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यशवंत मेश्राम |
विचार वीथी के मई - जुलाई 13 का संपादकीय जमीनी साहित्य पर बेबाक बयान करता है। अनेक प्रश्र समाधान हेतु उठाए गए। पिछले तेरह वर्षों में विकास छ.ग. का हुआ वह पूर्व दृष्टिगोचर नहीं, सत्य है? जबकि असमानता शिक्षा विद्यमान है। बिजनी - पानी - सड़क को विकास मान ले क्योंकि सस्ता दर राशन खाने मनुष्य मजबूर है और इधर छत्तीसगढ़ी भाषी साहित्यकार बासी नून गुनगाण कर रहे हैं। '' जुरमिल सबो चढ़व रे।'' समर्थन संपादक का जायज है जबकि लक्ष्मण मस्तुरिया इसी गीत में कहते हैं - '' कहाँ जाहू बड़ दूर हे गंगा, पापी इहाँ तरव रे।'' पाप क्यों करना ? पापी को सजा क्यों नहीं? तरण - तारण क्यों ? इस पर सर्वेद जी चुप ? छत्तीसगढ़ी भाषा में राजकाज शुरू करें संविधान सूची में जगह बना लेगी, देर - सबेर। हम क्यों आग्रह करें। काम तो शुरू करें। छग के हाईस्कूल तक के पाठ्यक्रम में संस्कृत के स्थान पर छत्तीसगढ़ी भाषा को क्यों नहीं ला पा रहे हैं ? छत्तीसगढ़ी भाषा हेतु बिस्मार्क जैसे नायक की जरुरत है। परसाई पर व्यंग्य विश्लेषक सौ फीसदी सटीक - मैंने जाना कि जीवन की सबसे सही व्यवस्था कार्ल्समार्क्स ने की ( पृ. 12,) कार्लमार्क्सीय भारतीय दलों में फूट क्यों ? तुलना करें।
अपने हुनर को आजमाने चला हूं, फिसलती रेत पर घर बनाने चला हूं मैं। राजेश जगने( पृ. 33)
मार्क्सदृष्टिकोण भारत का चकनाचूर नहीं पर बेरास्ता हो चुका समझे। विपात्र मुक्तिबोध कहानी से इसे समझ सकते हैं। दो मजबूत पैर में पुरुष सोच बदले तो स्त्री - पुरुष विमर्श कहां रहेगा। जीवन के लिए श्रमाधारित शिक्षा तो चाहिए ही। इसे नेस्तानाबूत करते हैं, मतदाता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधि। वे चाहे दबंग हो, पूंजीपति या अकेले डोरी, उन्हें कसना - छोडऩा पड़ता है। चुनाव मेरे शहर द नाइटिंगल एण्ड द रोज़ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद प्रेमदर्शन अध्यात्म में घालमेल से पत्रिका की सुंदरता को सौंदर्यमय कर दिया।
समीक्षाएं और अन्य साहित्य सामग्री पठनीय और संग्रहणीय है। छत्तीसगढ़ी भाषा बोली की बीमारी दूर कैसे हो उदाहरण पत्रिका में मौजूद है -
'' बस्तर ले निकल
मुनगा ला चुचर
बमलाइ मा चढ़
इही ला कथे छत्तीसगढ़ ''
' चढ़ ' शब्द क्या कहता है ? कौन सा संकेत है। बस्तर डायमंड है, छत्तीसगढ़ का खजाना है। और छत्तीसगढ़ में माताओं पर कैसे चढ़ोगे, सुविधाभोगी साहित्यकार ऐसे बिंब गढ़ रहे हैं। जहाँ छत्तीसगढ़ी भाषा समृद्धि की ओर नहीं विपन्नता की तरफ जायेगी। आखिर माँग पत्रों पर विचार न कर अमाँग पत्र जो होता नहीं कार्यवाही चालू होने से सोने की चिडिय़ा वाले छ.ग. में व्यापक भ्रष्टाचार तो है ही।
अनेक आग्रह पर अंचल के साहित्यकारों की कलम जरा थम सी गई है। सर्वेद भाई को रचनाएं उत्कृष्ट स्वरुप नहीं मिल पा रही है। वर्तमान बदलाव की। साहित्यिक आयोजनों में जनप्रतिनिधि को बुलाना प्रचार - प्रसार के लिए आवश्यक है? साकेत साहित्य परिषद की वार्षिक समारोह बिना जनप्रतिनिधियों के पूर्ण होता ही नहीं।
पत्रिका उत्तरोत्तर स्तरीय सामग्री दे रही है पर संपादक को अंचल के साहित्यकारों की रचनाओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
यशवंत मेश्राम
शंकरपुर, वार्ड नं. - 7,
गली नं. - 4, राजनांदगांव( छ.ग.)
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