सुरेश सर्वेद
घंटी बजते ही मैंने दरवाजा खोला.सामने खड़ा युवक अनचाही मुस्कान ओंठ पर बिखेरने के साथ ही मुझसे पूछा- खÛा जी घर पर हैं ...?
मैं जवाब देती इससे पूवर् पापा पहुंच चुके थे.बोले- कहिये....।
- जी, मैं मकान देखने आया हूं....।
हम समझ गये- इसे किराये का मकान चाहिए.पापा उसे भीतर ले गये.कल ही एक कमरा खाली हुआ था.पापा उससे जानना चाहा कि शादी शुदा हो या अविवाहित.वह क्षण भर चुप रहा.संभवत: वह इस प्रश्न से थक हार चुका था.पापा के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उसने कहा- य दि मैं शादीशुदा न होऊं तो यिा मकान नहीं मिलेगा ?
पापा चुप रहे.उसने कहा-य दि य ह बात है तो मैं च लूं....।
पापा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा-दरअसल,घर में जवान बेटी....।
पापा वायि पूणर् कर पाते कि उसने कहा- आपका कहना गलत नहीं.मैं च लता हूं ....।
वह जाने लगा.मुझे और पापा को अच्छा नहीं लगा. पापा ने उसे रोकते हुए कहा- तुम मकान देख तो लो.तीन सौ रूपए मकान किराया है.बिजली बिल पटाना होगा.
औपचारिकता रूप प्रश्न पर विराम लग गया.अब उसे कमरा देखकर हामी भरनी थी.उसने कमरा देखा,परखा और तीन सौ रूपये में उसने हामी भर दी.उसने किराये का अग्रिम तीन सौ रूपए पापा के हाथ में थमा दिया.
दूसरे दिन उसका समान आया.वह हमारे घर रहने लगा.
प्रति माह बिना कहे वह बिजली बिल और मकान किराया दे देता था.उससे हमारी शुरू-शुरू में निकटता नहीं थी.कुछ महिनों बाद हम उसकी आदत व्य वहार से परिचि त हो चुके थे.पापा ने उससे दो तीन बार हमारे घर भोजन करने कहा.वह नहीं खाया.हमें उसका अस्वीकारना बुरा नहीं लगा.हमने सोचा -शाय द,इसे दूसरे के घर भोजन करना ठीक नहीं लगता होगा.
वह जब तक घर में रहता,भीतर ही घुसा रहता.आंगन में निकलता तो भी चुप रहता.उसकी मौन मुद्रा ने न जाने कब,कैसे मेरे मन को उसकी ओर आकषिर्त किया.महिनों बित जाने के बाद भी उसने मेरी ओर नजर डालने की आवश्य कता नहीं समझी थी.कभी-कभी मुझे लगने लगा था कि वह मेरी ओर देखे.मुझसे बातें करे.सच कहो तो मैं उसकी आदत व्य वहार से आकषिर्तथी.मैं उसे चाहने लगी थी.जब कभी भी हमारी नजरें टकराती तो मुझे सुखद अनुभुति होती.कैसी सुखद अनुभुति ! मैं समझ नहीं पायी थी.
अब मैं देर रात तक जागती.मुझे उसका इंतजार रहता.उसका आगमन मेरे लिए सुखद होता.वह जब तक नहीं आ जातामैं आंगन में टहलती रहती.मेरी इच्छा तो कई बार उससे बातें करने की होती मगर शबद विस्फारित होने से जी चुराता था.
पापा आफिस काय र् से बाहर गये हुए थे.घर में मैं अकेली थी.पापा को तीन दिन नहीं आना था.सोची थी- किराएदार मेरी कह मानेगा.पूवर् अनुमान से ही मैंने अपने साथ उसके लिए खाना बना ली थी.मैं आंगन में टहलती उसका इंतजार करती लगी.वह अपने समय पर ही आया.नहीं आया था तब तक तो इंंतजार करती रही मगर उसके प्रवेश करते ही मेरे हृदय की धड़कन बढ़ गयी.मुुंह पर शबद आया पर बाहर नहीं निकला.वह भीतर घुस कपाट भिड़ा दिया.मैं कुछ क ह नहीं सकी.मैं बेमन धड़कती धड़कन लिए भीतर घुस गयी.मेरा मन अशांत था.उसके कमरे से स्टोव्ह की आवाज आने लगी.मैं कभी कीच न में जाती फिर कभी आंगन में आती.उसका दरवाजा खटखटाना चाहती थी.मेरें इन तमाम प्रतिक्रियाओं से निक्श्चंत वह भोजन तैयार करने व्य स्त था.स्टोव्ह बजना बंद हो गया.बतर्नों की आवाज ने स्पý कर दिया कि वह भोजन करने जुट गया .मैं उस रात खाना नहीं खा सकी .
सुबह नास्ता बनायी.उन्हें बुलाकर खिलाना चाही.य ह भी रात की ही तरह विफल रहा.वह तैयार हो काम पर च ला गया.मैं स्वयं को कोसती रही.निश्च य किया कि- चाहेकुछ भी हो मगर आज उससे आग्रह करूंगी.मन तो चाह रहा था कि वह दिन में ही घर आ जाये.उसे बीच में नहीं आना था नहीं आया.आया तो अपने समय पर ही.वह आंगन में पहुंचा कि कल रात और आज दिन भर की बेचैनी मुझसे सहा नहीं गयी.अनायास मैं कह उठी-तुम्हारे लिए खाना बनाई हूं,हमारे घर खाना...।
वह चुप रहा.अपने कमरे में च ला गया.मुझे चोट लगी,आत्मा में चोट.य ह तो घोर अपमान था.उस रात उसके कमरे से स्टोव्ह की आवाज नहीं उभरी.मैं जानती थी- वह होटल में खाता नहीं है.उस रात हम दोनों बिना खाये रहे.
मेरे भीतर कितनी छटपटाहट थी य ह मैं ही अनुभव कर रही थी,सिफर् मैं...। मैं स्वयं पर झूंझला भी रही थी कि यिों इसके पीछे पड़ी हूं.य ह एक शबद उगलने तैयार नहीं और मैं पागलोंकी तरह इसका इंतजार करती हूं वह भी घ·टों...। अब मुझे इसका इंतजार नहींकरना चाहिए.
आज मैं इंतजार नहीं करना चाहती थी.उसे देखना भी नहीं चाहती थी.बावजूद मैं इंतजार करते जाग रही थी.थोड़ी सी आहट से मेरे कान खड़े हो जाते.आंखें दरवाजे की ओर दौड़ पड़ती.घड़ी पर बार बार Òýि जाती.मेरे लिए क्षण-क्षण भारी पड़ रहा था.जब वह आया तो मैं अनायास पलंग से उठ बैठी.हृदय की धड़कन बढ़ गयी.मैंबिना सोचे समझे तेज कदमों से उसकी ओर लपकी.वह दरवाजा खोल चुका था.भीतर घुसने जैसे हुआ मैं उसके सामने हो गयी.वह क्षण भर हड़बड़ा गया.कहा- सोनाली,तुम जो क र रही हो,वह ठीक नहीं है....।
मैं खीझ उठी- यिा ठीक नहीं है.मैंने ऐसा यिा किया जो अनुचि त है.यिा मैं सुन्दर नहीं हूं....?
वह शांत हो गया.एकदम शांत.फिर बोला-सोनाली तुम सुन्दर हो,बहुत ही सुन्दर तन-मन सबमें.मैं तुम्हारी इस सुन्दरता पर अपनी काली छाया पड़ने नहीं देना चाहता
- मनीष,मैं तुमसे बेहद प्यार करती हूं. मैं तुम्हारे बिना जी नहींसकती.
मैं उससे लिपटने उद्धत हुई.उसने मुझे परे धकेल दिया.फिर अचानक मेरी कलाई पकड़ी.मैं सिहर उठी. वह मुझे खींच ते कमरे में ले गया.कमरा अंधेरा में डूबा था,उसने लाईट जलाई.सामने सुन्दर Íी की तस्वीर टंगी थी.नीचे लिखा था- स्वगीर्य बिजली.....।
मेरी आंखो के सामने बिजली कड़की.वह कहना जारी रखा- सोनाली,मैं इससे बेहद प्यार करता था.य ह भी मुझसे प्यार करती थी.हमने जब प्यार का इजहार किया.साथ जीने मरने की जिस दिन हमने कसमें खायी उस दिन मैं बहुत खुश था.पहली दिन जब उसे लेकर जा रहा था कि सड़क दुघर्टना में इसकी जान च ली गयी.मैं कलंक का बोझ उठाये जी रहा हूं....।
उसका गला भर आया था.आंखें भर आयी थी.मैं उसका आंसू पोंछा देना चाहती थी मगर य ह अधिकार मुझे मिला नहीं था.मैं कुछ नहींंकर सकी.उसने कहा- मैं नहीं चाहता कि इस कहानी का पुनरावृत्ति हो....।
मैं चुपचाप उसके कमरे से बाहर आ गयी.उस रात न मैं सो पायी और शाय द वह भी नहीं सो पाया.तीसरे दिन पापा आ गये.वह आज सुबह से निकल गया था.जब आया तो उसके साथ दो कुली एक जीप थी.उसने पापा से कहा- मैं आपका मकान खाली कर रहा हूं...।
पापा को कुछ समझ नहीं आया.वह जीप में समान डालवा च लता बना.पापा और मैं उसे दूर तक जाते हुए देखते रहे.वह हमसे दूर च ला गया...बहुत दूर....। बौद्ध विहार, साधुचाल, तुलसीपुर
राजनांदगांव (छग.)
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