वीरेन्द्र ' सरल '

मुझे यह तो पता नहीं कि किस घटना या किस व्यक्तित्व की प्रेरणा से रंग सरोवर का गठन किया गया होगा पर इसकी मनमोहक प्रस्तुति देखने के बाद यह बात मैं दावें के साथ कह सकता हूँ कि रंग सरोवर लोक संस्कृति को पूर्णत: समर्पित ऊंगलियों पर गिनी जा सकने वाली चुनिंदा संस्थाओं में से एक हैं। इसकी प्रस्तुति की प्रतीक्षा दर्शक बेंसब्री से करते रहते है। जैसे-जैसे मंचन का समय और तिथि नजदीक आती जाती है वैसे-वैसे ही दर्शको का मन पुलकित होने लगता है। प्रस्तुति के काफी पहले से ही कार्यक्रम स्थल पर दर्शको की भारी भीड़ लग जाती है। इंतजार की घड़िया समाप्त होते ही जब स्टेज के माइक पर रंग सरोवर के कला यात्रा का परिचय कराते हुये मंच संचालक श्री त्रेता चन्द्राकर की खनकदार आवाज गूँजती है तो दर्शको की निगाहें सीधे मंच पर टिक जाती है और ऐसे टिक जाती है कि कार्यक्रम के समापन के पहले वहाँ से हटती ही नहीं।
विरासत में मिली कला को आत्मसात कर लोक संस्कृति को सहेज कर अपनी अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करने के लिए संकल्पित आदरणीय भाई भुपेन्द्र साहू की परिकल्पना श्रद्धेय भाई मिथिलेश साहू की मधुर आवाज के साथ मिलकर मंच पर साकार होने लगती है। मंच पर श्री मिथलेष साहू की भूमिका जितनी महत्वपूर्ण है, नेपथ्य में श्री भूपेन्द्र साहू की भूमिका उससे बिलकुल कम नहीं है। छत्तीसगढ़ महतारी के वंदना गीत से जब कार्यक्रम का शुभारंभ होता है तो स्थल दर्शको की तालियों और छत्तीसगढ़ महतारी की जयकारा से गूँज उठता है। लोकधुन पर भाव नृत्य करते हुये नर्तको के पांव जब थिरकने लगते है। लोक संगीत की स्वर लहरियों के साथ जब लोक गायकों की सुमधुर आवाज कानो पर रस घोलने लगती है और जब दृष्यानुकूल रंगीन प्रकाशपुंज स्टेज पर झिलमिलाने लगता है तो दर्शकों पर ऐसा नशा छा जाता है जो उन्हें झूमने और नाचने के लिए मजबूर कर देता है। सुआ ,ददारिया करमा, पथी ,,पंडवानी, भोजली, जंवारा की झांकी मंच पर जीवन्त हो उठती है। दर्शको को अपनी माटी की सौधी महक महसूस होने लगती है। अपने गौरवशाली सांस्कृतिक संपदा से साक्षात्कार होने पर सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है और छाती तन जाती है। मन सोचने के लिए बाध्य हो जाता है कि सचमुच आज हम पाश्चात्य संस्कृति की अंधानुकरण करके कहीं अपनी ऐसी अनमोल दौलत को खो तो नहीं रहे हैं जो हमारे पुरखे हमें विरासत में दे गये है और जो हमारी अस्मिता की जान और हमारे प्रदेश की पहचान है। आखिर क्यों हम अपनी जड़ो से कट रहे है, क्यों अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने पर तुले हुये है? अपनी लोक संस्कृति को खोकर आखिर हम अपनी नई पीढ़ी को क्या देने जा रहे हैं?
रंग सरोवर के एक दृश्य में जब दादा बने कलाकार अपने पोते से कहता है कि बेटा! मोला डर लागथे हमर अतेक पोठ लोक संस्कृति कहूं नंदा तो नइ जाही? तो इस संवाद से संस्कृति क्षरण की पीड़ा स्पष्ट झलकती है। ऐसा लगता है मानो हमारी आत्मा हमसे ही प्रश्न कर रही है कि ये अंधी आधुनिकता आखिर हमें किस खाई पर ढकेलने जा रही है।
रंग सरोवर के मनमोहक प्रस्तुति में श्री मिथलेश साहू, फागु तारक, छाया चन्द्राकर ,पूर्णिमा नेताम और तीजन पटेल के सुमधुर स्वर से सुसज्जित श्रृंगार गीतों के साथ ही लधु लोकनाटयों के माध्यम से लोकविलक्षण का पावन उद्देश्य भी है। एक ओर जहाँ खानाबदोश पर कला प्रेमी देवार जाति के गरीबी, अभाव, उपेक्षा और शोषण की पीड़ा है वहीं दूसरी ओर जीवन के शाश्वत सत्य प्रेम का प्रकटीकरण भी है। 'मया के मड़वा' में जहाँ प्रेमी युगल के मिलन की सुखान्त अनुभूति है तो वहीं 'मया के बंधना' में समाज के दीवारों से सिर टकराकर दम तोड़ चुके प्रेमी युगल के अतृप्त आत्माओं की अधूरी प्रेम कहानी का मंचन भी है। रंग सरोवर कें मंचन के समय ज्यों-ज्यों रात गहरी होती जाती है त्यों-त्यों रंग सरोवर का रंग और भी अधिक गाढ़ा होता जाता है। 'लहर बुंदिया' लोक नाटय में झूठे प्रेम जाल में फँसकर आर्थिक रूप से बरबाद होते युवाओ की कथा है तो गरीबी के कारण किसी युवती के लहरबुदिंया बन जाने की व्यथा भी है। मजेदार बात यह है कि इन लघु लोकनाटयों में हास्य का पुट कूटकूटकर भरा है। जिसके कारण इनमें निहित गंभीर संदेश दर्शको के दिल दिमाग तक पहुँच पाने में सफल होता है।
रंग सरोवर की प्रस्तुति कई बार देखने के बाद मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि मंजे हुये गायक, सधे हुये वादक और अभिनय की कसौटी पर कसे हुये कलाकरो से सुगठित, लोक संस्कृति की संवाहक कलामंच को ही छत्तीसगढ़ की जनता ने रंग सरोवर के प्यारा सा नाम देकर मान और सम्मान दिया है। इसलिए यदि कम से कम शब्दों में इसका परिचय दिया जाय तो इसे छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर, 'रंग सरोवर' कहना ही अधिक उपयुक्त होगा।
बोड़ला, मगरलोड,
जिला - धमतरी (छ.ग.)
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