प्रभुदयाल श्रीवास्तव
शूल से पत्थर नुकीले,जल यहां गहरा घना है।
इस जगह पर बालकों को,तैरना बिलकुल मना है।
मुटिठयों से रेत जैसा,वक्त फिसला जा रहा है,
जिस तरह हो वक्त को,बर्बादियों से रोकना है।
कल्पना साकार करने,काम तो करना पड़ेगा,
आसमां को और कितना,कब तलक अब ताकना है।
खूब पढ़ लिख कर किताबें,ज्ञान तो अर्जित किया है,
योग्यता कितनी हुई है,शेष अब यह आंकना है।
हो गई पहचान लेकिन,यह अभी पूरी नहीं है,
आपके भीतर हमें कुछ,और थोड़ा झांकना है।
शूल से पत्थर नुकीले,जल यहां गहरा घना है।
इस जगह पर बालकों को,तैरना बिलकुल मना है।

जिस तरह हो वक्त को,बर्बादियों से रोकना है।
कल्पना साकार करने,काम तो करना पड़ेगा,
आसमां को और कितना,कब तलक अब ताकना है।
खूब पढ़ लिख कर किताबें,ज्ञान तो अर्जित किया है,
योग्यता कितनी हुई है,शेष अब यह आंकना है।
हो गई पहचान लेकिन,यह अभी पूरी नहीं है,
आपके भीतर हमें कुछ,और थोड़ा झांकना है।
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