शिवशरण दुबे
निष्ठुर निडर उदाघ ने, निगल लिया नेह।
ढूँढे नदिया रेत में, अपनी चंचल देह।।
शुष्क नदी के तीर पर, खड़े रोवासे पेड़।
तपी दुपहरी ले गई, सबकी खाल उधेड़।।
चिड़ियों के जल - पात्र हों, प्याऊ के घट चार।
उसी गृही का घर लगे, गर्मी में हरि - द्वार।।
लहरों ने स्वागत किया, पढ़ें माङ्गलिक छन्द।
सागर के छूकर चरण, चले बलाहक वृन्द।।
मेघ मरुत - सहयोग से उड़कर चले सवेग।
ठहर - ठहर देते चले, गाँव - नगर को नेग।।
अनगिन जल - याचक मिले, खेत, पठार, पहार।
मेघों ने उपकृत किया, देकर शीतल प्यार।।
बहुत दिनों के बाद फिर लौटे हैं घनश्याम।
एक शाम आओ लिखें इन बूँदों के नाम।।
उतरी हिना हथेलियाँ, चढ़ा महावर पाँव।
सावन के आँगन नचा, फागुनवाला गाँव।।
झूमे लट, नथ, झुबझुबी ईंगुर चमके भाल।
सावन में झूले चढ़ी, चुनरी लगे रुमाल।।
नदिया अल्हड़ मनचली, चंचल लड़की एक।
हँसती रहती है सदा, सभी खिलौने फेंक।।
नदी नहीं अभिमानिनी, देती सबको ठाँव।
जो भी आये पास में, धोती सबकी पाँव।।
मन में सुन्दर भाव तो सुन्दर यह संसार।
बेटा, पिल्ला देखकर मन में उपजे प्यार।।
मन चंगा रैदास - सा हो जाये इक बार।
मिले कठौती में उसे गंगा जी का प्यार।।
जिसकी जैसी प्रकृति है उसका वैसा वास।
भौंरा रहता फूल में, गीदड़ मरघट - पास।।
जिससे हित, उसकी सुचित, सुन लो कड़वी बात।
बन्धु, दुधारु गाय की, सहनी पड़ती लात।।
सङ्कट को मत न्योतिये, करके अग्रिम शोर।
टेरे टिटिही साँप को, ज्यों चिंगनों की ओर।।
कूटनीति परिवार में, घुसी तोड़ दीवार।
डॉट - डपट आँगन करे, द्वार - देहरी रार।।
राजनीति के कर्म में, पेट - पीठ दो मर्म।
पेट दिखाना शर्म है, पीठ दिखाना धर्म।।
प्रेम कभी याचक नहीं, न ही याचना - दान।
प्रेम न प्रेमी से पृथक, प्रेम स्वयं भगवान।।
होती अन्धी वासना - वशीभूत जब वृत्ति।
होती हिरनाकुश - सदृश, असुरों की उत्पत्ति।।
जीवन मधुवन की हवा, जीवन संगीत।
जीवन अमृत - पान तब, जब जीवन से प्रीत।।
जीवन जगमग दिवास है, मौत अँधेरी रात।
जन्में दोनों साथ में चलते दोनों साथ।।
व्याही दसा जिन्दगी, बिना विवाही सौत।
आगे - पीछे चल रही, परछाई की मौत।।
मानव लोहा - वज्र है, मानव पत्थर - मोम।
मानव तारा - दीप है, मानव सूरज - सोम।।
लोभ - काम की बाढ़ में, घिरा फँसा संसार।
बही जा रही सभ्यता, तड़प रहे संस्कार।।
मिटे न कोरे ज्ञान से, भूख - ज्वाल विकराल।
पाणिनि प्रिय जब पेट में, पहुंचे रोटी - दाल।।
मैंने पूछा साधु से, क्या है यह संसार।
खाक हथेली पर रखा, फूँका हाथ पसार।।
आँगन ही देखो नहीं, देखो कभी पछीत।
कितने उगे बबूल या, लगे कहाँ भिड़ भीत।।
संबंधों की भीड़ में, सुख समीप भरपूर।
है सब कुछ तृण - तुल्य यदि माँ की ममता दूर।।
लघु दोहा प्रस्तुत करे, अमित अर्थ - विस्तार।
शहनाई प्रगटे यथा, बहुतक सुर - सिंगार।।
ढूँढे नदिया रेत में, अपनी चंचल देह।।
शुष्क नदी के तीर पर, खड़े रोवासे पेड़।
तपी दुपहरी ले गई, सबकी खाल उधेड़।।
चिड़ियों के जल - पात्र हों, प्याऊ के घट चार।
उसी गृही का घर लगे, गर्मी में हरि - द्वार।।
लहरों ने स्वागत किया, पढ़ें माङ्गलिक छन्द।
सागर के छूकर चरण, चले बलाहक वृन्द।।
मेघ मरुत - सहयोग से उड़कर चले सवेग।
ठहर - ठहर देते चले, गाँव - नगर को नेग।।
अनगिन जल - याचक मिले, खेत, पठार, पहार।
मेघों ने उपकृत किया, देकर शीतल प्यार।।
बहुत दिनों के बाद फिर लौटे हैं घनश्याम।
एक शाम आओ लिखें इन बूँदों के नाम।।
उतरी हिना हथेलियाँ, चढ़ा महावर पाँव।
सावन के आँगन नचा, फागुनवाला गाँव।।
झूमे लट, नथ, झुबझुबी ईंगुर चमके भाल।
सावन में झूले चढ़ी, चुनरी लगे रुमाल।।
नदिया अल्हड़ मनचली, चंचल लड़की एक।
हँसती रहती है सदा, सभी खिलौने फेंक।।
नदी नहीं अभिमानिनी, देती सबको ठाँव।
जो भी आये पास में, धोती सबकी पाँव।।
मन में सुन्दर भाव तो सुन्दर यह संसार।
बेटा, पिल्ला देखकर मन में उपजे प्यार।।
मन चंगा रैदास - सा हो जाये इक बार।
मिले कठौती में उसे गंगा जी का प्यार।।
जिसकी जैसी प्रकृति है उसका वैसा वास।
भौंरा रहता फूल में, गीदड़ मरघट - पास।।
जिससे हित, उसकी सुचित, सुन लो कड़वी बात।
बन्धु, दुधारु गाय की, सहनी पड़ती लात।।
सङ्कट को मत न्योतिये, करके अग्रिम शोर।
टेरे टिटिही साँप को, ज्यों चिंगनों की ओर।।
कूटनीति परिवार में, घुसी तोड़ दीवार।
डॉट - डपट आँगन करे, द्वार - देहरी रार।।
राजनीति के कर्म में, पेट - पीठ दो मर्म।
पेट दिखाना शर्म है, पीठ दिखाना धर्म।।
प्रेम कभी याचक नहीं, न ही याचना - दान।
प्रेम न प्रेमी से पृथक, प्रेम स्वयं भगवान।।
होती अन्धी वासना - वशीभूत जब वृत्ति।
होती हिरनाकुश - सदृश, असुरों की उत्पत्ति।।
जीवन मधुवन की हवा, जीवन संगीत।
जीवन अमृत - पान तब, जब जीवन से प्रीत।।
जीवन जगमग दिवास है, मौत अँधेरी रात।
जन्में दोनों साथ में चलते दोनों साथ।।
व्याही दसा जिन्दगी, बिना विवाही सौत।
आगे - पीछे चल रही, परछाई की मौत।।
मानव लोहा - वज्र है, मानव पत्थर - मोम।
मानव तारा - दीप है, मानव सूरज - सोम।।
लोभ - काम की बाढ़ में, घिरा फँसा संसार।
बही जा रही सभ्यता, तड़प रहे संस्कार।।
मिटे न कोरे ज्ञान से, भूख - ज्वाल विकराल।
पाणिनि प्रिय जब पेट में, पहुंचे रोटी - दाल।।
मैंने पूछा साधु से, क्या है यह संसार।
खाक हथेली पर रखा, फूँका हाथ पसार।।
आँगन ही देखो नहीं, देखो कभी पछीत।
कितने उगे बबूल या, लगे कहाँ भिड़ भीत।।
संबंधों की भीड़ में, सुख समीप भरपूर।
है सब कुछ तृण - तुल्य यदि माँ की ममता दूर।।
लघु दोहा प्रस्तुत करे, अमित अर्थ - विस्तार।
शहनाई प्रगटे यथा, बहुतक सुर - सिंगार।।
पता -
दमदहा पुल के पास
कटनी मार्ग,
बरही म.प्र. - 483770
कटनी मार्ग,
बरही म.प्र. - 483770
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