कांशीपुरी कुंदन
ये गुर सभी शरीफ आदमी नहीं जानते। पहली बात तो यह कि हमारे जैसे शरीफ को उधार मांगने में ही शर्म आयेगी । कभी हाथ फैला भी लिए तो कोशिश यही रहेगी कि मामले को जल्दी से निपटा दे । लेकिन कुछ लोग इस विधा में इतने पारंगत रहते हैं कि मिनटों में सामने वाले की जेब ढीली कर महिनों लटकाए रहते हैं । ऐसे ही दुर्लभ रत्नों से उधार लेने और नहीं देने की गुर्र सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
हमारे श्रीमती जी उधार लेने और नहीं देने का गुर मैके से ही सीख आई है । ये अनमोल कला उनकी अपनी माताजी से सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । मैं ईश्वर व श्वसुर जी का शुक्र गुजार हूं जो मुझे ऐसी निपुर्ण पत्नी दी ।
बचपन में अपनी सहेलियों पर ये गुर आजमाया करती थी, आजकल पड़ोसियों पर प्रयोग कर रहती है । चीनी, चायपत्ती से लेकर साड़ी,चप्पल, मांग कर इस कहावत को चरितार्थ करती है कि जब तक मूर्ख जिन्दा है, बुद्घिमान भूखा नहीं मर सकता ।
उस दिन हमें सिनेमा जाना था । आदेशानुसार आफि स से जल्दी आ गया । उसके बदन पर बनारसी साड़ी देखकर आश्चर्य हुआ । दीमागपर जोर डालने के बावजूद मुझे याद नहीं आया कि मैंने कब खरीदी ? उत्सुकता वश पूछ लिया - क्यों भई, साले साहब ने भिजवाई है ? आज तो खूब जंच रही हो ? वो तुनक कर बोली - देखो जी, तुम्हें बोलते - बोलते थक गई पर एक अदना सी साड़ी लाकर नहीं दे सके, उल्टे ताना कस रहे हो ।
पत्नी का तापमान अधिक देखक र सिनेमा का मजा किरकिरा हो न जाये इस गरज से हम चुप हो गये । लेकिन इस साड़ी का भेद उस समय खुला जब हमारी पड़ोसन चिल्लाती हुई घर में प्रवेश की । पत्नी को संबोधित करती हुई बोली - वाह री शीला , सिनेमा से लौटकर साड़ी वापस कर दूंगी बोली थी, आज पूरा एक सप्ताह बीत गया, इसीलिए तुम्हें कुछ देने का मन नहीं करता ।
श्रीमती जी आत्मीयता से बोली - दरअसल दीदी मैं दूसरे दिन ही लौटा देती पर क्या बताऊं, बक्से की चाबी गुम हो गई। मिलते ही भिजवा दूंगी । आप चिंता न करें ? मैं सम्हालकर रखी हूं । इनको डूप्लीकेट चाबी के लिए कहते - कहते थक गई, इन्हें घर गृहस्थी से कोई मतलब नहीं । दिन - रात कविता के चक्कर में पड़े रहते हैं । रूपये हथेली पर रख देने भर से घर थोड़ी चलता है । कितनी चीजों को याद दिलाती रहूं ? मुझे ही सब करना - सुनना पड़ता है । इन्हें क्या है । आज मामूली सी साड़ी के लिए आपसे सुनना पड़ रहा है... ।
मैं सफाई में कुछ कहता कि वह फफककर रोने लगी, साथ ही बीच में श्लोगन भी बोलती चली जाती थी - अपनी तो किस्मत ही फूटी है, पता नहीं मुए पंडित ने किस मनहूस घड़ी में शादी का मुुहूर्त निकाला था । किस फटीचर से पाला पड़ा । घर में ढंग की कोई चीज नहीं है ।
पड़ोसन बेचारी साड़ी मांगना छोड़कर उसे चुपचाप कराने लगी। पत्नी की आंखों से अविरल बहती अश्रुधारा को पोछते हुए बोली - अरी शीला, इतनी सी बात पर रोने लगी ? ताला की चाबी मिलते ही भिजवा देना ।
अंधा चाहे दो आंखें, पत्नी भी इतना सुनते ही चुप हो गई । परन्तु हाय रे पड़ोसन का दुर्भाग्य, बेचारी का इस बीच ट्रांसफर हो गया ।
आज भी पड़ोसन के साथ - साथ बचपन की सहेलियों का भी स्मरण पत्र आता रहता है, लेकिन पत्नीजी तो इसी गुर के बल पर गृहस्थी चलाने में मेरी मदद करती रहती है ।
एक हैं अनोखे लाल जी, जिनकी उधार मांगने की मौलिक एवं अनोखी शैली है । चूंकि हमारी गिनती प्रतिष्ठिïतों में है, इसलिए हमसे वे ज्यादा लाभ उठाते हैं । च्च् उन्होंने कहा है ज्ज्, च्च् भेजा है ज्ज् जैसे वाक्यों को इस अंदाज में बोलते हैं कि सुनने वाले को भरोसा हो जाता है कि इस कला को मां के उदर से ही सीख कर आए हैं । उस दिन वे शहर के बाहर गये । बातों ही बातों में बताया कि वैवाहिक कार्य में शरीक होने जा रहे हैं, लेकिन रास्ते में ख्याल आया कि पर्स घर पर ही भूल गए हैं । लौटने को हुए तो जीप बिना पेट्रोल के आगे बढ़ने से इंकार कर रही थी। ऐसे में किसी से उधार मांगना वे स्वाभिमान के खिलाफ समझते हैं । हां, कोई परिचित हो तो और बात है । हमने कहा - देखो भाई, अभी तो दौरे पर हैं, फिर हमारी गाड़ी में पेट्रोल भी कम है ... ।
वे तपाक से बोले - कुछ रूपये ही दे दीजिए, लौटकर भिजवा दूंगा.. कृपया न मत कीजिए, उधर मेरे कोई परिचित नहीं है । हमने भी सोचा - ऐसी परिस्थिति में तो लोग अपरिचितों की भी मदद करते हैं । रूपये लेकर वे चलते बने ।
काफी समय गुजर जाने के बाद हमने उनकी खोज खबर ली। अथक प्रयासों के बावजूद वे नहीं मिले, अलबत्ता मोहल्ले में एक सज्जन से उनका पता अवश्य मिला, जिन्होंने हमारी तरह विषम परिस्थितियों में उन्हें सहयोग दिया था । पत्र लिखने पर जवाब आया - हमने लौटने के दूसरे ही दिन पैसे भिजवा दिये थे, पर राशि लौट आई । शायद आपकी जगह बदल गई हो ... जबकि हम प्रारंभ से ही उसी स्थान पर जमें हुए हैं । हां, उसके बाद उनका एड्रेस जरूर बदला और हमने रूपये बटï्टे खाते में डाल दिए ।
चोखेलाल जी का उधार लेना और न लौटना पुश्तैनी धंधा है । उसके पिताश्री जीवन भर उधार लाभ उठाते - उठाते स्वर्गारोहण हो गये । एक दिन वे पधारे । हमने कहा - सुना है, आप दिल्ली जा रहे हैं ? वे बोले - वही तो बताने आया हूं, आना - जाना तो लगा ही रहता है, पर इस बार विशेष प्रयोजन से जा रहा हूं । आप तो अपनो में से है, ऐसा करिए, अधिकार पत्र लीजिए और मुझे रूपये दीजिए। मुझे ऐतराज नहीं हुआ ।
पता चला कि जनाब दिल्ली से लौट चुके हैं । अधिकार पत्र लेकर कई बार उनके आफिस का चक्कर लगाया, पर उसे देखने के लिए कोई तैयार न हुआ । मैं उनके घर गया । मुझे देखते ही बोले - आइए..... आइए, आपके पास ही जा रहा था । दिल्ली से लौटने के बाद मिलने - जुलने वालों की भीड़ लगी रही । समय ही नहीं मिल पाया । बस, एक सप्ताह बाद ही आपका निपटारा कर दूंगा । वे एक ही सांस में बोल गये । लेकिन वह एक सप्ताह क्या, कई सप्ताहों बाद भी नहीं लौटा । इस बीच सुनने में आया कि इसी गुर के बल वे एम.एल.ए. का अगला चुनाव लड़ने वाले है ।
एक है मीठावाला । नाम के अनुरूप मृदुभाषी, विनयशील, दुरदर्शी व्यक्तित्व के धनी । इनके उधार मांगने का तरीका आम शरीफों से भिन्न है । हमारे सुख - दुख तफरीह से लेकर नाश्ते - भोजन में भी शामिल होना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं । ऐसा कर्मों में हमेशा अपने पड़ोसी होने का अहसास कराते हैं । लोग उन्हें सच्चा हमदर्द कहते हैं । आदमी हो तो ऐसा । हमने भी ईश्वर के बाद उन्हें ही अपना सच्चा शुभचिंतक मान लिया हम जहां भी जाते, वे साथ हो लेते । कभी खरीददारी करते तो उन्हें भी औपचारिकता वश फिर ... हताश होकर हमें ही भुगतान करना पड़ता । हमारे संकोच का उन्होंने छककर फायदा उठाया ।
एक दिन जब हमारे धैर्य की सीमा टूट गयी और जरा सा इशारा किया तो वे तुनक गये । बोले - मुझे नहीं मालूम था कुंदन जी, आप इतने संकुचित विचारधारा के है । मित्रता में तो यह सब चलते रहता है । फिर मैं तो आपका पड़ोसी हूं । कभी भी पेमेंट कर दूंगा ... बाद में पता चला, वे औरों के हमदर्द हो गये ।
इस प्रकार उधार लेने और नहीं देने का गुर हमने काफी गंवाकर सीखा है । इसे आप लोगों को नि:शुल्क बता दिया । अमल में लाना, नहीं लाना आप पर ही छोडते हैं ।
मातृछाया,मेला मैदान, राजिम
जिला - रायपुर (छ.ग.)
ये गुर सभी शरीफ आदमी नहीं जानते। पहली बात तो यह कि हमारे जैसे शरीफ को उधार मांगने में ही शर्म आयेगी । कभी हाथ फैला भी लिए तो कोशिश यही रहेगी कि मामले को जल्दी से निपटा दे । लेकिन कुछ लोग इस विधा में इतने पारंगत रहते हैं कि मिनटों में सामने वाले की जेब ढीली कर महिनों लटकाए रहते हैं । ऐसे ही दुर्लभ रत्नों से उधार लेने और नहीं देने की गुर्र सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
हमारे श्रीमती जी उधार लेने और नहीं देने का गुर मैके से ही सीख आई है । ये अनमोल कला उनकी अपनी माताजी से सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । मैं ईश्वर व श्वसुर जी का शुक्र गुजार हूं जो मुझे ऐसी निपुर्ण पत्नी दी ।
बचपन में अपनी सहेलियों पर ये गुर आजमाया करती थी, आजकल पड़ोसियों पर प्रयोग कर रहती है । चीनी, चायपत्ती से लेकर साड़ी,चप्पल, मांग कर इस कहावत को चरितार्थ करती है कि जब तक मूर्ख जिन्दा है, बुद्घिमान भूखा नहीं मर सकता ।
उस दिन हमें सिनेमा जाना था । आदेशानुसार आफि स से जल्दी आ गया । उसके बदन पर बनारसी साड़ी देखकर आश्चर्य हुआ । दीमागपर जोर डालने के बावजूद मुझे याद नहीं आया कि मैंने कब खरीदी ? उत्सुकता वश पूछ लिया - क्यों भई, साले साहब ने भिजवाई है ? आज तो खूब जंच रही हो ? वो तुनक कर बोली - देखो जी, तुम्हें बोलते - बोलते थक गई पर एक अदना सी साड़ी लाकर नहीं दे सके, उल्टे ताना कस रहे हो ।
पत्नी का तापमान अधिक देखक र सिनेमा का मजा किरकिरा हो न जाये इस गरज से हम चुप हो गये । लेकिन इस साड़ी का भेद उस समय खुला जब हमारी पड़ोसन चिल्लाती हुई घर में प्रवेश की । पत्नी को संबोधित करती हुई बोली - वाह री शीला , सिनेमा से लौटकर साड़ी वापस कर दूंगी बोली थी, आज पूरा एक सप्ताह बीत गया, इसीलिए तुम्हें कुछ देने का मन नहीं करता ।
श्रीमती जी आत्मीयता से बोली - दरअसल दीदी मैं दूसरे दिन ही लौटा देती पर क्या बताऊं, बक्से की चाबी गुम हो गई। मिलते ही भिजवा दूंगी । आप चिंता न करें ? मैं सम्हालकर रखी हूं । इनको डूप्लीकेट चाबी के लिए कहते - कहते थक गई, इन्हें घर गृहस्थी से कोई मतलब नहीं । दिन - रात कविता के चक्कर में पड़े रहते हैं । रूपये हथेली पर रख देने भर से घर थोड़ी चलता है । कितनी चीजों को याद दिलाती रहूं ? मुझे ही सब करना - सुनना पड़ता है । इन्हें क्या है । आज मामूली सी साड़ी के लिए आपसे सुनना पड़ रहा है... ।
मैं सफाई में कुछ कहता कि वह फफककर रोने लगी, साथ ही बीच में श्लोगन भी बोलती चली जाती थी - अपनी तो किस्मत ही फूटी है, पता नहीं मुए पंडित ने किस मनहूस घड़ी में शादी का मुुहूर्त निकाला था । किस फटीचर से पाला पड़ा । घर में ढंग की कोई चीज नहीं है ।
पड़ोसन बेचारी साड़ी मांगना छोड़कर उसे चुपचाप कराने लगी। पत्नी की आंखों से अविरल बहती अश्रुधारा को पोछते हुए बोली - अरी शीला, इतनी सी बात पर रोने लगी ? ताला की चाबी मिलते ही भिजवा देना ।
अंधा चाहे दो आंखें, पत्नी भी इतना सुनते ही चुप हो गई । परन्तु हाय रे पड़ोसन का दुर्भाग्य, बेचारी का इस बीच ट्रांसफर हो गया ।
आज भी पड़ोसन के साथ - साथ बचपन की सहेलियों का भी स्मरण पत्र आता रहता है, लेकिन पत्नीजी तो इसी गुर के बल पर गृहस्थी चलाने में मेरी मदद करती रहती है ।
एक हैं अनोखे लाल जी, जिनकी उधार मांगने की मौलिक एवं अनोखी शैली है । चूंकि हमारी गिनती प्रतिष्ठिïतों में है, इसलिए हमसे वे ज्यादा लाभ उठाते हैं । च्च् उन्होंने कहा है ज्ज्, च्च् भेजा है ज्ज् जैसे वाक्यों को इस अंदाज में बोलते हैं कि सुनने वाले को भरोसा हो जाता है कि इस कला को मां के उदर से ही सीख कर आए हैं । उस दिन वे शहर के बाहर गये । बातों ही बातों में बताया कि वैवाहिक कार्य में शरीक होने जा रहे हैं, लेकिन रास्ते में ख्याल आया कि पर्स घर पर ही भूल गए हैं । लौटने को हुए तो जीप बिना पेट्रोल के आगे बढ़ने से इंकार कर रही थी। ऐसे में किसी से उधार मांगना वे स्वाभिमान के खिलाफ समझते हैं । हां, कोई परिचित हो तो और बात है । हमने कहा - देखो भाई, अभी तो दौरे पर हैं, फिर हमारी गाड़ी में पेट्रोल भी कम है ... ।
वे तपाक से बोले - कुछ रूपये ही दे दीजिए, लौटकर भिजवा दूंगा.. कृपया न मत कीजिए, उधर मेरे कोई परिचित नहीं है । हमने भी सोचा - ऐसी परिस्थिति में तो लोग अपरिचितों की भी मदद करते हैं । रूपये लेकर वे चलते बने ।
काफी समय गुजर जाने के बाद हमने उनकी खोज खबर ली। अथक प्रयासों के बावजूद वे नहीं मिले, अलबत्ता मोहल्ले में एक सज्जन से उनका पता अवश्य मिला, जिन्होंने हमारी तरह विषम परिस्थितियों में उन्हें सहयोग दिया था । पत्र लिखने पर जवाब आया - हमने लौटने के दूसरे ही दिन पैसे भिजवा दिये थे, पर राशि लौट आई । शायद आपकी जगह बदल गई हो ... जबकि हम प्रारंभ से ही उसी स्थान पर जमें हुए हैं । हां, उसके बाद उनका एड्रेस जरूर बदला और हमने रूपये बटï्टे खाते में डाल दिए ।
चोखेलाल जी का उधार लेना और न लौटना पुश्तैनी धंधा है । उसके पिताश्री जीवन भर उधार लाभ उठाते - उठाते स्वर्गारोहण हो गये । एक दिन वे पधारे । हमने कहा - सुना है, आप दिल्ली जा रहे हैं ? वे बोले - वही तो बताने आया हूं, आना - जाना तो लगा ही रहता है, पर इस बार विशेष प्रयोजन से जा रहा हूं । आप तो अपनो में से है, ऐसा करिए, अधिकार पत्र लीजिए और मुझे रूपये दीजिए। मुझे ऐतराज नहीं हुआ ।
पता चला कि जनाब दिल्ली से लौट चुके हैं । अधिकार पत्र लेकर कई बार उनके आफिस का चक्कर लगाया, पर उसे देखने के लिए कोई तैयार न हुआ । मैं उनके घर गया । मुझे देखते ही बोले - आइए..... आइए, आपके पास ही जा रहा था । दिल्ली से लौटने के बाद मिलने - जुलने वालों की भीड़ लगी रही । समय ही नहीं मिल पाया । बस, एक सप्ताह बाद ही आपका निपटारा कर दूंगा । वे एक ही सांस में बोल गये । लेकिन वह एक सप्ताह क्या, कई सप्ताहों बाद भी नहीं लौटा । इस बीच सुनने में आया कि इसी गुर के बल वे एम.एल.ए. का अगला चुनाव लड़ने वाले है ।
एक है मीठावाला । नाम के अनुरूप मृदुभाषी, विनयशील, दुरदर्शी व्यक्तित्व के धनी । इनके उधार मांगने का तरीका आम शरीफों से भिन्न है । हमारे सुख - दुख तफरीह से लेकर नाश्ते - भोजन में भी शामिल होना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं । ऐसा कर्मों में हमेशा अपने पड़ोसी होने का अहसास कराते हैं । लोग उन्हें सच्चा हमदर्द कहते हैं । आदमी हो तो ऐसा । हमने भी ईश्वर के बाद उन्हें ही अपना सच्चा शुभचिंतक मान लिया हम जहां भी जाते, वे साथ हो लेते । कभी खरीददारी करते तो उन्हें भी औपचारिकता वश फिर ... हताश होकर हमें ही भुगतान करना पड़ता । हमारे संकोच का उन्होंने छककर फायदा उठाया ।
एक दिन जब हमारे धैर्य की सीमा टूट गयी और जरा सा इशारा किया तो वे तुनक गये । बोले - मुझे नहीं मालूम था कुंदन जी, आप इतने संकुचित विचारधारा के है । मित्रता में तो यह सब चलते रहता है । फिर मैं तो आपका पड़ोसी हूं । कभी भी पेमेंट कर दूंगा ... बाद में पता चला, वे औरों के हमदर्द हो गये ।
इस प्रकार उधार लेने और नहीं देने का गुर हमने काफी गंवाकर सीखा है । इसे आप लोगों को नि:शुल्क बता दिया । अमल में लाना, नहीं लाना आप पर ही छोडते हैं ।
मातृछाया,मेला मैदान, राजिम
जिला - रायपुर (छ.ग.)
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