दो गीत
डाँ. एच .डी.महल्ला
बरगद का यह पेड़ पुराना मौन खड़ा है ।
सदियों से इंसान न समझा कौन बड़ा है ?
कितने पंछी आकर इसमें नीड़ बनाते,
गिलहरियों के झुंड यहां सुख चैन बिताते,
सुख दुख बांटे आपस में सब, कौन लड़ा है ।।
तप्त दुपहरी में तन जलता पांव में छाले ,
श्रमिक - युगल इस पेड़ में आते बहियां डाले,
तब भी बरगद नहीं पूछता कौन खड़ा है ।।
जन्म- मरण का देख रहा वह खेल निराला,
नहीं गया कब ? इस धरती पर आने वाला,
काल न पूछे कौन बाल और कौन जरा है ?
कितनी आंधी, गर्मी कितनी, कितना पानी,
उसकी टहनी में लिखा है राम कहानी ,
सब जीवों के लिए स्नेह रस उमड़ पड़ा है ।।
दिन कोलाहल, नि:शब्द निशा में भी जीवन है
अटल अजेय वृक्ष वट का यह अद्भूत तन है,
जीवन में अमृत बरसाता अमर घड़ा है ।।
आना हे ऋतुराज ! कभी तुम इस आंगन में,आते हो हर बरस, कुसुम - कानन में ।।
ऋतुराज
महलों के उस पार जहां बेघर बसता है,
पगडंडी की टेढ़ी रेखा ही रसता है,
रोटी ही जिनके जीवन की परिभाषा है,
घर - जल से कुछ अधिक नहीं जिनकी आशा है,
देव - तुल्य संतोष सदा जिनके आनन में ।।
साधन हीन सहज हाथों से गढ़ते जीवन,
कंच न- घट सा दमक रहा निधर्न का तन - मन,
सुख समग्र भौतिक साधन से हीन जहां हैं,
मानवता के पूजक बसते दीन य हां हैं,
कीच मीत बन य हां ठहरता हर सावन में ।।
अजगर सा पसरा सन्नाटा इस बस्ती में,
पर बच्चे सब खेल रहे होते मस्ती में ,
इनका तो बस मित्र एक है कौवा काला,
किन्तु कभी वह आ जाता है फुग्गा वाला,
सहज सरल मुस्कान समेटे अपने तन में ।।
छोड़ सको तुम मोह अगर नंदन कानन का,
समझ सकोगे पंछी सा विस्तार गगन का,
दे जाओगे क्षणिक किन्तु सच्चा सुख जिनको,
सप्तरंग तब सुमन खिलेंगे, इस उपवन में,
आना हे ऋतुराज ! कभी तुम इस आंगन में ।।
गुरूर
जिला - दुर्ग (छग)
डाँ. एच .डी.महल्ला
बरगद का यह पेड़ पुराना मौन खड़ा है ।
सदियों से इंसान न समझा कौन बड़ा है ?
कितने पंछी आकर इसमें नीड़ बनाते,
गिलहरियों के झुंड यहां सुख चैन बिताते,
सुख दुख बांटे आपस में सब, कौन लड़ा है ।।
तप्त दुपहरी में तन जलता पांव में छाले ,
श्रमिक - युगल इस पेड़ में आते बहियां डाले,
तब भी बरगद नहीं पूछता कौन खड़ा है ।।
जन्म- मरण का देख रहा वह खेल निराला,
नहीं गया कब ? इस धरती पर आने वाला,
काल न पूछे कौन बाल और कौन जरा है ?
कितनी आंधी, गर्मी कितनी, कितना पानी,
उसकी टहनी में लिखा है राम कहानी ,
सब जीवों के लिए स्नेह रस उमड़ पड़ा है ।।
दिन कोलाहल, नि:शब्द निशा में भी जीवन है
अटल अजेय वृक्ष वट का यह अद्भूत तन है,
जीवन में अमृत बरसाता अमर घड़ा है ।।
आना हे ऋतुराज ! कभी तुम इस आंगन में,आते हो हर बरस, कुसुम - कानन में ।।
ऋतुराज
महलों के उस पार जहां बेघर बसता है,
पगडंडी की टेढ़ी रेखा ही रसता है,
रोटी ही जिनके जीवन की परिभाषा है,
घर - जल से कुछ अधिक नहीं जिनकी आशा है,
देव - तुल्य संतोष सदा जिनके आनन में ।।
साधन हीन सहज हाथों से गढ़ते जीवन,
कंच न- घट सा दमक रहा निधर्न का तन - मन,
सुख समग्र भौतिक साधन से हीन जहां हैं,
मानवता के पूजक बसते दीन य हां हैं,
कीच मीत बन य हां ठहरता हर सावन में ।।
अजगर सा पसरा सन्नाटा इस बस्ती में,
पर बच्चे सब खेल रहे होते मस्ती में ,
इनका तो बस मित्र एक है कौवा काला,
किन्तु कभी वह आ जाता है फुग्गा वाला,
सहज सरल मुस्कान समेटे अपने तन में ।।
छोड़ सको तुम मोह अगर नंदन कानन का,
समझ सकोगे पंछी सा विस्तार गगन का,
दे जाओगे क्षणिक किन्तु सच्चा सुख जिनको,
सप्तरंग तब सुमन खिलेंगे, इस उपवन में,
आना हे ऋतुराज ! कभी तुम इस आंगन में ।।
गुरूर
जिला - दुर्ग (छग)
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