समीक्षक - शिवओम ' अम्बर '
समकालीन हिन्दी गज़ल की लोकप्रिय सृजनधर्मी संज्ञाओं में अशोक अंजुम की संज्ञा है। समय - समय पर उनके गज़ल संग्रह प्रकाशित होते रहे हैं और उनकी अविराम साहित्य -साधना का साक्ष्य देते रहे हैं। उनके नव्यतम गज़ल संग्रह का शीर्षक है- '' यूँ ही '' इस शीर्षक को इसी संग्रह में उपस्थित उनकी एक विशिष्ट $गज़ल से लिया गया है। जिसके अभी अंशआर अत्यधिक व्यंजक है। प्रारंभिक पंक्तियाँ है- लोग देते रहे दुआ यूँ ही, कारवां फिर भी लुट गया '' यूँ ही''।
प्राय: अज़ीज़ो से अनुरोध किया जाता है कि हमारे हक़ में दुआएँ करो क्योंकि सच्ची दुआएँ क़ामयाब होती है, जीवन के जटिल संघर्ष - पथ पर संचरण करने वालों के लिए वे रक्षा - कवच बन जाती है। प्रस्तुत ग़ज़ल में कवि एक नि:श्वास भरकर समय की खोखली औपचारिकता पर प्रहार करते हुए कहता है संचरणशील समूह के सभी सदस्यों की दुआएँ तो भरपूर दी गई किन्तु निश्चित रुप से वे सामाजिक लोकाचार का निर्वहन मात्र थीं, हार्दिकता की ऊष्मा से आपूरित अभिव्यंजनाएं नहीं थीं, अत: '' यूँ ही '' कर्मकाण्ड की रीतियाँ परिपूर्ण होती रही और विपतियाँ सहज भाव से आती रहीं, उन्हें निर्ममतापूर्वक लूटा जाता रहा। ग़ज़ल में कवि के द्वारा चुई गई रदी़फ '' यूँ ही '' हर शेर के साथ अवसाद - बोध को गहरा करती जाती है और फिर विविध आयामों से जीवन की निस्गंता क्रूरता को निरुपित करती है। जैसे - तेरी यादें थीं और तनहाई, चाँद देता रहा सदा '' यूँ ही ''
कवि अपने प्रेमास्पद की स्मृतियों को जीते हुए उसकी अनुपस्थिति के दंश और अपनी एकाकी नियति का अनुभव कर रहा है। उधर आकाश में चन्द्रमा संचरणशील है और शायद अपनी किरणों के माध्यम से उस तक कोई सन्देश पहुँचा रहा है। शायद उसे पुकार लगा रहा है किन्तु अपनी अन्यमस्कता में कवि प्रकृति के बिम्बों के साथ एकात्मकता स्थापित नहीं कर पाता और उसे लगता है कि चन्द्रमा अगर आवाज़ लगा भी रहा है तो भी किसी विशेष भाव से भरकर नहीं, उसके प्रति अतिरिक्त संवेदनशील होकर नहीं अपितु बस, '' यूँ ही ''।
बात आगे बढ़ती है और कवि को प्रेमास्पद के विश्वासघातक व्यवहार का स्मरण हो आता है। उसने जिस पर विश्वास करके जिसे अपनी जि़न्दगी की वजह, अपने जीवन की अर्थवत्ता के रुप में देखा था वह उसे पूर्णत: उपेक्षित कर आगे बढ़ गया, बिना किसी उचित करण के '' यूँ ही ''।
अशोक अंजुम की अभिव्यक्ति की एक बहुत बड़ी विशेषता, उसकी सरलता है। उनकी भाषा आम आदमी के दैनन्दिन व्यवहार की भाषा है। वह स्वाभाविक और सहज रुप से बोल चाल में आने वाले शब्दों की कविता की काया प्रदान कर देते हैं। कितनी सादा जुबान में दी गई चुनौति है -
सामाजिक मानसिकता के निरन्तर नव्यता के आग्रह के प्रति वह जागरुक है और साहित्य के परिक्षेत्र में विधा के व्याकरणवेत्ता आचार्यों के प्रति थोड़ा विक्षुब्ध उनकी स्पष्ट घोषणा है कि उन्होंने हमेशा अपना ध्यान कथ्य से जोड़कर रखा है, उनका इशारा है कि भावोन्मेश में यदि किसी व्याकरणिक नियम की अवहेलना हुई भी है तो उन्होंने उसको ज़रुरत से ज़्यादा तवज्जों नहीं दी है। जबकि आचार्यगण अपनी सारी बौद्धिक क्षमता कलात्मक दृष्टि से विधा की नीक - पलक सँवारने में ही व्यतीत करते रहते हैं -
प्राय: अज़ीज़ो से अनुरोध किया जाता है कि हमारे हक़ में दुआएँ करो क्योंकि सच्ची दुआएँ क़ामयाब होती है, जीवन के जटिल संघर्ष - पथ पर संचरण करने वालों के लिए वे रक्षा - कवच बन जाती है। प्रस्तुत ग़ज़ल में कवि एक नि:श्वास भरकर समय की खोखली औपचारिकता पर प्रहार करते हुए कहता है संचरणशील समूह के सभी सदस्यों की दुआएँ तो भरपूर दी गई किन्तु निश्चित रुप से वे सामाजिक लोकाचार का निर्वहन मात्र थीं, हार्दिकता की ऊष्मा से आपूरित अभिव्यंजनाएं नहीं थीं, अत: '' यूँ ही '' कर्मकाण्ड की रीतियाँ परिपूर्ण होती रही और विपतियाँ सहज भाव से आती रहीं, उन्हें निर्ममतापूर्वक लूटा जाता रहा। ग़ज़ल में कवि के द्वारा चुई गई रदी़फ '' यूँ ही '' हर शेर के साथ अवसाद - बोध को गहरा करती जाती है और फिर विविध आयामों से जीवन की निस्गंता क्रूरता को निरुपित करती है। जैसे - तेरी यादें थीं और तनहाई, चाँद देता रहा सदा '' यूँ ही ''
कवि अपने प्रेमास्पद की स्मृतियों को जीते हुए उसकी अनुपस्थिति के दंश और अपनी एकाकी नियति का अनुभव कर रहा है। उधर आकाश में चन्द्रमा संचरणशील है और शायद अपनी किरणों के माध्यम से उस तक कोई सन्देश पहुँचा रहा है। शायद उसे पुकार लगा रहा है किन्तु अपनी अन्यमस्कता में कवि प्रकृति के बिम्बों के साथ एकात्मकता स्थापित नहीं कर पाता और उसे लगता है कि चन्द्रमा अगर आवाज़ लगा भी रहा है तो भी किसी विशेष भाव से भरकर नहीं, उसके प्रति अतिरिक्त संवेदनशील होकर नहीं अपितु बस, '' यूँ ही ''।
बात आगे बढ़ती है और कवि को प्रेमास्पद के विश्वासघातक व्यवहार का स्मरण हो आता है। उसने जिस पर विश्वास करके जिसे अपनी जि़न्दगी की वजह, अपने जीवन की अर्थवत्ता के रुप में देखा था वह उसे पूर्णत: उपेक्षित कर आगे बढ़ गया, बिना किसी उचित करण के '' यूँ ही ''।
तुम पे विश्वास करके जीते थे,
हो गये तुम भी बेवफा '' यूँ ही ''।
कवि के साथ बेवफाई अन्यों ने भी की है किन्तु उसे भारी मलाल इस बात का है कि उसके विश्वास का केन्द्र उसका प्रेमास्पद भी तमाम जागतिक मित्रों की तरह हृदयाघाती व्यवहार कर बैठा। उसने इस बात का विचार ही नहीं किया कि उसके एक अनपेक्षित कठोर निर्णय से किसी संवेदनशील इन्सान का एक इन्द्रधनुषी विश्व उजड़ जाएगा -
एक दुनिया उजड़ गई पल में,
कर दिया तुमने फैसला '' यूँ ही ''।
इस ग़ज़ल की अन्तिम पंक्तियाँ अल्हड़ प्रेमास्पद की उस मारक, मादक भंगिमा का शब्द चित्र अंकित करती है जिसे अपना कोई अपराध,अपराध लगता ही नहीं है -
मैँने पूछा कि क्यों नहीं आये?
उसने मुस्का के कह दिया '' यूँ ही ''।
एक समय सचेत कवि की भूमिका निभाते हुए अशोक अंजुम ने ऐसे अशआर कहे हैं जो हमारे दैनन्दिन जीवन में परिव्याप्त आत्मकेन्द्रित मानसिकता और उधर, समाज में दिनों दिन वृद्धि को प्राप्त होती व्यवसायिकता के प्रति हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं-
रात आधी टी.वी. रहे फिर सो गये,
कल पड़ोसी लुट गया अखबार से मालूम हुआ।
कर दिया बाज़ार ने गमगीन कितना क्या कहें,
जिन्दगी यूँ तल़्ख है बाज़ार से मालूम हुआ।
सर्वत्र गहराती नकारात्मकता के बीच कवि की अमृत - संधानी दृष्टि ऐसी स्वस्तिकर सकारात्मकता भी पा ही लेती है जो मावस की देहरी पर ज्यातिशिखा का रुपक रच सके-
डूबती उम्मीद को फिर रोशनाई दे रहा है,
वो पिता के हाथ में पहली कमाई दे रहा है।
एक बूढ़े जिस्म से लाखों दुआएँ झर रही है,
एक नन्हा हाथ मुसकाकर दवाई दे रहा है।
उपर्युक्त पंक्तियों के सम्यक् अनुभावन के लिए हमें कवि की भावप्रवण दृष्टि के साथ सम्बद्ध होकर उपस्थित बिम्बों में गहरे उतरना होगा। यहाँ पिता के हाथ में पहली कमाई देने वाला बेटा उसकी डूबती आशाओं के लिए एक नई राहत, एक अभिनव उमंग बन कर आया है। जैसे किसी कोरे काग़ज़ पर कोई रोशनाई से आश्वस्ति - वचन लिख दे, कोई सिद्ध - मंत्र अंकित कर दे, वैसे ही यह पहली कमाई है। बाप का हाथ काग़ज़ है और कमाई उस कागज़ पर रोशनी की स्वर्णिम रोशनाई से अंकित स्वस्ति है। इस प्रकार दुआएँ परमसत्ता से की गई प्रार्थनाएँ हैं, कल्याण - कामनाएँ हैं। बच्चे का हाथ बचपन की निश्छल स्मिति का हाथ है और भाव - गद्गद् बुजुर्ग की वाणी मूर्तिमती प्रार्थना है। यहाँ दुआएँ आशीषों की तरह व्यक्तित्व रुपी वृक्ष से विच्छुरित हो रही है। चाक्षुश बिम्बों की यह बड़ी ही कलात्मक प्रस्तुति है।अशोक अंजुम की अभिव्यक्ति की एक बहुत बड़ी विशेषता, उसकी सरलता है। उनकी भाषा आम आदमी के दैनन्दिन व्यवहार की भाषा है। वह स्वाभाविक और सहज रुप से बोल चाल में आने वाले शब्दों की कविता की काया प्रदान कर देते हैं। कितनी सादा जुबान में दी गई चुनौति है -
आइने से नज़र मिला तो सही,
मुझसे मत पूछ बेवफा है कौन।
तथा कितनी सरलता से शब्दायित दार्शनिकता है-
ज़रा - सा बीज था कल तक वो अब आकाश छूता है,
बना दे बूँद को सागर रखे क्या - क्या हुनर मिट्टी।
ज़रुरी है कि खुलते भी रहें खिड़की - ओ - दरवाजे,
वगरना हो न जाये एक दिन तेरा ये घर मिट्टी।
यहाँ कवि के शब्द संसार में साधिकार उपस्थिति दर्ज करवाता हुआ आइना भी है, आकाश भी। बीज - हुनर - मिट्टी- बूँद - सागर आदि सभी एक विस्तृत कुटुम्ब के सदस्यों की तरह भाषा की एक ही बड़ी हवेली में निवास करते हैं। अशोक अंजुम इसी कारण जन -सामान्य और प्र्रबुद्ध जन दोनों में ही लोकप्रिय और सम्मानित हैं।सामाजिक मानसिकता के निरन्तर नव्यता के आग्रह के प्रति वह जागरुक है और साहित्य के परिक्षेत्र में विधा के व्याकरणवेत्ता आचार्यों के प्रति थोड़ा विक्षुब्ध उनकी स्पष्ट घोषणा है कि उन्होंने हमेशा अपना ध्यान कथ्य से जोड़कर रखा है, उनका इशारा है कि भावोन्मेश में यदि किसी व्याकरणिक नियम की अवहेलना हुई भी है तो उन्होंने उसको ज़रुरत से ज़्यादा तवज्जों नहीं दी है। जबकि आचार्यगण अपनी सारी बौद्धिक क्षमता कलात्मक दृष्टि से विधा की नीक - पलक सँवारने में ही व्यतीत करते रहते हैं -
कहाँ तक डारोगे कहाँ तब बचोगे,
ये दुनिया है दुनिया खबर ढूँढती है।
कहन पर मेरा ज़ोर रहता है '' यूँ ही '',
तुम्हारी गज़ल बस बहर ढूँढती है।
'' यूँ ही '' के अर्न्तगत अशोक अंजुम के कुछ मुक्तक / कतआत भी किरचें अहसास की शीर्षक से संकलित है। जीवन की विविधवर्णी मुद्राओं पर, परिपार्श्व की घटनाओं - परिघटनाओं पर वे मुक्तक बेबाक टिप्पणियाँ प्रस्तुत करते हैं। इनमें एक जागरुक नागरिक की अंगारक प्रतिक्रियाएँ भी हैं और एक अनुरागप्रवण अन्तस् की सुकोमल उद्भावनाएँ भी हैं। दोनों ही तरह के मुक्तकों (एक - एक) उदाहरण प्रस्तुत हैं-
नहीं मिलती दिशा कोई कहाँ जाए,किधर जाए,
ये तुलसी को हटाकर नागफनियाँ बो रही है अब
न ये कर्त्तव्य को समझे न इसको देश की चिन्ता,
जवानी सेक्स की रंगीनियों में खो रही है अब।
तथा -
सारे रंगीन नज़ारों की चमक जाती रही,
चाँद के आगे सितारों की चमक जाती रही,
तुम न आये थे यहाँ जुगनुओं का चर्चा था
तुम जो आये तो हज़ारों की चमक जाती रही।
अशोक अंजुम की स्वप्रिल दृष्टि इस देश को हर तरह से समृद्ध और परिवेश की सांस्कृतिक श्री से समन्वित देखना चाहती है। उसे पाश्चात्य जीवन - दर्शन से प्रभावित वह व्यवहार बेहद चुभता है, जिसमें पित - पुत्र किसी उत्सव में एक साथ आसव - आचमन करते हैं और अपनी तथाकथित प्रगतिशीलता पर गर्व करते हैं। वह चाहते हैं कि वादों विवादों और प्रतिवादों के इस दौर में हार्दिक संवाद का क्रम जारी रहे और लोग अपने को एक - दूसरे के करीब महसूस करें। उन्हें इस संसार में ही परमात्म सत्ता की प्रकाशमयता का दर्शन उस मासूम बच्चे में होता है जो अपनी माँ की दवा लाने के लिए अपनी गुल्लक फोड़ देता है और वह बड़ी शिद्दत से यह भी महसूस करते हैं कि सफर की कड़ी धूप भी माँ की शुभाशीष का संस्पर्श पाकर सौम्य और शीतल बन जाती है। ऐसा भाव व्यक्त करने वाले उनके ये अशआर देकर उनकी समर्थ लेखनी का अभिनन्दन करते हुए इस संक्षिप्त टिप्पणी को विराम देता हूँ -
ये बच्चा क्या ही बच्चा है खुदा का नूर पाया है,
जो गुल्लक तोड़ कर अपनी दवाई माँ की लाया है।
सफर में धूप कितनी हो मगर रहती है ठंडक - सी,
सफर में साथ मेरे माँ के आशीषों का साया है।
4/ 10, नुनहाई, फर्रूख़ाबाद (उ.प्र.)
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