शांतिदीप श्रीवास्तव
उस सुबह अनुभव
करके स्पर्श
तुम्हारे कोमल हाथों का
अपने माथे पर
लौट आया है मेरा बचपन।
मैंने फेंका अपने हाथों और पैरों को
निरुद्देश्य सा
किन्तु खोली नहीं
अपनी आँखें
किसी लाड प्यार में बिगड़े बच्चे की तरह
ताकि
पा सकूँ कुछ और अधिक
ममता भरे हाथों का स्पर्श।
सोचता हूँ .... शायद
बचपन .... जवानी ....और बुढ़ापा
हैं विभिन्न सोपान
कम महत्वपूर्ण शरीर के ...
विकास यात्रा के
और बांधा नहीं जा सकता है
मन को
इन दृश्यमान सोपानों की सीमा में
तभी तो
मेरे बृद्ध होते शरीर में
लौट आते है बचपन और जवानी।
क्षण - क्षण
तुम्हारे वैविध्यपूर्ण
स्पर्श के साथ।
जब तुम छूते हो मुझे
मेरा बचपन
जब मै छूता हूँ तुम्हे
मेरा बुढ़ापा
और .... और
जब छूते है दोनों
एक दूसरे को साथ
लौट आती है मेरी जवानी।
शायद इसलिए
न मैं रह पाता हूँ बूढ़ा
न जवान
न ही एक बच्चा
सदा के लिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें