यदुनन्दन प्रसाद उपाध्याय
आज साहित्य में दलित साहित्य की बहुत चर्चा है। अनेक लेखक और लेखिकाएं इस साहित्य सृजन में अपना योगदान दे रहें हैं। इसलिए यह साहित्य न केवल भारत में वरन् विष्व स्तर पर भी अपनी पहचान बना चुका है। हिन्दी ही नहीं प्रायः सभी भाशाओं में इसका लेखन निरन्तर हो रहा है। हिन्दी का दलित साहित्य किसको माना जाए, इस पर बहस आज भी जारी है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के एक खास दौर-अस्सी और नब्बे के दशक में उभरा यह एक साहित्यिक आंदोलन है, जिसमें दलित लेखक-कवियों ने अपनी आत्मा की सजगता के साथ इसको चलाया और इसे एक साहित्यिक धारा के रूप में मनवाने के लिए संघर्श भी किया। इन रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में अपनी जाति के साथ होने वाले भेद-भावों और जुल्मों को दिखाया। इनकी रचनाएं प्रारम्भ में साहित्यिक कसौटियों पर भले ही कमजोर रहीं हों किन्तु इसके बावजूद इन रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में झेली हुई तकलीफों और अपनी खीज को प्रकट किया। अपने साहित्य को महत्व दिलाने के लिए न केवल रचनाओं को ही माध्यम बनाया गया बल्कि अपनी पत्रिकाएं निकाली, लेख लिखे और कई सेमिनार तथा सम्मेलनों का आयोजन भी किया गया। अब भी यह आंदोलन जारी है।
‘दलित साहित्य’ वास्तव में क्या है, इस पर विद्वानों ने विचार किया है। दलित साहित्यकार डा0 कंवल भारती के अनुसार-‘‘दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिनमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है, अपने जीवन-संघर्ष में जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनका उसी की अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला का नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है।’’(1)
दलित साहित्यकार श्री सी0बी0 भारत के अनुसार-‘‘ दलित साहित्य अब साहित्यिक विधाओं का अलग-अलग सा कोई अजूबा नहीें है, अपितु नवयुग का एक व्यापक, वैज्ञानिक, यथार्थपरक, संवेदनशील साहित्यिक हस्तक्षेप है जो कुछ तर्कसंगत वैज्ञानिक परम्पराओं का पूर्वाग्रहों से मुक्त साहित्यिक सृजन है, हम उसे दलित के नाम से संज्ञापित करते हैं। दलित साहित्य सामाजिक बदलाव का दस्तावेज है।‘‘(2)
शरण कुमार लिम्बाले के अनुसार-‘‘ दलित साहित्य अपना केन्द्रबिन्दु मनुष्य को मानता है। बाबा साहब के विचारों से दलित को अपनी गुलामी का अहसास हुआ, उसकी वेदना को वाणी मिली, क्योंकि उस मूल समाज को बाबा साहब के रूप में अपना नायक मिला। दलितों की वह वेदना दलित साहित्य की जन्मदात्री है। दलित साहित्य की वेदना ‘मैं‘ की वेदना नहीं, वह बहिष्कृत समाज की वेदना है।’’(3)
श्री माता प्रसाद के अनुसार-‘‘ दलित साहित्य वह साहित्य है जिसमें वर्ण समाज में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक दृष्टि से दलित, शोशित, उत्पीड़ित, अपमानित, उपेक्षित, तिरस्कृत, वंचित, निराश्रित, पराश्रित, बाधित, अस्पृश्य और असहाय है, पर साहित्य की रचनाएं हैं, वही दलित साहित्य की श्रेणी में आता है। इसमें बंधनों में जकड़ी स्त्रियां, बंधुआ मजदूर, दास, घुमन्तू जातियां, अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां आती हैं। दलित साहित्य वेदना, चीख और छटपटाहट का साहित्य है।’’(4)
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि भारत की अन्त्यज और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों को जो अशिक्षित और अज्ञान के अंधकार में जी रहीं थीं, दलित मानी गई और दलित साहित्य में आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पिछड़्रेपन को भी स्थान दिया गया है।
दलित साहित्य में हमें तीन श्रेणियां दिखाई देती हैं - पहली धारा उन दलित लेखकों की है जिन्होंने दलित जातियों में जन्म लिया और जिनके पास भोगा हुआ अनुभव, स्वानुभूतियां हैं। इसलिए इनके साहित्य में मनुष्य के भावों और विचारों की समश्टि है। दूसरी धारा या श्रेणी उन सवर्ण लेखकों की है जो दलित तो नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपने रचना संसार में दलितों का सहानुभूतिपूर्वक चित्रण किया है। कुछ लोग इन सवर्ण लेखकों द्वारा दलितो पर लिखे गये साहित्य को ‘दलित साहित्य’ नहीं मानते और इन पर आज भी विवाद है। तीसरी धारा या श्रेणी प्रगतिषील लेखकों की है जो दलित को सर्वहारा की स्थिति में देखते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के समय जब दलित मुक्ति का प्रश्न उठा और ‘पूना पैक्ट’ के बाद जब गांधीजी अछूतोद्धार के लिए काम कर रहे थे तो इसी समय प्रगतिशील साहित्य भी अस्तित्व में आया। इनका मानना है कि समाज परिवर्तनशील है और समाज का साहित्य भी परिवर्तनशील होना चाहिए। प्रेमचंद इस धारा के सशक्त लेखक है और डॉ0 अम्बेडकर तथा गांधीजी दोनों के विचारों का प्रभाव इन पर पड़ा इसलिए इन्होेंने ‘ठाकुर का कुआं‘, सद्गति जैसी कहानियों की रचना की। इस परम्परा का क्रमबद्ध विकास होता रहा। यह धारा आरम्भ से ही वेद और वर्ण व्यवस्था विरोधी रही है।
दलित साहित्य के उद्भव का जहां तक प्रश्न है, तो यह साहित्य सर्वप्रथम महाराष्ट्र में उत्पन्न हुआ। इसका कारण यह है कि महाराष्ट्र क्षेत्रों के दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे बहुत पहले ही खुल गये थे। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश के महापुरूषों - ज्योति बा फुले, डॉ0 अम्बेडकर एवं राजर्षि साहू जैसे जननायकों ने इस वर्ग को प्रेरणा दी और यही प्रेरणा हिन्दी भाशी प्रदेश के दलित वर्ग को भी मिली। दलित विमर्श के साहित्यिक युग को हम कुछ इस प्रकार वर्गों में बांट सकते हैं-
1. आदिकाल या प्रारम्भिक काल
2. 19वीं शती का दलित साहित्य
3. 20वीे शती का दलित साहित्य
4. प्रगतिश्ाील दलित साहित्य
5. 1960 के पश्चात् का दलित साहित्य
हिन्दी साहित्य के इतिहास के आदिकाल में दलित साहित्य का अर्थ वेद और वर्ण व्यवस्था विरोधी साहित्य माना जा सकता है। यह परम्परा बाद में बौद्धों, सिद्धों और नाथों से होती हुई मध्यकाल में संत साहित्य तक पहुंची है। कंवल भारती ने इसी बात को इस प्रकार कहा है-‘‘ लोकायत जनता का धर्म था........। उसने एक ऐसी विचार परम्परा को जन्म दिया वेद और वर्ण व्यवस्था विरोधी था। यह परम्परा बाद में बौद्धों, सिद्धों और नाथों से होती हुई मध्यकाल में दलित संतों तक पहुंची थी।’’(5)
मध्यकाल में कबीरदास तथा रैदास जैसे संतों ने इस धारा में अपना योगदान दिया। लेकिन यह योगदान वर्तमान जैसा नहीं है। निर्गुण संतों ने हिन्दू और मुस्लिम धर्मों में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करके इस धारा में योगदान दिया। इन्होंने न केवल धर्मो पर आघात किया बल्कि पाखण्ड और कुरीतियां फैलाने वाले मुल्ला और पण्डितों को लताड़ा भी। कबीर लिखते है-
‘‘सुर नर मुनिजन औलिया,
यह सब उरली तीर।
लह राम की गम नहीं,
तह घर किया कबीर।’’ (6)
भक्तिकाल की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इसमें अधिकांश निर्गुण भक्त कवि दलित जाति से सम्बद्ध रहे हैं। ‘‘ कबीर जुलाहे थे। संत सेना नाई जाति में पैदा हुए। रैदास चमार थे। दादू दयाल बनिया जाति में जन्मे थे। संत बखना मीरासी थे। दीन दरवेश लोहार थे। बिहार वाले दरियादास मुसलमान थे। संत त्रिलोचन वैश्य थे। कश्मीर की महिला संत लल्ला मेहतर जाति की थीं, जबकि महाराष्ट्र के नाम देव छीपी नामक जाति में पैदा हुए थे। निर्गुण संतों की पूरी जमात इस प्रकार निम्न वर्णों और निम्न वर्गीय थे जिनका व्यापक प्रभाव शिल्पी जातियां और श्रमिक वर्ग पर पड़ा था।’’(7)
इस युग के संत निर्भीक, स्पष्टवादी, साहसी, समानता की बात करने वाले तथा सत्यवादी थे। इसलिए सभी ने कहीं न कहीं छुआछूत, जाति-पांति का विरोध किया और मनुष्यमात्र के प्रति प्रेम की बात की। कबीर जाति के प्रति अभिमानी लोगों को समझाते हुए कहते है-
‘‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।।’’(8)
रैदास कबीर की भांति निडर तो नहीं थे किन्तु उनके पदों में एक अविचल आत्मविश्वास दिखाई देता है। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति जाति से नहीं गुणों से ऊंचा होता है-
‘‘रैदास वामन मत पूजिए, जऊ होवे गुनहीन।
पूजहिं चरन चांडाल के, जऊ होवे गुन प्रवीन।।‘‘(9)
कबीर आदि संतों ने जिस दलित विचारधारा का सूत्रपात किया था आगे चलकर इस धारा का विकास हमें दिखाई नहीं देता। लेकिन 19वीं शताब्दी में साहित्य की यह दलित धारा भारत की लगभग सभी भाषाओं में पुनः उभरती हुई नजर आती है। इसका कारण यह था कि इस युग तक आते - आते भारत में अंग्रेजी राज स्थापित हो चुका था और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से अछूतों में शिक्षा का प्रभाव पहुंचने लगा था। इसके प्रभाव से प्रायः सभी भाषाओं में दलित रचनाकार पैदा हुए।
19 वीं शताब्दी में हम सबसे पहले महाराष्ट्र में इस दलित धारा को प्रभाव देखते हैं। महाराष्ट्र में ज्योति बा फूले के नाटकों और पंवाड़ा काव्य में इस विचारधारा के सबसे पहले दर्शन होते है। महात्मा फूले की प्रख्यात रचना ‘गुलामगीरी’ है जिसमें उन्होेंने ब्राह्मणवाद के आवरण के अंदर विष्ट अंग्रेजी राज को गुलामगीरी नाम दिया था। इसमें ब्राह्मणवाद पर जितना तीखा प्रहार मिलता है उतना और ग्रंथ में नहीं मिलता। यह रचना संवाद शैली में लिखी गई है। वे लिखते है-
‘‘मनु जलकर खाक हो गया,
जब अंग्रेज आया।
ज्ञानरूपी मां ने,
हमको दूध पिलाया।।
अब तो तुम भी पीछे न रहो।
भाइयों, पूरी तरह जलाकर,
खाक कर दो मनुवाद को।।’’(10)
इनकी कविताओं में दलित विमर्श, अछूत और शुद्रों के लिए नवजागरण का विमर्श है।
20वीं शताब्दी में दलित विमर्श और व्यापकता के साथ दिखाई देता है। महाराष्ट के साथ - साथ यह विमर्श अब अन्य राज्यों में भी दिखाई देता है। इसलिए इसी समय केरल में के0वी0 करूप्पन कवि हुए जो जाति से अछूत (मछूआरे) थे। इन्होंने शंकराचार्य के ‘अद्वैत दर्शन’ की नयी व्याख्या करते हुए अपनी ‘जाति कुंभी’ नाम से एक लम्बी कविता लिखी। वास्तव में केरल में दलित विमर्श का आंदोलन चलाने वाले नारायण गुरू है। इन्होंन अपनी रचनाओं में ‘जाति मत पूछो, जाति मत बताओ और जाति के बारे में मत सोचो’ के नारे को लोकप्रिय बनाया। इनके विश्य कुमारन आसन ने भी इस विचारधारा में अपना योग दिया और ‘चांडाल भिक्षुकी’ और ‘दुरवस्था’ जैसी रचनओं में जातिवादिता का विरोध किया।
20वीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य में दलित चेतना और अधिक प्रखर रूप में हमारे सामने आती है। इस युग में दर्जनों दलित लेखक इस धारा में सक्रिय हैं। इनमें हीरा डोम और अछूतानंद के नाम उल्लेखनीय है। हीरा डोम ने एकमात्र कविता लिखी जो 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में ‘अछूत की शिकायत’ नाम से छपी थी। इसे विशुद्ध दलित संवेदना की कविता माना जाता है, जिसमें एक अछूत अपने कष्टों का वर्णन भगवान के सामने और सबके सामने कर रहा है-
‘‘हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेजे से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुःख भगवानों न देखता जे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
*****
डोम जानिके हमनी के छुए से डेरइले,
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइले जा।
पांके में से भरि, पियतानी पानी,
पनही से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के इतनी काही के हलकानी।’’(11)
इसी युग में दूसरे सबसे प्रभावी लेखक स्वामी अछूतानंद हैं जो ‘हरिहर‘ उपनाम से कविता करते थे। ये कवि होने के साथ-साथ नाटककार और पत्रकार भी थे। इन्होंने उत्तर भारत में ‘आदि हिन्दू’ आंदोलन भी चलाया। आदि हिन्दू पत्र निकालकर इन्होंने दलित पत्रकारिता को जन्म दिया। अपने पत्र में इन्होंने दलित पर होने वाले अत्याचारों को प्रकाशित किया साथ ही दलितों को उनके इतिहास से परिचित कराकर उनमें चेतना और स्वाभिमान उत्पन्न करने की कोशिश की। स्वामी अछूतानंद की एक कविता ‘मनुस्मृति’ में हीरा डोम की कविता जैसे ही भाव दिखाई देते हैं-
‘‘निसदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है।
ऊपर न उठने देती नीचे गिरा रही है।’’(12)
स्वामीजी की इस दलित धारा को शंकरानंद, केवलानंद और अयोध्यानाथ दंडी जैसे कवियों ने आगे बढ़ाया। आज भी केवलानंद का यह गीत दलित वर्गों में प्रसिद्ध है-
‘‘मनु जी तुमने वर्ण बना दिए चार।
जा दिन तुमने वर्ण बनाया
बनिया पीले बनाये क्यों ना।
गेरे ब्राह्मण, लाल क्षत्रिय,
न्यारेऊ रंग बनाये क्यों ना।
शुद्र बनाते काले वर्ण के,
पीछे को पैर लगवाए क्यों ना।’’
दलित चेतना की यह धारा सवर्ण लेखकों तक भी आई। इसका सीधा सा कारण 20वीं शताब्दी के राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों का प्रभाव था। डा0 अम्बेडकर और महात्मा गांधी जी के बीच हुए संवाद और ‘पूना पैक्ट’ (1932) के समझौते ने सवर्ण लेखकों को इस ओर प्रेरित किया। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मैथिलीशरण गुप्त, गया प्रसाद शुक्ल, व रामचन्द्र शुक्ल आदि ने दलितों के ऊपर सहानुभूुतिपूूर्वक रचनाएं लिखीं। हालांकि इनकी रचनाओं में दलित लेखकों जैसी दलित मुक्ति का कोई स्वर दिखाई नहीं देता। निराला प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते थे लेकिन बाद में उन्होंने अपनी विचारधारा में परिवर्तन किया और दलितों के समर्थन में ‘चतुरी चमार’ जैसी रचनाएं भी लिखीं।
हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील धारा जो 1930 में प्रारम्भ हुई और जिसका विधिवत् नामकरण 1936 में हुआ, दलित विमर्श की यह धारा विभिन्न सोपानों को पार करती हुई इस आंदोलन तक भी पहुंची। प्रेमचंद इस धारा से जुड़े पहले लेखक थे जिन्होंने अपनी रचनाओं में दलित समस्या का चित्रण किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में दलितों के प्रति सवर्णों के कठोर व्यवहार की निन्दा की और डा0 अम्बेडकर ने तालाब में पानी लेने और मंदिर में प्रवेश के अधिकार को लेकर जो आंदोलन किए उससे प्रभावित होकर ‘ठाकुर का कुंआ’, ‘मंदिर’ और ‘सद्गति’ जैसी दलित-विशयक कहानियां लिखीं। आगे चलकर प्रेमचंद के पश्चात् प्रगतिशील साहित्य मे दलित वर्ग की स्थिति मजदूर वर्ग के रूप में चित्रित की गई। मुक्तिबोध, नरेन्द्र शर्मा, त्रिलोचन, धूमिल और नागार्जुन जैसे साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में दलितों को शोषित वर्ग के रूप में चित्रित किया है। जैसे धूमिल की प्रसिद्ध रचना ‘मोचीराम’ में दलित मोची के लिए समाज का हर आदमी एक जोड़ी जूता है-
‘‘रांपी से उड़ी हुई आंखों ने
मुझे क्षणभर टटोला, और
और फिर पतियाते हुए स्वर में बोला
बाबू जी सच कहूं
मेरी निगाह में, न कोई बड़ा है, न छोटा
मेरे लिए हर आदमी
एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।’’(13)
इसी प्रकार नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘हरिजन गाथा’ में दलितों के सामूहिक हत्याकाण्ड के विरूद्ध अराजक तत्वों के खिलाफ एक विद्रोही स्वर दिखाई देता है-
‘‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं-
तेरह के तेरह अभागे
टकिंचन मनुपुत्र
जिन्दा झोंक दिए गए हों
प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में
साधन संपन्न ऊंची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।’’(14)
दलित विमर्श का तीव्र विद्रोह के साथ विकास हिन्दी साहित्य में 1960 के बाद दिखाई देता है। इस युग में आकर कविता, आत्मकथा, और कहानी जैसी विधाओं मे सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह के भावों का चित्रण मिलता है। साठोतरी हिन्दी साहित्य में लेखक कभी लघु मानव की बात करता है, तो कभी दलित मानव की मनःस्थिति का वर्णन करता है। भटकता हुआ अकेलापन - यही इस युग की कविता का यथार्थ है। इस युग में दलित विमर्ष का कोई अलग स्वरूप नहीं है। मार्क्सवाद से प्रभावित इन जनवादी कविताओं में पूरा मनुष्य ही दलित है जिसे जनतंत्र ने अपहिज बना दिया है। जगदीश गुप्त ने अपने ‘शंबूक’ काव्य में वर्ण व्यवस्था पर इस प्रकार करारा प्रहार किया है-
‘‘जो व्यवस्था व्यक्ति के सत्कर्म को भी
मान ले अपराध
जो व्यवस्था फूल को
खिलने दे निर्बाध
जो व्यवस्था वर्ग सीमित
स्वाथे से हो ग्रस्त
वह विष्ाम घातक व्यवस्था
शीघ्र ही हो अस्त।’’(15)
इस प्रकार दलित साहित्य का आर्विभाव विभिन्न सोपानों से होता हुआ स्वयं दलित साहित्य में आया और इसी दशक मे दलित लेखकों का साहित्य भी अस्तित्व में आया। कहा जाता है कि दलित साहित्य पहले मराठी में आया लेकिन ऐसा नहीं है। इस दशक में ही मराठी और हिन्दी में एक साथ दलित साहित्य का उदय हुआ है- ‘‘इसी दशक में स्वयं दलित लेखकों का साहित्य अस्तित्व में आया। कहा जाता है कि पहले यह मराठी में आया, पर ऐसा नहीं है। दलित साहित्य का उदय हिन्दी और मराठी में लगभग एक ही समय हुआ है।’’(16)
हिन्दी साहित्य में साठ के दशक में अनके रचनाकार जैसे-चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु ललई सिंह, डॉ0 डी0 आर0 जाटव, रचनीकांत शास्त्री, रामस्वरूप वर्मा आदि लेखकों की पुस्तकें प्रकााशित हुईं। इनके अतिरिक्त डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, राहुल सांकृत्यायन, अछूतानंद आदि की रचनाओं ने भी क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए।
1960 के पश्चात् दलित साहित्य की रचनाओं के क्रम में तेजी आई और 1980 तक आते-आते यह हिन्दी में यह साहित्य स्थापित हो गया- ‘‘ 1960 के आसपास मराठी में दलित आंदोलन के उभार के साथ ही धीरे-धीरे दलित जीवन से जुड़ी रचनाओं का हिन्दी में आना शुरू हुआ तथा 1980 तक आते - आते हिन्दी में दलित साहित्य के रूप में रचनाओं की रचना शुरू हुई। इस बीच 1976 में नागपुर में पहली बार दलित साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ तथा इस आयोजन ने यह सिद्ध कर दिया कि दलित साहित्य के आंदोलन की प्रक्रिया अब धीमी नहीं, तेज होगी। इसी दौरान हिन्दी में दलितों द्वारा परम्परा के प्रति विद्रोह के रूप में छिटपुट लेखन की शुरूआत हुई, जिसने धीरे - धीरे एक विशेष प्रकार के साहित्य के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। आज हिन्दी में जो दलित साहित्य लिखा जा रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा दलितों द्वारा रचित है और वास्तव में वही ‘दलित साहित्य’ है।’’(17)
इधर हिन्दी में ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सोहनपाल सुमनाक्षर, धर्मवीर, श्यौराज सिंह बेचैन, कंवल भारती, जयप्रकाश कर्दम, प्रेमशंकर, सुशीला टांकभौरे, सुखबीर सिंह, कुसुम मेघवाल, रजतरानी मीनू, सूरजपाल सिंह चौहान, आदि प्रमुख हैं। इन रचनाकारों में अधिकांश कहानी, कविता, आत्मकथा, संस्मरण और आलोचना लगभग सभी विधाओं में लिख रहें हैं तथा भाषा पर अधिकार न होने के बावजूद अनगढ़ शैली में अपनी पहचान एक दलित साहित्यकार के रूप में बना रहे हैं। इस सम्बन्ध में मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने अपने पिंजरे’ का विशेष महत्व है। इस कृति में शहर में रहने वाले चमार समुदाय की पीड़ा को उभारा गया है। इस आत्मकथा में लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि दलित चाहे शहर में रहें या गांव में, सवर्णों की बस्ती में रहे या मुस्लिम बस्ती में उसे घोर अपमान ही सहना पड़ता है। लेखक अपनी पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त करता है-‘‘हम लम्बे समय से अपमान सहते आये थे। पर गुनहगार न थे। हम हारे हुए लोग थे, जिन्हें आर्यों ने जीतकर हाशिए पर डाल दिया था। हमारे पास सिर्फ कड़वा अतीत और जख्मी अनुभव था। सदियों से गर्दिश में रहते - रहते हम अपने इतिहास से कट गये थे। अपनी संस्कृति भूल गये थे।’’(18)
बाल्मीकि समाज की असहनीय पीड़ाओं और भोगे हुए अनुभवों को ओमप्रकाश बाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में समेटा है। इस कृति में लेखक ने लिखा है-‘‘ एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने सांस ली है जो बेहद क्रूर और अमानवीय है, दलितों के प्रति असंवेदनशील भी।’’ इस पुस्तक में लेखक ने दलित ‘चूहड़ा’ समाज की दयनीय स्थिति का चित्रण किया है।
लेखक ने इस कृति में कई प्रश्न उठाए हैं जैसे आदर्श हिन्दू समाज में जहां पेड़ - पौधों, पशु - पक्षियों तक की पूजा की जाती है, वहां दलितों के प्रति उनका रवैया असहिष्णु क्यों है।
दलित साहित्य में केवल पुरूषों ने ही अपनी लेखनी नहीं चलाई बल्कि इधर महिला रचनाकारों ने भी अपनी भोगे यथार्थ को अपनी आत्मकथाओं में चित्रित करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से कौशल्या बैसंत्री ने अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में न केवल दलित होने की पीड़ा को जीवन्तता दी है अपितु स्त्री होने की पीड़ा को भी पाठकों को संवेदनशीलता के साथ अहसास करा दिया है। लेखिका का मानना है कि स्त्रियों के मामले में सवर्ण पुरूषों की सोच और दलित पुरूषों की सोच में कोई अंतर नहीं है। खुद लेखिका का जीवन इस बात का प्रमाण है कि उनके व्यक्तित्व निर्माण में सर्वाधिक बाधाएं उनकी बिरादरी के पुरूषों ने ही खड़ी की। लेखिका के शब्दों में-‘‘बाबा साहेब के निकट सहयोगी ने मेरे साथ जबरन यौनाचार करना चाहा। उन्हीें के बस्ती के लोगों ने मेरा जीना मुहाल कर दिया। इसलिए हमारी पहली मुठभेड़ सवर्ण पुरूष सत्ता से नहीं दलित पुरूष सत्ता से है।’’(19)
आज दलित साहित्य हिन्दी की सभी विधाओं में लिखा जा रहा है। प्रमुख रूप से काव्य ग्रन्थ, उपन्यास, कहानियां, नाटक, निबन्ध, आत्मकथाएं व आलोचना-ग्रंथोें में दलित विमर्श उपलब्ध है। इस प्रकार हम अंत में निष्कर्ष रूप में यही कह सकते हैं कि दलित साहित्यकारों ने दलित समाज के सम्पूर्ण दैन्य - दारिद्रय, अज्ञानता, अंधविश्वास, धार्मिक वितण्डता, शोषण एवं तिरस्कार का जीवन्त चित्रण किया है। चाहे आत्मकथा लेखक महार, मातंग, बाल्मीकि, केकाड़ी, उठाईगीर, चमार आदि किसी भी समाज का हो इनकी मूलभूत समस्याएं एक ही हैं और इसी एक समस्या ने हिन्दी में विशाल दलित लेखक वर्ग तैयार किया जिनका रचना कर्म दलित सवालों को न केवल प्रखर रूप से उठा रहा है, बल्कि उसके पक्ष में दलित साहित्य का माहौल भी विकसित कर रहा है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
(1) दलित साहित्य की भूमिका: कंवल भारती
(2) दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: शंरण कुमार लिम्बाले
(3) दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: शरण कुमार लिम्बाले
(4) दलित समाज: जिया लाल आर्य
(5) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 103
(6) कबीर ग्रंथावली: डा0 भगवत स्वरूप मिश्र, पृ0 101
(7) आलोचना, अप्रैल-जून, दलित विमर्श का इतिहास चक्र, ब्रजकुमार पाण्डेय, 2005, पृ0 60
(8) कबीर ग्रंथावली, पारसनाथ तिवारी, पद 162
(9) संत काव्य: आचार्य परसुराम चतुर्वेदी, पृ0 17
(10) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 106
(11) अछूत की शिकायत: हीरा डोम, 1914 सरस्वती पत्रिका
(12) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 113
(13) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 122
(14) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 123
(15) शंबूक (खण्ड काव्य ) : जगदीश गुप्त, पृ0 37
(16) दलित साहित्य का विमर्श: कंवल भारती, पृ0 123
(17) दलित साहित्य की मुख्यधारा: देवेन्द्र चौबे, पृ0 184
(18) अपने अपने पिंजरे: मोहनदास नैमिशराय, पृ0 39
(19) कथा-क्रम (दलित विशेषांक , नवम्बर 2000, पृ0 115
‘दलित साहित्य’ वास्तव में क्या है, इस पर विद्वानों ने विचार किया है। दलित साहित्यकार डा0 कंवल भारती के अनुसार-‘‘दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिनमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है, अपने जीवन-संघर्ष में जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनका उसी की अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला का नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है।’’(1)
दलित साहित्यकार श्री सी0बी0 भारत के अनुसार-‘‘ दलित साहित्य अब साहित्यिक विधाओं का अलग-अलग सा कोई अजूबा नहीें है, अपितु नवयुग का एक व्यापक, वैज्ञानिक, यथार्थपरक, संवेदनशील साहित्यिक हस्तक्षेप है जो कुछ तर्कसंगत वैज्ञानिक परम्पराओं का पूर्वाग्रहों से मुक्त साहित्यिक सृजन है, हम उसे दलित के नाम से संज्ञापित करते हैं। दलित साहित्य सामाजिक बदलाव का दस्तावेज है।‘‘(2)
शरण कुमार लिम्बाले के अनुसार-‘‘ दलित साहित्य अपना केन्द्रबिन्दु मनुष्य को मानता है। बाबा साहब के विचारों से दलित को अपनी गुलामी का अहसास हुआ, उसकी वेदना को वाणी मिली, क्योंकि उस मूल समाज को बाबा साहब के रूप में अपना नायक मिला। दलितों की वह वेदना दलित साहित्य की जन्मदात्री है। दलित साहित्य की वेदना ‘मैं‘ की वेदना नहीं, वह बहिष्कृत समाज की वेदना है।’’(3)
श्री माता प्रसाद के अनुसार-‘‘ दलित साहित्य वह साहित्य है जिसमें वर्ण समाज में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक दृष्टि से दलित, शोशित, उत्पीड़ित, अपमानित, उपेक्षित, तिरस्कृत, वंचित, निराश्रित, पराश्रित, बाधित, अस्पृश्य और असहाय है, पर साहित्य की रचनाएं हैं, वही दलित साहित्य की श्रेणी में आता है। इसमें बंधनों में जकड़ी स्त्रियां, बंधुआ मजदूर, दास, घुमन्तू जातियां, अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां आती हैं। दलित साहित्य वेदना, चीख और छटपटाहट का साहित्य है।’’(4)
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि भारत की अन्त्यज और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों को जो अशिक्षित और अज्ञान के अंधकार में जी रहीं थीं, दलित मानी गई और दलित साहित्य में आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पिछड़्रेपन को भी स्थान दिया गया है।
दलित साहित्य में हमें तीन श्रेणियां दिखाई देती हैं - पहली धारा उन दलित लेखकों की है जिन्होंने दलित जातियों में जन्म लिया और जिनके पास भोगा हुआ अनुभव, स्वानुभूतियां हैं। इसलिए इनके साहित्य में मनुष्य के भावों और विचारों की समश्टि है। दूसरी धारा या श्रेणी उन सवर्ण लेखकों की है जो दलित तो नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपने रचना संसार में दलितों का सहानुभूतिपूर्वक चित्रण किया है। कुछ लोग इन सवर्ण लेखकों द्वारा दलितो पर लिखे गये साहित्य को ‘दलित साहित्य’ नहीं मानते और इन पर आज भी विवाद है। तीसरी धारा या श्रेणी प्रगतिषील लेखकों की है जो दलित को सर्वहारा की स्थिति में देखते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के समय जब दलित मुक्ति का प्रश्न उठा और ‘पूना पैक्ट’ के बाद जब गांधीजी अछूतोद्धार के लिए काम कर रहे थे तो इसी समय प्रगतिशील साहित्य भी अस्तित्व में आया। इनका मानना है कि समाज परिवर्तनशील है और समाज का साहित्य भी परिवर्तनशील होना चाहिए। प्रेमचंद इस धारा के सशक्त लेखक है और डॉ0 अम्बेडकर तथा गांधीजी दोनों के विचारों का प्रभाव इन पर पड़ा इसलिए इन्होेंने ‘ठाकुर का कुआं‘, सद्गति जैसी कहानियों की रचना की। इस परम्परा का क्रमबद्ध विकास होता रहा। यह धारा आरम्भ से ही वेद और वर्ण व्यवस्था विरोधी रही है।
दलित साहित्य के उद्भव का जहां तक प्रश्न है, तो यह साहित्य सर्वप्रथम महाराष्ट्र में उत्पन्न हुआ। इसका कारण यह है कि महाराष्ट्र क्षेत्रों के दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे बहुत पहले ही खुल गये थे। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश के महापुरूषों - ज्योति बा फुले, डॉ0 अम्बेडकर एवं राजर्षि साहू जैसे जननायकों ने इस वर्ग को प्रेरणा दी और यही प्रेरणा हिन्दी भाशी प्रदेश के दलित वर्ग को भी मिली। दलित विमर्श के साहित्यिक युग को हम कुछ इस प्रकार वर्गों में बांट सकते हैं-
1. आदिकाल या प्रारम्भिक काल
2. 19वीं शती का दलित साहित्य
3. 20वीे शती का दलित साहित्य
4. प्रगतिश्ाील दलित साहित्य
5. 1960 के पश्चात् का दलित साहित्य
हिन्दी साहित्य के इतिहास के आदिकाल में दलित साहित्य का अर्थ वेद और वर्ण व्यवस्था विरोधी साहित्य माना जा सकता है। यह परम्परा बाद में बौद्धों, सिद्धों और नाथों से होती हुई मध्यकाल में संत साहित्य तक पहुंची है। कंवल भारती ने इसी बात को इस प्रकार कहा है-‘‘ लोकायत जनता का धर्म था........। उसने एक ऐसी विचार परम्परा को जन्म दिया वेद और वर्ण व्यवस्था विरोधी था। यह परम्परा बाद में बौद्धों, सिद्धों और नाथों से होती हुई मध्यकाल में दलित संतों तक पहुंची थी।’’(5)
मध्यकाल में कबीरदास तथा रैदास जैसे संतों ने इस धारा में अपना योगदान दिया। लेकिन यह योगदान वर्तमान जैसा नहीं है। निर्गुण संतों ने हिन्दू और मुस्लिम धर्मों में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करके इस धारा में योगदान दिया। इन्होंने न केवल धर्मो पर आघात किया बल्कि पाखण्ड और कुरीतियां फैलाने वाले मुल्ला और पण्डितों को लताड़ा भी। कबीर लिखते है-
‘‘सुर नर मुनिजन औलिया,
यह सब उरली तीर।
लह राम की गम नहीं,
तह घर किया कबीर।’’ (6)
भक्तिकाल की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इसमें अधिकांश निर्गुण भक्त कवि दलित जाति से सम्बद्ध रहे हैं। ‘‘ कबीर जुलाहे थे। संत सेना नाई जाति में पैदा हुए। रैदास चमार थे। दादू दयाल बनिया जाति में जन्मे थे। संत बखना मीरासी थे। दीन दरवेश लोहार थे। बिहार वाले दरियादास मुसलमान थे। संत त्रिलोचन वैश्य थे। कश्मीर की महिला संत लल्ला मेहतर जाति की थीं, जबकि महाराष्ट्र के नाम देव छीपी नामक जाति में पैदा हुए थे। निर्गुण संतों की पूरी जमात इस प्रकार निम्न वर्णों और निम्न वर्गीय थे जिनका व्यापक प्रभाव शिल्पी जातियां और श्रमिक वर्ग पर पड़ा था।’’(7)
इस युग के संत निर्भीक, स्पष्टवादी, साहसी, समानता की बात करने वाले तथा सत्यवादी थे। इसलिए सभी ने कहीं न कहीं छुआछूत, जाति-पांति का विरोध किया और मनुष्यमात्र के प्रति प्रेम की बात की। कबीर जाति के प्रति अभिमानी लोगों को समझाते हुए कहते है-
‘‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।।’’(8)
रैदास कबीर की भांति निडर तो नहीं थे किन्तु उनके पदों में एक अविचल आत्मविश्वास दिखाई देता है। उनके अनुसार कोई भी व्यक्ति जाति से नहीं गुणों से ऊंचा होता है-
‘‘रैदास वामन मत पूजिए, जऊ होवे गुनहीन।
पूजहिं चरन चांडाल के, जऊ होवे गुन प्रवीन।।‘‘(9)
कबीर आदि संतों ने जिस दलित विचारधारा का सूत्रपात किया था आगे चलकर इस धारा का विकास हमें दिखाई नहीं देता। लेकिन 19वीं शताब्दी में साहित्य की यह दलित धारा भारत की लगभग सभी भाषाओं में पुनः उभरती हुई नजर आती है। इसका कारण यह था कि इस युग तक आते - आते भारत में अंग्रेजी राज स्थापित हो चुका था और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से अछूतों में शिक्षा का प्रभाव पहुंचने लगा था। इसके प्रभाव से प्रायः सभी भाषाओं में दलित रचनाकार पैदा हुए।
19 वीं शताब्दी में हम सबसे पहले महाराष्ट्र में इस दलित धारा को प्रभाव देखते हैं। महाराष्ट्र में ज्योति बा फूले के नाटकों और पंवाड़ा काव्य में इस विचारधारा के सबसे पहले दर्शन होते है। महात्मा फूले की प्रख्यात रचना ‘गुलामगीरी’ है जिसमें उन्होेंने ब्राह्मणवाद के आवरण के अंदर विष्ट अंग्रेजी राज को गुलामगीरी नाम दिया था। इसमें ब्राह्मणवाद पर जितना तीखा प्रहार मिलता है उतना और ग्रंथ में नहीं मिलता। यह रचना संवाद शैली में लिखी गई है। वे लिखते है-
‘‘मनु जलकर खाक हो गया,
जब अंग्रेज आया।
ज्ञानरूपी मां ने,
हमको दूध पिलाया।।
अब तो तुम भी पीछे न रहो।
भाइयों, पूरी तरह जलाकर,
खाक कर दो मनुवाद को।।’’(10)
इनकी कविताओं में दलित विमर्श, अछूत और शुद्रों के लिए नवजागरण का विमर्श है।
20वीं शताब्दी में दलित विमर्श और व्यापकता के साथ दिखाई देता है। महाराष्ट के साथ - साथ यह विमर्श अब अन्य राज्यों में भी दिखाई देता है। इसलिए इसी समय केरल में के0वी0 करूप्पन कवि हुए जो जाति से अछूत (मछूआरे) थे। इन्होंने शंकराचार्य के ‘अद्वैत दर्शन’ की नयी व्याख्या करते हुए अपनी ‘जाति कुंभी’ नाम से एक लम्बी कविता लिखी। वास्तव में केरल में दलित विमर्श का आंदोलन चलाने वाले नारायण गुरू है। इन्होंन अपनी रचनाओं में ‘जाति मत पूछो, जाति मत बताओ और जाति के बारे में मत सोचो’ के नारे को लोकप्रिय बनाया। इनके विश्य कुमारन आसन ने भी इस विचारधारा में अपना योग दिया और ‘चांडाल भिक्षुकी’ और ‘दुरवस्था’ जैसी रचनओं में जातिवादिता का विरोध किया।
20वीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य में दलित चेतना और अधिक प्रखर रूप में हमारे सामने आती है। इस युग में दर्जनों दलित लेखक इस धारा में सक्रिय हैं। इनमें हीरा डोम और अछूतानंद के नाम उल्लेखनीय है। हीरा डोम ने एकमात्र कविता लिखी जो 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में ‘अछूत की शिकायत’ नाम से छपी थी। इसे विशुद्ध दलित संवेदना की कविता माना जाता है, जिसमें एक अछूत अपने कष्टों का वर्णन भगवान के सामने और सबके सामने कर रहा है-
‘‘हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेजे से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुःख भगवानों न देखता जे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
*****
डोम जानिके हमनी के छुए से डेरइले,
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइले जा।
पांके में से भरि, पियतानी पानी,
पनही से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के इतनी काही के हलकानी।’’(11)
इसी युग में दूसरे सबसे प्रभावी लेखक स्वामी अछूतानंद हैं जो ‘हरिहर‘ उपनाम से कविता करते थे। ये कवि होने के साथ-साथ नाटककार और पत्रकार भी थे। इन्होंने उत्तर भारत में ‘आदि हिन्दू’ आंदोलन भी चलाया। आदि हिन्दू पत्र निकालकर इन्होंने दलित पत्रकारिता को जन्म दिया। अपने पत्र में इन्होंने दलित पर होने वाले अत्याचारों को प्रकाशित किया साथ ही दलितों को उनके इतिहास से परिचित कराकर उनमें चेतना और स्वाभिमान उत्पन्न करने की कोशिश की। स्वामी अछूतानंद की एक कविता ‘मनुस्मृति’ में हीरा डोम की कविता जैसे ही भाव दिखाई देते हैं-
‘‘निसदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है।
ऊपर न उठने देती नीचे गिरा रही है।’’(12)
स्वामीजी की इस दलित धारा को शंकरानंद, केवलानंद और अयोध्यानाथ दंडी जैसे कवियों ने आगे बढ़ाया। आज भी केवलानंद का यह गीत दलित वर्गों में प्रसिद्ध है-
‘‘मनु जी तुमने वर्ण बना दिए चार।
जा दिन तुमने वर्ण बनाया
बनिया पीले बनाये क्यों ना।
गेरे ब्राह्मण, लाल क्षत्रिय,
न्यारेऊ रंग बनाये क्यों ना।
शुद्र बनाते काले वर्ण के,
पीछे को पैर लगवाए क्यों ना।’’
दलित चेतना की यह धारा सवर्ण लेखकों तक भी आई। इसका सीधा सा कारण 20वीं शताब्दी के राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों का प्रभाव था। डा0 अम्बेडकर और महात्मा गांधी जी के बीच हुए संवाद और ‘पूना पैक्ट’ (1932) के समझौते ने सवर्ण लेखकों को इस ओर प्रेरित किया। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मैथिलीशरण गुप्त, गया प्रसाद शुक्ल, व रामचन्द्र शुक्ल आदि ने दलितों के ऊपर सहानुभूुतिपूूर्वक रचनाएं लिखीं। हालांकि इनकी रचनाओं में दलित लेखकों जैसी दलित मुक्ति का कोई स्वर दिखाई नहीं देता। निराला प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते थे लेकिन बाद में उन्होंने अपनी विचारधारा में परिवर्तन किया और दलितों के समर्थन में ‘चतुरी चमार’ जैसी रचनाएं भी लिखीं।
हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील धारा जो 1930 में प्रारम्भ हुई और जिसका विधिवत् नामकरण 1936 में हुआ, दलित विमर्श की यह धारा विभिन्न सोपानों को पार करती हुई इस आंदोलन तक भी पहुंची। प्रेमचंद इस धारा से जुड़े पहले लेखक थे जिन्होंने अपनी रचनाओं में दलित समस्या का चित्रण किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में दलितों के प्रति सवर्णों के कठोर व्यवहार की निन्दा की और डा0 अम्बेडकर ने तालाब में पानी लेने और मंदिर में प्रवेश के अधिकार को लेकर जो आंदोलन किए उससे प्रभावित होकर ‘ठाकुर का कुंआ’, ‘मंदिर’ और ‘सद्गति’ जैसी दलित-विशयक कहानियां लिखीं। आगे चलकर प्रेमचंद के पश्चात् प्रगतिशील साहित्य मे दलित वर्ग की स्थिति मजदूर वर्ग के रूप में चित्रित की गई। मुक्तिबोध, नरेन्द्र शर्मा, त्रिलोचन, धूमिल और नागार्जुन जैसे साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में दलितों को शोषित वर्ग के रूप में चित्रित किया है। जैसे धूमिल की प्रसिद्ध रचना ‘मोचीराम’ में दलित मोची के लिए समाज का हर आदमी एक जोड़ी जूता है-
‘‘रांपी से उड़ी हुई आंखों ने
मुझे क्षणभर टटोला, और
और फिर पतियाते हुए स्वर में बोला
बाबू जी सच कहूं
मेरी निगाह में, न कोई बड़ा है, न छोटा
मेरे लिए हर आदमी
एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।’’(13)
इसी प्रकार नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘हरिजन गाथा’ में दलितों के सामूहिक हत्याकाण्ड के विरूद्ध अराजक तत्वों के खिलाफ एक विद्रोही स्वर दिखाई देता है-
‘‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं-
तेरह के तेरह अभागे
टकिंचन मनुपुत्र
जिन्दा झोंक दिए गए हों
प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में
साधन संपन्न ऊंची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।’’(14)
दलित विमर्श का तीव्र विद्रोह के साथ विकास हिन्दी साहित्य में 1960 के बाद दिखाई देता है। इस युग में आकर कविता, आत्मकथा, और कहानी जैसी विधाओं मे सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह के भावों का चित्रण मिलता है। साठोतरी हिन्दी साहित्य में लेखक कभी लघु मानव की बात करता है, तो कभी दलित मानव की मनःस्थिति का वर्णन करता है। भटकता हुआ अकेलापन - यही इस युग की कविता का यथार्थ है। इस युग में दलित विमर्ष का कोई अलग स्वरूप नहीं है। मार्क्सवाद से प्रभावित इन जनवादी कविताओं में पूरा मनुष्य ही दलित है जिसे जनतंत्र ने अपहिज बना दिया है। जगदीश गुप्त ने अपने ‘शंबूक’ काव्य में वर्ण व्यवस्था पर इस प्रकार करारा प्रहार किया है-
‘‘जो व्यवस्था व्यक्ति के सत्कर्म को भी
मान ले अपराध
जो व्यवस्था फूल को
खिलने दे निर्बाध
जो व्यवस्था वर्ग सीमित
स्वाथे से हो ग्रस्त
वह विष्ाम घातक व्यवस्था
शीघ्र ही हो अस्त।’’(15)
इस प्रकार दलित साहित्य का आर्विभाव विभिन्न सोपानों से होता हुआ स्वयं दलित साहित्य में आया और इसी दशक मे दलित लेखकों का साहित्य भी अस्तित्व में आया। कहा जाता है कि दलित साहित्य पहले मराठी में आया लेकिन ऐसा नहीं है। इस दशक में ही मराठी और हिन्दी में एक साथ दलित साहित्य का उदय हुआ है- ‘‘इसी दशक में स्वयं दलित लेखकों का साहित्य अस्तित्व में आया। कहा जाता है कि पहले यह मराठी में आया, पर ऐसा नहीं है। दलित साहित्य का उदय हिन्दी और मराठी में लगभग एक ही समय हुआ है।’’(16)
हिन्दी साहित्य में साठ के दशक में अनके रचनाकार जैसे-चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु ललई सिंह, डॉ0 डी0 आर0 जाटव, रचनीकांत शास्त्री, रामस्वरूप वर्मा आदि लेखकों की पुस्तकें प्रकााशित हुईं। इनके अतिरिक्त डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, राहुल सांकृत्यायन, अछूतानंद आदि की रचनाओं ने भी क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए।
1960 के पश्चात् दलित साहित्य की रचनाओं के क्रम में तेजी आई और 1980 तक आते-आते यह हिन्दी में यह साहित्य स्थापित हो गया- ‘‘ 1960 के आसपास मराठी में दलित आंदोलन के उभार के साथ ही धीरे-धीरे दलित जीवन से जुड़ी रचनाओं का हिन्दी में आना शुरू हुआ तथा 1980 तक आते - आते हिन्दी में दलित साहित्य के रूप में रचनाओं की रचना शुरू हुई। इस बीच 1976 में नागपुर में पहली बार दलित साहित्य सम्मेलन का आयोजन हुआ तथा इस आयोजन ने यह सिद्ध कर दिया कि दलित साहित्य के आंदोलन की प्रक्रिया अब धीमी नहीं, तेज होगी। इसी दौरान हिन्दी में दलितों द्वारा परम्परा के प्रति विद्रोह के रूप में छिटपुट लेखन की शुरूआत हुई, जिसने धीरे - धीरे एक विशेष प्रकार के साहित्य के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। आज हिन्दी में जो दलित साहित्य लिखा जा रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा दलितों द्वारा रचित है और वास्तव में वही ‘दलित साहित्य’ है।’’(17)
इधर हिन्दी में ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सोहनपाल सुमनाक्षर, धर्मवीर, श्यौराज सिंह बेचैन, कंवल भारती, जयप्रकाश कर्दम, प्रेमशंकर, सुशीला टांकभौरे, सुखबीर सिंह, कुसुम मेघवाल, रजतरानी मीनू, सूरजपाल सिंह चौहान, आदि प्रमुख हैं। इन रचनाकारों में अधिकांश कहानी, कविता, आत्मकथा, संस्मरण और आलोचना लगभग सभी विधाओं में लिख रहें हैं तथा भाषा पर अधिकार न होने के बावजूद अनगढ़ शैली में अपनी पहचान एक दलित साहित्यकार के रूप में बना रहे हैं। इस सम्बन्ध में मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने अपने पिंजरे’ का विशेष महत्व है। इस कृति में शहर में रहने वाले चमार समुदाय की पीड़ा को उभारा गया है। इस आत्मकथा में लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि दलित चाहे शहर में रहें या गांव में, सवर्णों की बस्ती में रहे या मुस्लिम बस्ती में उसे घोर अपमान ही सहना पड़ता है। लेखक अपनी पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त करता है-‘‘हम लम्बे समय से अपमान सहते आये थे। पर गुनहगार न थे। हम हारे हुए लोग थे, जिन्हें आर्यों ने जीतकर हाशिए पर डाल दिया था। हमारे पास सिर्फ कड़वा अतीत और जख्मी अनुभव था। सदियों से गर्दिश में रहते - रहते हम अपने इतिहास से कट गये थे। अपनी संस्कृति भूल गये थे।’’(18)
बाल्मीकि समाज की असहनीय पीड़ाओं और भोगे हुए अनुभवों को ओमप्रकाश बाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में समेटा है। इस कृति में लेखक ने लिखा है-‘‘ एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने सांस ली है जो बेहद क्रूर और अमानवीय है, दलितों के प्रति असंवेदनशील भी।’’ इस पुस्तक में लेखक ने दलित ‘चूहड़ा’ समाज की दयनीय स्थिति का चित्रण किया है।
लेखक ने इस कृति में कई प्रश्न उठाए हैं जैसे आदर्श हिन्दू समाज में जहां पेड़ - पौधों, पशु - पक्षियों तक की पूजा की जाती है, वहां दलितों के प्रति उनका रवैया असहिष्णु क्यों है।
दलित साहित्य में केवल पुरूषों ने ही अपनी लेखनी नहीं चलाई बल्कि इधर महिला रचनाकारों ने भी अपनी भोगे यथार्थ को अपनी आत्मकथाओं में चित्रित करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से कौशल्या बैसंत्री ने अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में न केवल दलित होने की पीड़ा को जीवन्तता दी है अपितु स्त्री होने की पीड़ा को भी पाठकों को संवेदनशीलता के साथ अहसास करा दिया है। लेखिका का मानना है कि स्त्रियों के मामले में सवर्ण पुरूषों की सोच और दलित पुरूषों की सोच में कोई अंतर नहीं है। खुद लेखिका का जीवन इस बात का प्रमाण है कि उनके व्यक्तित्व निर्माण में सर्वाधिक बाधाएं उनकी बिरादरी के पुरूषों ने ही खड़ी की। लेखिका के शब्दों में-‘‘बाबा साहेब के निकट सहयोगी ने मेरे साथ जबरन यौनाचार करना चाहा। उन्हीें के बस्ती के लोगों ने मेरा जीना मुहाल कर दिया। इसलिए हमारी पहली मुठभेड़ सवर्ण पुरूष सत्ता से नहीं दलित पुरूष सत्ता से है।’’(19)
आज दलित साहित्य हिन्दी की सभी विधाओं में लिखा जा रहा है। प्रमुख रूप से काव्य ग्रन्थ, उपन्यास, कहानियां, नाटक, निबन्ध, आत्मकथाएं व आलोचना-ग्रंथोें में दलित विमर्श उपलब्ध है। इस प्रकार हम अंत में निष्कर्ष रूप में यही कह सकते हैं कि दलित साहित्यकारों ने दलित समाज के सम्पूर्ण दैन्य - दारिद्रय, अज्ञानता, अंधविश्वास, धार्मिक वितण्डता, शोषण एवं तिरस्कार का जीवन्त चित्रण किया है। चाहे आत्मकथा लेखक महार, मातंग, बाल्मीकि, केकाड़ी, उठाईगीर, चमार आदि किसी भी समाज का हो इनकी मूलभूत समस्याएं एक ही हैं और इसी एक समस्या ने हिन्दी में विशाल दलित लेखक वर्ग तैयार किया जिनका रचना कर्म दलित सवालों को न केवल प्रखर रूप से उठा रहा है, बल्कि उसके पक्ष में दलित साहित्य का माहौल भी विकसित कर रहा है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
(1) दलित साहित्य की भूमिका: कंवल भारती
(2) दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: शंरण कुमार लिम्बाले
(3) दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र: शरण कुमार लिम्बाले
(4) दलित समाज: जिया लाल आर्य
(5) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 103
(6) कबीर ग्रंथावली: डा0 भगवत स्वरूप मिश्र, पृ0 101
(7) आलोचना, अप्रैल-जून, दलित विमर्श का इतिहास चक्र, ब्रजकुमार पाण्डेय, 2005, पृ0 60
(8) कबीर ग्रंथावली, पारसनाथ तिवारी, पद 162
(9) संत काव्य: आचार्य परसुराम चतुर्वेदी, पृ0 17
(10) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 106
(11) अछूत की शिकायत: हीरा डोम, 1914 सरस्वती पत्रिका
(12) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 113
(13) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 122
(14) दलित विमर्श की भूमिका: कंवल भारती, पृ0 123
(15) शंबूक (खण्ड काव्य ) : जगदीश गुप्त, पृ0 37
(16) दलित साहित्य का विमर्श: कंवल भारती, पृ0 123
(17) दलित साहित्य की मुख्यधारा: देवेन्द्र चौबे, पृ0 184
(18) अपने अपने पिंजरे: मोहनदास नैमिशराय, पृ0 39
(19) कथा-क्रम (दलित विशेषांक , नवम्बर 2000, पृ0 115
पता
शोधार्थी छात्र
जीवाजी विश्वविद्यालय ,
ग्वालियर ( म.प्र.)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें