- मुंशी प्रेमचंद
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मुंशी प्रेमचंद |
प्यारे मित्रों,
आपने मुझे जो यह सम्मान दिया है उसके लिए मैं आपको सौ $जबानों धन्यवाद देना चाहता हूं। क्योंंकि आपने मुझे वह चीज दी है जिसके मैं बिल्कुल अयोग्य हूं। न मैंने हिन्दी साहित्य पढ़ा है न उसका इतिहास पढ़ा हूं न उसके विकासक्रम के बारे में ही कुछ जानता हूं। ऐसा आदमी इतना पाकर फूला न समाए तो वह आदमी नहीं। नेवता पाकर मैंने उसे तुरंत स्वीकार किया। लोगों में मन भए और मुंडिया हिलाए की जो आदत होती है, वह खतरा मैं न लेना चाहता था। यह मेरी ढिठाई है कि मैं यहां वह काम करने खड़ा हुआ हूं जिसकी मुझमें लियाकत नहीं है। लेकिन इस तरह गंदुनुमाई का मैं अकेला मुजरिम नहीं हूं। मेरे भाई घर - घर में, गली - गली में मिलेंगे। आपको तो अपने नेवते की लाज रखनी है। मैं जो कुछ भी अनाप - शनाप बकूं, उसकी खूब तारीफ कीजिए, उसमें जो अर्थ न हो, वह पैदा कीजिए। उसमें अध्यात्म के और साहित्य के तत्व खोज निकालिए - जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
आपकी सभा ने पन्द्रह - सोलह साल के मुख्तसर समय में जो काम कर दिखलाया है, उस पर मैं आपको बधाई देता हूं। खासकर इसलिए कि आपने अपनी ही कोशिशों से यह नतीजा हासिल किया है। सरकारी इमदाद का मुंह नहीं ताका। जो अंगरेजी आचार - विचार भारत में अग्रगण्य थे और हैं, वे लोग राष्टï्रभाषा के उत्थान पर कमर बाँध लें तो क्या कुछ नहीं कर सकते ? और यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि जिन दिमागों ने एक दिन विदेशी भाषा में निपुण होना अपना ध्येय बनाया था, वे आज राष्टï्रभाषा का उद्धार करने पर कमर कसे नजर आते हैं और जहां से मानसिक पराधीनता की लहर उठी थी वहीं से राष्टï्रीयता की तरंगे उठ रही है। और गत वर्ष यानी दल के नेताओं के भाषण सुनकर मुझे यह स्वीकार करना पड़ता है कि यह क्रिया शुरु हो गई है। हिन्दी प्रचारक में अधिकांश लेख आप लोगों के ही लिखे होते हैं और उनकी मंजी हुई भाषा और सफाई और प्रवाह पर हममें से बहुतों को रश्क आता है। और यह तब है जब राष्टï्र -भाषा - प्रेम अभी दिलों के ऊपरी भाग तक पहुंचा है। और आज भी यह प्रांत अंगरेजी भाषा के प्रभुत्व से मुक्त होना नहीं चाहता। जब यह प्रेम दिलों में व्याप्त हो जाएगा। उस वक्त उसकी गति कितनी तेज होगी, इसका कौन अनुमान कर सकता है।
कैदी को बेड़ी से जितनी तकलीफ होती है उतनी और किसी बात से नहीं होती। कैदखाना शायद उसके घर से ज्यादा हवादार, साफ - सुथरा होगा। भोजन भी वहां शायद घर के भोजन से अच्छा और स्वादिष्टï मिलता हो। बाल - बच्चों से वह कभी - कभी स्वेच्छा से बरसों अलग रहता है। उसकी याद दिलाने वाली चीज यही बेड़ी हैं, जो उठते - बैठते, सोते - जागते, हंसते - बोलते, कभी उसका साथ नहीं छोड़ती। कभी उसे मिथ्या कल्पना भी नहीं करने देती क वह आजाद है। पैरों से कहीं ज्यादा उसका असर कैदी के दिल पर होता है। जो कभी उभरने नहीं पाता, कभी मन की मिठाई भी नहीं खाने पाता। अंगरेजी भाषा हमारी पराधीनता की बेड़ी है। जिसने हमारे मन और बुद्धि को ऐसा जकड़ रखा है कि उनमें इच्छा भी नहीं रही। हमारा शिक्षित समाज इस बेड़ी को गले का हर समझने पर मजबूर है। यह उसकी रोटियों का सवाल है। और अगर रोटियों के साथ कुछ सम्मान, कुछ गौरव, कुछ अधिकार भी मिल जाय तो क्या कहना।
लेकिन मित्रों विदेशी भाषा सीखकर अपने गरीब भाईयों पर रौब जमाने के दिन बड़ी तेजी से विदा होते जा रहे हैं। प्रतिभा का और बुद्धि बल का दुरुपयोग हम सदियों से करते आए हैं। जिसके बल पर हमने अपनी एक अमीरशाही स्थापित कर ली है और अपने को साधारण जनता से अलग कर लिया है। वह अवस्था अब बदलती जा रही है। बुद्धि - बल ईश्वर की देन है और उसका धर्म प्रजा पर धौंस जमाना नहीं, उसका खून चूसना नहीं, उसकी सेवा करना है। आज शिक्षित समुदाय पर से जनता का विश्वास उठ गया है। वह उसे उससे अधिक विदेशी समझती है, जितनी विदेशियों को। क्या कोई आश्चर्य है कि वह समुदाय आज दोनो तरफ से ठोकरें खा रहा है ? स्वामियों की ओर से इसलिए कि वह समझते हैं - मेरी चौखट के सिवा इनके लिए कोई आश्रय नहीं और जतना की ओर से इसलिए कि उनका इससे कोई आत्मीय संबंध नहीं। उनका रहन - सहन, उनकी बोलचाल, उनकी वेषभूषा उनके विचार और व्यवहार सब जनता से अलग है। और यह केवल इसलिए कि हम अंगरेजी भाषा के गुलाम हो गए। मानो परिस्थति ऐसी है कि बिना अंगरेजी भाषा की उपासना किए काम नहीं चल सकता।
लेकिन अब तो इतने दिनों के तजुरबे के बाद मालूम हो जाना चाहिए कि इस नाव पर बैठ क हम पार नहीं लग सकते। फिर हम क्यों आज भी उसी से चिपटे हुए हैं ? अभी गत वर्ष एक इंटर - यूनिवर्सिटी कमीशन बैठा था कि शिक्षा संबंधी विषयों पर विचार करें। उसमें एक प्रस्ताव यह भी था कि शिक्षा का माध्यम अंगरेजी की जगह मातृभाषा क्यों न रखा जाय। बहुमत से इस प्रस्ताव का विरोध किया, क्यों ? इसलिए कि अंगरेजी माध्यम के बगैर अंगरेजी में हमारे बच्चे कच्चे रह जायेंगे। और अच्छी अंगरेजी लिखने और बोलने में समर्थ न होंगे मगर इन डेढ़ सौ वर्ष की घोर तपस्या के बाद आज तक भारत ने एक भी ऐसा ग्रंथ नहीं लिखा जिसका इंग्लैण्ड में उतना ही मान होता जितना एक तीसरे दर्जे के अंगरेजी लेखक का होता है। फिर भी हमारे लिए शिक्षा का अंगरेजी का माध्यम जरुरी है। यह हमारे विद्वानों की राय है। जापान और चीन और ईरान में तो शिक्षा का माध्यम अंगरेजी नहीं है। फिर भी वे सभ्यता की हरेक बात में हमसे कोसों आगे है लेकिन अंगरेजी माध्यम के बगैर हमारी नाव डूब जायेगी। हमारे मारवाड़ी भाई हमारे धन्यवाद के पात्र है कि कम से कम जहां तक व्यापार में उनका संबंध है, उन्होंने कौमियत की रक्षा की।
मित्रों, शायद मैं अपने विषय से बहक गया हूं, लेकिन मेरा आशय केवल यह है कि हमें मालूम हो जाय, हमारे सामने कितना महान काम है। यह समझ लीजिए कि जिस दिन हम अंगरेजी भाषा का प्रभुत्व तोड़ देंगे और अपनी एक कौमी भाषा बना लेंगे, उसी दिन आपको स्वराज्य के दर्शन हो जायेंगे। मुझे याद नहीं आता कि कोई भी राष्टï्र विदेशी भाषा के बल पर स्वाधीनता प्राप्त सका हो। राष्टï्र की बुनियाद राष्टï्र की भाषा है। नदी, पहाड़ और समुद्र राष्टï्र नहीं बनाते। भाषा ही वह बंधन है जो चिरकाल तक राष्टï्र को एक सूत्र में बांधे रहता है। और उसका शीराजा बिखरने नहीं देता।
अगर हम एक राष्टï्र बनकर अपने स्वराज्य के लिए उद्योग करना चाहते हैं तो हमें राष्टï्रभाषा का आश्रम लेना होगा और उसी राष्टï्रभाषा के बख्तर से हम अपने राष्टï्र की रक्षा कर सकेंगे। आप उसी राष्टï्र भाषा के भिक्षु है और इस नाते आप राष्टï्र का निर्माण कर रहे हैं। सोचिए, आप कितना महान काम करने जा रहे हैं। आप कानूनी बाल की खाल निकालने वाले वकील नहीं बन रहे है आप शासन मिल के मजदूर नहीं बना रहे हैं, आप एक बिखरी हुई कौम को मिला रहे हैं। आप अपने बंधुत्व की सीमाओं को फैला रहे हैं। भूले हुए भाइयों को गले मिला रहे हैं। इस काम की पवित्रता और गौरव को देखते हुए कोई ऐसा कष्टï नहीं है जिसका आप स्वागत न कर सकें। यह धन का मार्ग नहीं है। संभव है कि कीर्ति कामागर भी न हो, लेकिन आपके आत्मिक संषोत के लिए इससे बेहतर काम नहीं हो सकता। यही आपके बलिदान का मूल्य है। मुझे आशा है, यह आदर्श आपकेसामने रहेगा। आदर्श का महत्व आप खूब समझते हैं। वह हमारे रुकते हुए कदम को बढ़ाता है। हमारे दिलों से संशय और संदेह की छाया को मिटाता है। और कठिनाइयां में हमें साहस देता है।
राष्टï्रभाषा से हमारा क्या आशय है, इसके विषय में भी मैं आपसे दो शब्द कहूंगा। इसे हिन्दी कहिए, हिन्दुस्तानी कहिए या उर्दू कहिए, चीज एक है। नाम से हमारी कोई बहस नहीं। ईश्वर भी वही है जो खुदा है और राष्टï्रभाषा में दोनों के लिए समान रुप से सम्मान का स्थान मिलना चाहिए। अगर हमारे देश में ऐसे लोगों की काफी तादाद निकल आए जो ईश्वर को गॉड कहते है तो राष्टï्रभाषा उनका स्वागत करेगी। जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बराबर बनती रहती है। शुद्ध हिन्दी तो निरर्थक शब्द है। जब भारत शुद्ध हिन्दू होता तो उसकी भाषा शुद्ध हिन्दी होती। अब तक यहाँ मुसलमान, ईसाई, फारसी, अफगानी सभी जातियाँ मौजूद है। हमारी भाषा व्यापक रहेगी। अगर हिन्दी भाषा प्रांतीय रहना चाहती है तब तो वह शुद्ध बनाई जा सकती है। उसका अंग भंग करके उसका कायाकल्प करना होगा। प्रौढ़ से यह फिर शिशु बनेगी, यह असंभव है, हास्यास्पद है। हमारे देखते - देखते सैकड़ों विदेशी शब्द में आ घुसे, हम उन्हें रोक नहीं सकते। उनका आक्रमण रोकने की चेष्टïा ही व्यर्थ है। वह भाषा के विकास में बाधक होगी। वृक्षों को सीधा और सुडौल बनाने के लिए पौधों को एक थूनी का सहारा दिया जाता है। आप विद्वान का ऐसा - ऐसा नियंत्रण रख सकते हैं कि अश्लील, कुरुचिपूर्ण, कर्णकटु, भद्दे शब्द व्यवहार में न आ सकें, पर यह नियंत्रण केवल पुस्तकों पर हो सकता है। बोलचाल पर किसी प्रकार का नियंत्रण रखना मुश्किल होगा।
हमारा आदर्श तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सके। अगर इस आदर्श को हम अपने सामने रखें तो लिखते समय भी हम शब्द - चातुरी के मोह में न पड़ेंगे। यह गलत है कि फारसी शब्दों से भाषा कठिन हो जाती है। शुद्ध हिन्दी के ऐसे पदों के उदाहरण दिए जा सकते हैं। जिनका अर्थ निकालना पंडितों के लिए भी लोहे के चने चबाना है। वही शब्द सरल है, जो व्यवहार में आ रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह तुर्की है या अरबी या पुर्तगाली। उर्दू और हिन्दी में क्यों इतना सौतिया - डाह है, यह मेरी समझ में नहीं आता। अगर एक समुदाय के लोगों को उर्दू नाम प्रिय है तो उन्हें उनका इस्तेमाल करने दीजिए। जिन्हें हिन्दी नाम से प्रेम है, वह हिन्दी ही कहे। इसमें लड़ाई काहे की ? एक चीज के दो नाम देकर ख्वाहमख्वाह आपस में लड़ना और उसे इतना महत्व देना कि वह राष्टï्र की एकता में बाधक हो जाय, यह मनोवृत्ति रोगी और दुर्बल मन की है।
मुसलमान दोस्तों से भी मुझे कुछ अर्ज करने का हक है, क्योंकि मेरा सारा जीवन उर्दू की सेवकाई करते गुजरा है और आज भी मैं जितनी उर्दू लिखता हूं उतनी हिन्दी नहीं लिखता। और कायस्थ होने और बचपन से फारसी का अभ्यास करने के कारण उर्दू मेरे जितनी स्वाभाविक है, उतनी हिन्दी नहीं। मैं पूछता हूं - आप हिन्दी को क्यों गरदनजदनी समझते हैं ? क्या आपको मालूम है, और नहीं तो होना चाहिए का हिन्दी का सबसे पहला शायर जिसने हिन्द का साहित्यिक बीज बोया व्यावहारिक बीज सदियों पहले पड़ चुका था वह अमीर खुसरो था। क्या आपको मालूम है। कम से कम पांच सौ साल पहले मुसलमान शायरों ने हिन्दी को अपनी कविता से धनी बनाया है, जिनमें कई तो चोटी के शायर है ? क्या आपको मालूम है अकबर और जहाँगीर और औरंगजेब तक हिन्दी कविता का शौक रखते थे और औरंगजेब ने ही आमों के नाम रसनाविलास और सुधारस रखे थे ? क्या आपको मालूम है, आज भी हसरत और ह$फीज जालन्धरी जैसे कवि कभी - कभी हिन्दी में तबाआजमाईकरते हैं। क्या आपको मालूम है हिन्दी में हजारों शब्द, हजारों क्रियाएं अरबी और फारसी से आई है, और ससुराल में आकर घर की देवी हो गई है। अगर यह मालूम होने पर भी हिन्दी को उर्दू से अलग समझते हैं तो आप देश के साथ और अपने साथ बेइन्साफी करते हैं।
लेकिन प्रश्र उठता है कि राष्टï्रभाषा कहाँ तक हमारी जरुरतें पूरी कर सकती है ? उपन्यास, कहानियाँ, यात्रावृत्तांत, समाचार पत्रों के लेख आलोचना, अगर बहुत गुढ़ न हो यह सब तो राष्टï्रभाषा में अभ्यास कर लेने से लिखे जा सकते हैं। जिनको आप राष्टï्रभाषा में नहीं ला सकते। साधारण बातें तो साधारण ओर सरल शब्दों में लिखी जा सकती है। विवेचनात्मक विषयों में यहां तक कि उपन्यास में भी जब वह मनोवैज्ञानिक हो जाता है। आपको मजबूर होकर संस्कृत या अरबी - फारसी के शब्दों की शरण लेनी पड़ती है। अगर हमारी राष्टï्रभाषा सर्वाड्.गपूर्ण नहीं है और उसमें आप हर एक विषय, हर एक भाव प्रकट नहीं कर सकते तो उसमें यह बड़ा भारी दोष है। और यह सभी का कर्तव्य है कि हम राष्टï्रभाषा को उसी तरह सर्वाड्गपूर्ण बनायें जैसा अन्य राष्टï्रों की सम्पन्न भाषाएं हैं।
ये तो अभी हिन्दी और उर्दू अपने पृथक रुप में भी पूर्ण नहीं है। पूर्ण क्या अधूरी भी नहीं है। जो राष्टï्र लिखने का अनुभव रखते हैं, उन्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि एक - एक भाव के लिए उन्हें कितना सिरमनगजन करना पड़ता है। सरल शब्द मिलते ही नहीं, मिलते हैं तो भाषा में खपते नहीं। भाषा का रुप बिगाड़ देते हैं। खीर में नमक के डले की भाँति आकर मजा किरकिरा कर देते हैं। इसका कारण तो स्पष्टï ही है कि हमारी जनता में भाषा ज्ञान बहुत थोड़ा है और आम$फहम शब्दों की संख्या बहुत ही कम है। जब तक जनता में शिक्षा का अच्छा प्रचार नहीं हो जाता उसकी व्यावहारिक शब्दावली बढ़ नहीं जाती हम उनके समझने के लायक भाषा में तात्विक विवेचनाएं नहीं कर सकते। हमारी हिन्दी भाषा ही अभी सौ बरस की नहीं हुई, राष्टï्रभाषा तो अभी शैशवावस्था में है, ओर फिलहाल यदि हम उसमें सरल साहित्य लिख सके तो हमको संतुष्टï होना चाहिए। इसके साथ ही हमें राष्टï्रभाषा का कोश बढ़ाते रहना चाहिए। वहीं संस्कृत और अरबी - फारसी के शब्द जिन्हें देखकर आज हम भयभीत हो जाते हैं, जब अभ्यास में आ जाएंगे तो उनका हौआपन जाता रहेगा।
जिस देश में जन - शिक्षा की सतह इतनी नीची हो, उसमें अगर कुछ लोग अंगरेजी में अपनी विद्वत्ता का सेहरा बाँध ही ले तो क्या ? हम तो तब जाने जब विद्वत्ता के साथ - साथ दूसरों को भी ऊंची सतह पर उठाने का भाव मौजूद हो। भारत में केवल अंगेरजीदां नहीं रहते। हजार में नौ सौ निन्यानबे आदमी अंगरेजी अक्षर भी नहीं जानते। जिस देश का दिमाग विदेशी भाषा में सोचे और लिखे उस देश को अगर संसार राष्टï्र नहीं समझता तो क्या वह अन्याया करता है। जब तक आपके पास राष्ट्रभाषा नहीं, आपका राष्टï्र भी नहीं। दोनों में कारण और कार्य का संचय है। राजनीति के माहिर अंगरेज शासकों को अब राष्टï्र की हॉक लगाकर धोखा नहींं दे सकते। वे आपकी पोल जानते हैं और आपके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं।
अब हमें यह विचार करना है राष्टï्रभाषा का प्रचार कैसे बढ़े। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे नेताओं ने इस तरफ मुजिरमाना गफलत दिखाई है। वे अभी तक इस भ्रम में पड़े हुए हैं कि यह कोई बहुत छोटा - मोटा विषय है। जो छोटे - मोटे आदमियों के करने का है और उनके जैसे बड़े आदमियों को इतनी कहां फुरसत कि वह झंझट में पड़े। उन्होंने अभी तक इस काम का महत्व नहीं समझा नहीं तो शायद यह उनके प्रोग्राम की पहली पाँति में होता। मेरे विचार में जब राष्टï्र में इतना संगठन, इतना एक्ट, इतना एकात्मपन न होगा कि वह एक भाषा में बात कर सके तब तक उसमें वह शक्ति भी न होगी कि स्वराज्य प्राप्त कर सकें। गैरमुमकिन है। जो राष्टï्र के अगुआ है, जो एलेक्शनों में खड़े होते हैं, और फतह पाते हैं। उनसे भी बड़े अदब के साथ गुजारिस करुंगा कि हजरत इस तरह के एक सौ एलेक्शन आएंगे और निकल जाएंगे लेकिन स्वराज्य आपसे उतनी ही दूर रहेगा, जितनी दूर स्वर्ग है। अंगरेजी में आप अपने गुदा निकाल कर रख दें लेकिन आपकी आवाज में राष्टï्र का बल न होने के कारण कोई आपकी उतनी परवाह भी न करेगा, जितनी बच्चों के रोने की करता है। बच्चों के रोने पर खिलौने और मिठाइयां मिलती है। वह शायद आपको भी मिल जावें, जिसमें आपकी चिलपों से माता - पिता के काम में विध्र न पड़े। इस काम को तुच्छ न समझिए। यही बुनियाद है। आपके अच्छे से अच्छा गारा, मसाला सीमेंट और बड़ी से बड़ी निर्माण योग्यता जब तक वहाँ खर्च न होगी। आपकी इमारत न बनेगी, घरौंदा शायद बन जाय, जो एक हवा के झोंके में उड़ जाएगा।
दरअसल अभी हमने जो कुछ किया है, वह नहीं के बराबर है। एक अच्छा सा राष्टï्रभाषा का विद्यालय तो हम खोल नहीं सके। हर साल सैकड़ों स्कूल खुलते हैं। जिनकी मुल्क को बिलकुल जरुरत नहीं। उसमानिया विश्वविद्यालय काम की चीज है। अगर वह हिन्दी और उर्दू के बीच की खाई को चौड़ी न बना दे। फिर भी मैं उसे विश्वविद्यालय पर तरजीह देता हूं। कम से कम अंगरेजी की गुलाती से तो उसने अपने को मुक्त कर लिया और हमारे जितने विद्यालय है सभी गुलामी के कारखाने है, जो लड़कों को स्वार्थ का, जरुरतों का, नुमाइश का, अकर्मण्यता का गुलाम बनाकर छोड़ देते हैं और लुत्फ यह है कि यह तालीम भी मोतियों के मोल बिक रही है। इस शिक्षा की बाजारी कीमत शून्य के बराबर है, फिर भी हम क्यों भेड़ों की तरह उसके पीछे दौड़े चले जा रहे हैं।
मेरे सामने दक्खिन से बीसों विद्यार्थी भाषा पढ़ने के लिए काशी गए, पर वहां कोई प्रबंध नहीं। वही हाल अन्य स्थानों में भी है। बेचारे इधर - उधर ठोकरें खाकर लौट आए। अब कुछ विद्यार्थियों की शिक्षा का प्रबंध हुआ है मगर जो कमा हमें करना है, उसके देखते ही नहीं के बराबर है। प्रचार के और तरीकों में अच्छे ड्रामों का खेलना अच्छे नतीजे पैदा कर सकता है। इस विषय में हमारा सिनेमा प्रशंसनीय काम कर रहा है। हालांकि उसके द्वारा तो कुरुचि, गंदापन, जो विलास - प्रेम, जो कुवासना फैलाई जा रही है, वह इस काम के महत्व को मिटï्टी में मिला देती है। अगर हम अच्छे भावपूर्ण ड्रामें स्टेज पर कर सकें तो अवश्य प्रचार बढ़ेगा। हमेंं सच्चे मिशनरियों की जरुरत है और आपके ऊपर इस मिशन का दायित्व है। बड़ी मुश्किल यह है कि जब तक किसी वस्तु की उपयोगिता प्रत्यक्ष रुप से दिखाई न दे। कोई उसके पीछे क्यों अपना समय नष्टï करें।
अगर हमारे नेता और विद्वान, जो राष्टï्रभाषा के महत्व से बेखबर नहीं हो सकते, राष्टï्रभाषा व्यवहार कर सकते तो जनता में उस भाषा की ओर विशेष आकर्षण होगा। मगर यहां तो अंगरेजियत का नशा सवार है। प्रचार का एक और साधन है कि भारत के अंगरेजी और अन्य भाषाओं के पन्नों को हम इस पर आमादा करें कि वे अपने पत्र के एक दो कॉलम नियमित रुप से राष्टï्रभाषा के लिए दे सके। अगर हमारी प्रार्थना स्वीकार करें तो उससे भी बहुत फायदा हो सकता है। हम तो उस दिन का स्वप्र देख रहे हैं, जब राष्टï्रभाषा पूर्ण रुप से अंगरेजी का स्थान ले लेगी। जब हमारे विद्वान राष्ट्रभाषा में अपनी रचनाएं करेंगे जब मद्रास से मैसूर, ढाका और पूना सभी स्थानों से राष्टï्रभाषा के ग्रंथ निकलेंगे। उत्तम पत्र प्रकाशित होगे और भू - मंडल की भाषाओं और साहित्यों की मजलिस में हिन्दुस्तानी साहित्य और भाषा को भी गौरव का स्थान मिलेगा। जब हम मँगनी के सुंदर कलेवर में नहीं। अपने फटे वस्त्रों में ही सही, संसार साहित्य में प्रवेश करेंगे। वह स्वप्र पूरा होगा या अंधकार में विलीन हो जायेगा इसका फैसला हमारी राष्टï्र - भावना के हाथ है। अगर हमारे हृïदय में वह बीज पड़ गया है तो हमारी सम्पूर्ण प्राण शक्ति से फले - फूलेगा। अगर केवल जिव्हा तक ही है तो सूख जाएगा।
हमारा प्राचीन साहित्य सारे का सारा काव्यमय है। और यद्यपि उसमें श्रृंगार और भक्ति की मात्रा ही अधिक है फिर भी बहुत कुछ पढ़ने योग्य है। भक्त कवियों की रचनाएं देखनी है तो तुलसी और सूर और मीरा आदि अध्ययन कीजिए। ज्ञान में कबीर, अपना सानी नहीं रखता और श्रृंगार तो इतना अधिक है कि उसने एक प्रकार से हमारी पुरानी कविता को कलंकित कर दिया है। मगर वह उन कवियों का दोष नहीं, परिस्थितियों का दोष है। जिनके अन्दर उन कवियों को रहना पड़ा। उस जमाने में कला दरबारों के आश्रय में जीती थी और कलाविदों को अपने स्वामियों की रुचि का ही लिहाज करना पड़ता था। उर्दू कवियों का भी यही हाल है। यही उस जमाने का रंग था। हमारे रईस लोग विलास में मग्न थे और प्रेम, विरह, वियोग के सिवा उन्हें कुछ न सूझता था। अगर कहीं जीवन का न$कशा है भी तो यही कि संसार चंद - रोजा है, अनित्य है, और यह दुनिया दुख का भंडार है और इसे जितनी जल्दी छोड़ दो उतना ही अच्छा। इन थोथे वैराग्य के सिवा और कुछ नहीं। हाँ, सुक्यिों और सुभाषितों की दृष्टिï से वह अमूल्य है। उर्दू की कविता आज भी उसी रंग पर चली जा रही है। यद्यपि विषय में थोड़ी सी गहराई आ गई है।
अगर आप दुख का विलास चाहते हैं तो महादेवी,प्रसाद, पंत, सुभद्रा, लली, द्विज, मिलिन्द, नवीन,पं. माखनलाल चतुर्वेदी आदि कवियों की रचनाएं पढ़िए। मैंने केवल उन कवियों के नाम दिए हैं, जो मुझे याद आए। नहीं तो और भी ऐसे कई कवि है। जिनकी रचनाएं पढ़ कर आप अपना दिल थाम लेंगे। दुख के स्वर्ग में पहुंच जायेंगे। काव्यों का आन्नद लेना चाहे तो मैथिलीशरण गुप्त और त्रिपाठी जी को पढ़िए। ग्राम्य साहित्य का दफीना भी त्रिपाठी जी ने खोदकर आपके सामने रख दिया है। इसमें से जितने रत्न चाहे शौक से निकाल ले जाइए और देखिए, उस देहाती गान में कवित्व की कितनी माधुरी और कितना अनूठापन है। ड्रामे का शौक है तो लक्ष्मीनारायण मिश्र के सामाजिक और क्रांतिकारी नाटक पढ़िए। ऐतिहासिक और भावमय नाटकों की रुचि है तो प्रसाद जी की लगाई गई पुष्पवाटिकाओं की सैर कीजिए। उर्दू में सबसे अच्छा नाटक मेरी नजर से गुजरा वह ताज का रचा हुआ अनारकली है। हास्य रस के पुजारी तो अन्नपूर्णानंद की रचनाएं पढ़िए। राष्टï्रभाषा के सच्चे नमूने देखना चाहते हैं तो जी. पी. श्रीवास्तव के हँसाने वाले नाटकों की सैर कीजिए। उर्दू में हास्य रस के कई ऊँचे दर्जे के लेखक है और पंडित रतननाथ दर तो इस रंग में कमाल कर गए है। उमर खैयाम का मजा हिन्दी में लेना चाहें तो बच्चन कवि की मधुशाला में जा बैठिए। उसकी महक से ही आपको सरुर आ जाएगा। गल्प - साहित्य में प्रसाद कौशिक, जैनेन्द्र भारतीय, अज्ञेय, वीरेश्वर आदि की रचनाओं में आप वास्तविक जीवन की झलक देख सकते हैं। उर्दू के उपन्यासकारों में शरर, मि$र्जा, रुसवा, सज्जाद हुसैन, न$जीर अहमद आदि प्रसिद्ध है और उर्दू में राष्टï्रभाषा के सबसे अच्छे लेखक ख्वाजा हसन नि$जामी है। जिनकी कलम में दिल हिला देने की ताकत है। हिन्दी के उपन्यास क्षेत्र में अभी अच्छी चीजें कम आई है। मगर लक्षण कह रहे हैं कि नई पौध इस क्षेत्र में नए उत्साह, नए दृष्टिïकोण, नए संदेश के साथ आ रही है। एक युग की इस तरक्की पर हमें लज्जित होने का कारण नहीं है।
मित्रों मैं आपका बहुत सा समय ले चुका लेकिन एक झगड़े की बात बाकी है, जिसे उठाते हुए मुझे डर लग रहा है। इतनी देर तक उसे टालता रहा पर उसका भी कुछ समाधान करना लाजिमी है। वह राष्टï्रलिपि का विषय है। बोलने की भाषा तो किसी तरह एक हो सकती है, लेकिन लिपि कैसे एक हो हिन्दी और उर्दू लिपियों में तो पूरब - पश्चिम का अंतर है। मुसलमानों को अपनी फारसी लिपि उतनी ही प्यारी है जितनी हिन्दुओं की अपनी नागरी लिपि। वह मुसलमान भी जो तमिल, बंगला, या गुजराती लिखते - पढ़ते हैं। उर्दू को धार्मिक श्रद्धा से देखते हैं, क्योंकि अरबी और फारसी लिपि में वही अंतर है जो नागरी और बंगला में है, बल्कि उससे भी कम। इस फारसी लिपि में उनका प्राचीन गौरव, उनकी संस्कृति उनका ऐतिहासिक महत्व सब कुछ भरा हुआ है। उसमें कुछ कच्चाईयाँ हैं तो खूबियाँ भी है। जिसके बल पर वह अपनी हस्ती कायम रख सके हैं। वह एक प्रकार का शार्टहैंड हैं। हमें अपनी राष्टï्रभाषा और राष्टï्रलिपि का प्रचार मित्रभाव से करना हैद्घ इसका पहला कदम है कि हम नागरी लिपि स्वीकार कर लें तो राष्ट्रीय लिपि का प्रश्न बहुत कुछ हल हो जाएगा और कुछ नहीं तो केवल संख्या ही नागरी को प्रधानता दिला देगी। और हिन्दी लिपि का तो सीखना इतना आसान है और इस लिपि के द्वारा उनकी रचनाओं और पत्रों का प्रचार इतना ज्यादा हो सकता है कि मेरा अनुमान है। वे उसे आसानी से स्वीकार कर लेगें।
हम उर्दू लिपि को मिटाने नहीं जा रहे हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि हमारी एक कौमी लिपि हो जाएं। अगर सारा देश नागरी लिपि का हो जाएगा तो संभव है, मुसलमान भी उस लिपि को कुबूल कर लें। राष्टï्रीय चेतना उन्हें बहुत दिनों तक अलग न रहने देगी। क्या मुसलमानों में यह स्वाभाविक इच्छा नहीं होगी कि उनके पत्र और उनकी पुस्तकें सारे भारतवर्ष में पढ़ी जाएं ? हम तो किसी लिपि को मिटाना नहीं चाहते। हम तो इतना ही चाहते हैं कि अंतर्प्रान्तीय व्यवहार नागरी में हो। मुसलमानोंं में राजनीतिक जागृति के साथ यह प्रश्र अपने आप हल हो जाएगा। यू.पी. में यह आंदोलन भी हो रहा है कि स्कूलों में उर्दू के छात्रों को हिन्दी और हिन्दी के छात्रों को उर्दू का इतना ज्ञान अनिवार्य कर दिया जाये कि वह मामूली पुस्तक पढ़ सके और खत लिख सकें। अगर वह आंदोलन सफल हुआ जिसकी आशा है तो प्रत्येक बालक हिन्दी और उर्दू दोनों ही लिपियों से परिचित हो जाएगा। और जब भाषा एक हो जाएगी तो हिन्दी अपनी पूर्णता के कारण सर्वमान्य हो जाएगी और राष्टï्रीय योजनाओं में उसका व्यवहार होने लगेगा। हमारा काम यही है कि जनता में राष्टï्रचेतना को इतना सजीव कर दें कि वह राष्टï्रहित के छोटे - छोटे स्वर्थों का बलिदान करना सीखें। आपने इस काम का बीड़ा उठाया है और मैंं जानता हूं, अपने क्षणिक आवेश में आकर यह साहस नहीं किया है। बल्कि आपका इस मिशन में पूरा विश्वास है और आप जानते हैँ यह विश्वास हमारा पक्ष सत्य और न्याय का पक्ष है, आत्मा को कितना बलवान बना देता है।
समाज में हमेशा ऐसे लोगों की कसरत होती है जो खाने - पीने धन बटोरने और जिंदगी के अन्य धंधों में लगे रहते हैं, यह समाज की देह है। उसके प्राण वह गिने - गुनाए मनुष्य है, जो उस
की रक्षा के लिए सदैव लड़ते रहते हैं। कभी अंधविश्वास से कभी मूर्खता से कभी कुव्यवस्था से, कभी पराधीनता से। इन्ही लड़ेलियों के साहस और बुद्धि पर समाज का आधार है। आप इन्हीं सिपाहियों में है। सिपाही लड़ता है। हारने - जीतने की उसे परवाह नहीं होती। उसके जीवन का ध्येय ही यह है कि वह बहुतों के लिए अपने को होम कर दें। आपको अपने सामने कठिनाइयों की फौजें खड़ी नजर आएगी। बहुत संभव है, आपको उपेक्षा का शिकार करना पड़े। लोग आपको सनकी और पागल कर सकते हैं। कहने दीजिए। अगर आपका संकल्प सत्य है तो आपमें से हरेक एक - एक सेना का नायक हो जाएगा। आपका जीवन ऐसा होना चाहिए कि लोगों को आपमें विश्वास और श्रद्धा हो। आप अपनी बिजली से दूसरों में बिजली भर दें। हर एक पंथ की विजय उसके प्रचारकों के आदर्श जीवन पर ही निर्भर होती है।
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