कु. अंकिता शर्मा
दिव्या स्कूल से आयी। आते ही मां से लिपटकर रोने लगी। मां ने रोने का कारण जानना चाहा। दिव्या सिसकती बोली - मां, मैं अब स्कू ल नहीं जाऊंगी। सहेलियां मेरी हंसी उड़ाती है, कहते हैं कि मैं कोयले के समान काली हूं।,
मां ने दिव्या के आंसू पोंछते हुए कहा - दिव्या तुम व्यर्थ ही आंसू बहा रही हो। सहेलियां है इसलिए मजाक कर देती होंगी। और फिर व्यक्ति का मूल्यांकन चरित्र के द्वारा किया जाता है न कि गोरे काले रंग से। अर्थातï् अपने गुणों के अनुरूप व्यक्ति अच्छा या बुरा कहलाता है, समझी ......।
दिव्या को मां की बातों से संतुष्टिï नहीं मिली। स्कूल के एक शिक्षक अरविन्द कुछ ही दिनों बाद पदमुक्त होने वाले थे। छात्र - छात्राओं ने उन्हें उपहार देने की सोची और अपने अपने कक्षा के मांनिटर को पैसा एकत्रित कर दे दिए। दिव्या के कक्षा की मानिटर मिताली थी। मिताली अन्य सहेलियों के साथ उपहार योग्य वस्तु खरीदने जाने लगी कि दिव्या ने भी साथ चलने की बात कही। मिताली ने उसकी हंसी उड़ा दी। कहा - तुम्हें अपने साथ ले जाकर अपनी हंसी उड़वानी है क्या? उचित तो यही है कि तुम किसी कोयले की खान में दुबक कर रहो।
सहेलयों के व्यवहार से क्षुब्ध दिव्या घर लौटने लगी कि उसके मन में विचार उठा मैंने गुल्लक में जो पैसे जमा किए है। क्यों न एक उपहार लेकर शिक्षक को दे दूं। इस विचार के उदास मन को खुशी प्रदान किया। दिव्या ने घर पहुंचकर गुल्लक को तोड़ दिया। उनमें कुल जमा रूपए गिने। एक सौ पचास रूपए थे। दिव्या ने सोचा - इतने रूपये तो कक्षा भर के विद्यार्थी भी जमा नहीं कर पाए होंगे। इतने रूपए से तो अच्छा से अच्छा उपहार लिया जा सकता है। दिव्या बाजार पहुंच गई।
मिताली सहेलियों के साथ उसी बाजार में खरीददारी करने आई थी। दिव्या ने उन लोगों को देख लिया। वह उन लोगों से इसलिए बचकर निकल जाना चाहती थी क्योंकि उसकी फिर से खिल्ली न उड़े। दिव्या आंख बचाकर निकलती कि मिताली ने उसे देख लिया। वह सहेलियों के साथ दौड़कर दिव्या के पास आई। उनके चेहरे उतरे हुए थे। मिताली की आंखों में आंसू भरे हुए थे। उनकी स्थिति का निरीक्षण कर दिव्या ने पूछा - तुम लोगों के चेहरे क्यों उतरे हुए हैं?
सहेलियों में से विनीता ने कहा कि हमने खरीददारी करने मिताली को रूपए दिए थे। उसे उसने कही गिरा डाले। दो घण्टे हो गये खोजते - खोजते पर रूपए नहीं मिल रहे। इस पर मिताली ने रू आंसू होकर मिताली ने कहा - यह सच है मगर सहेलियां मुझ पर विश्वास नहीं कर रही हैं, कह रही है मैं चोर हूं। मैंने वह रूपए रख लिए हैं। मिताली की आंखों से आंसू टपक पड़े।
उसकी स्थिति को देख दिव्या को दया आ गई। दिव्या जिन रूपयों से स्वयं खरीददारी करने आई थी उसे मिताली की ओर बढ़ा दिया। मितानी ने थोड़ा न नुकूर करने के बाद दिव्या से उसके रूपए ले लिए। मन ही मन सारी सहेलियां लज्जित थीं।
दूसरे दिन मिताली ने भरी कक्षा में दिव्या की उदारता की प्रशंसा की। उसने अपने द्वारा किए दुर्व्यवहार के लिए दिव्या से क्षमा मांगी। अन्य सहेलियों ने भी दिव्या से क्षमा मांगी। स्कूल के सभी छात्र - छात्राओं ने दिव्या की उदारता को सराहा। अब दिव्या को लगा कि मां सच कहती है - तन की नहीं, मन की उदारता सर्वोपरि होती है।
दिव्या स्कूल से आयी। आते ही मां से लिपटकर रोने लगी। मां ने रोने का कारण जानना चाहा। दिव्या सिसकती बोली - मां, मैं अब स्कू ल नहीं जाऊंगी। सहेलियां मेरी हंसी उड़ाती है, कहते हैं कि मैं कोयले के समान काली हूं।,
मां ने दिव्या के आंसू पोंछते हुए कहा - दिव्या तुम व्यर्थ ही आंसू बहा रही हो। सहेलियां है इसलिए मजाक कर देती होंगी। और फिर व्यक्ति का मूल्यांकन चरित्र के द्वारा किया जाता है न कि गोरे काले रंग से। अर्थातï् अपने गुणों के अनुरूप व्यक्ति अच्छा या बुरा कहलाता है, समझी ......।
दिव्या को मां की बातों से संतुष्टिï नहीं मिली। स्कूल के एक शिक्षक अरविन्द कुछ ही दिनों बाद पदमुक्त होने वाले थे। छात्र - छात्राओं ने उन्हें उपहार देने की सोची और अपने अपने कक्षा के मांनिटर को पैसा एकत्रित कर दे दिए। दिव्या के कक्षा की मानिटर मिताली थी। मिताली अन्य सहेलियों के साथ उपहार योग्य वस्तु खरीदने जाने लगी कि दिव्या ने भी साथ चलने की बात कही। मिताली ने उसकी हंसी उड़ा दी। कहा - तुम्हें अपने साथ ले जाकर अपनी हंसी उड़वानी है क्या? उचित तो यही है कि तुम किसी कोयले की खान में दुबक कर रहो।
सहेलयों के व्यवहार से क्षुब्ध दिव्या घर लौटने लगी कि उसके मन में विचार उठा मैंने गुल्लक में जो पैसे जमा किए है। क्यों न एक उपहार लेकर शिक्षक को दे दूं। इस विचार के उदास मन को खुशी प्रदान किया। दिव्या ने घर पहुंचकर गुल्लक को तोड़ दिया। उनमें कुल जमा रूपए गिने। एक सौ पचास रूपए थे। दिव्या ने सोचा - इतने रूपये तो कक्षा भर के विद्यार्थी भी जमा नहीं कर पाए होंगे। इतने रूपए से तो अच्छा से अच्छा उपहार लिया जा सकता है। दिव्या बाजार पहुंच गई।
मिताली सहेलियों के साथ उसी बाजार में खरीददारी करने आई थी। दिव्या ने उन लोगों को देख लिया। वह उन लोगों से इसलिए बचकर निकल जाना चाहती थी क्योंकि उसकी फिर से खिल्ली न उड़े। दिव्या आंख बचाकर निकलती कि मिताली ने उसे देख लिया। वह सहेलियों के साथ दौड़कर दिव्या के पास आई। उनके चेहरे उतरे हुए थे। मिताली की आंखों में आंसू भरे हुए थे। उनकी स्थिति का निरीक्षण कर दिव्या ने पूछा - तुम लोगों के चेहरे क्यों उतरे हुए हैं?
सहेलियों में से विनीता ने कहा कि हमने खरीददारी करने मिताली को रूपए दिए थे। उसे उसने कही गिरा डाले। दो घण्टे हो गये खोजते - खोजते पर रूपए नहीं मिल रहे। इस पर मिताली ने रू आंसू होकर मिताली ने कहा - यह सच है मगर सहेलियां मुझ पर विश्वास नहीं कर रही हैं, कह रही है मैं चोर हूं। मैंने वह रूपए रख लिए हैं। मिताली की आंखों से आंसू टपक पड़े।
उसकी स्थिति को देख दिव्या को दया आ गई। दिव्या जिन रूपयों से स्वयं खरीददारी करने आई थी उसे मिताली की ओर बढ़ा दिया। मितानी ने थोड़ा न नुकूर करने के बाद दिव्या से उसके रूपए ले लिए। मन ही मन सारी सहेलियां लज्जित थीं।
दूसरे दिन मिताली ने भरी कक्षा में दिव्या की उदारता की प्रशंसा की। उसने अपने द्वारा किए दुर्व्यवहार के लिए दिव्या से क्षमा मांगी। अन्य सहेलियों ने भी दिव्या से क्षमा मांगी। स्कूल के सभी छात्र - छात्राओं ने दिव्या की उदारता को सराहा। अब दिव्या को लगा कि मां सच कहती है - तन की नहीं, मन की उदारता सर्वोपरि होती है।
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