1
होने लगा है आजकल बेगाना शहर ।
हुआ जमाने संग रंग अनजाना शहर ।।
बुझ रही है संस्कृति पश्चिमी झोंकों से।
न जाने कब तक जलेगा परवाना शहर।।
रूकके बात करले दो घड़ी फुरसत नहीं।
दौड़े दिन भर सड़को पर दीवाना शहर।।
देर तक रात में शाम से खेलता रहा।
सुबह ने जाने क्या कहा वीराना शहर।।
रात के अंधेरे में करके मुॅह काला।
छपे अखबार मजेदार मस्ताना शहर।।
भॉग सूरज का भी न चढ़ा सकी खुमारी।
रखता है रात होंठ पे पैमाना शहर।।
हया हयात हवा से हो परेषान यहॉ।
लिख रहा रोज इक नया अफसाना शहर।।
2
जिंदा रहने के लिए आजकल हुनर होना।
यार बुलंदी के लिए वक्त की कदर होना।।
आँसु पीकर भी हम तो हॅसते हैं वरना।
मुस्कराने के लिए इंसॉ में जिगर होना।।
आज तो शीषे भी सच्चाइयॉ छुपाने लगे।
शीषा देखने को भी अब सही नजर होना।।
जाने कैसे तन्हा बिता लेते हैं लोग जिंदगी।
रंगतो के लिए कोई तो हमसफर होना।।
कैसे कोई खोल दे किसी के आगे दिल भला।
चर्चा के लिए यार कोई तो जिकर होना।।
3
जिंदगी से रोज मार खाते हैं लोग।
जाने फिर क्यों न सुधर पाते हैं लोग।।
दिखलाते दिल जैसे नीलगिरि के पेड़।
झोके से एक ही गिर जाते हैं लोग।।
खेलता है मकड़ियों का जाल भाल पर।
फिर भी मुस्काते गुजर जाते हैं लोग।।
सड़ते जंगल है बगावत की बू नहीं।
बनके ही सवा शेर घर आते हैं लोग।।
पैसों की पूजा में होम कर धर्म का।
इच्छा के अनुसार वर पाते है लोग।।
स्वारथ की छत पर से रिष्ते नातों की।
उड़ाते पतंगे नजर आते हैं लोग।।
होने लगा है आजकल बेगाना शहर ।
हुआ जमाने संग रंग अनजाना शहर ।।
बुझ रही है संस्कृति पश्चिमी झोंकों से।
न जाने कब तक जलेगा परवाना शहर।।
रूकके बात करले दो घड़ी फुरसत नहीं।
दौड़े दिन भर सड़को पर दीवाना शहर।।
देर तक रात में शाम से खेलता रहा।
सुबह ने जाने क्या कहा वीराना शहर।।
रात के अंधेरे में करके मुॅह काला।
छपे अखबार मजेदार मस्ताना शहर।।
भॉग सूरज का भी न चढ़ा सकी खुमारी।
रखता है रात होंठ पे पैमाना शहर।।
हया हयात हवा से हो परेषान यहॉ।
लिख रहा रोज इक नया अफसाना शहर।।
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जिंदा रहने के लिए आजकल हुनर होना।
यार बुलंदी के लिए वक्त की कदर होना।।
आँसु पीकर भी हम तो हॅसते हैं वरना।
मुस्कराने के लिए इंसॉ में जिगर होना।।
आज तो शीषे भी सच्चाइयॉ छुपाने लगे।
शीषा देखने को भी अब सही नजर होना।।
जाने कैसे तन्हा बिता लेते हैं लोग जिंदगी।
रंगतो के लिए कोई तो हमसफर होना।।
कैसे कोई खोल दे किसी के आगे दिल भला।
चर्चा के लिए यार कोई तो जिकर होना।।
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जिंदगी से रोज मार खाते हैं लोग।
जाने फिर क्यों न सुधर पाते हैं लोग।।
दिखलाते दिल जैसे नीलगिरि के पेड़।
झोके से एक ही गिर जाते हैं लोग।।
खेलता है मकड़ियों का जाल भाल पर।
फिर भी मुस्काते गुजर जाते हैं लोग।।
सड़ते जंगल है बगावत की बू नहीं।
बनके ही सवा शेर घर आते हैं लोग।।
पैसों की पूजा में होम कर धर्म का।
इच्छा के अनुसार वर पाते है लोग।।
स्वारथ की छत पर से रिष्ते नातों की।
उड़ाते पतंगे नजर आते हैं लोग।।
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