
चीखें चित्कारें हंगामे पुरज़ोर।
कृत्रिम आरोपों का ओर न छोर।।
बहरों की बस्ती में
सिसक रही भाषाएं।
लुटे हुए आँगन से
अब कैसी आशाएँ।
बासंती मौसम की
आँखों में पानी है
दुख से तो मानव की
मित्रता पुरानी है।
साँझ तो अभागन है विधवा है भोर।
प्रतिपीड़ित पीढ़ी पर
प्रश्नों के ढेर।
कौन राम खाएगा
शबरी के बेर।
हमसे तो अपनी ही
पूजा भी रुठी है।
अपनों की परिभाषा
सौ प्रतिशत झूठी है।
दंशित है अपना हर एक पौर - पौर।
पता -
एम - 516, पद्नाभपुर
दुर्ग - 491001 (छग)
मोबाईल : 9329416167
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