भाषा चमत्कार को नकारते थे बख्शीजी
कृष्णा श्रीवास्तव गुरूजी
पर पूज्य गुरुदेव पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को लोग मास्टर जी के संबोधन से ही जानते थे। साहित्य प्रिय बख्शी जी सम्पूर्ण जीवन संत स्वरूप रहे। जीवन के प्रारम्भ 16 -17 वर्ष के उम्र से जो साहित्य साधना उन्होने प्रारम्भ की वह जीवन के अंतिम अध्याय 1971 तक अविरल चलती रही। इन तमाम वर्षो में बख्शी जी न जाने कितने कष्टïों को झेले लेकिन मुस्का कर उन्हें सुखद साहित्य में बदल दिए। वास्तव में उनका लेखकीय कर्म जन जीवन में आये विसंगतियों का एक दार्शनिक हल था। आज भी उनकी कविताएँ लेख निबंध प्रासंगिक हैं।
खैरागढ़ के एक संभ्रात कायस्थ परिवार में 26 मई सन्ï 1894 को शनिवार को बख्शी जी का जन्म हुआ था। बख्शी जी को परिवार में पूर्णत: साहित्यिक वातावरण मिला। खैरागढ़ रियासत से जुड़े बख्शी के परिवार में सरस्वती, भारत मित्र, हित वार्ता पत्रिका आती थी। जिसका अध्ययन बख्शी जी नियमित किया करते थे। यही नहीं उनके दादा पिता माता जी एवं अन्य परिवार के सदस्य भी साहित्य साधना किया करते थे। इस प्रकार एक अच्छे सुशिक्षित परिवार में बख्शी जी का जन्म हुआ था। बख्शी का प्राम्भिक शिक्षा खैरागढ़ में हुई वे पढ़ाई में बहुत अच्छे नही थे उनकी गणित कमजोर थी। कक्षा में वे अनुत्तीर्ण भी हुए लेकिन बाद के वर्षो में वे उन्होने असफलता का मुंह नही देखा। उन्ही दिनों वे श्री देवकी नंदन खत्री के उपन्यास चन्द्रकांता संतति के दिवाने थे। इसके कई किस्से लोगों में प्रचलित है। 1912 में वे मेट्रिक उत्तीर्ण हुए और अपने बड़े भाई के साथ बनारस पढ़ने भेजे गये। यहाँ उन्हे पूरा साहित्यिक वातावरण मिला और 1913 से उनकी रचनाएँ हित कारिणी में प्रकाशित होने लगी। 1916 में बख्शी जी ने बी ए की परीक्षा उत्त्तीर्ण की। इस समय तक तत्कालीन स्व नाम घन्य पत्रिका सरस्वती में उनकी कई कहानी प्रकाशित हुई।
बख्शी जी का विवाह 18 वर्ष की उम्र में 1912 में ही हो गया था लेकिन उनकी धर्म पत्नी लक्ष्मी देवी 1916 मेें ही बहू बनकर आई जब वे बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
बख्शी 1916 में ही राजनांदगांव रियासत के हाईस्कूल में अध्यापन करने लगे थे तब तक उनकी साहित्यिक प्रतिभा का ज्ञान उस समय के महान विभूतियों को हो गया था। उसी समय श्री माधवराव सप्रे जी उन्हें कर्मवीर के सह सम्पादक के लिए आमंत्रित करने आये। तब तक बख्शी को सरस्वती के सम्पादन के लिए स्वीकृति आ चुकी थी इस प्रकार उन्होंने 1920 में सरस्वती का भार सम्हाल पाया। सरस्वती का सम्पादन करते उन्हें पांच वर्ष हुए थे कि उनके पिताजी का देहावसान हो गया। वे इलाहाबाद छोड़ खैरागढ़ आ गये। खैरागढ़ में उन्हें कोई उनके लायक काम नहीं मिलने के कारण 1926 में वे पुन: इलाहाबाद चले गये। स्थापित प्रतिष्ठïा के अनुरूप बख्शी जी ने सरस्वती पत्रिका को उच्च शिखर तक पहुंचाने में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। जो हिन्दी साहित्य के लिए उल्लेखनीय है। 1929 में उनके छोटे पुत्र रविन्द्र कुमार की मृत्यु के बाद उन्हें इलाहाबाद से विरक्ति हो गई और वे खैरागढ़ आ गये। राजनांदगांव के राजामहंत सर्वेश्वरदास के कर्मचारी श्री सखाराम दुबे के सहयोग से उन्हें शासकीय शाला में नियुक्ति मिल गई। बाद में उन्होंने 1952 से 55 तक सरस्वती का सम्पादन खैरागढ़ से ही करते रहे। पर विषमताओं ने बख्शीजी का पीछा नहीं छोड़ा और उन्हें 1934 से शासकीय शाला से अलग कर दिया गया। 1935 से 1959 तक उन्होंने यायावर जिन्दगी जी। कभी खैरागढ़ में अध्यापन तो कभी राजकुमारियों को पढ़ाना तो कभी महाकौशल रायपुर में सम्पादन इस प्रकार बख्शीजी को जीवन निर्वाह में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। अंत में पंडित किशोरीलाल शुक्ल ने उन्हें राजनांदगांव दिग्विजय कालेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति दिलायी। जीवन के अंतिम पड़ाव तक वे राजनांदगांव में ही रहे। 28 दिसम्बर 1971 को महान साहित्यिक मनीषी ने दिवस का अंत पूर्ण करने की अपूर्णिनीय इच्छा के लिए देह त्याग दिए।
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी बख्शी जी साहित्य से भरा पूरा एक लम्बी विरासत छोड़ गये। उनके कृतित्व आज भी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए शोध का विषय है। बख्शीजी अपनी किस विद्या के लिए पहचाना जायेंगे ? एक कवि के रूप में ... बख्शी जी जहां महान रचनाकारों रविन्द्र नाथ टैगोर, वर्डसवर्थ के कविताओं का अनुवाद किया वहीं भक्तिभाव लिए काव्य रचनाएं की। उन्होंने काव्य में आत्म अभिव्यक्ति को विशेष महत्व दिए। एक निबंधकार के रूप में बख्शी को पूर्ण सफलता मिली। उनका दार्शनिक आत्मान्वेषी व्यक्तित्व निबंध के रूप में साकार हुआ। निबंधकार के रूप में उन्होंने जीवन के विभिन्न मूल्यों को कथानात्मक स्वरूप में प्रस्तुत कर जन मानस में भावनात्मक अभिरूचियों को आत्मसात करने का मार्ग प्रशस्त किया। कथाकार के रूप में वे कहानी में अपनी विशिष्टï शैली में पारिवारिक वातावरण को स्पष्टï करते हुए भावना को प्रमुख रूप से रेखांकित करते हैं।
बख्शीजी के सम्पूर्ण रचनाओं के अध्ययन से पता चलता है कि वे भाषा के चमत्कार को नकारते हैं। वे शब्दों के पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन की अपेक्षा भावों को महत्व देते हैं। उनकी रचनाओं में भावों के स्वाभाविक विस्तार देखने को मिलता है। सजीवता व भावों को यथेष्टï चित्रण उनकी रचनाओं को पठनीय बनाते हैं।
बख्शी जी का साहित्य संसार जीवन की विपदाओं के विरूद्ध मौन सहनशीलता का बोध कराती है। उनके साहित्यिक साधना का अमृत आज भी हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल है। विश्व साहित्य के इस संत की जीवन यात्रा के समस्त पड़ाव उनके रचनाओं के माध्यम से हमारे समक्ष है। उनकी सरसता, आत्मपरकता, चिन्तनशीलता, दार्शनिकता हमारे लिए आज भी प्रासंगिक है। महान मनीषी के चरणों में सादर नमन।
संकल्प, दिग्विजय कालेज रोड, जमातपारा, राजनांदगांव 6 छग. 8
कृष्णा श्रीवास्तव गुरूजी
पर पूज्य गुरुदेव पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को लोग मास्टर जी के संबोधन से ही जानते थे। साहित्य प्रिय बख्शी जी सम्पूर्ण जीवन संत स्वरूप रहे। जीवन के प्रारम्भ 16 -17 वर्ष के उम्र से जो साहित्य साधना उन्होने प्रारम्भ की वह जीवन के अंतिम अध्याय 1971 तक अविरल चलती रही। इन तमाम वर्षो में बख्शी जी न जाने कितने कष्टïों को झेले लेकिन मुस्का कर उन्हें सुखद साहित्य में बदल दिए। वास्तव में उनका लेखकीय कर्म जन जीवन में आये विसंगतियों का एक दार्शनिक हल था। आज भी उनकी कविताएँ लेख निबंध प्रासंगिक हैं।
खैरागढ़ के एक संभ्रात कायस्थ परिवार में 26 मई सन्ï 1894 को शनिवार को बख्शी जी का जन्म हुआ था। बख्शी जी को परिवार में पूर्णत: साहित्यिक वातावरण मिला। खैरागढ़ रियासत से जुड़े बख्शी के परिवार में सरस्वती, भारत मित्र, हित वार्ता पत्रिका आती थी। जिसका अध्ययन बख्शी जी नियमित किया करते थे। यही नहीं उनके दादा पिता माता जी एवं अन्य परिवार के सदस्य भी साहित्य साधना किया करते थे। इस प्रकार एक अच्छे सुशिक्षित परिवार में बख्शी जी का जन्म हुआ था। बख्शी का प्राम्भिक शिक्षा खैरागढ़ में हुई वे पढ़ाई में बहुत अच्छे नही थे उनकी गणित कमजोर थी। कक्षा में वे अनुत्तीर्ण भी हुए लेकिन बाद के वर्षो में वे उन्होने असफलता का मुंह नही देखा। उन्ही दिनों वे श्री देवकी नंदन खत्री के उपन्यास चन्द्रकांता संतति के दिवाने थे। इसके कई किस्से लोगों में प्रचलित है। 1912 में वे मेट्रिक उत्तीर्ण हुए और अपने बड़े भाई के साथ बनारस पढ़ने भेजे गये। यहाँ उन्हे पूरा साहित्यिक वातावरण मिला और 1913 से उनकी रचनाएँ हित कारिणी में प्रकाशित होने लगी। 1916 में बख्शी जी ने बी ए की परीक्षा उत्त्तीर्ण की। इस समय तक तत्कालीन स्व नाम घन्य पत्रिका सरस्वती में उनकी कई कहानी प्रकाशित हुई।
बख्शी जी का विवाह 18 वर्ष की उम्र में 1912 में ही हो गया था लेकिन उनकी धर्म पत्नी लक्ष्मी देवी 1916 मेें ही बहू बनकर आई जब वे बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
बख्शी 1916 में ही राजनांदगांव रियासत के हाईस्कूल में अध्यापन करने लगे थे तब तक उनकी साहित्यिक प्रतिभा का ज्ञान उस समय के महान विभूतियों को हो गया था। उसी समय श्री माधवराव सप्रे जी उन्हें कर्मवीर के सह सम्पादक के लिए आमंत्रित करने आये। तब तक बख्शी को सरस्वती के सम्पादन के लिए स्वीकृति आ चुकी थी इस प्रकार उन्होंने 1920 में सरस्वती का भार सम्हाल पाया। सरस्वती का सम्पादन करते उन्हें पांच वर्ष हुए थे कि उनके पिताजी का देहावसान हो गया। वे इलाहाबाद छोड़ खैरागढ़ आ गये। खैरागढ़ में उन्हें कोई उनके लायक काम नहीं मिलने के कारण 1926 में वे पुन: इलाहाबाद चले गये। स्थापित प्रतिष्ठïा के अनुरूप बख्शी जी ने सरस्वती पत्रिका को उच्च शिखर तक पहुंचाने में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। जो हिन्दी साहित्य के लिए उल्लेखनीय है। 1929 में उनके छोटे पुत्र रविन्द्र कुमार की मृत्यु के बाद उन्हें इलाहाबाद से विरक्ति हो गई और वे खैरागढ़ आ गये। राजनांदगांव के राजामहंत सर्वेश्वरदास के कर्मचारी श्री सखाराम दुबे के सहयोग से उन्हें शासकीय शाला में नियुक्ति मिल गई। बाद में उन्होंने 1952 से 55 तक सरस्वती का सम्पादन खैरागढ़ से ही करते रहे। पर विषमताओं ने बख्शीजी का पीछा नहीं छोड़ा और उन्हें 1934 से शासकीय शाला से अलग कर दिया गया। 1935 से 1959 तक उन्होंने यायावर जिन्दगी जी। कभी खैरागढ़ में अध्यापन तो कभी राजकुमारियों को पढ़ाना तो कभी महाकौशल रायपुर में सम्पादन इस प्रकार बख्शीजी को जीवन निर्वाह में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। अंत में पंडित किशोरीलाल शुक्ल ने उन्हें राजनांदगांव दिग्विजय कालेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति दिलायी। जीवन के अंतिम पड़ाव तक वे राजनांदगांव में ही रहे। 28 दिसम्बर 1971 को महान साहित्यिक मनीषी ने दिवस का अंत पूर्ण करने की अपूर्णिनीय इच्छा के लिए देह त्याग दिए।
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी बख्शी जी साहित्य से भरा पूरा एक लम्बी विरासत छोड़ गये। उनके कृतित्व आज भी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए शोध का विषय है। बख्शीजी अपनी किस विद्या के लिए पहचाना जायेंगे ? एक कवि के रूप में ... बख्शी जी जहां महान रचनाकारों रविन्द्र नाथ टैगोर, वर्डसवर्थ के कविताओं का अनुवाद किया वहीं भक्तिभाव लिए काव्य रचनाएं की। उन्होंने काव्य में आत्म अभिव्यक्ति को विशेष महत्व दिए। एक निबंधकार के रूप में बख्शी को पूर्ण सफलता मिली। उनका दार्शनिक आत्मान्वेषी व्यक्तित्व निबंध के रूप में साकार हुआ। निबंधकार के रूप में उन्होंने जीवन के विभिन्न मूल्यों को कथानात्मक स्वरूप में प्रस्तुत कर जन मानस में भावनात्मक अभिरूचियों को आत्मसात करने का मार्ग प्रशस्त किया। कथाकार के रूप में वे कहानी में अपनी विशिष्टï शैली में पारिवारिक वातावरण को स्पष्टï करते हुए भावना को प्रमुख रूप से रेखांकित करते हैं।
बख्शीजी के सम्पूर्ण रचनाओं के अध्ययन से पता चलता है कि वे भाषा के चमत्कार को नकारते हैं। वे शब्दों के पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन की अपेक्षा भावों को महत्व देते हैं। उनकी रचनाओं में भावों के स्वाभाविक विस्तार देखने को मिलता है। सजीवता व भावों को यथेष्टï चित्रण उनकी रचनाओं को पठनीय बनाते हैं।
बख्शी जी का साहित्य संसार जीवन की विपदाओं के विरूद्ध मौन सहनशीलता का बोध कराती है। उनके साहित्यिक साधना का अमृत आज भी हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल है। विश्व साहित्य के इस संत की जीवन यात्रा के समस्त पड़ाव उनके रचनाओं के माध्यम से हमारे समक्ष है। उनकी सरसता, आत्मपरकता, चिन्तनशीलता, दार्शनिकता हमारे लिए आज भी प्रासंगिक है। महान मनीषी के चरणों में सादर नमन।
संकल्प, दिग्विजय कालेज रोड, जमातपारा, राजनांदगांव 6 छग. 8
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