इस अंक के रचनाकार

इस अंक के रचनाकार आलेख : साहित्य में पर्यावरण चेतना : मोरे औदुंबर बबनराव,बहुजन अवधारणाः वर्तमान और भविष्य : प्रमोद रंजन,अंग्रेजी ने हमसे क्या छीना : अशोक व्यास,छत्तीसगढ़ के कृषि संस्कृति का पर्व : हरेली : हेमलाल सहारे,हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली : अंकुुर सिंह एवं निखिल सिंह, कहानी : सी.एच.बी. इंटरव्यू / वाढेकर रामेश्वर महादेव,बेहतर : मधुसूदन शर्मा,शीर्षक में कुछ नहीं रखा : राय नगीना मौर्य, छत्तीसगढ़ी कहानी : डूबकी कड़ही : टीकेश्वर सिन्हा ’ गब्दीवाला’,नउकरी वाली बहू : प्रिया देवांगन’ प्रियू’, लघुकथा : निर्णय : टीकेश्वर सिन्हा ’ गब्दीवाला’,कार ट्रेनर : नेतराम भारती, बाल कहानी : बादल और बच्चे : टीकेश्वर सिन्हा ’ गब्दीवाला’, गीत / ग़ज़ल / कविता : आफताब से मोहब्बत होगा (गजल) व्ही. व्ही. रमणा,भूल कर खुद को (गजल ) श्वेता गर्ग,जला कर ख्वाबों को (गजल ) प्रियंका सिंह, रिश्ते ऐसे ढल गए (गजल) : बलबिंदर बादल,दो ग़ज़लें : कृष्ण सुकुमार,बस भी कर ऐ जिन्दगी (गजल ) संदीप कुमार ’ बेपरवाह’, प्यार के मोती सजा कर (गजल) : महेन्द्र राठौर ,केशव शरण की कविताएं, राखी का त्यौहार (गीत) : नीरव,लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की नवगीत,अंकुर की रचनाएं ,ओ शिल्पी (कविता ) डॉ. अनिल कुमार परिहार,दिखाई दिये (गजल ) कृष्ण कांत बडोनी, कैलाश मनहर की ग़ज़लें,दो कविताएं : राजकुमार मसखरे,मंगलमाया (आधार छंद ) राजेन्द्र रायपुरी,उतर कर आसमान से (कविता) सरल कुमार वर्मा,दो ग़ज़लें : डॉ. मृदुल शर्मा, मैं और मेरी तन्हाई (गजल ) राखी देब,दो छत्तीसगढ़ी गीत : डॉ. पीसी लाल यादव,गम तो साथ ही है (गजल) : नीतू दाधिच व्यास, लुप्त होने लगी (गीत) : कमल सक्सेना,श्वेत पत्र (कविता ) बाज,.

शनिवार, 29 नवंबर 2014

बेरोजगार

राजा सिंह 

उसकी आंखें खुली तो उसने पाया कि सूर्य चढ़ आया है। वह थोड़ी देर पड़ा रहा यद्यपि उसे गर्मी महसूस हो रही थी। उसी समय उसकी मॉं छत पर आती दिखाई पड़ी। वह करवट बदलकर मांॅ की तरफ  देखने लगा। मांॅ उसके पास आ चुकी थी और उसके बालों में प्यार भरा हांथ फेरती हुई बोली, 'जाना नहीं है बेटा ? 'उसने लेटे ही लेटे मां की तरफ  आंख उठाकर देखा, मानो वह आंखों से ही कहना चाहता हो, जाऊॅगा क्यों नहीं ? यही तो हमारी दिनचर्या है।
वह मां के साथ छत से उतर आया। कुल्ला करते हुये उसने देखा उसकी बहन रेखा उसके कपड़ों पर प्रेस कर रही है। उसका छोटा भाई विमल बड़ी तल्लीनता से उसके जूतों पर पालिश कर रहा था। भाई के माथे पर झुके बाल पालिश करने वाले हाथों के साथ बड़े लयबद्ध तरीके से झूल रहे थे। उसे साफ - साफ  समझ में आ रहा था कि उसे भेजे जाने के लिए लोग कितने लगन से युद्ध-स्तर की तैयारी कर रहें है। उसने सोचा उसके घर के लोग उसको ठीकठाक रखने के लिये खुद काफी अस्त-व्यस्त हो गये हैं। वह आंगन में पड़ी खाट पर बैठ गया। तभी उसकी मां चाय ले आई। चाय पीते हुए वह सोचने लगा, आखिर इन लोंगों का उत्साह क्षीण क्यों नहीं होता ? अब तो यह कोई नयी बात नहीं है। वह करीब-करीब हर दूसरे-तीसरे दिन इम्पलायमेन्ट-ऐक्सचेंज नौंकरी, की खोज में, या किसी प्राइवेट फर्म में इन्टरव्यू देने और वापस खाली हांथ या आश्वासनों का ढेर लिये घर वापस आ जाता है। हर बार लौटने पर वह यही निश्चय करता है कि वह भविष्य में कभी न तो इम्पलायमेन्ट ऐक्सचेंज जायगा, न ही और कहीं। परन्तु हर कॉल लेटर पर उसका निर्णय फूस के ढेर की तरह हवा में उड़ जाता है और फिर वह जानी-पहचानी तैयारी के बीच गुजर कर चला जाता है। वह काफी दिनों से महसूस कर रहा था कि उसका उत्साह जाने कब समाप्त हो चुका हैं अब वह सिर्फ घर वालों को संतुष्टि के लिये जाता है। घर वाले अब भी उसकी नौंकरी लगने की उम्मीद में हैं, जबकि वह सोचता है,नौकरी पाना अब उसका दिवास्वप्न भी नहीं रह गया हैं। शुरू-शुरू में जब वह बी0ए0 फर्स्ट डिवीजन पास हुआ था तो वह कितना उत्साह के साथ भरा हुआ था, मिलने वाली नौंकरी के प्रति और उससे संवरने वाले जीवन के भी प्रति। उसके घर वाले भी यानि मां, बहन, भाई व पिताजी सभी के चेहरों पर उसने उस समय एक कल्पना में डूबी, आशावान चमक देखी थी वह चमक जो किसी को पारस पत्थर मिलने की कल्पना से होती हैं। उनके आशावान चेहरें की वह चमक धीरे-धीरे कितनी धूमिल पड़ गई है। वह चमक चाहकर भी वह अभी तक नहीं देख पाया है और शायद भविष्य में भी उसे उम्मीद नजर नहीं आती है- क्योंकि उनकी चमक उसकी नौंकरी का इन्तजार कर रही है।
'साहबजादे, नौं बज रहे हैं। ' उसके पिताजी, जो पूजा करके उठे थे, आते हुये बोले। यह पिताजी के वाक्यों की तल्खी को काफी गहराई से महसूस करता है। इधर थोड़े दिनों से पिताजी उसके साथ बोलने में व्यंग्य का भी प्रयोग करने लगे हैं। उसके साथ घर में केवल उसके पिताजी ही रूखा बोलते हैं। उसने कुछ नहीं कहा, यद्यपि उसे लगा था कि वह कुछ बोल पड़ेगा। परन्तु वह जानता था कि उसके बोलने से तकरार पैदा हो जायेगी, जिससे उसके जाने का रहा-सहा मूड भी खत्म हो जायेगा। इन हालातों में मां उसका ही पक्ष लेगी। फिर वह लड़ाई खिसक के मॉं-बाप के पास चली जायेगी। वह जानता था बाप का रूखा बोलना किन्हीं मानों में गलत भी नहीं था। उसका बाप रिटायर्ड पोस्ट आफिस क्लर्क जिसे मिडिल पास होने पर ही नौंकरी मिल गयी थी, उसका बेटा बी0ए0 पास होने पर भी बेकार। उसका बाप जिसके ऊपर बुढ़ापे और दमा ने आक्रमण कर रखा है, कितने अरमानों से उसे पढ़ाया-लिखाया है। रेखा को हाई स्कूल पास करवा के घर में बैठाल लिया। वह बेचारी पढ़ने के लिये कितनी उत्सुक थी। कई रोज उसने घर में कोहराम-सा मचा दिया था। उसकी नौंकरी मिलना तो दूर रहा उसका खर्च ही परिवार के अन्य लोंगों से काफी ज्यादा है। आखिर बाप परेशानी में बड़बड़ायेगा क्यों नही ं?
वह उठकर नित्य कर्म से निपटने चला गया। नहा कर आया तो देखा मां उसके लिये रसोई में नाश्ता  तैयार कर रही है। उसकी बहन रेखा आंगन को बुहार रही थी। वह अनमने भाव से कपड़ों को पहनने के लिये कमरे के अन्दर चला गया। कपड़े पहन कर आया तो उसने देखा खाट के पास लोहे का वही छोटा सा स्टूल रखा है जिस पर उसके लिये नाश्ता रखा जायेगा। वह खाट पर आकर बैठ गया। उसने स्टूल को अंगुलियों से बजाना शुरू कर दिया। तभी उसकी बहन ने आकर नाश्ता रख दिया। वह जैसे-तैसे दो पराठे ठंूस कर उठ खड़ा हुआ। जूता पहनते वक्त उसने देखा कि उसकी जुराबें उंगलियों के पास फट गयी हैं। उसकी इच्छा हुई कि वह जुराबों को तार-तार करके फेंक दे। परन्तु वह ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि वह जानता था कि उसके पास जो चप्पल हैं वे उसका साथ पता नहीं कब छोड़ दें ? उसने बुरी तरह अपने पैर जुराबों में ठंूस दिये। उसी वक्त उसकी बहन उसका चमड़े का बैग लेकर खड़ी हो गईं। उसके बैग को देखते ही उसके ऊपर एक अजीब सी कोफ्त सवार हो गई। इस बैग के साथ लगा हुआ वह अपने आप को काफी अपमानित महसूस करता हैं। इस बैग से नफरत भी करता है। ज्यों ही वह बैग लेकर घर से बाहर निकलता है मोहल्ले में जिस - तिस की नजरें उस पर पड़ती हैं उन आंखों में अपने लिये एक सतही सहानुभूति देखता है - जिसमें लिखा होता है-बेचारा नौंकरी के लिये परेशान है। बेचारा शब्द सुनना व महसूस करना दोनों ही उसे काफी खलते हैं। बैग लेकर वह चलने लगा, रेेखा दरवाजे तक उसे छोड़ने आयी थी बोली, 'भइया बेस्ट ऑफ लक' वह पलटकर अनजाने ही मुस्करा पड़ा और फिर आटोमेटिक तरीके से उसके मॅुह से निकला, 'थैंक यू'।
उसके पैर अपने आप उस बस स्टाप की ओर मुड़ चले जहां से उसे बस पकड़नी थी। उसने पैंट की जेबों में हाथ डाला अपने आप को आश्वस्त करने के लिये कि मॉं ने रूपये रखे हैं कि नहीं। उसने रूपये निकाल के देखा तो मुड़े-मुड़े नोंट उसकी जेब में पड़े थे। वह कुछ द्रवित हो उठा। मॉ बेचारी कितना ख्याल रखती है उसका। उसको कभी भी मॉ से रूपये मॉगने नहीं पड़ते हैं। अक्सर ही उसके पास चुपके से बीस या तीस रूपयें पहॅुच जाते हैं उसने मन ही मन हिसाब लगाया आठ रूपयें इधर के , आठ रूपये उधर के। उधर के बस स्टाप से इम्पलायमेन्ट ऐक्सचेंज दूर है, रिक्शे से, जाना पड़ेगा पांॅच रूपये उसके। इस प्रकार चार रूपये फिर भी बच रहते हैं। ठीक है - चाय-सिगरेट के काम आयेंगे। बस स्टाप पहुॅच कर उसकी अभ्यस्त ऑखें दूर-दूर तक बस की खोज करने लगीं। पूरी की पूरी सड़क विधवा की सूनी मांग की तरह दिखाई पड़ रही थी। उसे आश्चर्य हुआ रोज की तरह बस स्टाप पर भीड़ नहीं थी। थोड़ी देर बाद पास से गुजरते हुये व्यक्ति से टाइम पूछा। अरे ! बाप रे ! साढ़े दस बज गये। बस तो आकर चली गई होगी, उसने सोचा। वह काफी निराश हो गया था उसे अच्छी तरह मालूम था कि दूसरी बस पौंने बारह बजे के पहले नहीं आयेगी और उसे साढ़े ग्यारह बजे तक अवश्य पहॅुच जाना चाहिये था। उसने रिक्शा करके इम्पलायमेन्ट एक्सचेंज जाने का निश्चय किया। कोई भी रिक्शा बारह पन्द्रह से कम में तय नहीं हो रहा था। वह रिक्शा वालों के 'नेचर' को अच्छी तरह जानता था, बस निकल जाने पर उनके दाम एकदम से आगे बढ़ जाते हैं। रिक्शे वाले सवारियों की मजबूरी बखूबी जानते हैं।
उसने थोड़ी दूर टहल मारी। उसने देखा कि एक रिक्शे वाला उसी की तरफ आ रहा था। वह मुॅह फेर कर खड़ा हो गया मानों उसे रिक्शे की कोई खास जरूरत न हो। 'कहॉ जाना है बाबू जी। 'रिक्शे वाले ने कहा। उसने पलट कर देखा, रिक्शे वाले की ऑखों मे कीचड़ था। दुबला-पतला शरीर बूढ़ी हो गई काया को अपने फटे कपड़ों से ढकने की कोशिश करता हुआ, वह एकदम दयनीयता की स्पष्ट छाप उस पर छोड़ रहा था। एक बार उसका मन हुआ कि इस रिक्शे वाले से बात न की जाये। अन्य कोई मौंका होता तो अवश्य उससें मुखातिब न होता परन्तु आज वह काफी मजबूर था और जब रिक्शे वाले ने वहॉ चलने के लिये दस रूपये मांगे तो वह तुरन्त गद्दी पर बैठ गया। थोड़ी दूर चलने के बाद एहसास हुआ कि रिक्शा भी अपने ड्राइवर की तरह कृशकाय है। उसने महसूस किया कि अगर रिक्शा इसी रफ्तार से चलता रहा तो वह समय से नहीं पहुॅच पायेगा। वह अपने भीतर झुंझलाहट महसूस करने लगा। जब उससे नहीं रहा गया तो बोला, 'अरे यार ! जरा जल्दी चलाओ।' रिक्शे वाले ने मॅुह से कोई जबाब नहीं दिया था, अलबत्ता रिक्शे की गति कुछ बढ़ती हुई अवश्य उसे महसूस हुई थी। उसें कुछ सन्तोष हुआ। उसने रिक्शे से ध्यान हटाकर इधर-उधर देखना शुरू कर दिया। फिर उसकी नजर रिक्शे से संघर्ष करते हुये रिक्शे वाले पर पड़ी। पसीने से सारे कपड़े उसके गीले हो गये थे तथा उसका शरीर मेहनत करते हुये काफी हॉफ रहा था। उसे रिक्शे वाले पर कुछ दया आई। कुछ देर बाद उसने महसूस किया कि कुछ, धीमी हो गई हैं वह खीजता हुआ बोला, 'अरे ! बुढ़उ तेज चलाओ न, अगर समय से मैं पहॅुच नहीं पाया तो मेरे रिक्शा करने से क्या फायदा रह ?' रिक्शे वाला भी अब उसके टोकने से काफी परेशान हो गया था। एक तो वह अपने शरीर से परेशान था दूसरे उसके बार-बार टोकने से खीज उठा था और लगभग झुंझलाकर जबाब दिया, 'चला तो रहे हैं साहब ! कोई मशीन तो बन नहीं जाउॅंगा। आखिर जितना बूता होगा उसी हिसाब से रिक्शा चलेगा।' फिर साला ये रिक्शा भी जर्मन पुराना है।' वह रिक्शे वाले के जबाब से काफी शर्मिन्दगी महसूस करने लगा था। उसने सोचा मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये कितना अमानवीय हो जाता है उसने निश्चय किया कि अब वह रिक्शे वाले से कुछ भी नहीं कहेगा। रिक्शे वाले ने भी शायद अपने खुद कहे वाक्यों की कठोरता महसूस कर ली थी और उसने अपना गुस्सा रिक्शें पर उतारना शुरू कर दिया था। परिणाम स्वरूप रिक्शे की चाल काफी तेज हो गयी थीं फिर उसने रिक्शे को सामान्य गति पर लाते हुए कहा, 'क्या करे साहब ? यहां की जो नगर महापालिका है वह इस सड़क को कभी बनवाती ही नहीं। इस सड़क पर तो मोटर कारों की चाल ही काफी कम हो जाती है- फिर ये रिक्शा की बिसात ही क्या है ? ऊपर से भगवान भी खूब कृपा कर रहा है, हवा उल्टी दिशा में बह रही है। इसलिए रिक्शे की चाल इतनी धीमी है। 'वह काफी गहराई से महसूस कर रहा था रिक्शे वाले की मजबूरी को।
रिक्शे से उतर कर वह काफी लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ दस नम्बर के कमरे में घुस गया था। उसने पाया अधिकारी के टेबुल घेरे तीन-चार लड़के खड़े थे। अधिकारी कुछ गरम स्वर में उनसे कह रहा था,' तुम लोगों को हरदम यही धुन लगी रहती है कि भेेज दो। जब भेजते हैं तो सक्सेज नहीं हो पाते हैं।' फिर जरा नरम स्वर में बोला, स्टेनों का तुम लोगों ने रजिस्टेशन करवा दिया फिर निंिश्चत हो गये। ऐसा नहीें करना चाहिये, रजिस्टेशन के बाद प्रेक्टिस भी करते रहना चाहिये। अभी पिछली दफा तुम्हें उस बैंक में भेजा था कोई भी सफल नहीं हो पाया। मैं गलत तो नहीे कह रहा हॅू ?' 'नो सर' सब लड़के एक साथ बोले। उनकी गर्दन झुकी हुई थी व उनके चेहरे लतियाए हुए लग रहे थे। वह उनकी मजबूरियां काफी गहराई से समझ रहा थां। वह जानता था बेचारों ने पता नहीं, किन-किन मुसीबतों से इन्होंने टाइप शार्टहैंड सीखी होगी फिर उसके बाद रजिस्टेशन का चक्कर पार किया होगा। अब प्रेक्टिस कैसे करें ? उसके लिये रूपयों की जरूरत होती है और बेचारों के पास पैसा कहॉ ?
उसने देखा लड़के लोग मेज छोड़कर दरवाजे से एक-एक करके शान्ति से निकल गये। वह धीरे से अधिकारी के टेबुल के पास बढ़ आया था। अधिकारी, जो गम्भीरतापूर्वक कागजों का निरीक्षण कर रहा था, उसने गर्दन उठाकर प्रश्नवाचक तरीके से उसे घूरा। 'सर आपने उस प्राइवेट फर्म में बुलाने के लिये भेजा था', इन शब्दों को बोलने में ही वह काफी हक्ला गया था। मि0 घड़ी देख रहे हैं ?' उसने अपनी कलाई घड़ी आगे करके दिखलाई फिर बोला, 'साढ़े बारह बज रहे हैं,' आपको ग्यारह बजे बुलाया गया था। मैंने दस-बारह लड़कों को भेेज दिया। 'क्या करे सर, बस छूट गयी थी इसलिये देर हो गई। अब भी सर अगर आप आर्डर इशू कर दे ंतो काम बन जायेगा।  'सर, आप तो मेरी कन्डीशन से पूरी तरह वाकिफ हैं।' यह कहते हुये उसके चेहरे पर सम्पूर्ण दीनता हृदय की उभर आयी थी। 'अब तो कुछ नहीं हो सकता, मैं मजबूर हॅू।' इस तरह अधिकारी ने अपना दो टूक फैसला सुना दिया था और अपने कागजों में फिर खो गया था। फिर भी वह थोड़ी देर टेबुल के पास खड़ा रहा। उसने सोचा एक बार फिर रिक्वेस्ट की जाये। परन्तु उसकी हिम्मत न पड़ी । टेबुल छोड़ते वक्त वह काफी रूऑंसा हो गया था। बरामदा पार करते उसे अपने कदम बेड़ियों से जुड़े हुए लग रहे थे। उसे लगा कि वह एक कदम नहीं चल पायेगा। वह सोचने लगा, एक पोस्ट थी जिसमें दस-बारह लड़के गये है। फिर इनमें का एक भी शायद सलेक्शन न हो ? ये प्राइवेट कम्पनियों वाले बड़े हरामी होते हैं सब साले पहले से ही सलेक्शन कर लेते हैं। सिर्फ ढोंग रचते हैं इम्पलायमेंट से लड़के बुलाने का। यह सोचकर उसे वहॉं न भेजे जा सकने की असफलता का अहसास काफी कम हुआ।
वह विचारमग्न बाहर के गेट की सीढ़ियां उतर ही रहा था कि उसके कन्धें पर किसी ने हाथ रख दिया। उसने बड़ी उखड़ी निगाहों से हाथ रखने वाले को देखा, वह खड़ा-खड़ा मुस्करा रहा था। एक ऐसी हँसी जो एक आहत को देखकर दूसरे आहत को होती है। उसने बड़ी उदासीनता से उसके हाथ अपने कन्धों से उतारे और बिना एक भी शब्द बोले आगे की ओर बढ़ गया था। वह उसे टाल देना चाहता था और इसमें कामयाब भी हुआ। उस व्यक्ति ने फिर उसे नहीं टोका। वह व्यक्ति बेकारी के मामले में उससे काफी सीनियर था और बेकारी के विषय में उसके लेक्चर को सुन करके, जो वह अक्सर मिल जाने पर छोड़ दिया करता था, पूरी तरह से अपने को हताश नहीं करना चाहता था। उस व्यक्ति की बातों में देश, समाज, व्यवस्था व जीवन के प्रति जो निराशावादी विचार थे वह किसी भी संघर्षशील नवयुवक को पूरी तरह तोड़ देने के लिए काफी थे।  कहीं उसके भीतर भी कोई आशा की ज्योति तो नहीं जल रही है ? जो उसे आत्महत्या से विरत किये है। उसे वह पल याद आया जब वह पहले पहल रजिस्ट्रेशन करवाने आया था तो यही व्यक्ति उसे मिला था। रूखे-रूखे से बाल, दाढ़ी बड़ी हुई, आंखें गढ्ढों में धंसी हुई, साफ बिना प्रेस की कमीज व पेंट तथा जर्जर होती चप्पले उसकी पहचान थी। उसे देखकर कोई दूर से ही कह सकता था कि वह बेरोजगार है। और वहीं क्यों ? करीब-करीब हर बेरोजगार की यही तसवीर होती है। - कुछ फेर बदल के । उस समय वह व्यक्ति नोटिस बोर्ड में लगे नये वांटेड कालम पढ़ रहा था। उसने रजिस्ट्रेशन आफिस का उस समय उससे पता पूछा था। फिर दोनों की अक्सर मुलाकातें हो जाया करती थीं क्योंकि दोनों का एक ही मिशन था। उसे महसूस हुआ कि उसने उसके साथ ठीक व्यवहार नहीं किया हैं। उसने चाहा कि उसे पुकार कर बातचीत की जाय। परन्तु वह कार्यालय के भीतर जा चुका था।
इस समय वह सड़क से मिलने वाले बाजरे पर चल रहा था। इसके एक ओर खूबसूरत लान बिछा था। उसने सोचां चलो लॉन में बैठकर कुछ आराम किया जाये । वह लॉन में घुसकर कहीं से एक ईंट उठा लाया, ईंट को उसने तकिये के रूप में इस्तेमाल किया। उसे इस वक्त अपने होने का एहसास नहीं था। उसके चेहरे पर अवसाद की काली छाया थीं । पेड़ों की छाया में लेटा हुआ वह सोच रहा था, किस तरह मां ने ये तीस रूपये इन्तजाम करके रखे होंगे ? वह मॉ के रूपयों के इन्तजाम करने से काफी परिचित है। उसकी आंखों में कई दृश्य घूम जाते हैं। इस तरह से कलेजा निकाल कर दिये गये रूपयों का इन्तजाम इस रूप में सामने उसके समक्ष पहली बार नहीं आया हैं। उसने सोचा आखिर कब तक मॉ की आकांक्षाओं के प्रतीक ये रूपये आने-जाने की भेंट चढ़ते रहेगें ? उसे इस कार्यालय की व्यर्थता का अहसास काफी खुले रूप में आज नजर आ रहा था। उसने सोंचा कि पता नहीं इसके जरिये कितनों ने नौकरी पायीं है फिर आखिर उसे क्यों नहीं मिलती ? उसे इसका एक कारण नजर आया - आज की सड़ी-गली अर्थव्यवस्था। इसको बदले बिना समाज में आमूल परिवर्तन आना असंभव है उसने सोचा। उसका दिमाग अब बड़े दायरे में घूमने लगा था। वे काफी हद तक अपने को उत्तेजित महसूस कर रहा था। उसने जबरदस्ती अपने को सोच-विचार से मुक्त किया और उठ बैठा।
अब वह सड़क पर निकल आया था। उसने पैदल ही अपने घर की ओर मार्च करना शुरू कर दिया था।
घर तक आते-आते शाम हो चुकी थी। इतनी दूर का सफर पैदल तय करने के कारण उसकी टांगें काफी दूखने लगी थीं। घर पहुचनें पर वह बुरी तरह से लस्त हो चुका था। ऑंगन में खड़ी खाट पर उसने अपने आप को बिलकुल ढीला छोड़ दिया था। थोड़ी देर वो उसी हालत में पड़ा रहा। फिर वह बैठकर जूते उतारने लगा। इसी बीच उसकी बहन आ गई । 'क्या हुआ भइया ? 'आते ही उसने प्रश्न दागा था। उसका मन हुआ कि बुरी तरह से बहन को झिड़क दे -कि होना क्या है कभी कुछ हुआ है जो आज ही होगा। परन्तु उसने ऐसा नहीं किया। उसने सोचा वह तो बेचारी कितनी ललक एवं सहानुभूति से उससे पूछनें आयी है और वह उससे ऐसा व्यवहार करेगा तो उसके दिल को कितनी ठेस पहुॅंचेगी। उसे अपने झिड़कने के ख्याल आने के कारण काफी ग्लानि हुई । उसने जबरदस्ती अपने चेहरे पर मुस्कराहट लाते हुये कहा 'हम तो भई कर्मयोगी है। फल की आशा तो रखते ही नहीं है।' मॉं जो दरवाजे पर खड़ी भाई-बहन का वार्तालाप सुन रही थी बीच में ही कूद पड़ी और रेखा को डॉटते हुये बोली, 'अरे ! क्यों बेचारे को परेशान करती हो ?' थका-मांदा आया है। सबेरे से कुछ खाया नहीं है। चल पहले खाना परस फिर जी भर के बातें कर लेना।' वह बहन की बात को झेल गया था परन्तु उसे लगा कि मॉं की सहानुभूति सह नहीं पायेंगा। वह मॉं की आँखों की तरलता बर्दाश्त नहीं कर पाता है। उसकी इच्छा हुई कि वह मॉ के ऑंचल में सिर छिपाकर फूट - फूट कर रो पड़े और नौकरी न पाने की असमर्थता का अहसास करा दे।

पता :- 
एम-1285, सेक्टर-आई ,एल.डी.ए. कालोनी, कानपुर रोड,
लखनऊ-226012
फोन 0522-2422326,मो0  9415200724


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