मैं समझता हूँ हिन्दी सिनेमा ने स्त्रियों को वह जगह नहीं दी जिसकी वे अधिकारिणी थी। लेकिन बीच - बीच में कुछ फिल्में ऐसी आईं जहाँ स्त्रियाँ बहुत सशक्त भूमिका में दिखाई दीं, फिर चाहे ऐसी फिल्में संख्या में कम हों लेकिन फिर भी उनका अपना महत्व है।
हमें याद आते हैं व्ही शांताराम शांताराम राजाराम बनकुद्रे जिन्होंने '' दो आँखें बारह हाथ '' ( 1957 ) और डॉ. कोटनिस की '' अमर कहानी '' जैसी अर्थपूर्ण फिल्मे बनाई हालांकि उनकी हर फिल्म में स्त्रियाँ अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ मौजूद है। '' दुनिया न जाने '' 1937 जिसका निर्माण प्रभात फिल्म कंपनी ने किया था, और निर्देशन स्वयं शांताराम ने ही किया था, जो कि नारायण हरि आप्टे के नॉवेल पर आधारित थी, में अनमेल विवाह और विधवा विवाह के मसलों को छुआ गया है। इसकी नायिका निर्मला शांता आप्टे अपने से बड़े व्यक्ति के साथ विवाह करने को मना कर देती है। वह एक क्रांतिकारी फिल्म थी, जिसमे यह दिखाया गया है औरत को हमेशा अन्याय के आगे नतमस्तक नहीं होना चाहिए बल्कि उसे प्रतिकार करना चाहिए। यहां वह अपने व्यक्तित्व को खोती नहीं अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई देती है। यह फिल्म व्यवसायिक रुप से सफल रहने के साथ - साथ आलोचकों द्वारा भी सराही गई। इसे वेनिस इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाया गया। महबूब खान की फिल्म '' मदर इण्डिया '' (1957 ) भी इस संदर्भ में देखी जा सकती है। इस फिल्म को अमेरिकी लेखिका केथरिन मायों की विवादास्पद किताब '' मदर इण्डिया '' के जवाब के रुप में देखा गया। इस किताब को महात्मा गाँधी समेत अधिसंख्य भारतीयों ने अपनी संस्कृति पर एक हमले के रुप में देखा था। फिल्म के केन्द्र में एक गरीब ग्रामीण गृहणी नरगिस है, जो विधवा होने के बावजूद संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ती है। गाँव के लालची और क्रूर महाजन से लोहा लेती है। इतना ही नहीं समाज की भलाई के लिए अपने अपराधी पुत्र को भी मारने से नहीं चूकती। गरीब होने के बावजूद उसके नैतिक मूल्य मरते नहीं बल्कि वह भारतीय स्त्री होने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस फिल्म को '' आल टाइम हिट फिल्म '' का दर्जा प्राप्त हुआ। यह ऐसी पहली फिल्म थी जिसे एकेदमी अवार्ड के लिए भारत की तरफ से सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की फिल्म की केटेगरी के लिए भेजा गया और एकेडमी अवार्ड की अपनी श्रेणी में प्रथम पाँच फिल्मों में शामिल की गई। '' गाईड '' ( 1957 ) लेखक आर. के. नारायण के उपन्यास " The Guide" पर आधारित थी, जिसके निर्माता देवानन्द थे और निर्देशक विजय आनन्द। फिल्म की नायिका वहीदा रहमान अपने सामंती पति के खिलाफ विद्रोह कर देती है और उससे अलग हो जाती है। वहीं अनेक पुरस्कारों से सम्मानीत फिल्म '' साहिब बीबी और गुलाम '' 1962 की नायिका छोटी बहू जमींदार परिवार की मर्यादा और परम्पराओं को ढोती है पर बाद में उसका स्त्रीत्व विद्रोह कर बैठता है, शराब और वेश्या से वशीभूत अपने पति को वापस लाने के लिए वह उसी रास्ते को अपनाती है। फिल्म में वह जमींदारी के खण्डहरों पर प्रहार करती है। फिल्म स्त्रियो की यौन आकांक्षाओं के पहलू को छूती है। फिल्म में मीना कुमारी छोटी बहू का निभाया किरदार हिन्दी फिल्मों के सर्वश्रेष्ठ किरदारों में शुमार किया जाता है। '' सीमा '' ( 1955 ) जिसे अमिय चक्रवर्ती के द्वारा निर्मित और निर्देशित किया गया एक ऐसी अनाथ लड़की की कहानी है जिसे हार की चोरी में फंसा दिया जाता है, और महिला सुधार गृह में भेज दिया जाता है। फिल्म की नायिका महिला सुधार गृह में भी अबला और दयनीय नहीं दिखना चाहती है। वह किसी का कोई अत्याचार सहने को तैयार नहीं है। वह कोई भी आलोकतांत्रिक बात मानने के लिए तैयार नहीं है। वह सुधार गृह से भाग कर असली गुनाहगार को बुरी तरह पिटती भी है और वापस भी आ जाती है। वहीं '' मैं तुलसी तेरे आँगन '' ( 1978 ) की नायिका अपने पति के नाजायज बच्चे को हर प्रकार के अधिकार को सुरक्षित रखने की लड़ाई लड़ती है। '' आँधी '' 1975 की नायिका सुचिता सेन राजनीति जिसे पुरुषों के लिए ही सुरक्षित और उपयुक्त माना जाता है में स्त्री को एक नई पहचान दिलाती है। सुबह की नायिका एक विद्रोही नारी चरित्र को प्रस्तुत करती है। अपने आत्मसम्मान के साथ कोई समझौता नहीं करती, चाहे उसे घर ही क्यों न छोड़ना पड़े। महेश भट्ट की फिल्म '' अर्थ '' 1962 की नायिका अपने सामंती पति के भोगवादी चरित्र से समझौता नहीं करती। वह उसे छोड़ अपने को स्वावलंबी बनाने के लिए काम की तलाश करती है। '' आखिर क्यूँ ''( 1993) की नायिका में अपने स्वतंत्रत व्यक्तित्व को पाने की छटपटाहट है वह अपने दांपत्य जीवन को बचाने के लिए सब सहती है पर उसके पति द्वारा दूसरी शादी करने पर उसके सब्र की सीमा खत्म हो जाती है। वहीं '' इंसाफ का तराजू '' की नायिका अपने और अपनी बहन पर बलात्कार करने वाले को स्वयं अपने हाथों से सजा देती है। '' गॉडमदर '' ( 1999 ) शबाना आजमी के बेहतरीन और दमदार अभिनय के लिए जानी जाती है, फिल्म सत्य घटना पर आधारित थी, जिसमें एक ग्रामीण महिला अपने माफिया पति की हत्या का बदला लेने के लिए खुद माफिया सरदार बन जाती है और एक - एक कर अपने पति के हत्यारों से बदला लेती है। फिल्म में शबाना आजमी पुरुषों की तरह सिगरेट पीती है, राइफल चलाती है और शराब भी पीती है, अर्थात् महिलाओं के लिए वर्जित इलाकों में अतिक्रमण करती है। विनय शुक्ला ने फिल्म को निर्देशित किया था। फिल्म को आलोचकों और बॉक्स आफिस दोनों जगह सराहा गया। तथा छह राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किए। 1970 - 80 के दौर में अनेक दहेज विरोधी फिल्में भी देखने में आई। '' शुभकामना '' '' बहू की आवाज '' '' अग्निदाह '' और '' एक दिन बहू का '' । नई फिल्म में मधुर भण्डारकर की '' चाँदनी बार '' '' सत्ता '' '' मिशन इश्किया '' '' हू तू तू '' अपनी नायिकाओं की भूमिका के लिए याद की जा सकती है।
हमें याद आते हैं व्ही शांताराम शांताराम राजाराम बनकुद्रे जिन्होंने '' दो आँखें बारह हाथ '' ( 1957 ) और डॉ. कोटनिस की '' अमर कहानी '' जैसी अर्थपूर्ण फिल्मे बनाई हालांकि उनकी हर फिल्म में स्त्रियाँ अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ मौजूद है। '' दुनिया न जाने '' 1937 जिसका निर्माण प्रभात फिल्म कंपनी ने किया था, और निर्देशन स्वयं शांताराम ने ही किया था, जो कि नारायण हरि आप्टे के नॉवेल पर आधारित थी, में अनमेल विवाह और विधवा विवाह के मसलों को छुआ गया है। इसकी नायिका निर्मला शांता आप्टे अपने से बड़े व्यक्ति के साथ विवाह करने को मना कर देती है। वह एक क्रांतिकारी फिल्म थी, जिसमे यह दिखाया गया है औरत को हमेशा अन्याय के आगे नतमस्तक नहीं होना चाहिए बल्कि उसे प्रतिकार करना चाहिए। यहां वह अपने व्यक्तित्व को खोती नहीं अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई देती है। यह फिल्म व्यवसायिक रुप से सफल रहने के साथ - साथ आलोचकों द्वारा भी सराही गई। इसे वेनिस इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाया गया। महबूब खान की फिल्म '' मदर इण्डिया '' (1957 ) भी इस संदर्भ में देखी जा सकती है। इस फिल्म को अमेरिकी लेखिका केथरिन मायों की विवादास्पद किताब '' मदर इण्डिया '' के जवाब के रुप में देखा गया। इस किताब को महात्मा गाँधी समेत अधिसंख्य भारतीयों ने अपनी संस्कृति पर एक हमले के रुप में देखा था। फिल्म के केन्द्र में एक गरीब ग्रामीण गृहणी नरगिस है, जो विधवा होने के बावजूद संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ती है। गाँव के लालची और क्रूर महाजन से लोहा लेती है। इतना ही नहीं समाज की भलाई के लिए अपने अपराधी पुत्र को भी मारने से नहीं चूकती। गरीब होने के बावजूद उसके नैतिक मूल्य मरते नहीं बल्कि वह भारतीय स्त्री होने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस फिल्म को '' आल टाइम हिट फिल्म '' का दर्जा प्राप्त हुआ। यह ऐसी पहली फिल्म थी जिसे एकेदमी अवार्ड के लिए भारत की तरफ से सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की फिल्म की केटेगरी के लिए भेजा गया और एकेडमी अवार्ड की अपनी श्रेणी में प्रथम पाँच फिल्मों में शामिल की गई। '' गाईड '' ( 1957 ) लेखक आर. के. नारायण के उपन्यास " The Guide" पर आधारित थी, जिसके निर्माता देवानन्द थे और निर्देशक विजय आनन्द। फिल्म की नायिका वहीदा रहमान अपने सामंती पति के खिलाफ विद्रोह कर देती है और उससे अलग हो जाती है। वहीं अनेक पुरस्कारों से सम्मानीत फिल्म '' साहिब बीबी और गुलाम '' 1962 की नायिका छोटी बहू जमींदार परिवार की मर्यादा और परम्पराओं को ढोती है पर बाद में उसका स्त्रीत्व विद्रोह कर बैठता है, शराब और वेश्या से वशीभूत अपने पति को वापस लाने के लिए वह उसी रास्ते को अपनाती है। फिल्म में वह जमींदारी के खण्डहरों पर प्रहार करती है। फिल्म स्त्रियो की यौन आकांक्षाओं के पहलू को छूती है। फिल्म में मीना कुमारी छोटी बहू का निभाया किरदार हिन्दी फिल्मों के सर्वश्रेष्ठ किरदारों में शुमार किया जाता है। '' सीमा '' ( 1955 ) जिसे अमिय चक्रवर्ती के द्वारा निर्मित और निर्देशित किया गया एक ऐसी अनाथ लड़की की कहानी है जिसे हार की चोरी में फंसा दिया जाता है, और महिला सुधार गृह में भेज दिया जाता है। फिल्म की नायिका महिला सुधार गृह में भी अबला और दयनीय नहीं दिखना चाहती है। वह किसी का कोई अत्याचार सहने को तैयार नहीं है। वह कोई भी आलोकतांत्रिक बात मानने के लिए तैयार नहीं है। वह सुधार गृह से भाग कर असली गुनाहगार को बुरी तरह पिटती भी है और वापस भी आ जाती है। वहीं '' मैं तुलसी तेरे आँगन '' ( 1978 ) की नायिका अपने पति के नाजायज बच्चे को हर प्रकार के अधिकार को सुरक्षित रखने की लड़ाई लड़ती है। '' आँधी '' 1975 की नायिका सुचिता सेन राजनीति जिसे पुरुषों के लिए ही सुरक्षित और उपयुक्त माना जाता है में स्त्री को एक नई पहचान दिलाती है। सुबह की नायिका एक विद्रोही नारी चरित्र को प्रस्तुत करती है। अपने आत्मसम्मान के साथ कोई समझौता नहीं करती, चाहे उसे घर ही क्यों न छोड़ना पड़े। महेश भट्ट की फिल्म '' अर्थ '' 1962 की नायिका अपने सामंती पति के भोगवादी चरित्र से समझौता नहीं करती। वह उसे छोड़ अपने को स्वावलंबी बनाने के लिए काम की तलाश करती है। '' आखिर क्यूँ ''( 1993) की नायिका में अपने स्वतंत्रत व्यक्तित्व को पाने की छटपटाहट है वह अपने दांपत्य जीवन को बचाने के लिए सब सहती है पर उसके पति द्वारा दूसरी शादी करने पर उसके सब्र की सीमा खत्म हो जाती है। वहीं '' इंसाफ का तराजू '' की नायिका अपने और अपनी बहन पर बलात्कार करने वाले को स्वयं अपने हाथों से सजा देती है। '' गॉडमदर '' ( 1999 ) शबाना आजमी के बेहतरीन और दमदार अभिनय के लिए जानी जाती है, फिल्म सत्य घटना पर आधारित थी, जिसमें एक ग्रामीण महिला अपने माफिया पति की हत्या का बदला लेने के लिए खुद माफिया सरदार बन जाती है और एक - एक कर अपने पति के हत्यारों से बदला लेती है। फिल्म में शबाना आजमी पुरुषों की तरह सिगरेट पीती है, राइफल चलाती है और शराब भी पीती है, अर्थात् महिलाओं के लिए वर्जित इलाकों में अतिक्रमण करती है। विनय शुक्ला ने फिल्म को निर्देशित किया था। फिल्म को आलोचकों और बॉक्स आफिस दोनों जगह सराहा गया। तथा छह राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किए। 1970 - 80 के दौर में अनेक दहेज विरोधी फिल्में भी देखने में आई। '' शुभकामना '' '' बहू की आवाज '' '' अग्निदाह '' और '' एक दिन बहू का '' । नई फिल्म में मधुर भण्डारकर की '' चाँदनी बार '' '' सत्ता '' '' मिशन इश्किया '' '' हू तू तू '' अपनी नायिकाओं की भूमिका के लिए याद की जा सकती है।
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