गंडई पंडरिया में साकेत साहित्य परिषद् सुरगी का पंद्रहवाँ सम्मान समारोह एवं वैचारिक संगोष्ठी सम्पन्न

घीलाल यादव, आचार्य सरोज द्विवेदी, श्री हीरालाल अग्रवाल तथा डॉ. सन्तराम देशमुख थे। ’छत्तीसगढ़ी जनजीवन पर हाना का प्रभाव’ विषय पर केन्द्रित संगोष्ठी के प्रारंभ में आधार वक्तव्य देते हुए परिषद् के संरक्षक कथाकार कुबेर ने कहा कि छत्तीसगढ़ी भाषा में मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों को ’हाना’ कहा जाता है। हाना न केवल छत्तीसगढी भाषा की प्राण है अपितु यह इस भाषा का स्वभाव और श्रृँगार भी है। आम बोलचाल में छत्तीसगढिय़ों का कोई भी वाक्य हाना के बिना पूर्ण नहीं होता। कभी - कभी तो पूरी बात ही हानों के द्वारा कह दी जाती है। छत्तीसगढ़ी हाना लक्षणा के अलावा व्यंजना शब्द शक्ति से भी युक्त होती है। इसके अलावा लोकोक्तियों के रूप में प्रयुक्त हानों में अन्योक्ति अलंकार का भी समावेश होता है। एक उदाहरण देखिये - आगू के भंइसा पानी पीये, पाछू के ह चिखला चांटे। इसका आशय है, सामूहिक भोज के समय पीछे रह जाने वालों के लिए भोजन कम पडऩे की संभावना रहती है।


अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. गोरेलाल चंदेल ने कहा कि हाना लोकभाषा और लोकजीवन के गाढ़े अनुभव से पैदा होते हैं। वस्तुतत्व को अतिशय प्रभाव से प्रस्तुत करने की कला ही हाना है। इसमें अनुभव और निरीक्षण, दोनों ही प्रभावी ढंग से परिलक्षित होते हैं। हाना में निश्चित ही व्यंजना होती है जिसके प्रभाव से यह अपने परिवेश से निकलकर वैश्विक रूप धारण कर लेता है। एक हाना है - ’कोढिय़ा बइला रेंगे नहीं, रेंगही त मेड़ फोर।’’ यह हाना ग्राम्य परिवेश में जितना सार्थक है उतना ही आज के तथाकथित बाहुबलियों और महाशक्तियों की राष्ट्रीय और वैश्विक परिवेश के लिए भी सार्थक है।
हाना बनने की स्वाभाविक प्रक्रिया और शब्द शक्तियों के अंतर्संबंधों को हीरालाल अग्रवाल ने रोचक प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा; डॉक्टर जब मरीज से पूछता है - ’’तोला कइसे लागत हे ? ’’ तब मरीज जवाब देता है - ’’कइसे लागत हे।’’ डॉक्टर और मरीज के शब्द ’कइसे लागत हे’ एक जैसे हैं, पर मरीज का जवाब, ’’कइसे लागत हे’’ उसकी अभिव्यक्ति कौशल के कारण, नया अर्थ ग्रहण करके एक हाना बन जाता है; ठीक वैसे ही, जैसे - ’’ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए, कैसे-कैसे, वैसे-वैसे हो गए।’’
आचार्य सरोज द्विवेदी ने कहा कि यदि मैं कहूँ - ’’एक रूपया चाँऊर’’ तो आपको इशारा समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी और आजकल ’’पप्पू’’ और फेंकू’’ का क्या मतलब है, इसे भी आप बखूबी जानते हैं। हाना ऐसे ही बनते है। डॉ. जीवन यदु ने कहा कि हाना प्रथमत: भाषा का मामला है। इसमें देश, समाज और अर्थतंत्र के अभिप्राय निहित होते हैं।
डॉ. दादूलाल जोशी ने कहा कि हाना में ’सेंस ऑफ ह्यूमर’ होता है, इसीलिए हाना में कही गई बातों का लोग बुरा नहीं मानते हैं। यशवंत मेश्राम ने कहा कि हाना में ’हाँ’ और ’न’ अर्थात स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता दोनों निहित होते हैं। हाना की अर्थ-संप्रेषणीयता और मारकता इन्हीं दोनों के समन्वित प्रभाव से आती है। प्रारंभ में डॉ. पीसीलाल यादव ने ’जिसकी लाठी उसकी भैंस,’ ’आँजत-आँजत कानी होगे’ तथा ’पान म दरजा हे फेर हमर म नहीं’, जैसे हानों की उत्पत्ति के संभावित प्रसंगों को रोचक कहानियों के द्वारा समझाया।
सम्मान की कड़ी में साहित्यकार श्री बी.डी.एल श्रीवास्तव, लोककलार-गायक श्री द्वारिका यादव (शिक्षक) तथा कवि-उद्घोषक श्री नन्द कुमार साहू (शिक्षक) को 2014 का साकेत सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर हाना पर केन्द्रित पत्रिका ’साकेत स्मारिका 2014’ तथा कथाकार-संपादक सुरेश सर्वेद की छत्तीसगढ़ी कहानियों का संग्रह ’बनकैना’ का विमोचन भी किया गया।
हाना पर केन्द्रित इस महत्वपूर्ण संगोष्ठी के लिए सभी अतिथियों ने साकेत साहित्य परिषद् सुरगी के प्रयासों को सराहा जिसके माध्यम से इतनी गहन, महत्वपूर्ण व सार्थक परिचर्चा संभव हो सकी। इस संगोष्ठी में साकेत साहित्य परिषद के सदस्य व पदाधिकारियों के अलावा कथाकार-संपादक सुरेश सर्वेद, डॉ. सन्तराम देशमुख, डॉ. माघी लाल यादव, राजकमल सिंह राजपूत तथा बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन ओमप्रकाश साहू ’अंकुर’ तथा आभार प्रदर्शन लखन लाल साहू ’लहर ने किया।
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