी रोटी’ कहानी मंडल कमीशन के रिपोर्ट आने पर महाविद्यालयों में भड़की हिंसा पर आधारित है। कहानी के प्रोफेसरों के बौद्धिक दिवालियेपन की हद तो तब हो जाती है जब ’ढलते सूरज का दर्द’ कहानी के प्रोफेसर कल्पनाथ, जिसकी प्रसिद्धि एक सुलझे हुए शिक्षक की है, जिसके दो बड़े पुत्र भी प्रोफेसर हैं, अपने तीसरे पुत्र कर्मशील की पढ़ाई और अपनी आथर््िाक बदहाली को ठीक करने के लिये उसकी शादी किसी समृद्ध परिवार में करना चाहता है जिससे दहेज की रकम से समस्या का हल हो सके। एक सुलझे हुए प्रोफेसर की यह दकियानूसी सोंच अपनी विडंबना स्वयं प्रगट करती है। उनका तर्क देखिये - ’’... ऊपर से जो चाहो मिलेगा। पैसे की तंगी समाप्त और उसकी पढ़ाई देश में क्या विदेश में भी हो सकती है।’’
संग्रह की अन्य कहानियों के प्रोफेसर भी ऐसे ही हैं।इसके विपरीत दूसरे वर्ग में उन कहानियों को रखा जा सकता है जिनमें प्रोफेसर अनुपस्थित हैं। इस वर्ग की कहानियाँ अधिक प्रभावशाली और स्वभाविक बन पड़ी हैं। ’अलगू राम’, ’गंगिया बोल उठी’ ’परख’ ’चाक’ और ’मजबूरी की मजदूरी’ इसी वर्ग की कहानियाँ हैं जो बदलते आधुनिक भारतीय समाज के समक्ष आदर्श भी प्रस्तुत करते हैं और उसकी सच्चाई का बयान भी। ये कहानियाँ भारतीय समाज की शोषित और दमित वर्ग द्वारा, अपनी पीड़ा और उत्पीड़न से मुक्ति के लिये, शोषकों के विरूद्ध उठ खड़े होने की कहानी है, जो किसी हद तक पाठक की बौद्धिक और वैचारिक विषय की मांग को भी पूरा करने में सक्षम हैं।
जिस प्रकार से रस, छंद और अलंकार पद्य की कला पक्ष के लिये आवश्यक हैं उसी प्रकार गद्य का कला पक्ष उसकी भाषा-शैली और संवाद से निखरता है। आलोच्य संग्रह के संवाद (कथोपकथन) की भाषा न तो पात्रों के अनुकूल हैं और न ही प्रभावोत्पादक। ’जेठ की धूप’ कहानी के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा भारती के इस संवाद को देखिये - ’’सर! मुझे अब तक जानकारी नहीं थी कि शिक्षा पाना इस देश में इतना कठिन है। मुझे क्या मालूम कि यहाँ दो तरह के स्कूल हैं। एक पैसे वालों के लिये और दूसरे आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर छात्रों के लिये। आजादी के पहले तो अंग्रेज कहा करते थे भारत वासियों के लिए कि ये उनके बोझ हैं, इन्हें ढोना असंभव है। लेकिन आज भी, जब हम गोरों के पशुवत व्यवहार से मुक्त हैं, हमारे देश में हमें बाबुओं से मुक्ति नहीं मिल पाई। सरकार तो स्कूल कॉलेज चलाती है, खर्च भी धन कुबेेर की तरह करती है, लेकिन परिणाम शून्य के बराबर है। कहने को तो घंटी बजती है, टीचर वर्ग में आते हैं और फिर जाते हैं। सिर्फ खाना पूरी होती है, ऐसे स्कूलों मे सुनती हूँ सिर्फ गरीब के नंगे-भूखे बच्चे ही जाते हैं। शायद इसलिये उनके प्रति शिक्षकों को कोई कर्तव्य बोध नहीं है।’’
’बस्ते का बोझ’ कहानी मंे आठ साल के आकाश का यह संवाद देखिये -
आकाश ने अपनी बात समेटते हुए दादा को यह कह कर चकित कर दिया - ’’लेकिन आज इस देश में मेरी तरह लाखों-करोड़ों बच्चे हैं जिनके लिए रोटी की समस्या है और वे इन कान्भेन्ट स्कूलों तक किसी भी सूरत में नहीं पहुँच पाते, लेकिन मेरी समझ में मोटी रकम देकर भी इन स्कूलों में सिर्फ बस्ते का बोझ ही ढोना पड़ता है। ये सुविधा संपन्न बच्चे क्या हमारे समाज के काम आयेंगे या अपनी संपन्नता के आतंक से देश-दुनिया में अशांति फैलायेंगे? मुझे तो लगता है झूठे ज्ञान का प्रभाव इन बच्चों को अज्ञानी ही बनायेगा लेकिन मैं तो सही मनुष्य ही बनना चाहता हूँ।’’
इस तरह के संवाद न सिर्फ कहानी के कथानक को अस्वाभाविक बनाते हैं, बल्कि कहानी के शिल्प में कृत्रिमता भी पैदा करते हैं। आठ साल के बच्चे का यह संवाद न सिर्फ दादा जी को बल्कि किसी भी पाठक को चकित कर सकता है। संग्रह इसी तरह के अस्वभाविक संवादों से भरा पड़ा हैं।
’जेठ की धूप’ कहानी में जेठ के महीने में स्कूल लगना बताया गया है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, जेठ में हमारे देश में गर्मी की छुट्टियाँ चल रही होती हैं। आज देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हो चुका है और बच्चों को किसी भी तरह की सजा देना अपराध की श्रेणी में आता है। भारती को जेठ की धूप में दिन भर खडा रखने वाले शिक्षक को क्या यह पता नहीं है। इन बातों को यदि ध्यान रखा गया होता तो निसंदेह ये कहानियाँ श्रेष्ठ कहानियाँ हैं।
अब संग्रह की कहानियों की भाषा पर ध्यान दीजिये -
’सच्चो की माँ ने धीरे से उनके कान में सफुसाया।’ (जमानत) कान में क्या कोई जोर से भी फुसफुसाता है?
’अगर घर के बाहर मैं खेत में मजूरी के लिये न निकलूँ तो मेरे घर वाले तो भूखे ही पानी पीकर सो जायेंगे।’ (परख)
खेतों में मजूरी के लिये घर से बाहर तो निकलना ही पड़ेगा न। ’अगर मैं मजूरी के लिये न निकलूँ तो मेरे घर वाले भूखे ही सो जायेंगे।’ इतना लिखना क्या पर्याप्त नहीं होता ? इस तरह के भाषायी दोष से भी संग्रह भरा पडा है। कथाकार द्वारा इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाना आश्चर्यजनक है।
इन सबके बावजूद संग्रह पठनीय है तथा ’अलगू राम’, ’गंगिया बोल उठी’ ’परख’ ’चाक’ और ’मजबूरी की मजदूरी’ जैसी कहानियाँ पाठक की संवेदना को छूने और जागृत करने में सक्षम हैं। पुस्तक की छपाई तो अच्छी है लेकिन बाइंडिंग कमजोर है।
पता - व्याख्याता, शास.उच्च.माध्य.शाला कन्हारपुरी, राजनांदगांव (छ.ग.)संग्रह की कहानियों को स्पष्टतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में उन दो तिहाई कहानियों को रखा जा सकता है जिनमें कहीं न कहीं, चाहे सेवानिवृŸा हो या कार्यरत, एक प्रोफेसर (या शिक्षक) अवश्य उपस्थित है, और जिसकी वजह से ये सभी कहानियाँ किसी एक ही कथानक का विस्तार प्रतीत होती हैं। प्रोफेसर समाज का बौद्धिक वर्ग होता है। किसी भी कहानी मंे इस वर्ग की उपस्थिति से पाठक एक गंभीर और वैचारिक कथानक की अपेक्षा करता है। ’अपनी रोटी’ कहानी की प्रोफेसर डॉ. सरोज के अलावा पाठक की इस अपेक्षा को किसी और कहानी का दूसरा प्रोफेसर पूरा नहीं कर पाता। ’अपनी रोटी’ कहानी मंडल कमीशन के रिपोर्ट आने पर महाविद्यालयों में भड़की हिंसा पर आधारित है। कहानी के प्रोफेसरों के बौद्धिक दिवालियेपन की हद तो तब हो जाती है जब ’ढलते सूरज का दर्द’ कहानी के प्रोफेसर कल्पनाथ, जिसकी प्रसिद्धि एक सुलझे हुए शिक्षक की है, जिसके दो बड़े पुत्र भी प्रोफेसर हैं, अपने तीसरे पुत्र कर्मशील की पढ़ाई और अपनी आथर््िाक बदहाली को ठीक करने के लिये उसकी शादी किसी समृद्ध परिवार में करना चाहता है जिससे दहेज की रकम से समस्या का हल हो सके। एक सुलझे हुए प्रोफेसर की यह दकियानूसी सोंच अपनी विडंबना स्वयं प्रगट करती है। उनका तर्क देखिये - ’’... ऊपर से जो चाहो मिलेगा। पैसे की तंगी समाप्त और उसकी पढ़ाई देश में क्या विदेश में भी हो सकती है।’’
संग्रह की अन्य कहानियों के प्रोफेसर भी ऐसे ही हैं।इसके विपरीत दूसरे वर्ग में उन कहानियों को रखा जा सकता है जिनमें प्रोफेसर अनुपस्थित हैं। इस वर्ग की कहानियाँ अधिक प्रभावशाली और स्वभाविक बन पड़ी हैं। ’अलगू राम’, ’गंगिया बोल उठी’ ’परख’ ’चाक’ और ’मजबूरी की मजदूरी’ इसी वर्ग की कहानियाँ हैं जो बदलते आधुनिक भारतीय समाज के समक्ष आदर्श भी प्रस्तुत करते हैं और उसकी सच्चाई का बयान भी। ये कहानियाँ भारतीय समाज की शोषित और दमित वर्ग द्वारा, अपनी पीड़ा और उत्पीड़न से मुक्ति के लिये, शोषकों के विरूद्ध उठ खड़े होने की कहानी है, जो किसी हद तक पाठक की बौद्धिक और वैचारिक विषय की मांग को भी पूरा करने में सक्षम हैं।
जिस प्रकार से रस, छंद और अलंकार पद्य की कला पक्ष के लिये आवश्यक हैं उसी प्रकार गद्य का कला पक्ष उसकी भाषा-शैली और संवाद से निखरता है। आलोच्य संग्रह के संवाद (कथोपकथन) की भाषा न तो पात्रों के अनुकूल हैं और न ही प्रभावोत्पादक। ’जेठ की धूप’ कहानी के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा भारती के इस संवाद को देखिये - ’’सर! मुझे अब तक जानकारी नहीं थी कि शिक्षा पाना इस देश में इतना कठिन है। मुझे क्या मालूम कि यहाँ दो तरह के स्कूल हैं। एक पैसे वालों के लिये और दूसरे आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर छात्रों के लिये। आजादी के पहले तो अंग्रेज कहा करते थे भारत वासियों के लिए कि ये उनके बोझ हैं, इन्हें ढोना असंभव है। लेकिन आज भी, जब हम गोरों के पशुवत व्यवहार से मुक्त हैं, हमारे देश में हमें बाबुओं से मुक्ति नहीं मिल पाई। सरकार तो स्कूल कॉलेज चलाती है, खर्च भी धन कुबेेर की तरह करती है, लेकिन परिणाम शून्य के बराबर है। कहने को तो घंटी बजती है, टीचर वर्ग में आते हैं और फिर जाते हैं। सिर्फ खाना पूरी होती है, ऐसे स्कूलों मे सुनती हूँ सिर्फ गरीब के नंगे-भूखे बच्चे ही जाते हैं। शायद इसलिये उनके प्रति शिक्षकों को कोई कर्तव्य बोध नहीं है।’’
’बस्ते का बोझ’ कहानी मंे आठ साल के आकाश का यह संवाद देखिये -
आकाश ने अपनी बात समेटते हुए दादा को यह कह कर चकित कर दिया - ’’लेकिन आज इस देश में मेरी तरह लाखों-करोड़ों बच्चे हैं जिनके लिए रोटी की समस्या है और वे इन कान्भेन्ट स्कूलों तक किसी भी सूरत में नहीं पहुँच पाते, लेकिन मेरी समझ में मोटी रकम देकर भी इन स्कूलों में सिर्फ बस्ते का बोझ ही ढोना पड़ता है। ये सुविधा संपन्न बच्चे क्या हमारे समाज के काम आयेंगे या अपनी संपन्नता के आतंक से देश-दुनिया में अशांति फैलायेंगे? मुझे तो लगता है झूठे ज्ञान का प्रभाव इन बच्चों को अज्ञानी ही बनायेगा लेकिन मैं तो सही मनुष्य ही बनना चाहता हूँ।’’
इस तरह के संवाद न सिर्फ कहानी के कथानक को अस्वाभाविक बनाते हैं, बल्कि कहानी के शिल्प में कृत्रिमता भी पैदा करते हैं। आठ साल के बच्चे का यह संवाद न सिर्फ दादा जी को बल्कि किसी भी पाठक को चकित कर सकता है। संग्रह इसी तरह के अस्वभाविक संवादों से भरा पड़ा हैं।
’जेठ की धूप’ कहानी में जेठ के महीने में स्कूल लगना बताया गया है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, जेठ में हमारे देश में गर्मी की छुट्टियाँ चल रही होती हैं। आज देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हो चुका है और बच्चों को किसी भी तरह की सजा देना अपराध की श्रेणी में आता है। भारती को जेठ की धूप में दिन भर खडा रखने वाले शिक्षक को क्या यह पता नहीं है। इन बातों को यदि ध्यान रखा गया होता तो निसंदेह ये कहानियाँ श्रेष्ठ कहानियाँ हैं।
अब संग्रह की कहानियों की भाषा पर ध्यान दीजिये -
’सच्चो की माँ ने धीरे से उनके कान में सफुसाया।’ (जमानत) कान में क्या कोई जोर से भी फुसफुसाता है?
’अगर घर के बाहर मैं खेत में मजूरी के लिये न निकलूँ तो मेरे घर वाले तो भूखे ही पानी पीकर सो जायेंगे।’ (परख)
खेतों में मजूरी के लिये घर से बाहर तो निकलना ही पड़ेगा न। ’अगर मैं मजूरी के लिये न निकलूँ तो मेरे घर वाले भूखे ही सो जायेंगे।’ इतना लिखना क्या पर्याप्त नहीं होता ? इस तरह के भाषायी दोष से भी संग्रह भरा पडा है। कथाकार द्वारा इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाना आश्चर्यजनक है।
इन सबके बावजूद संग्रह पठनीय है तथा ’अलगू राम’, ’गंगिया बोल उठी’ ’परख’ ’चाक’ और ’मजबूरी की मजदूरी’ जैसी कहानियाँ पाठक की संवेदना को छूने और जागृत करने में सक्षम हैं। पुस्तक की छपाई तो अच्छी है लेकिन बाइंडिंग कमजोर है।
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