विजय कुमार
एक नयी शुरुवात
मैंने धीरे से आँखें। खोली एम्बुलेंस शहर के एक बड़े हार्ट हॉस्पिटल की ओर जा रही थी। मेरी बगल में भारद्वाज जी गौतम और सूरज बैठे थे। मुझे देखकर सूरज ने मेरा हाथ थपथपाया और कहा ईश्वर अंकल, आप चिंता न करें। मैंने हॉस्पिटल में डॉक्टर्स से बात कर ली है। मेरा ही एक दोस्त वहाँ पर हार्ट सर्जन है। सब ठीक हो जायेगा। गौतम और भारद्वाज जी ने एक साथ कहा - हाँ सब ठीक हो जायेंगा। मैंने भी धीरे से सर हिलाकर हाँ का इशारा किया। मुझे यकीन था कि अब सब ठीक हो जायेगा।
मैंने फिर आँखें बंद कर ली और बीते बरसों की यात्रा पर चल पड़ा। यादो ने मेरे मन को घेर लिया।
कुछ बरस पहले .... कार का हॉर्न बजा। किसी ने ड्राइविंग सीट से मुंह निकाल कर आवाज लगाई - अरे चौकीदार, दरवाजा खोलना।
मैंने आराम से उठकर दरवाजा खोला। एक कार भीतर आकर सीधे पार्किंग में जाकर रुकी। मैं धीरे धीरे चलता हुआ उनकी ओर बढ़ा। कार में से एक युवक और युवती निकले और पीछे की सीट से एक बूढ़ी माता। युवक कुछ बोलता इसके पहले ही मैंने कहा - अमृत वृद्धाश्रम में आपका स्वागत है। ऑफिस उस तरफ है।
मैंने गहरी नजरों से तीनों को देखा। ये एक आम नजारा था, इस वृद्धाश्रम के लिए। कोई अपना ही अपनों को छोडने यहाँ आता था। सभी चुप थे पर लड़के के चेहरे पर उदासी भरी चुप्पी थी। लड़की के चेहरे पर गुस्से से भरी चुप्पी थी और बूढ़ी अम्मा के चेहरे पर एक खालीपन की चुप्पी थी। मैं इस चुप्पी को पहचानता था। ये दुनिया की सबसे भयानक चुप्पी होती हैं। खालीपन का अहसास, सब कुछ होते हुए भी डरावना होता है और अंतत: यही अहसास इंसान को मार देता है।
तीनों धीरे - धीरे मेरे संग ऑफिस की ओर चल दिए। मैं बूढ़ी अम्मा को देख रहा था। वह करीब - करीब मेरी ही उम्र की थी। बहुत थकी हुई लग रही थी। उसके हाथ कांप रहे थे। उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। अचानक चलते - चलते वो लड़खड़ाई तो मैंने उसे झट से सहारा दिया और उसे अपनी लाठी दे दी। लड़के ने खामोशी से मेरी ओर देखा। मैंने बूढ़ी अम्मा को सांत्वना दी - ठीक है अम्मा। धीरे चलिए, कोई बात नहीं। बस आपका नया घर थोड़ी दूर ही है। मेरे ये शब्द सुनकर सब रुक से गए। युवती के चेहरे का गुस्सा कुछ और तेज हुआ। लड़के के चेहरे पर कुछ और उदासी फैली और बूढ़ी माँ की आँखों से आंसू छलक पडे। युवती गुर्राकर बोली - तुम्हे ज्यादा बोलना आता है क्या? चौकीदार हो, चौकीदार ही रहो। मैंने ऐसे दुनियादार लोग बहुत देखे थे और वैसे भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं इन जमीनी बातों से बहुत ऊपर आ चुका था। मैंने कहा - बीबीजी, मैंने कोई गलत बात तो नहीं कही। अब इनका घर तो यही है। युवती गुस्से से चिल्लाई - हमें मत समझाओ कि क्या है और क्या नहीं। युवक ने उसे शांत रहने को कहा। बूढ़ी अम्मा के चेहरे पर आंसू अब बहती लकीर बन गए थे।
ये शोर सुनकर ऑफिस से भारद्वाज और शान्ति दीदी बाहर आये। उन्होंने पुछा - क्या बात है ईश्वर , किस बात का शोर है ? मैंने ठहर कर कहा - जी, कोई बात नहीं। बस ये आये हैं। बूढ़ी अम्मा को लेकर। युवती फिर भड़क कर बोली - तुम जैसे छोटे लोगों के मुंह नहीं लगना चाहिए।् भारद्वाज जी सारा मामला समझ गए। उन्होंने शांत स्वर में कहा - मैडम जी, यहाँ कोई छोटा नहीं है और न ही कोई बड़ा। ये एक घर है। जहाँ सभी एक समान रहते हंै। और मुझे बड़ी खुशी होती अगर ऐसा ही घर समाज के हर हिस्से में भी रहता !
युवती कसमसा कर चुप हो गयी। युवक ने सभी को भीतर चलने को कहा। जाते - जाते बूढ़ी अम्मा ने मुझे पलटकर देखा। मैंने उसे आँखों ही आँखों में एक अपनत्व भरी सांत्वना दी !
ऑफिस में मैंने बूढ़ी माता के लिए कुर्सी लाकर रख दी। मैं उन सभी को और इस फानी दुनिया के खत्म होते रिश्तों को देखते हुए खुद दरवाजे के पास खड़ा रहा। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद युवक धीरे से बोला- भारद्वाज जी, आपसे कल बात हुई थी। मैं अमित हूँ ,ये मेरी माँ है। इनके बारे में आपसे बात की थी। इतना बोलने के बाद वह चुप हो गया। वह असहज - सा था। उसका गला रुक - रुक जाता था। मैंने अपने लम्बे जीवन में ये सब बहुत देखा था। मैंने युवती की ओर देखा। वह अभी भी गुस्से में ही थी। बूढ़ी अम्मा अपने बेटे की ओर देख रही थी। इस आशा में कि अब जो होने वाला है, वह नहीं होगा और वह फिर वापस चल देंगे। लेकिन मैं जानता था - ये नहीं होने वाला था।
मैंने चुपचाप अलमारी से रजिस्टर और रसीद बुक निकाल कर भारद्वाज जी के सामने रख दिया। भारद्वाज जी ने अमित को वृद्धाश्रम के खर्चे के बारे में बताया। अमित ने चुपचाप अपने पर्स से रुपये निकाल कर दे दिये और जरुरी कागजात पर दस्तखत कर दिए।
बूढ़ी अम्मा की आँखों से आंसू बहे जा रहे थे वह अब भी अपने बेटे को देखी जा रही थी। भारद्वाज जी ने धीरे से कहा - अब सब ठीक है जी। ये सुनते ही युवती उठकर खड़ी हो गयी चलने के लिए। बूढ़ी अम्मा ने अपने आंसू पोंछ दिए और युवती से कहा - बहु, अमित का ख्याल रखना। युवती ने कोई जवाब नहीं दिया और बाहर की ओर चल दी। युवक बैठा रहा चुपचाप। फिर उसकी आँखों में से भी आंसू टपक पड़े। बूढ़ी अम्मा ने कहा - जाने दे बेटा। सब ठीक है। यहाँ ये सब मेरा ख्याल रखेंगे। तू अपना ख्याल रखना। समय पर खाना खा लिया करना।
युवक, बूढ़ी औरत के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा - माँ मुझे माफ कर दे।
माँ बेचारी क्या करती। वह तो है ही ममता की मूरत। उसने उसे उठाया और कहा - अमित, कोई बात नहीं। चलो अपना घर बार संभालो। मेरा क्या है। आज हूँ, कल नहीं। तू जा। हाँ, अब कभी मुझसे मिलने मत आना। युवक अवाक सा चुप खड़ा रहा। ये खामोशी विदाई की थी। ये खामोशी रिश्तों के टूटने की थी। ये खामोशी इंसान की इंसानियत के मरने की भी थी। इतने में दो आवाजें एक साथ आई। उस युवती की जो बाहर से चिल्ला रही थी - अब चलो भी, यहीं नहीं रहना है मुझे। और दूसरी आवाज शान्ति की थी जिसने बूढ़ी अम्मा को सहारा देकर अन्दर चलने के लिए कहा था।
युवक चुपचाप हार और बेचारगी को अपने चेहरे पर लिए बाहर की ओर चल दिया। बाहर जाते हुए उसने मुझे कुछ रुपये देने चाहे और कहा - चौकीदार भैय्या, माँ का ख्याल रखना। मैंने उसके पैसे वापस लौटाते हुए कहा - माँ का ख्याल तो हम रख लेंगे अमित बाबू। आप सोचो, आपका माँ जैसा ख्याल अब कौन रखेगा। और यहाँ पैसे नहीं प्यार का सौदा होता है। युवक खामोशी से मुझे देखता रह गया।
युवक - युवती कार की ओर चल दिये। बूढ़ी अम्मा शान्ति दीदी के साथ भीतर की ओर चल दी। भारद्वाज जी मुझे देखते हुए अलमारी की ओर चल दिए और मैं फिर से अपनी जगह गेट पर चल दिया।
मेरे लिए ये कहानी लगभग हर महीने की थी। जब कोई न कोई किसी न किसी अपने को यहाँ छोड़ जाता है। हाँ आज की गाथा थोड़ी अलग सी थी। लड़का जिन्दगी के पेशोपेश में था, पर कायर था। खैर, मैंने मन ही मन गिनती की, अब यहाँ 26 लोग हो गए थे। ये वे बूढ़े थे जिनमें से किसी का कोई नहीं था इसीलिए वे यहाँ थे और किसी का हर कोई होते हुए भी यहाँ था। कोई गरीब था, कोई अमीर था पर एक बात सबमें एक समान थी- वह ये कि सबके सब इस जगह पर अकेले ही बन कर आये। और यहाँ आकर एक दूसरे से मानसिक और भावनात्मक रूप से जुड़ गए। यहाँ की बात कुछ और है। यहाँ सबको एक अपनापन मिलता है। घर से अलग होकर भी यहाँ घर जैसा प्रेम और अपनत्व मिलता है।
इससे पहले
इस जगह का नाम अमृत वृद्धाश्रम था। और मेरा नाम ईश्वर। पता नहीं मेरी माँ ने क्या सोच कर मेरा नाम इतना अच्छा रखा था। जब मैं बीस बरस का था, तब मैं अपनी माँ के साथ अपना गाँव छोड़कर यहाँ आया था। तब ये एक छोटा सा हॉस्पिटल था। डॉक्टर अमृतलाल नामक सज्जन इस जगह के मालिक थे। इस हॉस्पिटल में माँ का इलाज होने लगा और फिर मुझे भी कहीं नौकरी चाहिए थी सो मैं इस हॉस्पिटल का वार्ड बॉय, चौकीदार सारे बचे हुए काम करने वाला बन गया था। माँ का बहुत इलाज हुआ। उसे टी बी थी पर वह बच नहीं सकी। अब मेरा इस दुनिया में कोई नहीं था, सो मैं यहीं का होकर रह गया। धीरे - धीरे अमृतलाल जी का मैं विश्वसनीय बन गया। हॉस्पिटल बड़ा होने लगा। लोग आने लगे। अमृतलाल जी का यहाँ कोई न था जो यहाँ रह सके। एक अकेला बेटा गौतम था जो कि डॉक्टर बनने की चाह में चंडीगढ़ में एम.बी.बी.एस. कर रहा था। ये उसका आखरी साल था। अमृतलाल जी चाहते थे कि वह यहीं इसी जनता हॉस्पिटल में आकर काम करे। लेकिन उसके इरादे कुछ और थे। वह आगे की पढ़ाई के लिए लन्दन जाना चाहता था और इसी बात पर अक्सर दोनों पिता पुत्र में तेज बातचीत हो जाती थी।
हॉस्पिटल बढ़ रहा था। सस्ता हॉस्पिटल होने की वजह से बहुत से गरीब यहाँ आते थे। अमृतलाल जी की पुस्तैनी संपत्ति से ये हॉस्पिटल चल रहा था। मैं हॉस्पिटल का हर काम कर लेता था। सब मुझे पसंद भी करते थे। अमृतलाल जी मेरा ख्याल रखते थे। मैं उन्हीं के साथ उन्हीं के घर पर रहता था। एक दिन उनके मित्र भारद्वाज जी उनसे मिलने आये। दोनों बहुत सालों के बाद मिले थे। मैंने उनके लिए खाना बनाया। खाने के दौरान भारद्वाज जी ने अमृतलाल जी से कहा कि उनकी बहु उनसे ठीक बर्ताव नहीं करती है और वह बहुत दुखी हैं। अमृतलाल ने बिना सोचे कहा कि वह यहीं आकर रहे और उनके साथ इस हॉस्पिटल की देखभाल करे। भारद्वाज को जैसे मन चाहा वरदान मिल गया। वह यहीं रह गए। अमृत जी का घर बड़ा सा था। मैं उनके लिए खाना बनाता। घर का रखरखाव करता। दोपहर में हॉस्पिटल के छोटे - बड़े काम करता। बस जिन्दगी कट रही थी। ये हॉस्पिटल एक बहुत बड़े परिवार का अहसास दिलाते रहता था।
मेरे मन में कभी शादी करने का ख्याल भी नहीं आया। इतने सारे लोगों की सेवा में मुझे बहुत ख़ुशी मिलती। बदले में मुझे आशीर्वाद और प्रेम ही मिलता। सब ने मुझे हमेशा अपना ही समझा।
समय बीतने के साथ भारद्वाज जी ने उस हॉस्पिटल के पिछले हिस्से में एक वृद्धाश्रम खोला। जहाँ उन बूढ़े व्यक्तियों को रहने की व्यवस्था की गयी थी, जिनका सब कुछ होकर भी कोई नहीं था। कहीं कुछ नहीं था। मैंने धीरे - धीरे ये हिस्सा संभालना सीख लिया।
एक दिन भारद्वाज का लड़का आया, अपनी पत्नी के साथ। जायदाद मांगने के लिए। खूब हंगामा हुआ। भारद्वाज जी ने गुस्से में सारी जायदाद इस वृद्धाश्रम के नाम लिख दी और उसी वक्त से अपने बेटे, बहु से रिश्ता तोड़ लिया। मैं अवाक था। मैंने अक्सर यहाँ एक घर को टूटते और दूसरे घर को बनते देखा है।
हम तीनो मैं, अमृतलाल जी और भारद्वाज जी दीन दुखियों की सेवा में ही अपना सारा सुख ढूंढते थे। फिर वह दिन आ ही गया जो मुझे कभी पसंद नहीं था। अपनी पढ़ाई पूरी करके अमृतलाल जी का लड़का लन्दन जाने की तैयारी के साथ आया और अमृतलाल जी को अपना फैसला सुना दिया। अमृतलाल जी ने कहा - ठीक है, पढ़ाई पूरी करके वापस आ जाओ, और ये हॉस्पिटल संभालो। लड़के ने मना कर दिया। लड़के ने खुले रूप से कहा कि वह इन गरीबों के लिए नहीं बना है और न ही वह कभी यहाँ आना चाहेगा। उसने पिताजी से कहा - या तो वह उसके साथ चले या यहीं रहें। अमृतलाल जी अवाक रह गए। उन्होंने कहा - ये मेरा घर है, ये सभी मेरे अपने लोग। मैं इन्हें छोड़कर कहाँ जाऊं ? मैं ही इन सबका सहारा हूँ। लड़के ने कहा - आप ने इन सब का ठेका नहीं लिया हुआ है। मैं आपका अपना बेटा हूँ, आपका खून हूँ, आपको मेरा साथ देना चाहिए। अमृतलाल जी ने कहा - डॉक्टर तू बना है, लेकिन सेवाभाव मन में नहीं आया है। लड़के ने कहा - सेवा करने के लिए मैंने पढ़ाई नहीं की है। मैंने एक सुख भरे जीवन की कल्पना की है, जो कि यहाँ रहने से नहीं मिलेगा। आप मेरे साथ चलिए। पर अमृतलाल जी नहीं माने। मैं चुप था। भारद्वाज जी भी चुप थे। अमृतलाल जी ने उसकी पढ़ाई के लिए पैसों की व्यवस्था कर दी और चुपचाप सोने चले गए। लड़का दूसरे दिन चला गया अकेला ही बिना अपने पिता को साथ लिये।
अमृतलाल जी उसको पैसा भेजते रहे। वह पढ़ता रहा। उसने वही लन्दन में अपने साथ काम करने वाली डॉक्टर लड़की से शादी कर ली और फिर बीतते समय के साथ उसे एक बेटा भी पैदा हुआ। उसका नाम सूरज था। ये नाम अमृतलाल जी ने ही सुझाया था।
फिर वह दिन भी आया। जिसे मैं कभी याद नहीं करना चाहता।
उस दिन अमृतलाल जी का जन्मदिन था। उन्हें सुबह से ही सीने में दर्द था। उनका बेटा गौतम लन्दन से आया हुआ था और वह शाम को मिलने आने वाला था। अमृतलाल जी की उससे मिलने की बहुत इच्छा थी, क्योंकि उनका पोता सूरज भी साथ आया हुआ था। उन्होंने अब तक उसे नहीं देखा था। हॉस्पिटल में उस दिन कोई नहीं था। हम सब उनके कमरे में थे, मैंने और भारद्वाज जी ने उनके कमरे को सजाया। शाम को करीब एक वकील साहब आये। अमृतलाल जी, वकील साहब और भारद्वाज जी के साथ अपनी बैठक में चले गए। करीब एक घंटे बाद वह सब बाहर निकले। अमृतलाल जी के चेहरे पर परम संतोष था।
फिर वह इन्तजार करने लगे अपने बेटे, बहु और पोते का। मैंने सभी के लिए अच्छा सा खाना बनाया हुआ था और हाँ, उनके लिए केक भी ले कर आया था। हम सब इन्तजार ही कर रहे थे कि अचानक शहर में तेज बारिश होने लगी। ओले भी गिरे, और आंधी तूफान का माहौल हो गया। बिजली भी चली गयी। मैंने और भारद्वाज जी ने लालटेन जलाई। हम इन्तजार कर ही रहे थे कि उसका फोन आ गया कि वह इस आंधी तूफान में नहीं आ सकता। यह सुनकर अमृतलाल जी का चेहरा बुझ गया। उन्होंने हमें सो जाने को कहा। और वापस अपनी बैठक में जाकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। हम दोनों चुपचाप थे। रात गहराती जा रही थी। मैंने भारद्वाज जी से कहा कि वह भी सो जाएं। उनके सोने के बहुत देर बाद रात करीब दो बजे मैंने हिम्मत करके अमृतलाल जी की बैठक में झांक कर देखा - वह चुपचाप बैठे थे। बार - बार वह अपने फोन की ओर देख उठते थे कि शायद वह बजे और संदेशा आये कि उनका गौतम आ रहा है। लेकिन उसे न बजना था सो न बजा। केक वैसे ही पड़ा रहा। खाना किसी ने भी नहीं खाया।
मैं वहीं बैठक के बाहर बैठे - बैठे सो गया। सुबह - सुबह भारद्वाज जी ने मुझे उठाया। वह और अमृतलाल जी दोनों रोज सैर को जाते थे। रात बीत चुकी थी। आंधी तूफान भी ठहर गया था। मैंने दरवाजा ठकठकाया। दरवाजा अन्दर से बंद था। कोई आवाज नहीं आई। हम दोनों आशंकित हो उठे और जोर - जोर से दरवाजा ठोकने लगे। फिर नहीं खुला तो तोड़ दिया। वही हुआ जिसका डर था। अमृतलाल जी चल बसे थे। मैं और भारद्वाज जी रोने लगे। इतने में गौतम अपनी पत्नी और सूरज के साथ आ पहुंचा। उसे सब कुछ समझते हुए देर नहीं लगी। वह अचानक ही चुप हो गया। भारद्वाज जी ने कहा - गौतम तुम यही बैठो। इतने बड़े इंसान है। बहुत से लोग आयेंगे। बहुत सा काम करना होगा। हम सब इंतजाम करते हैं।
अंतिम संस्कार हुआ। सारे शहर से लोग आये। मुझे भी उस दिन पता चला कि अमृतलाल जी की इस शहर में कितनी इज्जत थी। गौतम चुपचाप बैठा रहा। बहु भी चुपचाप ही थी। हाँ पोता सूरज थोड़ा परेशान सा था, विचलित था। उसने दादा को पहले कभी नहीं देखा था और जब देखा तो इस अवस्था में देखा था। वह बार - बार रो उठता था। गौतम चुपचाप इसलिए था कि उसने शहर के लोगों की भीड़ देखी थी और उसे समझ में आ गया था कि उसने क्या खो दिया है ? मैं खुद हैरान था कि कितने सारे लोग उनसे प्रेम करते थे, कितनों का रो - रोकर बुरा हाल था।
रात को सारा कार्यक्रम निपटने के बाद, हम जब बैठे तो सिर्फ झींगुरों की आवाजें ही सुनाई दे रही थी। सभी बहुत चुपचाप थे। मैं था,भारद्वाज जी थे और गौतम था। बहु, सूरज के साथ सोने चली गयी थी। सूरज को हल्का सा बुखार आ गया था और वह मन से भी परेशान था। इतने में वकील साहब आये। वह अमृतलाल जी के पुराने मित्र थे। उन्होंने कहा - कल रात को शायद अमृत को आशंका हो गयी थी कि वह शायद ज्यादा दिन नहीं रहेगा। उसने अपनी वसीयत करवा ली थी। मैं उसे आप सब को बताना चाहता हूँ।
मैं उठकर खड़ा हो गया। वकील ने मुझे बैठने को कहा। वकील ने कहा - जायदाद के तीन हिस्से हुए है। एक बड़ा हिस्सा इस हॉस्पिटल और वृद्धाश्रम को दिया गया है। दूसरा हिस्सा पोते सूरज के लिए दिया गया है और तीसरा हिस्सा चौकीदार ईश्वर के नाम है।
ये सुनकर मैं चौंका। मैंने कहा - साहब, कोई गलती हो गयी होगी। मुझे कोई पैसा रकम नहीं चाहिए। मैं तो यही रहूँगा। सब कुछ मेरा अब यही है। अमृत साहब मेरे पिता जैसे थे। उनके बाद अब मेरा कौन है। कहकर मैं रोने लगा।
वकील ने समझाया - भाई जो उन्होंने कहा, वह मैंने किया। भारद्वाज भी थे वहां। पूछ लो।
मैंने कहा - मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा हिस्सा भी सूरज को ही दे दीजिये। वकील ने मेरा सर थपथपाया। मैं चुपचाप आंसू बहाने लगा।
गौतम चुपचाप उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा - कल सुबह मिलते है, राख को नदी में बहाने जाना है।
रात बहुत गहरी हो रही थी और मेरी आँखों में नींद नहीं थी। कल तक मैं कुछ भी नहीं था और आज इस जायदाद के एक हिस्से का मालिक। लेकिन मैं इस रुपये का क्या करूँगा। मेरे तो आगे पीछे कोई है ही नहीं। नहीं - नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं तो इसी जगह के एक कोने में पड़ा रहूँगा।
सुबह हुई, हम सब वही पास में मौजूद नदी के किनारे चले। रास्ते में श्मशान घाट से अमृत जी की चिता में से राख ली और नदी में जाकर उसे बहा दिया। मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। भारद्वाज भी रोने लगे। उनका सबसे पुराना और गहरा मित्र जो चला गया था। लड़का जो कल तक कुछ नहीं बोला। आज रोने लगा। उसकी पत्नी भी रोने लगी और सूरज भी रोने लगा। कुछ देर के शोक के बाद सब वापस आये। गौतम पास के ट्रेवल एजेंट के पास गया और वापसी की टिकिट करवा ली। वह अचानक ही बहुत शांत हो गया था। अब उसे समझ आ गया था कि जो उसने खोया था वह कभी भी वापस नहीं आने वाला था।
तेरहवी के भोज के बाद गौतम, मेरे और भारद्वाज के पास आया। उसने उन्हें एक लिफाफा दिया और कहा। मैं सारी वसीयत, जो पिताजी ने सूरज के नाम की है। उसे इस वृद्धाश्रम और ईश्वर को देता हूँ। इसके सही हकदार यही दोनों है। मैं शांत था। मैंने एक बार कहा - गौतम भैय्या, अगर यही रुक जाते तो हम सभी को बहुत ख़ुशी होती। गौतम चुपचाप रहा। कुछ नहीं कहा। शायद कुछ कहने के लिए था ही नहीं।
दूसरे दिन गौतम चला गया।
कुछ दिनों बाद मैंने वकील से कहकर सारी जायदाद जो कि मेरे नाम थी। उसे उस वृद्धाश्रम के नाम कर दी। अब चूँकि अमृत जी नहीं रहे तो धीरे धीरे हॉस्पिटल बंद हो गया और फिर कुछ दिनों के बाद सिर्फ आज का ये अमृत वृद्धाश्रम ही रह गया। भारद्वाज जी सारा काम काज संभालते।
मैंने भारद्वाज से वचन लिया कि वह किसी से इस बारे में नहीं कहेंगे कि इस वृद्धाश्रम में मेरा क्या योगदान है। मैंने कहा कि मैं इसी चौकीदार वाले रूप में खुश हूँ। और मुझे यहीं बने रहने दीजिये। भारद्वाज जी नहीं माने, मैंने फिर उन्हें अपनी कसम दी। वे चुप हो गए। उन्होंने कहा - बेटा, तू सच में ईश्वर है। भगवान हर किसी को तेरे जैसी ही औलाद दे।
वृद्धाश्रम चल पड़ा। यहाँ हर महीने कोई न कोई आ जाता। कोई न कोई गुजर जाता। मैं कई बातों का अभ्यस्त हो चुका था। जिन्दगी चल रही थी। एक दूसरे के सुख दु:ख बांटते थे। मिलकर काम करते थे। हमने कुछ नर्से रखी हुई थी। कुछ लोग रखे हुए थे। सब इस आश्रम की देखभाल करते थे। और भारद्वाज जी ने सभी से कह दिया था कि ईश्वर की बात हर कोई माने। बहुत कम लोग मुझे ईश्वर कहकर पुकारते थे। ज्यादातर लोग मुझे सिर्फ चौकीदार ही कहते थे। और मुझे इससे कोई शिकायत भी नहीं थी।
कुछ बरस पहले
एक दिन शान्ति दीदी का फोन आया। शान्ति हमारे पुराने हॉस्पिटल में नर्स थी। उसके आगे पीछे कोई नहीं था। एक भतीजा था, जो कि उसकी नौकरी पर अपनी जिंदगी के मजे ले रहा था। फिर शान्ति को एक दिन एक्सीडेंट में पैर में चोट लग गयी। वह अब काम पर नहीं आती थी। फिर भी अमृत जी ने इंतजाम करवाया था कि उसे हर महीने उसकी तनख्वाह मिल जाए।
उस दिन उसका फोन आया कि उसके भतीजे ने उसका घर ले लिया है और उसे घर से निकल जाने को कह रहा है। अब वह बेसहारा है। मैंने और भारद्वाज जी ने कहा कि वह बेसहारा और बेआसरा नहीं है। वह यहाँ आ जाए और फिर मैं उसे लाने के लिए आश्रम की गाड़ी लेकर उसके घर पंहुचा। मैं जब उसे लेने गया तो देखा वह घर के बाहर एक छोटी सी पेटी लेकर चुपचाप बैठी है। मुझे देखकर वह उठी, पैर की चोट की वजह से वह लड़खड़ा गयी। मैंने दौड़कर उसे संभाला। मैंने उससे कहा और कोई सामान जो ले जाना हो ? उसने कहा - कुछ नहीं, जो कुछ कमाया। वह ये घर ही था। वह भी छिन गया। अब कहीं कुछ नहीं रहा। लेकिन हाँ, वृद्धाश्रम जाने के पहले मुझे तुम कुछ जगह ले जा सकते हो तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी।
मैंने कहा - कोई बात नहीं आप चलो तो। मैंने उसे गाड़ी की पिछली सीट पर बिठाकर उससे पुछा - बताओ कहाँ जाना है ? उसने कहा - मैं हर जगह एक बार जाना चाहती हूँ जहाँ मैंने अपनी जिन्दगी का कोई हिस्सा जिया है। मैंने धीरे से पुछा - अब इस बात का क्या मतलब है। उसने शायद रोते हुआ कहा था - मुझे पता है, मैं उस वृद्धाश्रम में आखरी दिन बिताने जा रही हूँ जहां से अब कभी भी नहीं लौट पाउंगी। मैं चुप हो गया। मेरे गले में कुछ अटक सा गया था। मुझे भी शायद रुलाई आ रही थी। पर मैंने चुपचाप गाड़ी आगे बड़ा दी। उसने रास्ते में रूककर कुछ फूल खरीदे।
सबसे पहले वह एक मोहल्ले में एक बड़े से घर के पास मुझे लेकर गयी। उसे देखते ही उसकी आँखों में बड़ा दर्द सा उमड़ आया। उसने मुझे बताया कि वह ब्याह कर इसी घर में आई थी। फिर इसी घर में उसके पति का देहांत हो गया। और इसी घरवालो ने उसे उसके बच्ची सहित घर से बाहर निकाल दिया।
फिर वह मुझे एक इसाई हॉस्पिटल में लेकर आई। जहाँ उसने मुझे बताया कि यहाँ एक सिस्टर मेरी थी, जिसने उसे सहारा दिया और यहाँ पर उसे नर्सिंग सिखाया। फिर वह यहीं पर नर्स बनी और फिर इसके बाद वह हमारे हॉस्पिटल में नर्स बनी।
फिर वह मुझे एक कब्रिस्तान में लेकर आई। उसने रास्ते में जो फूल खरीदे थे, उन्हें लेकर उतर गयी। मैंने उसे एक प्रश्न भरी निगाह से देखा। उसने आँखों में आंसू भरकर कहा - यहाँ मेरी बच्ची की कब्र है, बचपन में ही कुपोषण की वजह से बीमारियों की शिकार हुई और फिर एक दिन इस दुनिया से चल बसी। उसी की कब्र पर वो फूल चढ़ाकर आना चाहती थी। मेरे मुँह से कोई बोल न फूटेे। वह भीतर चली गयी और मैं फूट - फूट कर रो पड़ा।
कुछ देर बाद वह आई तो बहुत संयत दिख रही थी। वह शायद जी भरकर रो चुकी थी और अपना मन हल्का कर चुकी थी। वह गाड़ी में आकर चुपचाप बैठ गयी और एक गहरी सांस लेकर कहा - चलो, मेरे नए घर में मुझे ले चलो। मैंने गाड़ी को मोड़ते हुए धीरे से पूछा - एक बार क्या वह अपना घर भी देखना चाहेंगी, जिसे वह छोड़ कर आ रही है। उसने एक आह भरी और थोड़ा सोचकर कहा - हाँ, एक बार दिखा दो। मैंने बड़ी मेहनत से उसे बनाया है। पर उसे भी इस दुनिया के मक्कार लोगों ने छीन लिया।
मैंने चुपचाप उसे उसके घर के पास रोका। वह बहुत देर तक कार में बैठकर उसे देखती रही और रोती रही।
अब
इसी तरह की कहानियों और किस्सों से भरा हुआ है ये अमृत वृद्धाश्रम। लेकिन एक बात यहाँ बहुत अच्छी है, लोग यहाँ आकर अपना दु:ख भूल जाते हैं और सब एक ही परिवार का हिस्सा बनकर रहते है। मेरे परिवार का, हां, ये मेरा ही तो परिवार है एक बड़ा सा भरा हुआ परिवार।
बस एक कमी है और वह है - हॉस्पिटल की सेवाएं, उसके लिए हमें दूसरो पर, दूसरे हॉस्पिटल्स पर निर्भर रहना पड़ता था। अब सभी बूढ़े थे। सो हमेशा कोई न कोई बीमार ही रहता था। अक्सर हमें किसी न किसी को हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था। आश्रम के पास एक एम्बुलेंस था। और शांति थोड़ी बहुत प्राथमिक उपचार कर लेती थी पर अक्सर ऐसे मौको पर एक कसक सी दिल में उठती थी कि काश, उस वक्त, अमृतजी का बेटा, गौतम यहाँ रुक गया होता या पढ़ाई पूरी करके यही बस गया होता। हॉस्पिटल कभी भी बंद नहीं होता।
आज सुबह मैं थोड़ा जल्दी उठ गया हूँ। कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। शायद उम्र का असर था। पता नहीं मेरी उम्र कितनी हो गयी है, आजकल कुछ याद भी नहीं रहता।
भारद्वाज जी ने आकर मुझे देखा और कहा - ईश्वर शायद तुम्हारी तबियत खराब है। तुम आराम कर लो। मैंने कहा - जी कुछ नहीं, थोड़ी सी हरारत है शायद उम्र थक रही है।
इतने में एक कार आकर रुकी। हम दोनों ने पलटकर दरवाजे की ओर देखा। कार से अचानक एक आवाज आई - ईश्वर काका! मेरे लिए ये एक नया संबोधन था। सब मुझे चौकीदार ही कहकर पुकारते थे। बाहर की दुनिया में किसी को मेरा असली नाम पता नहीं था। हम दोनों ने गौर से देखा। कार का दरवाजा खुला और एक सुखद आश्चर्य की तरह अमृतलाल जी का बेटा गौतम एक नौजवान के साथ उतरा। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने भारद्वाज जी से कहा - आज सूरज हमारे आँगन में उगा है, जरुर ये सूरज होगा। अमृत जी का पोता। पास आकर गौतम ने कहा - हाँ, ईश्वर ये सूरज है। हमारा सूरज। आप का सूरज, हम सब का सूरज। सूरज ने मेरे पास आकर मेरे पैर छुए तो मेरी आँखे छलक गयी। पहली बार किसी ने मेरे पैर छुए थे। मेरे हाथ कांपते हुए आशीर्वाद देने के लिए उठ गए।
सूरज ने कहा - ईश्वर काका। मैं आज आपसे अपने पिता जी की तरफ से माफी मांगने आया हूँ और दादाजी का सपना पूरा करने आया हूँ। मेरी आँखे ख़ुशी से बह रही थी। सूरज ने आगे कहा - मैंने भी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर ली है और अब मैं और पिताजी यहीं रहेंगे और दादाजी का सपना पूरा करेंगे। मैंने कंपकंपाते स्वर में पूछा - और माँ ? गौतम ने कहा - वह नहीं रही। इसी साल उसका देहांत हो गया और मैंने फैसला कर लिया है कि अब हम यही आकर रहें, आपने और भारद्वाज अंकल ने जो नि:स्वार्थ सेवा का बीड़ा उठाया है, अब हम भी उसमें अपना योगदान देंगे। यही सच्चे अर्थों में हमारी वापसी होगी। अपने देश के लिए, अपने पिता के लिए, उनके उद्देश्य के लिए और यही हमारा प्रायश्चित होगा।
शान्ति जो इतने देर से पीछे से आकर हमारी बातें सुन रही थी वह अपने आंसू पोंछते हुए वापस मुड़कर आश्रम के भीतर गयी और एक पूजा की थाली ले आई। आरती का दीया जला कर दोनों की आरती उतारते हुए उसने कहा - पधारो आपणे देश बेटा! हम सबकी आँखे भीग उठी।
गौतम ने एक लिफाफा निकाल कर मेरे और भारद्वाज जी के हाथो में दिया और कहा - इसमें मेरी सारी संपत्ति के कागजात है, मैंने अपना सब कुछ इस वृद्ध आश्रम को दे दिया है। और इसकी सारी जिम्मेदारी ईश्वर और भारद्वाज अंकल को सौंपी है, सब कुछ अब इस आश्रम की मिट्टी के लिए।
ये सुनकर मैं रो पड़ा। मेरा दर्द और बढ़ गया और मैं कांप कर गिर पड़ा। सूरज ने तुरंत मेरी नब्ज को देखा और कहा- अरे आपकी नब्ज डूब रही है। जल्दी इन्हें हॉस्पिटल ले चलो। मैंने कहा - बस बेटा, आज का ही इन्तजार था। तुम्हारी वापसी हो गयी और मुझे अब क्या चाहिए? बस अब चलता हूँ।
सूरज ने कहा - कुछ नहीं होगा। आपको माइल्ड हार्ट अटैक आया है। सब ठीक हो जायेगा।
भारद्वाज जी ने जल्दी से आश्रम के एम्बुलेंस का इंतजाम किया और मुझे उसमे लिटाकर शहर के एक हार्ट हॉस्पिटल की ओर चल पड़े।
एक नयी शुरुवात
हॉस्पिटल आ गया था। मुझे स्ट्रेचर पर ऑपरेशन थिएटर के भीतर ले जाया जा रहा था। मैंने चारो तरफ सभी को देखा। मुझे ख़ुशी थी। अमृत वृद्धाश्रम अब बेहतर हाथों में था। अमृतलाल जी का और मेरा सपना सच हो गया था। मैंने सभी को प्रणाम किया और भीतर की ओर चल पड़ा। अब सब ठीक हो गया था। अब कोई दु:ख मन में नहीं था। और मुझे यकीन था कि मैं भी ठीक हो ही जाऊँगा फिर से अपने अमृत वृद्धाश्रम की सेवा करने के लिए।
मैंने धीरे से आँखें। खोली एम्बुलेंस शहर के एक बड़े हार्ट हॉस्पिटल की ओर जा रही थी। मेरी बगल में भारद्वाज जी गौतम और सूरज बैठे थे। मुझे देखकर सूरज ने मेरा हाथ थपथपाया और कहा ईश्वर अंकल, आप चिंता न करें। मैंने हॉस्पिटल में डॉक्टर्स से बात कर ली है। मेरा ही एक दोस्त वहाँ पर हार्ट सर्जन है। सब ठीक हो जायेगा। गौतम और भारद्वाज जी ने एक साथ कहा - हाँ सब ठीक हो जायेंगा। मैंने भी धीरे से सर हिलाकर हाँ का इशारा किया। मुझे यकीन था कि अब सब ठीक हो जायेगा।
मैंने फिर आँखें बंद कर ली और बीते बरसों की यात्रा पर चल पड़ा। यादो ने मेरे मन को घेर लिया।
कुछ बरस पहले .... कार का हॉर्न बजा। किसी ने ड्राइविंग सीट से मुंह निकाल कर आवाज लगाई - अरे चौकीदार, दरवाजा खोलना।
मैंने आराम से उठकर दरवाजा खोला। एक कार भीतर आकर सीधे पार्किंग में जाकर रुकी। मैं धीरे धीरे चलता हुआ उनकी ओर बढ़ा। कार में से एक युवक और युवती निकले और पीछे की सीट से एक बूढ़ी माता। युवक कुछ बोलता इसके पहले ही मैंने कहा - अमृत वृद्धाश्रम में आपका स्वागत है। ऑफिस उस तरफ है।
मैंने गहरी नजरों से तीनों को देखा। ये एक आम नजारा था, इस वृद्धाश्रम के लिए। कोई अपना ही अपनों को छोडने यहाँ आता था। सभी चुप थे पर लड़के के चेहरे पर उदासी भरी चुप्पी थी। लड़की के चेहरे पर गुस्से से भरी चुप्पी थी और बूढ़ी अम्मा के चेहरे पर एक खालीपन की चुप्पी थी। मैं इस चुप्पी को पहचानता था। ये दुनिया की सबसे भयानक चुप्पी होती हैं। खालीपन का अहसास, सब कुछ होते हुए भी डरावना होता है और अंतत: यही अहसास इंसान को मार देता है।
तीनों धीरे - धीरे मेरे संग ऑफिस की ओर चल दिए। मैं बूढ़ी अम्मा को देख रहा था। वह करीब - करीब मेरी ही उम्र की थी। बहुत थकी हुई लग रही थी। उसके हाथ कांप रहे थे। उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। अचानक चलते - चलते वो लड़खड़ाई तो मैंने उसे झट से सहारा दिया और उसे अपनी लाठी दे दी। लड़के ने खामोशी से मेरी ओर देखा। मैंने बूढ़ी अम्मा को सांत्वना दी - ठीक है अम्मा। धीरे चलिए, कोई बात नहीं। बस आपका नया घर थोड़ी दूर ही है। मेरे ये शब्द सुनकर सब रुक से गए। युवती के चेहरे का गुस्सा कुछ और तेज हुआ। लड़के के चेहरे पर कुछ और उदासी फैली और बूढ़ी माँ की आँखों से आंसू छलक पडे। युवती गुर्राकर बोली - तुम्हे ज्यादा बोलना आता है क्या? चौकीदार हो, चौकीदार ही रहो। मैंने ऐसे दुनियादार लोग बहुत देखे थे और वैसे भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं इन जमीनी बातों से बहुत ऊपर आ चुका था। मैंने कहा - बीबीजी, मैंने कोई गलत बात तो नहीं कही। अब इनका घर तो यही है। युवती गुस्से से चिल्लाई - हमें मत समझाओ कि क्या है और क्या नहीं। युवक ने उसे शांत रहने को कहा। बूढ़ी अम्मा के चेहरे पर आंसू अब बहती लकीर बन गए थे।
ये शोर सुनकर ऑफिस से भारद्वाज और शान्ति दीदी बाहर आये। उन्होंने पुछा - क्या बात है ईश्वर , किस बात का शोर है ? मैंने ठहर कर कहा - जी, कोई बात नहीं। बस ये आये हैं। बूढ़ी अम्मा को लेकर। युवती फिर भड़क कर बोली - तुम जैसे छोटे लोगों के मुंह नहीं लगना चाहिए।् भारद्वाज जी सारा मामला समझ गए। उन्होंने शांत स्वर में कहा - मैडम जी, यहाँ कोई छोटा नहीं है और न ही कोई बड़ा। ये एक घर है। जहाँ सभी एक समान रहते हंै। और मुझे बड़ी खुशी होती अगर ऐसा ही घर समाज के हर हिस्से में भी रहता !
युवती कसमसा कर चुप हो गयी। युवक ने सभी को भीतर चलने को कहा। जाते - जाते बूढ़ी अम्मा ने मुझे पलटकर देखा। मैंने उसे आँखों ही आँखों में एक अपनत्व भरी सांत्वना दी !
ऑफिस में मैंने बूढ़ी माता के लिए कुर्सी लाकर रख दी। मैं उन सभी को और इस फानी दुनिया के खत्म होते रिश्तों को देखते हुए खुद दरवाजे के पास खड़ा रहा। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद युवक धीरे से बोला- भारद्वाज जी, आपसे कल बात हुई थी। मैं अमित हूँ ,ये मेरी माँ है। इनके बारे में आपसे बात की थी। इतना बोलने के बाद वह चुप हो गया। वह असहज - सा था। उसका गला रुक - रुक जाता था। मैंने अपने लम्बे जीवन में ये सब बहुत देखा था। मैंने युवती की ओर देखा। वह अभी भी गुस्से में ही थी। बूढ़ी अम्मा अपने बेटे की ओर देख रही थी। इस आशा में कि अब जो होने वाला है, वह नहीं होगा और वह फिर वापस चल देंगे। लेकिन मैं जानता था - ये नहीं होने वाला था।
मैंने चुपचाप अलमारी से रजिस्टर और रसीद बुक निकाल कर भारद्वाज जी के सामने रख दिया। भारद्वाज जी ने अमित को वृद्धाश्रम के खर्चे के बारे में बताया। अमित ने चुपचाप अपने पर्स से रुपये निकाल कर दे दिये और जरुरी कागजात पर दस्तखत कर दिए।
बूढ़ी अम्मा की आँखों से आंसू बहे जा रहे थे वह अब भी अपने बेटे को देखी जा रही थी। भारद्वाज जी ने धीरे से कहा - अब सब ठीक है जी। ये सुनते ही युवती उठकर खड़ी हो गयी चलने के लिए। बूढ़ी अम्मा ने अपने आंसू पोंछ दिए और युवती से कहा - बहु, अमित का ख्याल रखना। युवती ने कोई जवाब नहीं दिया और बाहर की ओर चल दी। युवक बैठा रहा चुपचाप। फिर उसकी आँखों में से भी आंसू टपक पड़े। बूढ़ी अम्मा ने कहा - जाने दे बेटा। सब ठीक है। यहाँ ये सब मेरा ख्याल रखेंगे। तू अपना ख्याल रखना। समय पर खाना खा लिया करना।
युवक, बूढ़ी औरत के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा - माँ मुझे माफ कर दे।
माँ बेचारी क्या करती। वह तो है ही ममता की मूरत। उसने उसे उठाया और कहा - अमित, कोई बात नहीं। चलो अपना घर बार संभालो। मेरा क्या है। आज हूँ, कल नहीं। तू जा। हाँ, अब कभी मुझसे मिलने मत आना। युवक अवाक सा चुप खड़ा रहा। ये खामोशी विदाई की थी। ये खामोशी रिश्तों के टूटने की थी। ये खामोशी इंसान की इंसानियत के मरने की भी थी। इतने में दो आवाजें एक साथ आई। उस युवती की जो बाहर से चिल्ला रही थी - अब चलो भी, यहीं नहीं रहना है मुझे। और दूसरी आवाज शान्ति की थी जिसने बूढ़ी अम्मा को सहारा देकर अन्दर चलने के लिए कहा था।
युवक चुपचाप हार और बेचारगी को अपने चेहरे पर लिए बाहर की ओर चल दिया। बाहर जाते हुए उसने मुझे कुछ रुपये देने चाहे और कहा - चौकीदार भैय्या, माँ का ख्याल रखना। मैंने उसके पैसे वापस लौटाते हुए कहा - माँ का ख्याल तो हम रख लेंगे अमित बाबू। आप सोचो, आपका माँ जैसा ख्याल अब कौन रखेगा। और यहाँ पैसे नहीं प्यार का सौदा होता है। युवक खामोशी से मुझे देखता रह गया।
युवक - युवती कार की ओर चल दिये। बूढ़ी अम्मा शान्ति दीदी के साथ भीतर की ओर चल दी। भारद्वाज जी मुझे देखते हुए अलमारी की ओर चल दिए और मैं फिर से अपनी जगह गेट पर चल दिया।
मेरे लिए ये कहानी लगभग हर महीने की थी। जब कोई न कोई किसी न किसी अपने को यहाँ छोड़ जाता है। हाँ आज की गाथा थोड़ी अलग सी थी। लड़का जिन्दगी के पेशोपेश में था, पर कायर था। खैर, मैंने मन ही मन गिनती की, अब यहाँ 26 लोग हो गए थे। ये वे बूढ़े थे जिनमें से किसी का कोई नहीं था इसीलिए वे यहाँ थे और किसी का हर कोई होते हुए भी यहाँ था। कोई गरीब था, कोई अमीर था पर एक बात सबमें एक समान थी- वह ये कि सबके सब इस जगह पर अकेले ही बन कर आये। और यहाँ आकर एक दूसरे से मानसिक और भावनात्मक रूप से जुड़ गए। यहाँ की बात कुछ और है। यहाँ सबको एक अपनापन मिलता है। घर से अलग होकर भी यहाँ घर जैसा प्रेम और अपनत्व मिलता है।
इससे पहले
इस जगह का नाम अमृत वृद्धाश्रम था। और मेरा नाम ईश्वर। पता नहीं मेरी माँ ने क्या सोच कर मेरा नाम इतना अच्छा रखा था। जब मैं बीस बरस का था, तब मैं अपनी माँ के साथ अपना गाँव छोड़कर यहाँ आया था। तब ये एक छोटा सा हॉस्पिटल था। डॉक्टर अमृतलाल नामक सज्जन इस जगह के मालिक थे। इस हॉस्पिटल में माँ का इलाज होने लगा और फिर मुझे भी कहीं नौकरी चाहिए थी सो मैं इस हॉस्पिटल का वार्ड बॉय, चौकीदार सारे बचे हुए काम करने वाला बन गया था। माँ का बहुत इलाज हुआ। उसे टी बी थी पर वह बच नहीं सकी। अब मेरा इस दुनिया में कोई नहीं था, सो मैं यहीं का होकर रह गया। धीरे - धीरे अमृतलाल जी का मैं विश्वसनीय बन गया। हॉस्पिटल बड़ा होने लगा। लोग आने लगे। अमृतलाल जी का यहाँ कोई न था जो यहाँ रह सके। एक अकेला बेटा गौतम था जो कि डॉक्टर बनने की चाह में चंडीगढ़ में एम.बी.बी.एस. कर रहा था। ये उसका आखरी साल था। अमृतलाल जी चाहते थे कि वह यहीं इसी जनता हॉस्पिटल में आकर काम करे। लेकिन उसके इरादे कुछ और थे। वह आगे की पढ़ाई के लिए लन्दन जाना चाहता था और इसी बात पर अक्सर दोनों पिता पुत्र में तेज बातचीत हो जाती थी।
हॉस्पिटल बढ़ रहा था। सस्ता हॉस्पिटल होने की वजह से बहुत से गरीब यहाँ आते थे। अमृतलाल जी की पुस्तैनी संपत्ति से ये हॉस्पिटल चल रहा था। मैं हॉस्पिटल का हर काम कर लेता था। सब मुझे पसंद भी करते थे। अमृतलाल जी मेरा ख्याल रखते थे। मैं उन्हीं के साथ उन्हीं के घर पर रहता था। एक दिन उनके मित्र भारद्वाज जी उनसे मिलने आये। दोनों बहुत सालों के बाद मिले थे। मैंने उनके लिए खाना बनाया। खाने के दौरान भारद्वाज जी ने अमृतलाल जी से कहा कि उनकी बहु उनसे ठीक बर्ताव नहीं करती है और वह बहुत दुखी हैं। अमृतलाल ने बिना सोचे कहा कि वह यहीं आकर रहे और उनके साथ इस हॉस्पिटल की देखभाल करे। भारद्वाज को जैसे मन चाहा वरदान मिल गया। वह यहीं रह गए। अमृत जी का घर बड़ा सा था। मैं उनके लिए खाना बनाता। घर का रखरखाव करता। दोपहर में हॉस्पिटल के छोटे - बड़े काम करता। बस जिन्दगी कट रही थी। ये हॉस्पिटल एक बहुत बड़े परिवार का अहसास दिलाते रहता था।
मेरे मन में कभी शादी करने का ख्याल भी नहीं आया। इतने सारे लोगों की सेवा में मुझे बहुत ख़ुशी मिलती। बदले में मुझे आशीर्वाद और प्रेम ही मिलता। सब ने मुझे हमेशा अपना ही समझा।
समय बीतने के साथ भारद्वाज जी ने उस हॉस्पिटल के पिछले हिस्से में एक वृद्धाश्रम खोला। जहाँ उन बूढ़े व्यक्तियों को रहने की व्यवस्था की गयी थी, जिनका सब कुछ होकर भी कोई नहीं था। कहीं कुछ नहीं था। मैंने धीरे - धीरे ये हिस्सा संभालना सीख लिया।
एक दिन भारद्वाज का लड़का आया, अपनी पत्नी के साथ। जायदाद मांगने के लिए। खूब हंगामा हुआ। भारद्वाज जी ने गुस्से में सारी जायदाद इस वृद्धाश्रम के नाम लिख दी और उसी वक्त से अपने बेटे, बहु से रिश्ता तोड़ लिया। मैं अवाक था। मैंने अक्सर यहाँ एक घर को टूटते और दूसरे घर को बनते देखा है।
हम तीनो मैं, अमृतलाल जी और भारद्वाज जी दीन दुखियों की सेवा में ही अपना सारा सुख ढूंढते थे। फिर वह दिन आ ही गया जो मुझे कभी पसंद नहीं था। अपनी पढ़ाई पूरी करके अमृतलाल जी का लड़का लन्दन जाने की तैयारी के साथ आया और अमृतलाल जी को अपना फैसला सुना दिया। अमृतलाल जी ने कहा - ठीक है, पढ़ाई पूरी करके वापस आ जाओ, और ये हॉस्पिटल संभालो। लड़के ने मना कर दिया। लड़के ने खुले रूप से कहा कि वह इन गरीबों के लिए नहीं बना है और न ही वह कभी यहाँ आना चाहेगा। उसने पिताजी से कहा - या तो वह उसके साथ चले या यहीं रहें। अमृतलाल जी अवाक रह गए। उन्होंने कहा - ये मेरा घर है, ये सभी मेरे अपने लोग। मैं इन्हें छोड़कर कहाँ जाऊं ? मैं ही इन सबका सहारा हूँ। लड़के ने कहा - आप ने इन सब का ठेका नहीं लिया हुआ है। मैं आपका अपना बेटा हूँ, आपका खून हूँ, आपको मेरा साथ देना चाहिए। अमृतलाल जी ने कहा - डॉक्टर तू बना है, लेकिन सेवाभाव मन में नहीं आया है। लड़के ने कहा - सेवा करने के लिए मैंने पढ़ाई नहीं की है। मैंने एक सुख भरे जीवन की कल्पना की है, जो कि यहाँ रहने से नहीं मिलेगा। आप मेरे साथ चलिए। पर अमृतलाल जी नहीं माने। मैं चुप था। भारद्वाज जी भी चुप थे। अमृतलाल जी ने उसकी पढ़ाई के लिए पैसों की व्यवस्था कर दी और चुपचाप सोने चले गए। लड़का दूसरे दिन चला गया अकेला ही बिना अपने पिता को साथ लिये।
अमृतलाल जी उसको पैसा भेजते रहे। वह पढ़ता रहा। उसने वही लन्दन में अपने साथ काम करने वाली डॉक्टर लड़की से शादी कर ली और फिर बीतते समय के साथ उसे एक बेटा भी पैदा हुआ। उसका नाम सूरज था। ये नाम अमृतलाल जी ने ही सुझाया था।
फिर वह दिन भी आया। जिसे मैं कभी याद नहीं करना चाहता।
उस दिन अमृतलाल जी का जन्मदिन था। उन्हें सुबह से ही सीने में दर्द था। उनका बेटा गौतम लन्दन से आया हुआ था और वह शाम को मिलने आने वाला था। अमृतलाल जी की उससे मिलने की बहुत इच्छा थी, क्योंकि उनका पोता सूरज भी साथ आया हुआ था। उन्होंने अब तक उसे नहीं देखा था। हॉस्पिटल में उस दिन कोई नहीं था। हम सब उनके कमरे में थे, मैंने और भारद्वाज जी ने उनके कमरे को सजाया। शाम को करीब एक वकील साहब आये। अमृतलाल जी, वकील साहब और भारद्वाज जी के साथ अपनी बैठक में चले गए। करीब एक घंटे बाद वह सब बाहर निकले। अमृतलाल जी के चेहरे पर परम संतोष था।
फिर वह इन्तजार करने लगे अपने बेटे, बहु और पोते का। मैंने सभी के लिए अच्छा सा खाना बनाया हुआ था और हाँ, उनके लिए केक भी ले कर आया था। हम सब इन्तजार ही कर रहे थे कि अचानक शहर में तेज बारिश होने लगी। ओले भी गिरे, और आंधी तूफान का माहौल हो गया। बिजली भी चली गयी। मैंने और भारद्वाज जी ने लालटेन जलाई। हम इन्तजार कर ही रहे थे कि उसका फोन आ गया कि वह इस आंधी तूफान में नहीं आ सकता। यह सुनकर अमृतलाल जी का चेहरा बुझ गया। उन्होंने हमें सो जाने को कहा। और वापस अपनी बैठक में जाकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। हम दोनों चुपचाप थे। रात गहराती जा रही थी। मैंने भारद्वाज जी से कहा कि वह भी सो जाएं। उनके सोने के बहुत देर बाद रात करीब दो बजे मैंने हिम्मत करके अमृतलाल जी की बैठक में झांक कर देखा - वह चुपचाप बैठे थे। बार - बार वह अपने फोन की ओर देख उठते थे कि शायद वह बजे और संदेशा आये कि उनका गौतम आ रहा है। लेकिन उसे न बजना था सो न बजा। केक वैसे ही पड़ा रहा। खाना किसी ने भी नहीं खाया।
मैं वहीं बैठक के बाहर बैठे - बैठे सो गया। सुबह - सुबह भारद्वाज जी ने मुझे उठाया। वह और अमृतलाल जी दोनों रोज सैर को जाते थे। रात बीत चुकी थी। आंधी तूफान भी ठहर गया था। मैंने दरवाजा ठकठकाया। दरवाजा अन्दर से बंद था। कोई आवाज नहीं आई। हम दोनों आशंकित हो उठे और जोर - जोर से दरवाजा ठोकने लगे। फिर नहीं खुला तो तोड़ दिया। वही हुआ जिसका डर था। अमृतलाल जी चल बसे थे। मैं और भारद्वाज जी रोने लगे। इतने में गौतम अपनी पत्नी और सूरज के साथ आ पहुंचा। उसे सब कुछ समझते हुए देर नहीं लगी। वह अचानक ही चुप हो गया। भारद्वाज जी ने कहा - गौतम तुम यही बैठो। इतने बड़े इंसान है। बहुत से लोग आयेंगे। बहुत सा काम करना होगा। हम सब इंतजाम करते हैं।
अंतिम संस्कार हुआ। सारे शहर से लोग आये। मुझे भी उस दिन पता चला कि अमृतलाल जी की इस शहर में कितनी इज्जत थी। गौतम चुपचाप बैठा रहा। बहु भी चुपचाप ही थी। हाँ पोता सूरज थोड़ा परेशान सा था, विचलित था। उसने दादा को पहले कभी नहीं देखा था और जब देखा तो इस अवस्था में देखा था। वह बार - बार रो उठता था। गौतम चुपचाप इसलिए था कि उसने शहर के लोगों की भीड़ देखी थी और उसे समझ में आ गया था कि उसने क्या खो दिया है ? मैं खुद हैरान था कि कितने सारे लोग उनसे प्रेम करते थे, कितनों का रो - रोकर बुरा हाल था।
रात को सारा कार्यक्रम निपटने के बाद, हम जब बैठे तो सिर्फ झींगुरों की आवाजें ही सुनाई दे रही थी। सभी बहुत चुपचाप थे। मैं था,भारद्वाज जी थे और गौतम था। बहु, सूरज के साथ सोने चली गयी थी। सूरज को हल्का सा बुखार आ गया था और वह मन से भी परेशान था। इतने में वकील साहब आये। वह अमृतलाल जी के पुराने मित्र थे। उन्होंने कहा - कल रात को शायद अमृत को आशंका हो गयी थी कि वह शायद ज्यादा दिन नहीं रहेगा। उसने अपनी वसीयत करवा ली थी। मैं उसे आप सब को बताना चाहता हूँ।
मैं उठकर खड़ा हो गया। वकील ने मुझे बैठने को कहा। वकील ने कहा - जायदाद के तीन हिस्से हुए है। एक बड़ा हिस्सा इस हॉस्पिटल और वृद्धाश्रम को दिया गया है। दूसरा हिस्सा पोते सूरज के लिए दिया गया है और तीसरा हिस्सा चौकीदार ईश्वर के नाम है।
ये सुनकर मैं चौंका। मैंने कहा - साहब, कोई गलती हो गयी होगी। मुझे कोई पैसा रकम नहीं चाहिए। मैं तो यही रहूँगा। सब कुछ मेरा अब यही है। अमृत साहब मेरे पिता जैसे थे। उनके बाद अब मेरा कौन है। कहकर मैं रोने लगा।
वकील ने समझाया - भाई जो उन्होंने कहा, वह मैंने किया। भारद्वाज भी थे वहां। पूछ लो।
मैंने कहा - मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा हिस्सा भी सूरज को ही दे दीजिये। वकील ने मेरा सर थपथपाया। मैं चुपचाप आंसू बहाने लगा।
गौतम चुपचाप उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा - कल सुबह मिलते है, राख को नदी में बहाने जाना है।
रात बहुत गहरी हो रही थी और मेरी आँखों में नींद नहीं थी। कल तक मैं कुछ भी नहीं था और आज इस जायदाद के एक हिस्से का मालिक। लेकिन मैं इस रुपये का क्या करूँगा। मेरे तो आगे पीछे कोई है ही नहीं। नहीं - नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं तो इसी जगह के एक कोने में पड़ा रहूँगा।
सुबह हुई, हम सब वही पास में मौजूद नदी के किनारे चले। रास्ते में श्मशान घाट से अमृत जी की चिता में से राख ली और नदी में जाकर उसे बहा दिया। मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। भारद्वाज भी रोने लगे। उनका सबसे पुराना और गहरा मित्र जो चला गया था। लड़का जो कल तक कुछ नहीं बोला। आज रोने लगा। उसकी पत्नी भी रोने लगी और सूरज भी रोने लगा। कुछ देर के शोक के बाद सब वापस आये। गौतम पास के ट्रेवल एजेंट के पास गया और वापसी की टिकिट करवा ली। वह अचानक ही बहुत शांत हो गया था। अब उसे समझ आ गया था कि जो उसने खोया था वह कभी भी वापस नहीं आने वाला था।
तेरहवी के भोज के बाद गौतम, मेरे और भारद्वाज के पास आया। उसने उन्हें एक लिफाफा दिया और कहा। मैं सारी वसीयत, जो पिताजी ने सूरज के नाम की है। उसे इस वृद्धाश्रम और ईश्वर को देता हूँ। इसके सही हकदार यही दोनों है। मैं शांत था। मैंने एक बार कहा - गौतम भैय्या, अगर यही रुक जाते तो हम सभी को बहुत ख़ुशी होती। गौतम चुपचाप रहा। कुछ नहीं कहा। शायद कुछ कहने के लिए था ही नहीं।
दूसरे दिन गौतम चला गया।
कुछ दिनों बाद मैंने वकील से कहकर सारी जायदाद जो कि मेरे नाम थी। उसे उस वृद्धाश्रम के नाम कर दी। अब चूँकि अमृत जी नहीं रहे तो धीरे धीरे हॉस्पिटल बंद हो गया और फिर कुछ दिनों के बाद सिर्फ आज का ये अमृत वृद्धाश्रम ही रह गया। भारद्वाज जी सारा काम काज संभालते।
मैंने भारद्वाज से वचन लिया कि वह किसी से इस बारे में नहीं कहेंगे कि इस वृद्धाश्रम में मेरा क्या योगदान है। मैंने कहा कि मैं इसी चौकीदार वाले रूप में खुश हूँ। और मुझे यहीं बने रहने दीजिये। भारद्वाज जी नहीं माने, मैंने फिर उन्हें अपनी कसम दी। वे चुप हो गए। उन्होंने कहा - बेटा, तू सच में ईश्वर है। भगवान हर किसी को तेरे जैसी ही औलाद दे।
वृद्धाश्रम चल पड़ा। यहाँ हर महीने कोई न कोई आ जाता। कोई न कोई गुजर जाता। मैं कई बातों का अभ्यस्त हो चुका था। जिन्दगी चल रही थी। एक दूसरे के सुख दु:ख बांटते थे। मिलकर काम करते थे। हमने कुछ नर्से रखी हुई थी। कुछ लोग रखे हुए थे। सब इस आश्रम की देखभाल करते थे। और भारद्वाज जी ने सभी से कह दिया था कि ईश्वर की बात हर कोई माने। बहुत कम लोग मुझे ईश्वर कहकर पुकारते थे। ज्यादातर लोग मुझे सिर्फ चौकीदार ही कहते थे। और मुझे इससे कोई शिकायत भी नहीं थी।
कुछ बरस पहले
एक दिन शान्ति दीदी का फोन आया। शान्ति हमारे पुराने हॉस्पिटल में नर्स थी। उसके आगे पीछे कोई नहीं था। एक भतीजा था, जो कि उसकी नौकरी पर अपनी जिंदगी के मजे ले रहा था। फिर शान्ति को एक दिन एक्सीडेंट में पैर में चोट लग गयी। वह अब काम पर नहीं आती थी। फिर भी अमृत जी ने इंतजाम करवाया था कि उसे हर महीने उसकी तनख्वाह मिल जाए।
उस दिन उसका फोन आया कि उसके भतीजे ने उसका घर ले लिया है और उसे घर से निकल जाने को कह रहा है। अब वह बेसहारा है। मैंने और भारद्वाज जी ने कहा कि वह बेसहारा और बेआसरा नहीं है। वह यहाँ आ जाए और फिर मैं उसे लाने के लिए आश्रम की गाड़ी लेकर उसके घर पंहुचा। मैं जब उसे लेने गया तो देखा वह घर के बाहर एक छोटी सी पेटी लेकर चुपचाप बैठी है। मुझे देखकर वह उठी, पैर की चोट की वजह से वह लड़खड़ा गयी। मैंने दौड़कर उसे संभाला। मैंने उससे कहा और कोई सामान जो ले जाना हो ? उसने कहा - कुछ नहीं, जो कुछ कमाया। वह ये घर ही था। वह भी छिन गया। अब कहीं कुछ नहीं रहा। लेकिन हाँ, वृद्धाश्रम जाने के पहले मुझे तुम कुछ जगह ले जा सकते हो तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी।
मैंने कहा - कोई बात नहीं आप चलो तो। मैंने उसे गाड़ी की पिछली सीट पर बिठाकर उससे पुछा - बताओ कहाँ जाना है ? उसने कहा - मैं हर जगह एक बार जाना चाहती हूँ जहाँ मैंने अपनी जिन्दगी का कोई हिस्सा जिया है। मैंने धीरे से पुछा - अब इस बात का क्या मतलब है। उसने शायद रोते हुआ कहा था - मुझे पता है, मैं उस वृद्धाश्रम में आखरी दिन बिताने जा रही हूँ जहां से अब कभी भी नहीं लौट पाउंगी। मैं चुप हो गया। मेरे गले में कुछ अटक सा गया था। मुझे भी शायद रुलाई आ रही थी। पर मैंने चुपचाप गाड़ी आगे बड़ा दी। उसने रास्ते में रूककर कुछ फूल खरीदे।
सबसे पहले वह एक मोहल्ले में एक बड़े से घर के पास मुझे लेकर गयी। उसे देखते ही उसकी आँखों में बड़ा दर्द सा उमड़ आया। उसने मुझे बताया कि वह ब्याह कर इसी घर में आई थी। फिर इसी घर में उसके पति का देहांत हो गया। और इसी घरवालो ने उसे उसके बच्ची सहित घर से बाहर निकाल दिया।
फिर वह मुझे एक इसाई हॉस्पिटल में लेकर आई। जहाँ उसने मुझे बताया कि यहाँ एक सिस्टर मेरी थी, जिसने उसे सहारा दिया और यहाँ पर उसे नर्सिंग सिखाया। फिर वह यहीं पर नर्स बनी और फिर इसके बाद वह हमारे हॉस्पिटल में नर्स बनी।
फिर वह मुझे एक कब्रिस्तान में लेकर आई। उसने रास्ते में जो फूल खरीदे थे, उन्हें लेकर उतर गयी। मैंने उसे एक प्रश्न भरी निगाह से देखा। उसने आँखों में आंसू भरकर कहा - यहाँ मेरी बच्ची की कब्र है, बचपन में ही कुपोषण की वजह से बीमारियों की शिकार हुई और फिर एक दिन इस दुनिया से चल बसी। उसी की कब्र पर वो फूल चढ़ाकर आना चाहती थी। मेरे मुँह से कोई बोल न फूटेे। वह भीतर चली गयी और मैं फूट - फूट कर रो पड़ा।
कुछ देर बाद वह आई तो बहुत संयत दिख रही थी। वह शायद जी भरकर रो चुकी थी और अपना मन हल्का कर चुकी थी। वह गाड़ी में आकर चुपचाप बैठ गयी और एक गहरी सांस लेकर कहा - चलो, मेरे नए घर में मुझे ले चलो। मैंने गाड़ी को मोड़ते हुए धीरे से पूछा - एक बार क्या वह अपना घर भी देखना चाहेंगी, जिसे वह छोड़ कर आ रही है। उसने एक आह भरी और थोड़ा सोचकर कहा - हाँ, एक बार दिखा दो। मैंने बड़ी मेहनत से उसे बनाया है। पर उसे भी इस दुनिया के मक्कार लोगों ने छीन लिया।
मैंने चुपचाप उसे उसके घर के पास रोका। वह बहुत देर तक कार में बैठकर उसे देखती रही और रोती रही।
अब
इसी तरह की कहानियों और किस्सों से भरा हुआ है ये अमृत वृद्धाश्रम। लेकिन एक बात यहाँ बहुत अच्छी है, लोग यहाँ आकर अपना दु:ख भूल जाते हैं और सब एक ही परिवार का हिस्सा बनकर रहते है। मेरे परिवार का, हां, ये मेरा ही तो परिवार है एक बड़ा सा भरा हुआ परिवार।
बस एक कमी है और वह है - हॉस्पिटल की सेवाएं, उसके लिए हमें दूसरो पर, दूसरे हॉस्पिटल्स पर निर्भर रहना पड़ता था। अब सभी बूढ़े थे। सो हमेशा कोई न कोई बीमार ही रहता था। अक्सर हमें किसी न किसी को हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था। आश्रम के पास एक एम्बुलेंस था। और शांति थोड़ी बहुत प्राथमिक उपचार कर लेती थी पर अक्सर ऐसे मौको पर एक कसक सी दिल में उठती थी कि काश, उस वक्त, अमृतजी का बेटा, गौतम यहाँ रुक गया होता या पढ़ाई पूरी करके यही बस गया होता। हॉस्पिटल कभी भी बंद नहीं होता।
आज सुबह मैं थोड़ा जल्दी उठ गया हूँ। कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। शायद उम्र का असर था। पता नहीं मेरी उम्र कितनी हो गयी है, आजकल कुछ याद भी नहीं रहता।
भारद्वाज जी ने आकर मुझे देखा और कहा - ईश्वर शायद तुम्हारी तबियत खराब है। तुम आराम कर लो। मैंने कहा - जी कुछ नहीं, थोड़ी सी हरारत है शायद उम्र थक रही है।
इतने में एक कार आकर रुकी। हम दोनों ने पलटकर दरवाजे की ओर देखा। कार से अचानक एक आवाज आई - ईश्वर काका! मेरे लिए ये एक नया संबोधन था। सब मुझे चौकीदार ही कहकर पुकारते थे। बाहर की दुनिया में किसी को मेरा असली नाम पता नहीं था। हम दोनों ने गौर से देखा। कार का दरवाजा खुला और एक सुखद आश्चर्य की तरह अमृतलाल जी का बेटा गौतम एक नौजवान के साथ उतरा। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने भारद्वाज जी से कहा - आज सूरज हमारे आँगन में उगा है, जरुर ये सूरज होगा। अमृत जी का पोता। पास आकर गौतम ने कहा - हाँ, ईश्वर ये सूरज है। हमारा सूरज। आप का सूरज, हम सब का सूरज। सूरज ने मेरे पास आकर मेरे पैर छुए तो मेरी आँखे छलक गयी। पहली बार किसी ने मेरे पैर छुए थे। मेरे हाथ कांपते हुए आशीर्वाद देने के लिए उठ गए।
सूरज ने कहा - ईश्वर काका। मैं आज आपसे अपने पिता जी की तरफ से माफी मांगने आया हूँ और दादाजी का सपना पूरा करने आया हूँ। मेरी आँखे ख़ुशी से बह रही थी। सूरज ने आगे कहा - मैंने भी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर ली है और अब मैं और पिताजी यहीं रहेंगे और दादाजी का सपना पूरा करेंगे। मैंने कंपकंपाते स्वर में पूछा - और माँ ? गौतम ने कहा - वह नहीं रही। इसी साल उसका देहांत हो गया और मैंने फैसला कर लिया है कि अब हम यही आकर रहें, आपने और भारद्वाज अंकल ने जो नि:स्वार्थ सेवा का बीड़ा उठाया है, अब हम भी उसमें अपना योगदान देंगे। यही सच्चे अर्थों में हमारी वापसी होगी। अपने देश के लिए, अपने पिता के लिए, उनके उद्देश्य के लिए और यही हमारा प्रायश्चित होगा।
शान्ति जो इतने देर से पीछे से आकर हमारी बातें सुन रही थी वह अपने आंसू पोंछते हुए वापस मुड़कर आश्रम के भीतर गयी और एक पूजा की थाली ले आई। आरती का दीया जला कर दोनों की आरती उतारते हुए उसने कहा - पधारो आपणे देश बेटा! हम सबकी आँखे भीग उठी।
गौतम ने एक लिफाफा निकाल कर मेरे और भारद्वाज जी के हाथो में दिया और कहा - इसमें मेरी सारी संपत्ति के कागजात है, मैंने अपना सब कुछ इस वृद्ध आश्रम को दे दिया है। और इसकी सारी जिम्मेदारी ईश्वर और भारद्वाज अंकल को सौंपी है, सब कुछ अब इस आश्रम की मिट्टी के लिए।
ये सुनकर मैं रो पड़ा। मेरा दर्द और बढ़ गया और मैं कांप कर गिर पड़ा। सूरज ने तुरंत मेरी नब्ज को देखा और कहा- अरे आपकी नब्ज डूब रही है। जल्दी इन्हें हॉस्पिटल ले चलो। मैंने कहा - बस बेटा, आज का ही इन्तजार था। तुम्हारी वापसी हो गयी और मुझे अब क्या चाहिए? बस अब चलता हूँ।
सूरज ने कहा - कुछ नहीं होगा। आपको माइल्ड हार्ट अटैक आया है। सब ठीक हो जायेगा।
भारद्वाज जी ने जल्दी से आश्रम के एम्बुलेंस का इंतजाम किया और मुझे उसमे लिटाकर शहर के एक हार्ट हॉस्पिटल की ओर चल पड़े।
एक नयी शुरुवात
हॉस्पिटल आ गया था। मुझे स्ट्रेचर पर ऑपरेशन थिएटर के भीतर ले जाया जा रहा था। मैंने चारो तरफ सभी को देखा। मुझे ख़ुशी थी। अमृत वृद्धाश्रम अब बेहतर हाथों में था। अमृतलाल जी का और मेरा सपना सच हो गया था। मैंने सभी को प्रणाम किया और भीतर की ओर चल पड़ा। अब सब ठीक हो गया था। अब कोई दु:ख मन में नहीं था। और मुझे यकीन था कि मैं भी ठीक हो ही जाऊँगा फिर से अपने अमृत वृद्धाश्रम की सेवा करने के लिए।
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