जयशंकर प्रसाद
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे - धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम - कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनी रे ।
जहाँ साँझ - सी जीवन - छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पाँति घनी रे ।
जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र.पट चल माया में,
विभुता विभु - सी पड़े दिखाई
दुख - सुख बाली सत्य बनी रे ।
श्रम - विश्राम क्षितिज - वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी रे !
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