अरमान अंसारी
डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था राजनीति अल्पकालीन धर्म है तो धर्म दीर्घकालीन राजनीति। डा.लोहिया का राजनीति के विशेष संदर्भ में कहा गया यह कथन प्रेमचंद की कथा - दृष्टि व उनके विशुद्ध राजनीति उपन्यास रंगभूमि पर ठीक बैठता है। स्वयं प्रेमचंद ने अपने इस उपन्यास को विशुद्ध राजनीति उपन्यास माना है।
प्रेमचंद जिस युग विशेष में रंगभूमि की रचना कर रहे थे, वह राजनीति के विशेष उथल - पुथल का युग था। भारतीय राजनीति की क्षितिज पर महात्मा गाँधी का आगमन हो चुका था। गांधी को जनता अपना वास्तविक प्रतिनिधि के तौर पर स्वीकारने लगी थी। चूँकि बाह्य व आन्तरिक आचरणों में गांधी में जनता को वह सब कुछ दिखाई पड़ता था, जिसे जनता अपना कह सकती थी। प्रेमचंद इस समय विशेष पर तीखी निगाहे गड़ाए देख रहे थे,ऐसे में उन्हें एक नई रोशनी दिखाई दी। जहाँ से वे भारतीय जीवन परिस्थितियों के अनुरुप, गांधी की राजनीति से अपने कलम में रोशनाई डाल सकते थे और उन्होंने ऐसा किया भी।
1 अक्टूवर सन 1922 को प्रेमचंद ने रंगभूमि लिखना आरंभ किया और 1 अपै्रल 1924 को रंगभूमि का उर्दू मुसव्वदा चौगाने - हस्ती लिखकर समाप्त किया। अमृतराय ने अपनी पुस्तक कलम का सिपाही में रंगभूमि के हिन्दी पाण्डुलिपि के बारे लिखा है कि चौगाने - हस्ती का रुपान्तरण साथ - साथ होता रहा। करीब चार महिने में 12 अगस्त 1924 को रंगभूमि की पाण्डुलिपि तैयार हो गई।
जिस अवधि विशेष में प्रेमचंद रंगभूमि की कथा जाल की उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा रहे थे। उस समय में सूरदास जैसे नायक की परिकल्पना करना जो भारतीय समाज की संरचना में वर्णवस्था के अनुसार शूद्र तबके से आता है,एक असाधारण बात थी। प्रेमचंद द्वारा कल्पित नायक सूरदास एक असाधारण नायक है,जो संपूर्ण औपनिवेशिक व संगठित सत्ता के खिलाफ अपनी नैतिक ताकत से उठ खड़ा होता है। सूरदास न केवल सामंती व सम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती देता है बल्कि एक नई वैकल्पिक सभ्यता की बात करते हुए, साम्राज्यवादी व पूंजीवादी व्यवस्था की जड़ों पर प्रहार करता है।
प्रेमचंद प्रकारांतर से सूरदास के माध्यम से इस प्रश्न को उठाते हैं कि यदि मानवीय सभ्यता को बचना है तो सूरदास की बौद्धिक परंपरा से परिभाषित होना पड़ेगा। सूरदास के पास वह दिव्य बैद्धिक तार्किक व वस्तुगत चेतना है जो विशाल राष्ट्रीय - अन्तर्राष्ट्रीय व कारपोरेट पूंजी के बीच दुनिया को नया रास्ता दिखा सकता है। यदि दुनिया व मानवीय सभ्यता को बचना है तो सूरदास की बौद्धिक चेतना एक मात्र विकल्प है।
सूरदास के पास जो विचार - दर्शन है,वह कहीं से आयातित नहीं है। बल्कि भारतीय जीवन परिस्थितियों व संघर्षों के बीच से निकला हुआ वास्तविक ज्ञान है। प्रेमचंद अपनी दृष्टि से हाशिए के समुदायों की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों को रेखांकित करते हैं। जिसमें यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि इन तबकों के पास जो जीवन है वही जीवन तथाकथित सभ्य उच्य वर्णियों को नया रास्ता दिखा सकता है। इन कथित निम्न वर्णिय समुदायों के पास पलायन का विकल्प नहीं है,बल्कि इनके पास एक मात्र विकल्प है। सर्वजन समुदायों को एकत्र कर उन्हें नेतृत्व प्रदान करे। मनीषी चिंतक विवेकानंद ने भी कहा था - भारत का भविष्य शूद्रों के हाथ में सुरक्षित होगा। विवेकानंद की यह उक्ति नये सिरे से प्रसांगिक हो जाता है।
आज भूमंडलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की नीतियों से भारत सहित तीसरी दुनिया के ज्यादातर देश अक्रांत हैं। एक के बाद एक कानून बनाकर देश का नेतृत्व जल - जंगल व जमीन को देशी - विदेशी पूंजी के हाथों गिरवी रखता जा रहा है। इस प्रक्रिया से सबसे ज्यादा प्रभावित हाशिये का समुदाय हो रहा है। उनका जीवन कठिन से कठीनतर परिस्थितियों में पहुंच गया है। तब पाण्डेयपुर में स्थित सूरदास की जमीन पर निगाह एक मात्र जानसेवक की थी, अब वैसे - वैसे जानसेवकों की संख्या हजारों में पहुंच गई है। प्रेमचंद की दृष्टि ने इसे 1924 में देख लिया था कि औद्योगिकरण के लिए विशेष औद्योगिक जोन बनेगा सेज लाखों किसानों से उनकी जमीन छीन ली जाएगी। किसानों को ऐसी परिस्थिति में पहुंचा दिया जाएगा कि किसानों के पास आत्म - हत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। तब किसान स्वेच्छा से अपनी जमीन पूंजीपतियों के हाथों में सौंप देंगे। आज का विस्थापन इन्हीं के बीच से निकला हुआ है। यदि देश दुनिया की समस्याओं को चिन्हित किया जाय जो मानव के लोभ - लालच व उपभोक्ता संस्कृति से निकला हुआ है तो उस तालिका में विस्थापन की समस्या सबसे ऊपर होगी। आखिर सूरदास और उनके पण्डेयपुर को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा क्योंकि औद्योगिकरण को जरूरत थी, पाण्डेयपुर की जमीन की। आज उड़ीशा का कलिंग नगर, प.बंगाल का नंदीग्राम या तामिलनाडू का कुड्यकुलम अखिर किसकी जरुरत है। पूंजी और राज्य के बीच जो द्वन्द चलता है उसमें राज्य आखिर किसके साथ खड़ा होता है ? इसके लिए एक मात्र उत्तर है, राज्य हमेशा पूंजी के साथ खड़ा हुआ है और उसने जीवन को उपेक्षित किया है।
तब चतारी के राजा सूरदास से कहते हैं - जरा भी सोचो कि इस कारखाने से लोगों को क्या फायदा होगा। हजारों मजदूर,मिस्त्री,बाबु,मुंशी, लूहार,बढ़ई आकर आबाद हो जायेंगे। एक अच्छी बस्ती हो जाएगी। बनियों की नई - नई दुकानें खुल जाएँगी। आस - पास के किसानों को अपना साग - भाजी लेकर शहर न जाना पड़ेगा। यहीं खरे दाम मिल जाएँगे। कुँजड़े, खटीक,धोबी,ग्वाले,दर्जी सभी को लाभ होगा।क्या तुम इस पुण्य के भागी न बनोगे ?
यदि इसकी तुलना प.बंगाल की वाम मोर्चे की सरकार से करें जिसने कुछ वर्षों पहले कलकत्ते के पास तीन फसली जमीन को किसानों से लेकर टाटा मोर्ट्स को सौंप दिया था। तब सरकार के मुखिया बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कुछ - कुछ चतारी के राजा की तरह ही जबाव दिया था। क्या आप किसान के बेटे को किसान बनाए रखना चाहते हैं? क्या उसे विकास का हक नहीं है।
रंगभूमि का सूरदास कितना सुन्दर जवाब देता है। सूरदास कहता है - सरकार ठीक कहते हैं, मोहल्ले की रौनक बहुत बढ़ जाएगी, रोजगारी लोगों का फायदा खूब होगा। लेकिन जहाँ यह रौनक बढ़ेगी वहाँ, ताड़ी - शराब का प्रचार भी तो बढ़ जाएगा। एक सबिया भी तो आकर बस जाएँगी,परदेसी आदमी बहु बेटियों को घुरेंगे, कितना अधरम होगा। दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी की लालच में दौड़ेंगे, यहाँ बूरी - बूरी बातें सीखेंगे और अपने बूरे आचरन अपने गाँव में फैलाएँगे। दिहातों की लड़कियाँ, बहुएँ मजूरी करने आएँगी और यहाँ पैसे की लोभ में अपना धरम बिगाड़ेंगी। यही रौनक शहरों में है। वही रौनक यहाँ हो जाएगी। भगवान न करे, यहाँ वह रौनक हो। सरकार मुझे इस कुकरम और अधरम से बचायें। यह सारा पाप मेरे सिर पड़ेगा।
दरअसल प्रेमचंद औद्योगिकरण और शहरी संस्कृति को एक ही सिक्के के दो पहलु मानते हैं। प्रकारांतर से प्रेमचंद महात्मा गाँधी की दृष्टि से औद्योगिकरण के साथ आने वाली सभ्यता की घोर निन्दा करते हैं। वे एक ऐसी सभ्यता की बात करते हैं जिसमें मनुष्य मात्र मशीन का गुलाम न रह जाय बल्कि उसकी वास्तविक सृजनशीलता बरकरार रहे। ज्ञात हो कि महात्मा गाँधी 1909 में हिन्द स्वराज नामक छोटी लेकिन युगान्तकारी पुस्तक के माध्यम से वर्तमान सभ्यता पर गंभीर प्रश्न उठा चुके थे। साहित्य की क्षितीज पर यही काम प्रेमचंद कर रहे थे। जिस प्रकार महात्मा गाँधी हिन्द स्वराज में प्रश्न - उतर के माध्यम से सभ्यता, स्वराज, नैतिकता, संसद - सांसद,शिक्षा,न्याय आदि को पुर्नमूल्यांकित करते हैं। ठीक यही काम प्रेमचंद रंगभूमि में करते हैं।
प्रेमचंद की कथादृष्टि हमेशा मनुष्य और उसकी जिजीविषा को केन्द्र में रखती है। सभ्यता के विकास के क्रम में मनुष्य, प्राकृतिक झंझावातों से जुझता हमेशा ही आगे बढ़ा है। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में उसने रास्ता निकालने की कोशिश की है। जिजीविषा की यही संकल्प शक्ति मनुष्य को सांस्कृतिक जीव बनाती है। रंगभूमि में जब भैरो सूरदास का घर जला देता है तो सूरदास थोड़ा चिंतित होता है। सूरदास की यह चिन्ता स्वयं के लिए नहीं बल्कि भैरो की पत्नी सुभागी के लिए है। सुभागी एक स्त्री है, जो सूरदास के यहाँ आश्रय ली हुई है। यह चिंता दूर होते ही सूरदास और मिठुआ के बीच का संवाद मानव जाति के संकल्प शक्ति का अभूतपूर्व उदाहरण है।
मिठुआ ने पूछा - दादा, अब हम रहेंगे कहाँ?
सूरदास - दूसरा घर बनायेंगे।
मिठुआ - और कोई फिर आग लगा दे ?
सूरदास - तो हम फिर बनायेंगे।
मिठुआ - और फिर लगा दे ?
सूरदास - तो हम फिर भी बनायेंगे।
मिठुआ - और कोई हजार बार लगा दे ?
सूरदास - तो हम हजार बार बनायेंगे।
मिठुआ ने फिर पूछा - और जो कई सौ लाख बार लगा दे ?
सूरदास ने भी उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया - तो हम भी सौ लाख बार बनायेंगे।
सूरदास की यह क्रांतिकारी प्रतिज्ञा मनुष्य के अक्षय ऊर्जा का प्रतीक है। इसके पीछे प्रेमचंद की गहरी आस्था है जो समय की जरूरत भी है।
प्रेमचंद सूरदास के माध्यम से एक सच्चा सत्याग्रही चरित्र का निर्माण करना चाहते हैं, जिसके अन्दर कुछ सनातन मूल्य निहित है - दया,क्षमा,परोपकार,प्रेम,विनय,अपरिग्रह,निर्भय, सत्य निष्ठा आदि मूल्य। सूरदास इन्हीं मूल्यों से संचालित होता है। विकट से विकट परिस्थियों में भी वह इन मूल्यों का दामन नहीं छोड़ता। सत्य - निष्ठा और अन्याय के प्रतिकार की यह परंपरा टॅालस्टाय से जुड़ती हुई गाँधी तक आती है। प्रेमचंद की ज्यादातर कहानियाँ इन्हीं मूल्यों सदवृत्तियों की धूरी पर घुमती हुई चलती है। रंगभूमि में सूरदास खेल के मूल्यों के माध्यम से गंभीर दार्शनिक विवेचना प्रस्तुत करता है। लेकिन उसकी अंतिम निशाना सत्य - निष्ठा जैसे मूल्यों को बनाए रखने में होती है। सूरदास कहता है - हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत भी जाए तो क्या हाथ आएगा। खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे,पर हार से घबराए नहीं। ईमान को न छोड़ें। जीत कर इतना न इतराये की अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार -जीत तो जिन्दगी के साथ है। इस प्रकार सूरदास खेल को जीवन का सनातन मूल्य के रूप में चिन्हित करता है।
सूरदास के माध्यम से प्रेमचंद अपने मूल्यों के प्रति जितना आग्रही हैं, उतना ही दूसरों के लोकतांत्रिक व्यक्तिगत अधिकारों के रक्षक भी नजर आते हंै। वे अपने मूल्य - मान्यताओं को दूसरे पर थोपते नहीं। रंगभूमि के सूरदास का मुख्य टक्कर राजा महेर्न्द कुमार से रही, लेकिन जब महेर्न्द कुमार सूरदास से मिलने शफाखाना जाते हैं और अपने भूल के लिए सूरदास से माफी माँगते हैं तो सूरदास उनके राजतांत्रिक संप्रभूता का सम्मान करते हुए कहता है - सरकार ऐसी बात न कहिए, आप राजा हैं मैं रंक हूँ। आप ने जो कुछ किया दूसरों के भलाई के विचार से किया। मैंने जो कुछ किया अपना धरम समझकर किया। हम तो खेल खेलते हैं। जीत - हार भगवान के हाथ है। वह जैसा उचित जानते हैं करते हैं। बस नियत ठीक होनी चाहिए। रंगभूमि में ही एक दूसरी जगह पर सूरदास राजा साहब को नेकनामी और बदनामी का सीख देते हुए कहता है - सरकार नेकनामी और बदनामी बहुत से आदमियों के हल्ला मचाने से नहीं होती। सच्ची नेकनामी अपने मन में होती है। अगर अपना मन बोला की मैंने जो कुछ किया वही मुझे करना चाहिए था। इसके सिवा कोई दूसरी बात करना मेरे लिए उचित न था,तो वही नेकनामी है।
इन पंक्तियों के माध्यम से प्रेमचंद दरअसल व्यक्ति और समाज के लिए स्वनियंत्रित न्याय,धर्म का ऐसा मानदंड स्थापित करना चाहते हैं जिससे व्यक्ति स्वयं को नियंत्रित कर सके। स्वनियंत्रण के इस मूल्य का विकास आगे चलकर हम गाँधी के ताबीज में देख सकते हैं। जिसमें गाँधी उचित - अनुचित, नीति - अनीति की पहचान के लिए अंधेरे व कठिन से कठिन परिस्थियों में वास्तविक रास्ते की बात करते हैं। गाँधी जी कहते हैं - मैं तुम्हें एक जन्तर देता हूँ। जब भी तुम्हें सन्देह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी आजमाओ - जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो,उसकी शकल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो। वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा ? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा,जिनके पेट भूखे और आत्मा अतृप्त है ? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम् समाप्त होता जा रहा है।
काँग्रेस अपनी राजनीति के प्रथम व द्वितीय चरण में कौंसिलों में जनता को प्रतिनिधि के माध्यम अंग्रेजों से सुधार कार्यों को करवाती रही। अंग्रेज भी सुरक्षा बल्व के तौर पर कांग्रेस के सुधारात्मक कार्यों को लेते रहे। कौंसिलों में बहसें होती। जनता के कथित प्रतिनिधि बहस करते थे। जनता की माँग सरकार कंपनी राज के सामने रखी जाती लेकिन अंग्रेज वही सब करते जो उन्हें करना था। ऐसी परिस्थिति में अंग्रेजों से मोहभंग होना स्वाभाविक था।
रंगभूमि में डॉ. गांगुली को कौंसिल और उसके माध्यम से बेहतरी की उम्मीद खत्म हो जाती है। वे सभा में गरजकर कहते हैं - आप पशु बल से मुझे चुप कराना चाहते हैं। इसलिए की आप में धर्म और न्याय का बल नहीं है। आज मेरे दिल से यह विश्वास उठ गया जो गत चालीस वर्षों से जमा हुआ था कि गवर्नर्मेंट हमारे ऊपर न्याय के बल से शासन करना चाहती है। आज उस न्याय बल की कलई खुल गई। हमारी आँखों से पर्दा उठ गया और हम गवर्नमेंट को उसके नग्न आवरणहीन रुप में देख रहे हैं। अब हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि केवल हमको पीसकर तेल निकालने के लिए,हमारा अस्तित्व मिटाने के लिए,हमारी सभ्यता और मनुष्यता की हत्या करने के लिए हमको अनंतकाल तक चक्की का बैल बनाए रखने के लिए हमारे ऊपर राज किया जा रहा है।
इस प्रकार प्रेमचंद औपनिवेशिक सत्ता की वास्तविक कुचक्रों को समझ रहे थे। अंग्रेजों द्वारा कौंसिलों का आयोजन एक मुखौटा था। यह बात भारतीयों को देर से समझ में आई। डॉ. गांगुली को चालीस वर्षो तक कौंसिलों के माध्यम से वास्तविक प्रतिनिधित्व और जनता की सेवा का धोखा होता रहा लेकिन पाण्डेयपुर की वास्तविकता डॉ. गांगुली को औपनिवेशिक सत्ता से अंततोगत्वा मोहभंग करा दिया। डॉ. गांगुली कहते हैं - कौंसिल को सरकार बनाता है और वह सरकार की मुठ्ठी में है जब जाति द्वारा कौंसिल बनेगा तब उससे देश का कल्याण होगा। यह सब जानता है पर कुछ न करने से कुछ करते रहना अच्छा है।
प्रेमचंद की दृष्टि स्वाधीन चेतना से उत्प्रेरित थी। स्वाधीनता उनके लिए सबसे बड़ा मूल्य था। इस बात का जायजा उनकी प्रारंभिक कहानियों के विश्लेषण से हो जाता है। उनकी शुरूवाती कहानी संग्रह सोजेवतन की तमाम कहानियाँ इस बात को रेखांकित करती हैं। प्रेमचंद की दृष्टि भारतीय बुद्धिजीवियों की गुलामी की मानसिकता को भी रेखांकित करती है। रंगभूमि का प्रभूसेवक इंग्लैण्ड चला गया और वहाँ से सेवा दल के प्रमुख को पत्र लिखता है - अब मैं स्वदेशीय नहीं सर्वदेशीय हूँ, अखिल संसार मेरा स्वदेश है। प्राणीमात्र से मेरा बंधुत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाओं को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है।
प्रेमचंद इस बात को देख रहे थे कि भारतीय बुद्धिजीवी छोटी -छोटी लालचों से पे्ररित स्वाधीनता के आन्दोलन में भीतरघात कर रहे थे। प्रभुसेवक ऐसे ही बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधि पात्र है। प्रेमचंद की दृष्टि रंगभूमि में प्रचलित सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक मान्यताओं के प्रति विद्रोह को भी दिखाने की कोशिश की है। सोफिया कहती है - मुझे उस वस्तु से घृणा है जिसे लोग सफल जीवन कहते हैं। सफल जीवन पर्याय है खुशामद,अत्याचार और धूर्तता का। मैं जिन महात्माओं को संसार में श्रेष्ट सझती हूँ, उनके जीवन सफल न थे। सांसारिक दृष्टि से वे साधारण मनुष्यों से भी गए - गुजरे थे। जिन्होंने कष्ट झेले निर्वासित हुए,पत्थरों से मारे - कोसे गए और अंत में संसार उन्हें बिना आँसू के एक बूँद गिराए विदा कर दिया ....।
इस प्रकार प्रेमचंद सफलता और सार्थकता का नया मानदण्ड स्थापित करना चाहते हैं। जिन मूल्यों के आधार पर कोई व्यक्ति और समाज महात्म प्राप्त करता है वे कितने खोटे मूल्य हैं। क्या दुनिया इन्हीं झूठी मूल्यों - मान्यताओं में जीती रहेगी या जीवन सफलताओं के नये मानक निर्धारित होंगे?
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद की दृष्टि भारतीय जीवन की राग कड़ने की कोशिश करते है, जिसके केन्द में है स्वाधीन बैद्धिक चेतना,जिससे खोए हुए गरिमा को प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन सफलता,सार्थकता व स्वाधीनता के नये और वैकल्पिक वास्तविक मानदण्डों के साथ।
प्रेमचंद जिस युग विशेष में रंगभूमि की रचना कर रहे थे, वह राजनीति के विशेष उथल - पुथल का युग था। भारतीय राजनीति की क्षितिज पर महात्मा गाँधी का आगमन हो चुका था। गांधी को जनता अपना वास्तविक प्रतिनिधि के तौर पर स्वीकारने लगी थी। चूँकि बाह्य व आन्तरिक आचरणों में गांधी में जनता को वह सब कुछ दिखाई पड़ता था, जिसे जनता अपना कह सकती थी। प्रेमचंद इस समय विशेष पर तीखी निगाहे गड़ाए देख रहे थे,ऐसे में उन्हें एक नई रोशनी दिखाई दी। जहाँ से वे भारतीय जीवन परिस्थितियों के अनुरुप, गांधी की राजनीति से अपने कलम में रोशनाई डाल सकते थे और उन्होंने ऐसा किया भी।
1 अक्टूवर सन 1922 को प्रेमचंद ने रंगभूमि लिखना आरंभ किया और 1 अपै्रल 1924 को रंगभूमि का उर्दू मुसव्वदा चौगाने - हस्ती लिखकर समाप्त किया। अमृतराय ने अपनी पुस्तक कलम का सिपाही में रंगभूमि के हिन्दी पाण्डुलिपि के बारे लिखा है कि चौगाने - हस्ती का रुपान्तरण साथ - साथ होता रहा। करीब चार महिने में 12 अगस्त 1924 को रंगभूमि की पाण्डुलिपि तैयार हो गई।
जिस अवधि विशेष में प्रेमचंद रंगभूमि की कथा जाल की उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा रहे थे। उस समय में सूरदास जैसे नायक की परिकल्पना करना जो भारतीय समाज की संरचना में वर्णवस्था के अनुसार शूद्र तबके से आता है,एक असाधारण बात थी। प्रेमचंद द्वारा कल्पित नायक सूरदास एक असाधारण नायक है,जो संपूर्ण औपनिवेशिक व संगठित सत्ता के खिलाफ अपनी नैतिक ताकत से उठ खड़ा होता है। सूरदास न केवल सामंती व सम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती देता है बल्कि एक नई वैकल्पिक सभ्यता की बात करते हुए, साम्राज्यवादी व पूंजीवादी व्यवस्था की जड़ों पर प्रहार करता है।
प्रेमचंद प्रकारांतर से सूरदास के माध्यम से इस प्रश्न को उठाते हैं कि यदि मानवीय सभ्यता को बचना है तो सूरदास की बौद्धिक परंपरा से परिभाषित होना पड़ेगा। सूरदास के पास वह दिव्य बैद्धिक तार्किक व वस्तुगत चेतना है जो विशाल राष्ट्रीय - अन्तर्राष्ट्रीय व कारपोरेट पूंजी के बीच दुनिया को नया रास्ता दिखा सकता है। यदि दुनिया व मानवीय सभ्यता को बचना है तो सूरदास की बौद्धिक चेतना एक मात्र विकल्प है।
सूरदास के पास जो विचार - दर्शन है,वह कहीं से आयातित नहीं है। बल्कि भारतीय जीवन परिस्थितियों व संघर्षों के बीच से निकला हुआ वास्तविक ज्ञान है। प्रेमचंद अपनी दृष्टि से हाशिए के समुदायों की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों को रेखांकित करते हैं। जिसमें यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि इन तबकों के पास जो जीवन है वही जीवन तथाकथित सभ्य उच्य वर्णियों को नया रास्ता दिखा सकता है। इन कथित निम्न वर्णिय समुदायों के पास पलायन का विकल्प नहीं है,बल्कि इनके पास एक मात्र विकल्प है। सर्वजन समुदायों को एकत्र कर उन्हें नेतृत्व प्रदान करे। मनीषी चिंतक विवेकानंद ने भी कहा था - भारत का भविष्य शूद्रों के हाथ में सुरक्षित होगा। विवेकानंद की यह उक्ति नये सिरे से प्रसांगिक हो जाता है।
आज भूमंडलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की नीतियों से भारत सहित तीसरी दुनिया के ज्यादातर देश अक्रांत हैं। एक के बाद एक कानून बनाकर देश का नेतृत्व जल - जंगल व जमीन को देशी - विदेशी पूंजी के हाथों गिरवी रखता जा रहा है। इस प्रक्रिया से सबसे ज्यादा प्रभावित हाशिये का समुदाय हो रहा है। उनका जीवन कठिन से कठीनतर परिस्थितियों में पहुंच गया है। तब पाण्डेयपुर में स्थित सूरदास की जमीन पर निगाह एक मात्र जानसेवक की थी, अब वैसे - वैसे जानसेवकों की संख्या हजारों में पहुंच गई है। प्रेमचंद की दृष्टि ने इसे 1924 में देख लिया था कि औद्योगिकरण के लिए विशेष औद्योगिक जोन बनेगा सेज लाखों किसानों से उनकी जमीन छीन ली जाएगी। किसानों को ऐसी परिस्थिति में पहुंचा दिया जाएगा कि किसानों के पास आत्म - हत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। तब किसान स्वेच्छा से अपनी जमीन पूंजीपतियों के हाथों में सौंप देंगे। आज का विस्थापन इन्हीं के बीच से निकला हुआ है। यदि देश दुनिया की समस्याओं को चिन्हित किया जाय जो मानव के लोभ - लालच व उपभोक्ता संस्कृति से निकला हुआ है तो उस तालिका में विस्थापन की समस्या सबसे ऊपर होगी। आखिर सूरदास और उनके पण्डेयपुर को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा क्योंकि औद्योगिकरण को जरूरत थी, पाण्डेयपुर की जमीन की। आज उड़ीशा का कलिंग नगर, प.बंगाल का नंदीग्राम या तामिलनाडू का कुड्यकुलम अखिर किसकी जरुरत है। पूंजी और राज्य के बीच जो द्वन्द चलता है उसमें राज्य आखिर किसके साथ खड़ा होता है ? इसके लिए एक मात्र उत्तर है, राज्य हमेशा पूंजी के साथ खड़ा हुआ है और उसने जीवन को उपेक्षित किया है।
तब चतारी के राजा सूरदास से कहते हैं - जरा भी सोचो कि इस कारखाने से लोगों को क्या फायदा होगा। हजारों मजदूर,मिस्त्री,बाबु,मुंशी, लूहार,बढ़ई आकर आबाद हो जायेंगे। एक अच्छी बस्ती हो जाएगी। बनियों की नई - नई दुकानें खुल जाएँगी। आस - पास के किसानों को अपना साग - भाजी लेकर शहर न जाना पड़ेगा। यहीं खरे दाम मिल जाएँगे। कुँजड़े, खटीक,धोबी,ग्वाले,दर्जी सभी को लाभ होगा।क्या तुम इस पुण्य के भागी न बनोगे ?
यदि इसकी तुलना प.बंगाल की वाम मोर्चे की सरकार से करें जिसने कुछ वर्षों पहले कलकत्ते के पास तीन फसली जमीन को किसानों से लेकर टाटा मोर्ट्स को सौंप दिया था। तब सरकार के मुखिया बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कुछ - कुछ चतारी के राजा की तरह ही जबाव दिया था। क्या आप किसान के बेटे को किसान बनाए रखना चाहते हैं? क्या उसे विकास का हक नहीं है।
रंगभूमि का सूरदास कितना सुन्दर जवाब देता है। सूरदास कहता है - सरकार ठीक कहते हैं, मोहल्ले की रौनक बहुत बढ़ जाएगी, रोजगारी लोगों का फायदा खूब होगा। लेकिन जहाँ यह रौनक बढ़ेगी वहाँ, ताड़ी - शराब का प्रचार भी तो बढ़ जाएगा। एक सबिया भी तो आकर बस जाएँगी,परदेसी आदमी बहु बेटियों को घुरेंगे, कितना अधरम होगा। दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी की लालच में दौड़ेंगे, यहाँ बूरी - बूरी बातें सीखेंगे और अपने बूरे आचरन अपने गाँव में फैलाएँगे। दिहातों की लड़कियाँ, बहुएँ मजूरी करने आएँगी और यहाँ पैसे की लोभ में अपना धरम बिगाड़ेंगी। यही रौनक शहरों में है। वही रौनक यहाँ हो जाएगी। भगवान न करे, यहाँ वह रौनक हो। सरकार मुझे इस कुकरम और अधरम से बचायें। यह सारा पाप मेरे सिर पड़ेगा।
दरअसल प्रेमचंद औद्योगिकरण और शहरी संस्कृति को एक ही सिक्के के दो पहलु मानते हैं। प्रकारांतर से प्रेमचंद महात्मा गाँधी की दृष्टि से औद्योगिकरण के साथ आने वाली सभ्यता की घोर निन्दा करते हैं। वे एक ऐसी सभ्यता की बात करते हैं जिसमें मनुष्य मात्र मशीन का गुलाम न रह जाय बल्कि उसकी वास्तविक सृजनशीलता बरकरार रहे। ज्ञात हो कि महात्मा गाँधी 1909 में हिन्द स्वराज नामक छोटी लेकिन युगान्तकारी पुस्तक के माध्यम से वर्तमान सभ्यता पर गंभीर प्रश्न उठा चुके थे। साहित्य की क्षितीज पर यही काम प्रेमचंद कर रहे थे। जिस प्रकार महात्मा गाँधी हिन्द स्वराज में प्रश्न - उतर के माध्यम से सभ्यता, स्वराज, नैतिकता, संसद - सांसद,शिक्षा,न्याय आदि को पुर्नमूल्यांकित करते हैं। ठीक यही काम प्रेमचंद रंगभूमि में करते हैं।
प्रेमचंद की कथादृष्टि हमेशा मनुष्य और उसकी जिजीविषा को केन्द्र में रखती है। सभ्यता के विकास के क्रम में मनुष्य, प्राकृतिक झंझावातों से जुझता हमेशा ही आगे बढ़ा है। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में उसने रास्ता निकालने की कोशिश की है। जिजीविषा की यही संकल्प शक्ति मनुष्य को सांस्कृतिक जीव बनाती है। रंगभूमि में जब भैरो सूरदास का घर जला देता है तो सूरदास थोड़ा चिंतित होता है। सूरदास की यह चिन्ता स्वयं के लिए नहीं बल्कि भैरो की पत्नी सुभागी के लिए है। सुभागी एक स्त्री है, जो सूरदास के यहाँ आश्रय ली हुई है। यह चिंता दूर होते ही सूरदास और मिठुआ के बीच का संवाद मानव जाति के संकल्प शक्ति का अभूतपूर्व उदाहरण है।
मिठुआ ने पूछा - दादा, अब हम रहेंगे कहाँ?
सूरदास - दूसरा घर बनायेंगे।
मिठुआ - और कोई फिर आग लगा दे ?
सूरदास - तो हम फिर बनायेंगे।
मिठुआ - और फिर लगा दे ?
सूरदास - तो हम फिर भी बनायेंगे।
मिठुआ - और कोई हजार बार लगा दे ?
सूरदास - तो हम हजार बार बनायेंगे।
मिठुआ ने फिर पूछा - और जो कई सौ लाख बार लगा दे ?
सूरदास ने भी उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया - तो हम भी सौ लाख बार बनायेंगे।
सूरदास की यह क्रांतिकारी प्रतिज्ञा मनुष्य के अक्षय ऊर्जा का प्रतीक है। इसके पीछे प्रेमचंद की गहरी आस्था है जो समय की जरूरत भी है।
प्रेमचंद सूरदास के माध्यम से एक सच्चा सत्याग्रही चरित्र का निर्माण करना चाहते हैं, जिसके अन्दर कुछ सनातन मूल्य निहित है - दया,क्षमा,परोपकार,प्रेम,विनय,अपरिग्रह,निर्भय, सत्य निष्ठा आदि मूल्य। सूरदास इन्हीं मूल्यों से संचालित होता है। विकट से विकट परिस्थियों में भी वह इन मूल्यों का दामन नहीं छोड़ता। सत्य - निष्ठा और अन्याय के प्रतिकार की यह परंपरा टॅालस्टाय से जुड़ती हुई गाँधी तक आती है। प्रेमचंद की ज्यादातर कहानियाँ इन्हीं मूल्यों सदवृत्तियों की धूरी पर घुमती हुई चलती है। रंगभूमि में सूरदास खेल के मूल्यों के माध्यम से गंभीर दार्शनिक विवेचना प्रस्तुत करता है। लेकिन उसकी अंतिम निशाना सत्य - निष्ठा जैसे मूल्यों को बनाए रखने में होती है। सूरदास कहता है - हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत भी जाए तो क्या हाथ आएगा। खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे,पर हार से घबराए नहीं। ईमान को न छोड़ें। जीत कर इतना न इतराये की अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार -जीत तो जिन्दगी के साथ है। इस प्रकार सूरदास खेल को जीवन का सनातन मूल्य के रूप में चिन्हित करता है।
सूरदास के माध्यम से प्रेमचंद अपने मूल्यों के प्रति जितना आग्रही हैं, उतना ही दूसरों के लोकतांत्रिक व्यक्तिगत अधिकारों के रक्षक भी नजर आते हंै। वे अपने मूल्य - मान्यताओं को दूसरे पर थोपते नहीं। रंगभूमि के सूरदास का मुख्य टक्कर राजा महेर्न्द कुमार से रही, लेकिन जब महेर्न्द कुमार सूरदास से मिलने शफाखाना जाते हैं और अपने भूल के लिए सूरदास से माफी माँगते हैं तो सूरदास उनके राजतांत्रिक संप्रभूता का सम्मान करते हुए कहता है - सरकार ऐसी बात न कहिए, आप राजा हैं मैं रंक हूँ। आप ने जो कुछ किया दूसरों के भलाई के विचार से किया। मैंने जो कुछ किया अपना धरम समझकर किया। हम तो खेल खेलते हैं। जीत - हार भगवान के हाथ है। वह जैसा उचित जानते हैं करते हैं। बस नियत ठीक होनी चाहिए। रंगभूमि में ही एक दूसरी जगह पर सूरदास राजा साहब को नेकनामी और बदनामी का सीख देते हुए कहता है - सरकार नेकनामी और बदनामी बहुत से आदमियों के हल्ला मचाने से नहीं होती। सच्ची नेकनामी अपने मन में होती है। अगर अपना मन बोला की मैंने जो कुछ किया वही मुझे करना चाहिए था। इसके सिवा कोई दूसरी बात करना मेरे लिए उचित न था,तो वही नेकनामी है।
इन पंक्तियों के माध्यम से प्रेमचंद दरअसल व्यक्ति और समाज के लिए स्वनियंत्रित न्याय,धर्म का ऐसा मानदंड स्थापित करना चाहते हैं जिससे व्यक्ति स्वयं को नियंत्रित कर सके। स्वनियंत्रण के इस मूल्य का विकास आगे चलकर हम गाँधी के ताबीज में देख सकते हैं। जिसमें गाँधी उचित - अनुचित, नीति - अनीति की पहचान के लिए अंधेरे व कठिन से कठिन परिस्थियों में वास्तविक रास्ते की बात करते हैं। गाँधी जी कहते हैं - मैं तुम्हें एक जन्तर देता हूँ। जब भी तुम्हें सन्देह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी आजमाओ - जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो,उसकी शकल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो। वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा ? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा,जिनके पेट भूखे और आत्मा अतृप्त है ? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम् समाप्त होता जा रहा है।
काँग्रेस अपनी राजनीति के प्रथम व द्वितीय चरण में कौंसिलों में जनता को प्रतिनिधि के माध्यम अंग्रेजों से सुधार कार्यों को करवाती रही। अंग्रेज भी सुरक्षा बल्व के तौर पर कांग्रेस के सुधारात्मक कार्यों को लेते रहे। कौंसिलों में बहसें होती। जनता के कथित प्रतिनिधि बहस करते थे। जनता की माँग सरकार कंपनी राज के सामने रखी जाती लेकिन अंग्रेज वही सब करते जो उन्हें करना था। ऐसी परिस्थिति में अंग्रेजों से मोहभंग होना स्वाभाविक था।
रंगभूमि में डॉ. गांगुली को कौंसिल और उसके माध्यम से बेहतरी की उम्मीद खत्म हो जाती है। वे सभा में गरजकर कहते हैं - आप पशु बल से मुझे चुप कराना चाहते हैं। इसलिए की आप में धर्म और न्याय का बल नहीं है। आज मेरे दिल से यह विश्वास उठ गया जो गत चालीस वर्षों से जमा हुआ था कि गवर्नर्मेंट हमारे ऊपर न्याय के बल से शासन करना चाहती है। आज उस न्याय बल की कलई खुल गई। हमारी आँखों से पर्दा उठ गया और हम गवर्नमेंट को उसके नग्न आवरणहीन रुप में देख रहे हैं। अब हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि केवल हमको पीसकर तेल निकालने के लिए,हमारा अस्तित्व मिटाने के लिए,हमारी सभ्यता और मनुष्यता की हत्या करने के लिए हमको अनंतकाल तक चक्की का बैल बनाए रखने के लिए हमारे ऊपर राज किया जा रहा है।
इस प्रकार प्रेमचंद औपनिवेशिक सत्ता की वास्तविक कुचक्रों को समझ रहे थे। अंग्रेजों द्वारा कौंसिलों का आयोजन एक मुखौटा था। यह बात भारतीयों को देर से समझ में आई। डॉ. गांगुली को चालीस वर्षो तक कौंसिलों के माध्यम से वास्तविक प्रतिनिधित्व और जनता की सेवा का धोखा होता रहा लेकिन पाण्डेयपुर की वास्तविकता डॉ. गांगुली को औपनिवेशिक सत्ता से अंततोगत्वा मोहभंग करा दिया। डॉ. गांगुली कहते हैं - कौंसिल को सरकार बनाता है और वह सरकार की मुठ्ठी में है जब जाति द्वारा कौंसिल बनेगा तब उससे देश का कल्याण होगा। यह सब जानता है पर कुछ न करने से कुछ करते रहना अच्छा है।
प्रेमचंद की दृष्टि स्वाधीन चेतना से उत्प्रेरित थी। स्वाधीनता उनके लिए सबसे बड़ा मूल्य था। इस बात का जायजा उनकी प्रारंभिक कहानियों के विश्लेषण से हो जाता है। उनकी शुरूवाती कहानी संग्रह सोजेवतन की तमाम कहानियाँ इस बात को रेखांकित करती हैं। प्रेमचंद की दृष्टि भारतीय बुद्धिजीवियों की गुलामी की मानसिकता को भी रेखांकित करती है। रंगभूमि का प्रभूसेवक इंग्लैण्ड चला गया और वहाँ से सेवा दल के प्रमुख को पत्र लिखता है - अब मैं स्वदेशीय नहीं सर्वदेशीय हूँ, अखिल संसार मेरा स्वदेश है। प्राणीमात्र से मेरा बंधुत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाओं को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है।
प्रेमचंद इस बात को देख रहे थे कि भारतीय बुद्धिजीवी छोटी -छोटी लालचों से पे्ररित स्वाधीनता के आन्दोलन में भीतरघात कर रहे थे। प्रभुसेवक ऐसे ही बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधि पात्र है। प्रेमचंद की दृष्टि रंगभूमि में प्रचलित सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक मान्यताओं के प्रति विद्रोह को भी दिखाने की कोशिश की है। सोफिया कहती है - मुझे उस वस्तु से घृणा है जिसे लोग सफल जीवन कहते हैं। सफल जीवन पर्याय है खुशामद,अत्याचार और धूर्तता का। मैं जिन महात्माओं को संसार में श्रेष्ट सझती हूँ, उनके जीवन सफल न थे। सांसारिक दृष्टि से वे साधारण मनुष्यों से भी गए - गुजरे थे। जिन्होंने कष्ट झेले निर्वासित हुए,पत्थरों से मारे - कोसे गए और अंत में संसार उन्हें बिना आँसू के एक बूँद गिराए विदा कर दिया ....।
इस प्रकार प्रेमचंद सफलता और सार्थकता का नया मानदण्ड स्थापित करना चाहते हैं। जिन मूल्यों के आधार पर कोई व्यक्ति और समाज महात्म प्राप्त करता है वे कितने खोटे मूल्य हैं। क्या दुनिया इन्हीं झूठी मूल्यों - मान्यताओं में जीती रहेगी या जीवन सफलताओं के नये मानक निर्धारित होंगे?
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद की दृष्टि भारतीय जीवन की राग कड़ने की कोशिश करते है, जिसके केन्द में है स्वाधीन बैद्धिक चेतना,जिससे खोए हुए गरिमा को प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन सफलता,सार्थकता व स्वाधीनता के नये और वैकल्पिक वास्तविक मानदण्डों के साथ।
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