डॉ. सुरेन्द्र कुमार
'अछूत की शिकायत' : दलित समाज के शोषण एवं अत्याचारों का ऐतिहासिक घोषणा - पत्र
'अछूत की शिकायत' : दलित समाज के शोषण एवं अत्याचारों का ऐतिहासिक घोषणा - पत्र
सितम्बर 1914 में महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित प्रसिद्ध पत्रिका 'सरस्वती' में हीरो डोम द्वारा रचित कविता 'अछूत की शिकायत' शीर्षक से छपी। यह कविता भोजपुरी भाषा में रचित है। कई दृष्टियों से विशिष्ट इस कविता के सम्बन्ध में डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं - '' यह भोजपुरी में है और संभवत: उस भाषा में लिखी हुई यह एकमात्र कविता है जो द्विवेदी जी की 'सरस्वती ' में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी में इससे पहले और बाद में भी किसी डोम बन्धु की लिखी कविता मेरे देखने में नहीं आई।''
इसके लिए साहित्य समाज दोनों का सदैव ऋणी रहेगा। विशेषकर महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रति प्रशंसा और कृतज्ञता का भाव आ जाना सहज स्वाभाविक है। यह उनकी निष्पक्ष साहित्यिक व आलोचक दृष्टि का भी परिचायक हैं कि उन्होंने एक दलित द्वारा रचित कविता को अपनी सुप्रसिद्ध ' पत्रिका सरस्वती ' मेंं स्थान देकर उनका और साहित्य का सम्मान बढ़ाया। यह बहुत गौरव की बात है कि जिस पत्रिका में उस समय के दिग्गज साहित्यकार कवि, रचनाएँ छपवाने को तरसते थे। एक दलित कवि की कविता का सरस्वती में प्रकाशित होना इस बात की पुष्टि भी करता है कि यह कविता दोनों ही दृष्टियों से विषय और भाषा, बेजोड़ और उच्चकोटि की रही है। अगर ऐसा नहीं होता तो कदाचित द्विवेदी जी उसे अपनी पत्रिका में स्थान नहीं देते। इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस बात से भी हो जाता है कि उस समय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - जो बाद में युग कवि और शताब्दी के साहित्यकार कहलाये ने भी अपनी कुछ कविताओं को 'सरस्वती' पत्रिका में छपने के लिए भेजा था। द्विवेदी जी ने यह कहते हुए वापस लौटा दिया कि उनकी रचनाएँ निम्न स्तरीय का हैं। अत: यह तथ्य भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि भले ही निराला ने बाद में उच्चकोटि की रचनाएँ लिखी हों लेकिन उनकी आरंभिक रचनाएँ , विशेषकर वे रचनाएँ जो 'सरस्वती ' पत्रिका में छपने के लिए भेजी थीं। किसी भी दृष्टि से उत्कृष्ट रचनाएँ नहीं थीं। हीरा डोम की कविता का 'सरस्वती' में छपना ही उसके उत्कृष्ट होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह कविता शताब्दियों से चले आ रहे सवर्ण मानसिकता के इस मिथक को भी तोड़ती है कि दलितों की रचनात्मकता उच्चकोटि की नहीं होती।
सवर्ण मानसिकता तथ्य का खुलासा इस बात से भी हो जाता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 'सरस्वती' में छापे जाने पर डॉ. रामविलास शर्मा उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। लेकिन हीरा डोम की उत्कृष्ट रचनात्मकता के सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं कह पाते - यहाँ वे 'मौन ही अभिव्यंजना है ' की परम्परा का निर्वाह करते दिखाई देते हैं। वह यह भलीभाँति जानते थे कि 'सरस्वती' में किसी रचना के छपने का क्या मतलब होता है ? ऐसी तल्ख़ सच्चाइयों से वह हमेशा बच के निकल लेते हैं। अगर इसी तरह की कोई रचना 'निराला' की 'सरस्वती' में द्विवेदी जी छाप देते, तो यकीनन शर्मा जी उसकी उत्कृष्टता को लेकर पचासों पेज लिख देते। लेकिन हीरा डोम की कविता कितनी ही उच्चकोटि की क्यों न रही हो, एक शब्द नहीं बोले। लेकिन हीरा डोम और उनकी कविता की खोज का पूर्ण श्रेय उन्हीं को जाता है इसके लिए वे सदैव धन्यवाद के पात्र रहेंगे।
दलित समाज और हीरा डोम की कविता...!
दलित समाज वह समाज है जिसे समाज के प्रत्येक क्षेत्र से बहिष्कृत कर पशुतुल्य जीवन जीने के लिए अभिशप्त कर दिया गया है। मान-सम्मान, सुख-समृद्धि का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं है। समानता, स्वतंत्रता और अधिकार का जिनके जीवन में कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है तो बस दु:खों का, शोषण का, अपमान का और अन्तहीन अमानवीय अत्याचारों का।
हीरा डोम की कविता 'अछूत की शिकायत' दलित समाज पर हुए अन्तहीन अमानवीय अत्याचारों और शोषण का जीवन्त चित्रण प्रस्तुत करती है। यह दलित समाज का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है जो इतिहास में दर्ज सवर्ण समाज की उन ज्यादतियों का शिकायतनामा है जो शताब्दियों से वे दलित समाज पर करते रहे हैं!
यह कविता केवल शिकायतों का पुलिन्दा भर नहीं है बल्कि इतिहास के हवाले से उस वास्तविकता को उजागर कर उसका एहसास सवर्ण समाज को कराना था। हीरा डोम अपनी कविता के माध्यम से यह चेताना चाहते हैं कि अपने हित और स्वार्थ के चलते किसी भी कौम या समुदाय का दमन करना, उसे गुलाम बनाकर उसका मनमाना शोषण करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
वह सवर्णों के इस एहसास को जगाना चाहते थे कि जिस तरह हम सभी भारतवासी ब्रिटिश शासन के अधीन गुलामी का जीवन जी रहे थे। अंग्रेजी शासन हमारा मनमाना शोषण कर रहा था। सभी भारतीयों का स्वाभिमान दांव पर लगा हुआ था। अंग्रेज हमें असभ्य, बर्बर व जाहिल समझते थे। वे सभी देशवासियों को चाहे वह किसी जाति, धर्म व समुदाय का हो उनकी दृष्टि में पिछड़ा हुआ ही था। यही वह दंश था जो भारतीयों को बेचैन किए हुए था। ब्रिटिश शासन के इसी भेदभावपूर्ण दंश से छुटकारा पाने के लिए भारतीयों ;बौद्धिक वर्ग व आमजन ने अंग्रेजों को देश से निकालने की लड़ाई लड़ी। किसी को गुलाम बनाये रखने का क्या मतलब होता है और किसी भी व्यक्ति, समाज व देश के लिए गुलामी का क्या एहसास होता है? हीरा डोम गुलामी के इस कटु एहसास को जो शताब्दियों से वे झेलते आ रहे हैं भारतीय बौद्धिक वर्ग , शिक्षितजन को कराना चाहते थे।
साहित्य के जागरूक पाठक बुद्धिजीवी वर्ग का यहाँ यह सवाल उठना स्वाभाविक होगा कि हीरा डोम को उस समय दलित समाज की आशादी का प्रश्न खड़ा करने की क्या आवश्यकता थी जबकि समस्त भारतीय एकजुट हो स्वाधीनता आन्दोलन की लड़ाई के लिए अग्रसर थे। प्रत्युत्तर में मैं बता देना चाहता हूँ कि इससे पूर्व इतिहास में अंग्रेजी राज जैसी गुलामी और शोषण का समय भारतीयों के लिए कभी नहीं रहा। जो सवर्ण समाज दलितों को सदियों से गुलामी का जीवन जीने को मजबूर करता आ रहा था उसका मनमाना शोषण कर रहा था, उनके जीवन में अपमान और शिल्लत के सिवा कुछ नहीं था। बिल्कुल ऐसा ही अपमानपूर्ण और जिल्लत भरा जीवन अंग्रेजी राज में भारतीयों ने जीया। मात्र 200 वर्षों के दासतापूर्ण जीवन से भारतीय लोग बिलबिला उठे थे। यही बिलबिलाहट दलित समाज में सदियों से भरी हुई है। अत: कहना न्यायसंगत होगा कि ऐसे समय में ही बौद्धिक वर्ग को दलितों के उस नारकीय जीवन का एहसास कराया जा सकता था क्योंकि सवर्ण समाज भी उस समय उसी पीड़ा से गुज़र रहा था। अत: हीरा डोम व अन्य दलित लेखकों की शिकायत बिल्वुफल न्यायसंगत थी। आजादी की लड़ाई ही वह मंच था जहाँ से दलित मुक्ति की लड़ाई का बिगुल बजाना जरूरी था उसी के परिणामस्वरूप कालान्तर में भले ही धीरे-धीरे दलित समाज के जीवन में गतिशीलता का संचार हुआ। वही डॉ. अम्बेडकर के सुप्रयासों ने दलित समाज को सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित किया!
हीरा डोम की यह कविता मूलत: प्रतिरोधात्मक शैली में लिखी गई है। इस कविता में प्रतिरोध के विविध स्तर दृष्टिगत होते हैं। मसलन: राजनीतिक विरोध, धर्मिक विरोध, ईश्वरीय विरोध, अपफसरशाही व अन्य व्यवस्थाओं का विरोध आदि। हीरा डोम शोषण-चक्र के केवल बाहरी उपकरणों की बातेें नहीं करते बल्कि वह शोषण चक्र के आन्तरिक तंत्र की भी पड़ताल बड़ी सूक्ष्मता से करते हैं। उनका मानना है कि शोषण का यह चक्र क्षेत्राीय स्तर से लेकर सार्वभौम सत्ता ईश्वरीय सत्ता तक सक्रिय है। बचने का कोई मार्ग नहीं आता, यहाँ तक कि दलितों को ईश्वर का नाम लेना भी बेमानी हो गया है। हीरा डोम का कहना है कि जिस ईश्वर के संबंध में, ऐसी बातें कही जाती हैं। मसलन: ईश्वर की दृष्टि में सभी समान है, ईश्वर गरीबों का दाता है, वह दीनबन्धु है, वह गरीब है जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है। ईश्वर किसी तरह के भेदभाव में विश्वास नहीं रखते भक्तिकाल के सभी भक्त कवियों के यहाँ ईश्वर के सम्मान में ऐसी बातें कहीं गई हैं, आदि आदि।
लेकिन हीरा डोम भक्तिकाल से इतर ईश्वरीय सत्ता का एकदम नया और अलग भाष्य प्रस्तुत करते हैं जिससे ईश्वर का एक नया रूप हमारे समक्ष उभरता है। हीरा डोम ने मिथकीय पौराणिक, चरित्रों का प्रमाण देते हुए इस मिथ का खण्डन किया है कि ईश्वर गरीबों व मेहनतकशों का होता है। वह दीनबन्धु है। बल्कि यह सप्रमाण सिद्ध किया है कि ईश्वर गरीबों का नहीं, वह तो सदैव से अमीरों के घरों की शोभा बढ़ाता आया है और उन्हीं का होकर रह गया है। वह भी सवर्ण समाज की तरह दलितों की परछाई पड़ने और छूने से अपवित्र हो जाता है। इसलिए ईश्वर दलितों को छूने से, उन्हें गले लगाने से डरते हैं। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं!
''खंभवा के पफारि पहलाद के बचवले जाँ,
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
मरले खनवाँ के पलले भभिखना के ,
कानी अंगुरी पैफ पथरा उठवले।
कहवा सुतल बाटे, सुनत न बाटे अब,
डोम जानि हमनी वेफ छुए से डेरइले।।''
स्पष्ट है कि ईश्वर प्रहलाद, गजराज, द्रौपदी, विभीषण आदि की सहायता एवं उनको संरक्षण देने के लिए तो तत्पर रहते हैं क्योंकि ये सभी लोग उच्च वर्ग से संबंधित हैं। लेकिन जब बात हीरा डोम या उनके समाज के उद्धार या सहायता की होती है तो ईश्वर भी जिसे दीनबन्धु उन्हें अछूत समझकर पलायन कर जाते हैं। कैसी भयानक विडम्बना है कि जिस समाज को समान देने हेतु गांधी जी ने उन्हें 'हरिजन' यानी ईश्वर की संतान शब्द से नवाजा। वही ईश्वर अपनी संतान को छूने से भी डरता है। उपरोक्त सन्दर्भ से यह स्पष्ट हो जाता है कि अछूत की समस्या एक भयावह समस्या है। अस्पृश्यता की समस्या वेफ सन्दर्भ में महात्मा गाँध्ी और अम्बेडकर का स्मरण होना सहज स्वाभाविक ही है। दोनों ने ही इस समस्या वेफ निवारण हेतु अथक सुप्रयास किए। दोनों ही विचारकों ने इसे मनुष्यता एवं समाज मस्तिष्क पर ऐसा ध्ब्बा माना जिसे धेए बिना समाज की कलुषता का मिट पाना असंभव था। महात्मा गाँधी तो इसे कई सिरों वाला दैत्य समझते थे वह कहते हैं - ''अस्पृश्यता कई सिरों वाला दैत्य है। इसलिए यह जरूरी है कि जब - जब अपना वह सिर उठाए उसे तभी कुचल दिया जाए।''
अस्पृश्यता को बढ़ावा देना देशद्रोह के समान है। इस संदर्भ में उनकी चिंता देखी जा सकती है - ''अगर किसी को सिर्फ इसलिए किसी - दूसरे व्यक्ति के साथ संपर्क रखने में आपत्ति है कि वह किसी जाति - विशेष में पैदा हुआ है। उसका यह बरताव प्राकृतिक धर्म के , अनुकंपा की भावना के और जिसे हम सच्चे अर्थ में शास्त्र कहते हैं उसके भी प्रतिकूल है। ... उनको नफरत की निगाह से देखना, उन्हें गाँव से दूर रहने के लिए मजबूर करना, सफाई से रहने के साधनों तक उनकी पहुँच को असंभव या मुश्किल बना देना और फिर गंदे रहने के लिए उनकी भर्त्सना करना तो अन्याय की पराकाष्ठा है।''
मनुष्य, मनुष्य, पिछड़ी जाति के अस्पृश्य माने, तो कहा जा सकता है कि वह बुद्धि एवं हृदय से बदहाल व कुंठित है। लेकिन ईश्वर भी दलितों को छूने से डरे तो, यकीनन यह 'अन्याय की पराकाष्ठा' है।
अम्बेडकर इसी वजह से हिन्दू धर्म को 'पैशाचिक धर्म'' कहते थे। उनका मानना था कि यह किसी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं है कि एक समाज दलित के लोगों को 'अस्पृश्य ' मान धर्म और ईश्वर के नाम पर पशुतुल्य जीवन जीने को अभिशप्त कर दिया जाए। यह बात गैर तार्किक और पूर्ण रूप से सामाजिक न्याय की अवधरणा मनुष्य की समानता के विरुद्ध है।
शायद इन्हीं कारणों से अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म की जातिगत व वर्गगत जकड़ बंधियों से निजात् पाने के लिए धर्म परिवर्तन को जायज माना। उनका कहना था कि जो धर्म मनुष्य को बराबरी का दर्जा नहीं दे सकता, उसके मान - सम्मान व स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता, उसे सामाजिक व आर्थिक न्याय से वंचित रखता है, उसके विकास व कल्याण में बाधक बनता है वह किसी भी दृष्टि से धर्म नहीं कहा जा सकता। जबकि धर्म अपनी मूल प्रकृति में सामूहिक विकास की चेतना पर आधरित होता है। दुनिया का कोई भी धर्म इंसानियत के विरुद्ध नहीं हो सकता। वह मनुष्य के सर्वांगीण कल्याण का द्योतक है। यहाँ अम्बेडकर का निहितार्थ हिन्दू धर्म में निहित बुराइयों की पराकाष्ठा से है। इन्हीं बुराइयों से दु:खी होकर उन्होंने धर्म परिवर्तन का मार्ग चुना।
यहाँ हीरा डोम की धर्म संबंधी धारणा का जायजा लेना कदाचित उचित होगा। उनकी धर्म संबंधी धारणा कविता की इन पंक्तियों में फलीभूत हुई हैं। यथा -
''पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधर्म होके रंगरेज बनि जाइबि।
हाय राम। धर्म न छोड़त बनत बाजे,
बे-धर्म होके कैसे मुंहवा देखाइबि।।''
हीरा डोम उपरोक्त पंक्तियों में धर्म का तत्कालीन ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत करते हैं। इस दौर में धर्म परिवर्तन आम हो गया था। कभी मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं की जबरन सुन्नत की जाती थी। कभी इसाई धर्म के प्रचारकों, पादरियों द्वारा पिछड़ी जातियों को उनकी दशा ;धर्मिक सुधरने का प्रलोभन देकर उनका धर्म परिवर्तन किया जाता था। हीरा डोम ऐसी घटिया मानसिकता रखने वाले शासकों व पादरियों की घोर आलोचना करते हैं। वह बड़े सहज रूप से यह स्वीकार करते हैं कि अगर कोई व्यक्ति या जाति स्वेच्छा से अपना धर्मान्तरण करना चाहती है तो इसमें गलत कुछ नहीं है। लेकिन किसी धार्मिक समुदाय या शासकों को यह कतई शोभा नहीं देता कि वह किसी को जबरन या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन करने पर आमदा हो। उनका मानना है कि धर्म परिवर्तन करने से वाजिब तो मारना है।
यहाँ विचारणीय है कि हीरा डोम धर्मांन्तरण के पक्ष में कतई नहीं है। यहाँ उनकी धारणा कुछ -कुछ गाँधी की धर्म -संबंध्ाी इस धरणा से मेल खाती है कि धर्म परिवर्तन किसी भी व्यक्ति या जाति के लिए स्थायी समाधन नहीं है क्योंकि धर्मान्तरण के पश्चात् भी जातिय और वर्णीय भेदभाव की समस्या पीछा नहीं छोड़ेती। इससे बेहतर है कि पूरी ताकत, शिद्दत और स्वच्छ भावना के साथ धर्म की विकृतियों को दूर किया जाना चाहिए। गाँधी जी का मानना है कि वर्तमान बौद्धिक युग में धर्म को तर्क और न्याय की कसौटी पर खरा उतरना होगा तभी उसको सार्वभौमिक स्वीकृति मिल सकती है। यथा - ''हर धर्म के हर नियम को आज के बौद्धिक युग में तर्क की कसौटी पर खरा उतरना होगा... और अगर उसे सार्वभौमिक स्वीकृति पानी है तो सार्वभौम न्याय की भी कसौटी पर भी।
दलितों के मसीहा डॉ. अम्बेडकर की मूल चिंता का कारण यहाँ तक कि धर्मान्तरण हिन्दू धर्म की विकृतियाँ थीं जिनके चलते हिन्दू धर्म का सात्विक रूप छिप गया था उन्हें लगता था कि इन विकृतियों के चलते हिन्दू धर्म इतना जड़वत हो गया है कि उसमें किसी भी तरह के सुधर की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती। इसी कारण उन्हें धर्मान्तरण अधिक आसान मार्ग लगा। धर्म हिन्दू, की विकृतियों से बचने का। गाँधी जी ने भी यह सहज रूप से स्वीकार किया कि हिन्दू धर्म विकृतियों का दास बन चुका है। यथा - ''मुझे तो धर्म प्यारा है इसलिए पहला दु:ख मुझे यह है कि हिन्दुस्तान धर्म भ्रष्ट होता जा रहा है।''
डॉ. राधकृष्णन भी हिन्दू धर्म की इस शोचनीय दशा से भलीभाँति अवगत थे। यथा - ''हिन्दू धर्म अब कितना कम जीवन्त है। जहाँ कभी जीवन की धरा उमड़ती थी वहाँ अब जड़ता का राज है।''
उपरोक्त दोनों मत इस बात की पुष्टि करते हैं कि अपनी विकृतियों व कर्मकांडों के कारण हिन्दू धर्म अत्यन्त शोचनीय अवस्था को प्राप्त हो चुका था जिसमें सुधार की गुंजाइश शेष नहीं रह गयी थी। इस दृष्टि से अम्बेडकर का धर्मान्तरण हेतु उठाया गया कदम एकदम न्यायसंगत प्रतीत होता है।
'अछूत की शिकायत' कविता सर्वहारा वर्ग चेतना से अनुप्राणित कविता है। मुख्यत: ग्रामीण क्षेत्रों में यह वर्गीय चेतना मुखर रूप से उभरी है। गाँवों में जमींदार, महाजन और साहूकार दलित समाज को तरह-तरह के हथवंफडे अपनाकर सताते हैं। कई बार तो उनका यह सताना उनकी जान भी ले लेता है। दिन-रात उनके खेत - खलिहानों में काम करने वाले परिश्रम वर्ग की चिंताओं का खुलासा हीरा डोम इन पंक्तियों में करते हैं -
''हमनी के राति-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेबे से गिनती सुनाइवि।
हमनी के दुख भगवनओं ने देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइवि।।''
हीरा डोम भगवान से दीनबन्धु से खासे निराश नज़र आते हैं उनकी यह नाराज़गी जायज भी लगती है। वह इसलिए कि उन पर अत्याचार पर अत्याचार हो रहे हैं वह भी अमानवीय तरीके से, तब भी गरीब नेवाश ईश्वर उनके दु:खों से मुँह फेरे हुए है ऐसी संकट की घड़ी में उनकी कोई सुध् नहीं ले रहे हैं। जब ईश्वर ही दु:खों से उबारने में असमर्थ समझ रहे हैं तब दलित समाज के कष्टों का निवारण किस तरह संभव हो? वह हीरा डोम अन्तिम पंक्ति में भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग से यह प्रश्न पूछते हैं कि आखिर कब तक हमें ये क्लेश उठाने पड़ेंगे? कब वह समय आयेगा जब हमारे समाज के भी दिन बहुरेंगे।
वह शिक्षितजनों और उच्चवर्गों से जवाब - तलब करते हुए कहते हैं कि यह कैसी विडम्बना है कि आप केवल दो वर्षों की गुलामी से ही तिलमिला गये और आज़ादी पाने की गुहार लगाने लगे। वही हम शताब्दियों से आप लोगों की गुलामी में जी रहे हैं, हमारा दु:ख दु:ख नहीं, आपका दु:ख दु:ख है। जो रात दिन मेहनत करे, बेगार करे वह केवल दु:ख भोगे और जो शोषण करे, अत्याचार करे, वह सारे सुख-भोगे, सुख-समृद्धि उसके घर की दासी बनी रहे और हमारे घर फांके पड़े रहे! यथा -
''हमनी के राति-दिन मेहनत करीलेजां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कलि खबरि सरकार के सुनाइबि।।''
परिश्रम करने वाले परिवारों व जातियों का जीवन 'रोज़ कुआँ खोदना और रोज पानी पीना' की तर्ज पर अग्रसर होता है। कड़ी मेहनत के बाद जो भी रूखा - सुखा बन पड़ता है उसे परिवार में बाँट कर खाया - पीया जाता है। मार्क्सवादी दर्शन भी मानता है कि वंचित वर्ग हमेशा से ही कठोर परिश्रम करता आ रहा है लेकिन उसे उसकी मेहनत के एवज में दो वक्त की रोटी भी सही से नसीब नहीं हो पाती। यानी जो सभी चीजों का निर्माण ,उत्पादन करता है वह वर्ग उन्हीं चीजों के उपभोग से वंचित रहता है जबकि सवर्ण, उच्च समाज का मेहनत से कोई लेना-देना नहीं होता पिफर भी वह उत्पादित चीजों का उपभोग करता है और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करता है।
भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था उसी व्यवसाय को अपनाने या करने को बाध्य करती है जो पैतृक हो मसलन ब्राह्मण है तो धार्मिक पूजा - पाठ करेगा। क्षत्रिय है तो रक्षा का भार उस पर होगा, वैश्य है तो व्यापार करेगा और शूद्र है तो शारीरिक कष्ट उठाकर अन्य तीनों वर्णों की सेवा करेगा और अपने पैतृक व्यवसाय साफ - सफाई और जानवरों की खाल निकालेगा।
हीरा डोम साफ - साफ शब्दों में कहते हैं। न तो हम ब्राह्मण की भाँति भीख मागेंगे, न ठाकुरों की तरह गाड़ी ;लाठी चलायेंगे, न भट्ट कवि की भाँति कवित्ता सुनायेंगे और न ही अहीर की तरह गाय चरायेंगे। क्योंकि हमारे नसीब में तो कठोर परिश्रम करना लिखा है जिससे किसी तरह घर का गुज़र-बसर हो जाता है। यह कविता अपने कलेवर में उन सभी अमानवीय एवं त्रासद स्थितियों एवं परिस्थितियों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती है जो दलित समाज पर हुए अत्याचारों का खुलासा करती हैं। दलित समाज की घुटन, उदासी, बेचैनी, आक्रोश, प्रताड़ना, शोषण और अन्तहीन संघर्ष के विभिन्न आयामों को यह कविता अपने अन्तर में समेटे हुए है। दलित समाज के पास अपनी तल्ख़ सच्चाइयों के अनुभवों के अतिरिक्त कुछ भी ऐसा नहीं हैं जिस पर वह गर्व कर सके। जिस समाज को कुएँ से साफ पानी पीने की मनाही हो, साफ - सुन्दर वस्त्र पहनने की मनाही हो, जिसे सजने - संवरने का, सुन्दर दिखने का, अच्छा भोजन करने का, सिर उठाकर सम्मान के साथ चलने का अधिकार प्राप्त न हो उस जाति का इतिहास कैसे गौरवशाली हो सकता है। हीरा डोम भी कबीर की तरह समाज से प्रश्न करते हैं कि जिस हाड़ - मांस से ब्राह्मण का शरीर निर्मित हुआ है उसी हाड़ - मांस से हमारा भी शरीर बना है फिर किस कारणों के चलते, ब्राह्मण तो समाज में पूजनीय हो, सम्मान पाता है। जबकि दलित ;पिछड़ी जाति के लोगों को इस सम्मान से वंचित रखा जाता है बल्कि मार-पीट कर उनके हाथ-पैर तोड़ दिये जाते हैं। यही नहीं उन्हें पूर्ण रूप से समाज से बहिष्कृत कर अमानवीय एवं अपमानजनक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। इस स्थिति की जीवंत झाँकी दृष्टव्य है -
''हड़वा मुसइया कै दहिया है हमनी के,
औकरै कै दहिया बभनओं के बानी।
औकरा के ध्रे-ध्रे पूजवा होखत बाजे,
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
------
पनहीं से पिटि-पिटि हाथ-गौड़ तुरि दैलैं
हमनी के एतनी काही के हलकानी।''
हीरा डोम ने अपनी कविता में उन ऐतिहासिक स्थितियों एवं परिस्थितियों को रेखांकित किया है जिन्होंने दलित समाज को दासता का जीवन जीने के लिए अभिशप्त बनाये रखा। गाँव से लेकर शहर तक शोषण की प्रत्येक व्यवस्था एवं शोषण वेफ सभी छोटे-बड़े भौतिक-मानसिक चक्रव्यूहों एवं उपकरणों की पड़ताल हीरा डोम ने बड़ी गहराई से की है। दलित समाज के सदियों के संताप का जीवन्त उदाहरण उनकी यह कविता है। उत्तर भारत की लोकभाषा में दलित जीवन की अनुभूति एवं संवेदना का इतना मार्मिक एवं वेदनापरक चित्रण अन्य किसी दलित कविता में नज़र नहीं आता। अन्तत: यह स्वाभाविक एवं निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि हीरा डोम की यह कविता 'अछूत की शिकायत' दलित समाज पर हुए शोषण एवं अत्याचारों का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है।
इसके लिए साहित्य समाज दोनों का सदैव ऋणी रहेगा। विशेषकर महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रति प्रशंसा और कृतज्ञता का भाव आ जाना सहज स्वाभाविक है। यह उनकी निष्पक्ष साहित्यिक व आलोचक दृष्टि का भी परिचायक हैं कि उन्होंने एक दलित द्वारा रचित कविता को अपनी सुप्रसिद्ध ' पत्रिका सरस्वती ' मेंं स्थान देकर उनका और साहित्य का सम्मान बढ़ाया। यह बहुत गौरव की बात है कि जिस पत्रिका में उस समय के दिग्गज साहित्यकार कवि, रचनाएँ छपवाने को तरसते थे। एक दलित कवि की कविता का सरस्वती में प्रकाशित होना इस बात की पुष्टि भी करता है कि यह कविता दोनों ही दृष्टियों से विषय और भाषा, बेजोड़ और उच्चकोटि की रही है। अगर ऐसा नहीं होता तो कदाचित द्विवेदी जी उसे अपनी पत्रिका में स्थान नहीं देते। इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस बात से भी हो जाता है कि उस समय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - जो बाद में युग कवि और शताब्दी के साहित्यकार कहलाये ने भी अपनी कुछ कविताओं को 'सरस्वती' पत्रिका में छपने के लिए भेजा था। द्विवेदी जी ने यह कहते हुए वापस लौटा दिया कि उनकी रचनाएँ निम्न स्तरीय का हैं। अत: यह तथ्य भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि भले ही निराला ने बाद में उच्चकोटि की रचनाएँ लिखी हों लेकिन उनकी आरंभिक रचनाएँ , विशेषकर वे रचनाएँ जो 'सरस्वती ' पत्रिका में छपने के लिए भेजी थीं। किसी भी दृष्टि से उत्कृष्ट रचनाएँ नहीं थीं। हीरा डोम की कविता का 'सरस्वती' में छपना ही उसके उत्कृष्ट होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह कविता शताब्दियों से चले आ रहे सवर्ण मानसिकता के इस मिथक को भी तोड़ती है कि दलितों की रचनात्मकता उच्चकोटि की नहीं होती।
सवर्ण मानसिकता तथ्य का खुलासा इस बात से भी हो जाता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 'सरस्वती' में छापे जाने पर डॉ. रामविलास शर्मा उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। लेकिन हीरा डोम की उत्कृष्ट रचनात्मकता के सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं कह पाते - यहाँ वे 'मौन ही अभिव्यंजना है ' की परम्परा का निर्वाह करते दिखाई देते हैं। वह यह भलीभाँति जानते थे कि 'सरस्वती' में किसी रचना के छपने का क्या मतलब होता है ? ऐसी तल्ख़ सच्चाइयों से वह हमेशा बच के निकल लेते हैं। अगर इसी तरह की कोई रचना 'निराला' की 'सरस्वती' में द्विवेदी जी छाप देते, तो यकीनन शर्मा जी उसकी उत्कृष्टता को लेकर पचासों पेज लिख देते। लेकिन हीरा डोम की कविता कितनी ही उच्चकोटि की क्यों न रही हो, एक शब्द नहीं बोले। लेकिन हीरा डोम और उनकी कविता की खोज का पूर्ण श्रेय उन्हीं को जाता है इसके लिए वे सदैव धन्यवाद के पात्र रहेंगे।
दलित समाज और हीरा डोम की कविता...!
दलित समाज वह समाज है जिसे समाज के प्रत्येक क्षेत्र से बहिष्कृत कर पशुतुल्य जीवन जीने के लिए अभिशप्त कर दिया गया है। मान-सम्मान, सुख-समृद्धि का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं है। समानता, स्वतंत्रता और अधिकार का जिनके जीवन में कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है तो बस दु:खों का, शोषण का, अपमान का और अन्तहीन अमानवीय अत्याचारों का।
हीरा डोम की कविता 'अछूत की शिकायत' दलित समाज पर हुए अन्तहीन अमानवीय अत्याचारों और शोषण का जीवन्त चित्रण प्रस्तुत करती है। यह दलित समाज का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है जो इतिहास में दर्ज सवर्ण समाज की उन ज्यादतियों का शिकायतनामा है जो शताब्दियों से वे दलित समाज पर करते रहे हैं!
यह कविता केवल शिकायतों का पुलिन्दा भर नहीं है बल्कि इतिहास के हवाले से उस वास्तविकता को उजागर कर उसका एहसास सवर्ण समाज को कराना था। हीरा डोम अपनी कविता के माध्यम से यह चेताना चाहते हैं कि अपने हित और स्वार्थ के चलते किसी भी कौम या समुदाय का दमन करना, उसे गुलाम बनाकर उसका मनमाना शोषण करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
वह सवर्णों के इस एहसास को जगाना चाहते थे कि जिस तरह हम सभी भारतवासी ब्रिटिश शासन के अधीन गुलामी का जीवन जी रहे थे। अंग्रेजी शासन हमारा मनमाना शोषण कर रहा था। सभी भारतीयों का स्वाभिमान दांव पर लगा हुआ था। अंग्रेज हमें असभ्य, बर्बर व जाहिल समझते थे। वे सभी देशवासियों को चाहे वह किसी जाति, धर्म व समुदाय का हो उनकी दृष्टि में पिछड़ा हुआ ही था। यही वह दंश था जो भारतीयों को बेचैन किए हुए था। ब्रिटिश शासन के इसी भेदभावपूर्ण दंश से छुटकारा पाने के लिए भारतीयों ;बौद्धिक वर्ग व आमजन ने अंग्रेजों को देश से निकालने की लड़ाई लड़ी। किसी को गुलाम बनाये रखने का क्या मतलब होता है और किसी भी व्यक्ति, समाज व देश के लिए गुलामी का क्या एहसास होता है? हीरा डोम गुलामी के इस कटु एहसास को जो शताब्दियों से वे झेलते आ रहे हैं भारतीय बौद्धिक वर्ग , शिक्षितजन को कराना चाहते थे।
साहित्य के जागरूक पाठक बुद्धिजीवी वर्ग का यहाँ यह सवाल उठना स्वाभाविक होगा कि हीरा डोम को उस समय दलित समाज की आशादी का प्रश्न खड़ा करने की क्या आवश्यकता थी जबकि समस्त भारतीय एकजुट हो स्वाधीनता आन्दोलन की लड़ाई के लिए अग्रसर थे। प्रत्युत्तर में मैं बता देना चाहता हूँ कि इससे पूर्व इतिहास में अंग्रेजी राज जैसी गुलामी और शोषण का समय भारतीयों के लिए कभी नहीं रहा। जो सवर्ण समाज दलितों को सदियों से गुलामी का जीवन जीने को मजबूर करता आ रहा था उसका मनमाना शोषण कर रहा था, उनके जीवन में अपमान और शिल्लत के सिवा कुछ नहीं था। बिल्कुल ऐसा ही अपमानपूर्ण और जिल्लत भरा जीवन अंग्रेजी राज में भारतीयों ने जीया। मात्र 200 वर्षों के दासतापूर्ण जीवन से भारतीय लोग बिलबिला उठे थे। यही बिलबिलाहट दलित समाज में सदियों से भरी हुई है। अत: कहना न्यायसंगत होगा कि ऐसे समय में ही बौद्धिक वर्ग को दलितों के उस नारकीय जीवन का एहसास कराया जा सकता था क्योंकि सवर्ण समाज भी उस समय उसी पीड़ा से गुज़र रहा था। अत: हीरा डोम व अन्य दलित लेखकों की शिकायत बिल्वुफल न्यायसंगत थी। आजादी की लड़ाई ही वह मंच था जहाँ से दलित मुक्ति की लड़ाई का बिगुल बजाना जरूरी था उसी के परिणामस्वरूप कालान्तर में भले ही धीरे-धीरे दलित समाज के जीवन में गतिशीलता का संचार हुआ। वही डॉ. अम्बेडकर के सुप्रयासों ने दलित समाज को सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित किया!
हीरा डोम की यह कविता मूलत: प्रतिरोधात्मक शैली में लिखी गई है। इस कविता में प्रतिरोध के विविध स्तर दृष्टिगत होते हैं। मसलन: राजनीतिक विरोध, धर्मिक विरोध, ईश्वरीय विरोध, अपफसरशाही व अन्य व्यवस्थाओं का विरोध आदि। हीरा डोम शोषण-चक्र के केवल बाहरी उपकरणों की बातेें नहीं करते बल्कि वह शोषण चक्र के आन्तरिक तंत्र की भी पड़ताल बड़ी सूक्ष्मता से करते हैं। उनका मानना है कि शोषण का यह चक्र क्षेत्राीय स्तर से लेकर सार्वभौम सत्ता ईश्वरीय सत्ता तक सक्रिय है। बचने का कोई मार्ग नहीं आता, यहाँ तक कि दलितों को ईश्वर का नाम लेना भी बेमानी हो गया है। हीरा डोम का कहना है कि जिस ईश्वर के संबंध में, ऐसी बातें कही जाती हैं। मसलन: ईश्वर की दृष्टि में सभी समान है, ईश्वर गरीबों का दाता है, वह दीनबन्धु है, वह गरीब है जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है। ईश्वर किसी तरह के भेदभाव में विश्वास नहीं रखते भक्तिकाल के सभी भक्त कवियों के यहाँ ईश्वर के सम्मान में ऐसी बातें कहीं गई हैं, आदि आदि।
लेकिन हीरा डोम भक्तिकाल से इतर ईश्वरीय सत्ता का एकदम नया और अलग भाष्य प्रस्तुत करते हैं जिससे ईश्वर का एक नया रूप हमारे समक्ष उभरता है। हीरा डोम ने मिथकीय पौराणिक, चरित्रों का प्रमाण देते हुए इस मिथ का खण्डन किया है कि ईश्वर गरीबों व मेहनतकशों का होता है। वह दीनबन्धु है। बल्कि यह सप्रमाण सिद्ध किया है कि ईश्वर गरीबों का नहीं, वह तो सदैव से अमीरों के घरों की शोभा बढ़ाता आया है और उन्हीं का होकर रह गया है। वह भी सवर्ण समाज की तरह दलितों की परछाई पड़ने और छूने से अपवित्र हो जाता है। इसलिए ईश्वर दलितों को छूने से, उन्हें गले लगाने से डरते हैं। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं!
''खंभवा के पफारि पहलाद के बचवले जाँ,
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
मरले खनवाँ के पलले भभिखना के ,
कानी अंगुरी पैफ पथरा उठवले।
कहवा सुतल बाटे, सुनत न बाटे अब,
डोम जानि हमनी वेफ छुए से डेरइले।।''
स्पष्ट है कि ईश्वर प्रहलाद, गजराज, द्रौपदी, विभीषण आदि की सहायता एवं उनको संरक्षण देने के लिए तो तत्पर रहते हैं क्योंकि ये सभी लोग उच्च वर्ग से संबंधित हैं। लेकिन जब बात हीरा डोम या उनके समाज के उद्धार या सहायता की होती है तो ईश्वर भी जिसे दीनबन्धु उन्हें अछूत समझकर पलायन कर जाते हैं। कैसी भयानक विडम्बना है कि जिस समाज को समान देने हेतु गांधी जी ने उन्हें 'हरिजन' यानी ईश्वर की संतान शब्द से नवाजा। वही ईश्वर अपनी संतान को छूने से भी डरता है। उपरोक्त सन्दर्भ से यह स्पष्ट हो जाता है कि अछूत की समस्या एक भयावह समस्या है। अस्पृश्यता की समस्या वेफ सन्दर्भ में महात्मा गाँध्ी और अम्बेडकर का स्मरण होना सहज स्वाभाविक ही है। दोनों ने ही इस समस्या वेफ निवारण हेतु अथक सुप्रयास किए। दोनों ही विचारकों ने इसे मनुष्यता एवं समाज मस्तिष्क पर ऐसा ध्ब्बा माना जिसे धेए बिना समाज की कलुषता का मिट पाना असंभव था। महात्मा गाँधी तो इसे कई सिरों वाला दैत्य समझते थे वह कहते हैं - ''अस्पृश्यता कई सिरों वाला दैत्य है। इसलिए यह जरूरी है कि जब - जब अपना वह सिर उठाए उसे तभी कुचल दिया जाए।''
अस्पृश्यता को बढ़ावा देना देशद्रोह के समान है। इस संदर्भ में उनकी चिंता देखी जा सकती है - ''अगर किसी को सिर्फ इसलिए किसी - दूसरे व्यक्ति के साथ संपर्क रखने में आपत्ति है कि वह किसी जाति - विशेष में पैदा हुआ है। उसका यह बरताव प्राकृतिक धर्म के , अनुकंपा की भावना के और जिसे हम सच्चे अर्थ में शास्त्र कहते हैं उसके भी प्रतिकूल है। ... उनको नफरत की निगाह से देखना, उन्हें गाँव से दूर रहने के लिए मजबूर करना, सफाई से रहने के साधनों तक उनकी पहुँच को असंभव या मुश्किल बना देना और फिर गंदे रहने के लिए उनकी भर्त्सना करना तो अन्याय की पराकाष्ठा है।''
मनुष्य, मनुष्य, पिछड़ी जाति के अस्पृश्य माने, तो कहा जा सकता है कि वह बुद्धि एवं हृदय से बदहाल व कुंठित है। लेकिन ईश्वर भी दलितों को छूने से डरे तो, यकीनन यह 'अन्याय की पराकाष्ठा' है।
अम्बेडकर इसी वजह से हिन्दू धर्म को 'पैशाचिक धर्म'' कहते थे। उनका मानना था कि यह किसी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं है कि एक समाज दलित के लोगों को 'अस्पृश्य ' मान धर्म और ईश्वर के नाम पर पशुतुल्य जीवन जीने को अभिशप्त कर दिया जाए। यह बात गैर तार्किक और पूर्ण रूप से सामाजिक न्याय की अवधरणा मनुष्य की समानता के विरुद्ध है।
शायद इन्हीं कारणों से अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म की जातिगत व वर्गगत जकड़ बंधियों से निजात् पाने के लिए धर्म परिवर्तन को जायज माना। उनका कहना था कि जो धर्म मनुष्य को बराबरी का दर्जा नहीं दे सकता, उसके मान - सम्मान व स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता, उसे सामाजिक व आर्थिक न्याय से वंचित रखता है, उसके विकास व कल्याण में बाधक बनता है वह किसी भी दृष्टि से धर्म नहीं कहा जा सकता। जबकि धर्म अपनी मूल प्रकृति में सामूहिक विकास की चेतना पर आधरित होता है। दुनिया का कोई भी धर्म इंसानियत के विरुद्ध नहीं हो सकता। वह मनुष्य के सर्वांगीण कल्याण का द्योतक है। यहाँ अम्बेडकर का निहितार्थ हिन्दू धर्म में निहित बुराइयों की पराकाष्ठा से है। इन्हीं बुराइयों से दु:खी होकर उन्होंने धर्म परिवर्तन का मार्ग चुना।
यहाँ हीरा डोम की धर्म संबंधी धारणा का जायजा लेना कदाचित उचित होगा। उनकी धर्म संबंधी धारणा कविता की इन पंक्तियों में फलीभूत हुई हैं। यथा -
''पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधर्म होके रंगरेज बनि जाइबि।
हाय राम। धर्म न छोड़त बनत बाजे,
बे-धर्म होके कैसे मुंहवा देखाइबि।।''
हीरा डोम उपरोक्त पंक्तियों में धर्म का तत्कालीन ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत करते हैं। इस दौर में धर्म परिवर्तन आम हो गया था। कभी मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं की जबरन सुन्नत की जाती थी। कभी इसाई धर्म के प्रचारकों, पादरियों द्वारा पिछड़ी जातियों को उनकी दशा ;धर्मिक सुधरने का प्रलोभन देकर उनका धर्म परिवर्तन किया जाता था। हीरा डोम ऐसी घटिया मानसिकता रखने वाले शासकों व पादरियों की घोर आलोचना करते हैं। वह बड़े सहज रूप से यह स्वीकार करते हैं कि अगर कोई व्यक्ति या जाति स्वेच्छा से अपना धर्मान्तरण करना चाहती है तो इसमें गलत कुछ नहीं है। लेकिन किसी धार्मिक समुदाय या शासकों को यह कतई शोभा नहीं देता कि वह किसी को जबरन या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन करने पर आमदा हो। उनका मानना है कि धर्म परिवर्तन करने से वाजिब तो मारना है।
यहाँ विचारणीय है कि हीरा डोम धर्मांन्तरण के पक्ष में कतई नहीं है। यहाँ उनकी धारणा कुछ -कुछ गाँधी की धर्म -संबंध्ाी इस धरणा से मेल खाती है कि धर्म परिवर्तन किसी भी व्यक्ति या जाति के लिए स्थायी समाधन नहीं है क्योंकि धर्मान्तरण के पश्चात् भी जातिय और वर्णीय भेदभाव की समस्या पीछा नहीं छोड़ेती। इससे बेहतर है कि पूरी ताकत, शिद्दत और स्वच्छ भावना के साथ धर्म की विकृतियों को दूर किया जाना चाहिए। गाँधी जी का मानना है कि वर्तमान बौद्धिक युग में धर्म को तर्क और न्याय की कसौटी पर खरा उतरना होगा तभी उसको सार्वभौमिक स्वीकृति मिल सकती है। यथा - ''हर धर्म के हर नियम को आज के बौद्धिक युग में तर्क की कसौटी पर खरा उतरना होगा... और अगर उसे सार्वभौमिक स्वीकृति पानी है तो सार्वभौम न्याय की भी कसौटी पर भी।
दलितों के मसीहा डॉ. अम्बेडकर की मूल चिंता का कारण यहाँ तक कि धर्मान्तरण हिन्दू धर्म की विकृतियाँ थीं जिनके चलते हिन्दू धर्म का सात्विक रूप छिप गया था उन्हें लगता था कि इन विकृतियों के चलते हिन्दू धर्म इतना जड़वत हो गया है कि उसमें किसी भी तरह के सुधर की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती। इसी कारण उन्हें धर्मान्तरण अधिक आसान मार्ग लगा। धर्म हिन्दू, की विकृतियों से बचने का। गाँधी जी ने भी यह सहज रूप से स्वीकार किया कि हिन्दू धर्म विकृतियों का दास बन चुका है। यथा - ''मुझे तो धर्म प्यारा है इसलिए पहला दु:ख मुझे यह है कि हिन्दुस्तान धर्म भ्रष्ट होता जा रहा है।''
डॉ. राधकृष्णन भी हिन्दू धर्म की इस शोचनीय दशा से भलीभाँति अवगत थे। यथा - ''हिन्दू धर्म अब कितना कम जीवन्त है। जहाँ कभी जीवन की धरा उमड़ती थी वहाँ अब जड़ता का राज है।''
उपरोक्त दोनों मत इस बात की पुष्टि करते हैं कि अपनी विकृतियों व कर्मकांडों के कारण हिन्दू धर्म अत्यन्त शोचनीय अवस्था को प्राप्त हो चुका था जिसमें सुधार की गुंजाइश शेष नहीं रह गयी थी। इस दृष्टि से अम्बेडकर का धर्मान्तरण हेतु उठाया गया कदम एकदम न्यायसंगत प्रतीत होता है।
'अछूत की शिकायत' कविता सर्वहारा वर्ग चेतना से अनुप्राणित कविता है। मुख्यत: ग्रामीण क्षेत्रों में यह वर्गीय चेतना मुखर रूप से उभरी है। गाँवों में जमींदार, महाजन और साहूकार दलित समाज को तरह-तरह के हथवंफडे अपनाकर सताते हैं। कई बार तो उनका यह सताना उनकी जान भी ले लेता है। दिन-रात उनके खेत - खलिहानों में काम करने वाले परिश्रम वर्ग की चिंताओं का खुलासा हीरा डोम इन पंक्तियों में करते हैं -
''हमनी के राति-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेबे से गिनती सुनाइवि।
हमनी के दुख भगवनओं ने देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइवि।।''
हीरा डोम भगवान से दीनबन्धु से खासे निराश नज़र आते हैं उनकी यह नाराज़गी जायज भी लगती है। वह इसलिए कि उन पर अत्याचार पर अत्याचार हो रहे हैं वह भी अमानवीय तरीके से, तब भी गरीब नेवाश ईश्वर उनके दु:खों से मुँह फेरे हुए है ऐसी संकट की घड़ी में उनकी कोई सुध् नहीं ले रहे हैं। जब ईश्वर ही दु:खों से उबारने में असमर्थ समझ रहे हैं तब दलित समाज के कष्टों का निवारण किस तरह संभव हो? वह हीरा डोम अन्तिम पंक्ति में भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग से यह प्रश्न पूछते हैं कि आखिर कब तक हमें ये क्लेश उठाने पड़ेंगे? कब वह समय आयेगा जब हमारे समाज के भी दिन बहुरेंगे।
वह शिक्षितजनों और उच्चवर्गों से जवाब - तलब करते हुए कहते हैं कि यह कैसी विडम्बना है कि आप केवल दो वर्षों की गुलामी से ही तिलमिला गये और आज़ादी पाने की गुहार लगाने लगे। वही हम शताब्दियों से आप लोगों की गुलामी में जी रहे हैं, हमारा दु:ख दु:ख नहीं, आपका दु:ख दु:ख है। जो रात दिन मेहनत करे, बेगार करे वह केवल दु:ख भोगे और जो शोषण करे, अत्याचार करे, वह सारे सुख-भोगे, सुख-समृद्धि उसके घर की दासी बनी रहे और हमारे घर फांके पड़े रहे! यथा -
''हमनी के राति-दिन मेहनत करीलेजां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कलि खबरि सरकार के सुनाइबि।।''
परिश्रम करने वाले परिवारों व जातियों का जीवन 'रोज़ कुआँ खोदना और रोज पानी पीना' की तर्ज पर अग्रसर होता है। कड़ी मेहनत के बाद जो भी रूखा - सुखा बन पड़ता है उसे परिवार में बाँट कर खाया - पीया जाता है। मार्क्सवादी दर्शन भी मानता है कि वंचित वर्ग हमेशा से ही कठोर परिश्रम करता आ रहा है लेकिन उसे उसकी मेहनत के एवज में दो वक्त की रोटी भी सही से नसीब नहीं हो पाती। यानी जो सभी चीजों का निर्माण ,उत्पादन करता है वह वर्ग उन्हीं चीजों के उपभोग से वंचित रहता है जबकि सवर्ण, उच्च समाज का मेहनत से कोई लेना-देना नहीं होता पिफर भी वह उत्पादित चीजों का उपभोग करता है और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करता है।
भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था उसी व्यवसाय को अपनाने या करने को बाध्य करती है जो पैतृक हो मसलन ब्राह्मण है तो धार्मिक पूजा - पाठ करेगा। क्षत्रिय है तो रक्षा का भार उस पर होगा, वैश्य है तो व्यापार करेगा और शूद्र है तो शारीरिक कष्ट उठाकर अन्य तीनों वर्णों की सेवा करेगा और अपने पैतृक व्यवसाय साफ - सफाई और जानवरों की खाल निकालेगा।
हीरा डोम साफ - साफ शब्दों में कहते हैं। न तो हम ब्राह्मण की भाँति भीख मागेंगे, न ठाकुरों की तरह गाड़ी ;लाठी चलायेंगे, न भट्ट कवि की भाँति कवित्ता सुनायेंगे और न ही अहीर की तरह गाय चरायेंगे। क्योंकि हमारे नसीब में तो कठोर परिश्रम करना लिखा है जिससे किसी तरह घर का गुज़र-बसर हो जाता है। यह कविता अपने कलेवर में उन सभी अमानवीय एवं त्रासद स्थितियों एवं परिस्थितियों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती है जो दलित समाज पर हुए अत्याचारों का खुलासा करती हैं। दलित समाज की घुटन, उदासी, बेचैनी, आक्रोश, प्रताड़ना, शोषण और अन्तहीन संघर्ष के विभिन्न आयामों को यह कविता अपने अन्तर में समेटे हुए है। दलित समाज के पास अपनी तल्ख़ सच्चाइयों के अनुभवों के अतिरिक्त कुछ भी ऐसा नहीं हैं जिस पर वह गर्व कर सके। जिस समाज को कुएँ से साफ पानी पीने की मनाही हो, साफ - सुन्दर वस्त्र पहनने की मनाही हो, जिसे सजने - संवरने का, सुन्दर दिखने का, अच्छा भोजन करने का, सिर उठाकर सम्मान के साथ चलने का अधिकार प्राप्त न हो उस जाति का इतिहास कैसे गौरवशाली हो सकता है। हीरा डोम भी कबीर की तरह समाज से प्रश्न करते हैं कि जिस हाड़ - मांस से ब्राह्मण का शरीर निर्मित हुआ है उसी हाड़ - मांस से हमारा भी शरीर बना है फिर किस कारणों के चलते, ब्राह्मण तो समाज में पूजनीय हो, सम्मान पाता है। जबकि दलित ;पिछड़ी जाति के लोगों को इस सम्मान से वंचित रखा जाता है बल्कि मार-पीट कर उनके हाथ-पैर तोड़ दिये जाते हैं। यही नहीं उन्हें पूर्ण रूप से समाज से बहिष्कृत कर अमानवीय एवं अपमानजनक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। इस स्थिति की जीवंत झाँकी दृष्टव्य है -
''हड़वा मुसइया कै दहिया है हमनी के,
औकरै कै दहिया बभनओं के बानी।
औकरा के ध्रे-ध्रे पूजवा होखत बाजे,
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
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पनहीं से पिटि-पिटि हाथ-गौड़ तुरि दैलैं
हमनी के एतनी काही के हलकानी।''
हीरा डोम ने अपनी कविता में उन ऐतिहासिक स्थितियों एवं परिस्थितियों को रेखांकित किया है जिन्होंने दलित समाज को दासता का जीवन जीने के लिए अभिशप्त बनाये रखा। गाँव से लेकर शहर तक शोषण की प्रत्येक व्यवस्था एवं शोषण वेफ सभी छोटे-बड़े भौतिक-मानसिक चक्रव्यूहों एवं उपकरणों की पड़ताल हीरा डोम ने बड़ी गहराई से की है। दलित समाज के सदियों के संताप का जीवन्त उदाहरण उनकी यह कविता है। उत्तर भारत की लोकभाषा में दलित जीवन की अनुभूति एवं संवेदना का इतना मार्मिक एवं वेदनापरक चित्रण अन्य किसी दलित कविता में नज़र नहीं आता। अन्तत: यह स्वाभाविक एवं निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि हीरा डोम की यह कविता 'अछूत की शिकायत' दलित समाज पर हुए शोषण एवं अत्याचारों का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है।
पता
एसिस्टेंट प्रोफेसर, रामलाल आनन्द कॉलेज ;प्रात:
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-07
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