राजा सिंह ( राजाराम सिंह )
आज अम्मा का खत आया है। अम्मा खत कभी - कभी ही लिखा करती है, जब लिखना मजबूरी हो जाता है। कहती है - एक तो हमें लिखना नहीं आता, फिर लिखाई कम रुलाई ज्यादा होती है। अम्मा खत लिखते - लिखते रोने लगती है फिर सम्हल कर लिखती है फिर रोती है। अम्मा की लिखावट ऐसी है जैसे चींटा दवात से निकल कर कागज पर भाग रहा हो। आज वहीं चींटा कागज से उड़कर मेरे जेहन में घूम रहा है। दिल और दीमाग को कुतर - कुतर कर खा रहा है।
अम्मा ने लिखा है - रजुआ, तेरे दादा की तबियत अब मरणासन्न हो गयी है। उनकी आँखें तुम्हें खोजती रहती है। ये तू कौन जनम का बैर चुका रहा है कि उनकी बीमारी की खबर सुनकर भी तेरे खून में तड़पन नहीं होता है।
मेरा खून .... दादा का खून .... ये खून की ही बात है कि मैं चार साल से घर नहीं गया हूं। दादा का खून बोल रहा है - अगर मेरे खून से पैदा हो तो मेरा मरा मुँह ही देखना ... मेरा खून सुन रहा है। आदेश मना रहा है ... नही, चुनौती स्वीकार कर रहा है। हर बार दीमाग समझाता है। आवेश निकली बात, हृदय की आवाज नहीं होती। मगर खून कुतर्क करता है, दशरथ ने भी राम को वनवास का आदेश हृदय से नहीं दिया था, मगर राम ने उसे निभाया। ओह, तो तुम राम हो ? एक ऐसे राम जिसने खुद को नहीं दशरथ को वनवास दिया है। अम्मा की बीमारी हो या दादा की। छोटी बहन की शादी हो या भतीजे का जन्म दिन, तुम नहीं गये। क्यों? क्योंकि तुम्हें दादा का जिन्दा मुँह नहीं देखना था। वाह, क्या पितृभक्ति है? नहीं, ऐसा नहीं है। मैं चाहता हूं कि दादा सिर्फ दादा एक बार कह दें आने के लिए। इसी इन्तजार में, मैं अभी तक दादा की गम्भीर बीमारी की खबर सुनकर भी अपने आप को रोक रखा है। मगर आखिर कब तक?
- क्यों मिस्टर, किस सोच में डूबे हो? सरो ने बालों में अंगुलियाँ चलाकर बाल बिखरा दिये। हल्की सी सरसराहट होती है, जो बालों से उतर कर दिल में समा जाती है। सरो जब हल्के मूड में होती है तो मुझे मिस्टर ही कहती है।
मैं एक पल उसके चेहरे को देखता हूं। वही मुस्कुराती आँखें और संतुष्टि का भाव लिए चेहरा। अपनी पत्नी से काफी ईर्ष्या होती है। उसे कभी परेशान एवं बेचैन होते नहीं देखा। किसी काम में हड़बड़ी नहीं। कैसे अपने आप को बचा कर रख पाती है, भीतरी एवं बाहरी दबाओं से? ताज्जुब होता है।
मैं बिना किसी भूमिका के अम्मा का खत उसकी ओर बढ़ा देता हूं। खुद बुरी तरह अनिर्णय की स्थिति में अपना सर थामें बैठा रहता हूं। सरिता पत्र एक सांस में पढ़ जाती है।
- क्या सोचा है राजी? सरो का चेहरा हल्के तनाव में लगता है। मैं अभी भी अनिर्णय की स्थिति से उबर नहीं पाया हूं। अपना प्रश्नवाचक चेहरा उसकी तरफ उठा देता हूं।
- सोचने का वक्त नहीं है, राजी। जिद उतनी ही अच्छी होती है, जितनी की अपने अहं को संतुष्टि मिलती हो। उसे जिद से क्या फायदा जिससे न केवल दूसरों को कष्ट पहुंचे बल्कि अपनी आत्मा भी धिक्कारे। मैं तुम से पहले भी ...। धीमी, शांत एवं गहरी आवाज। जिससे निकलते हैं नपे - तुले एवं वजनी शब्द। जिनकी काट मेरे लिए काफी मुश्किल का काम होता है। ऐसे समय जबकि मैं काफी दुखी एवं पस्त था, उसका समझाना मेरे भीतर छायी अवसाद की काली छाया को और गहन करता और मुझे अपराध - बोध की ओर ले जा रहा था। मैं बीच में ही बोल पड़ा - ऐसी बात नहीं है सरो। मैं जाने की ही सोच रहा हूं। सोचकर हिम्मत नहीं होती है। कहीं कुछ वैसा दुबारा न घटित हो जाय। मेरे भीतर आँसुओं का रेला चला था जिसे मैंने जबरदस्ती आँखों से पहले ही रोक लिया था मगर चेहरा शायद मेरी यातना कह गया था।
सरिता घुटने के बल फर्श में बैठ गयी। उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। आँखों में दर्द की अनुभूति थी - राजी, अगर मैंने तुम्हें अपमानित एवं प्रताड़ित होते नहीं देखा तो क्या महसूस भी नहीं कर सकती हूं? मगर इस समय सब पुरानी बातों को भूल जाया जया तो बेहतर रहेगा। इस समय उन्हें हमारी जरुरत है और हमें जाना चाहिए। चलो, तैयार हो जावो।
सरिता चली गयी थी। निश्चय ही मेरी यात्रा की तैयारी करने। मैं पलंग में निस्तेज पसरा हुआ था। अतीत चक्कर पर चक्कर लगा रहा था और मेरे अपनों से विमुख कर रहा था। वर्तमान कशिश बनकर मूर्तरुप में मेरे सामने खड़ा था और खींच रहा था मेरे अपनों की तरफ? रस्साकसी हो रही थी अतीत एवं वर्तमान के बीच।
- अरे, तुम अभी तक तैयार नहीं हुए। सरो को देखता हूं, देखता ही रह जाता हूं। शायद रोकर आयी है। आँसुओं से धुला हुआ चेहरा। शायद अपराध - बोध से ग्रसित होता उसका चेहरा। अपने को रोकता हूं। मेरे अंदर कहीं कुछ ऐसा नहीं है कि मुझे सरिता को लेकर कभी पछतावा हुआ हो। फिर सरिता ही ऐसी क्यों लग रही है?
सरिता एक आवश्यकता है मेरे लिए। उससे बेहद प्रभावित हूं। उसके दो टूक निर्णय लेने की क्षमता का मैं कायल हूं। साफ और बेलाग विचारधारा और उसी अनुरुप उसका आचरण। कभी - कभी सोचता हूं - सरो में क्या कमी है? सोच नहीं पाता हूं। सरिता के विशाल व्यक्तित्व में समाता चला जाता हूं।
मेरा नाम सरिता कोरी है। कालेज के दिनों में डंके की चोट पर अपना और अपनी जाति का परिचय देती हुई दबंग लड़की। पढ़ाई में जहीन और कालेज के हर समारोह की जान। जिसके आस - पास मंडराने के लिए तथाकथित उच्च जाति के लड़के बहाना खोजा करते थे और उन्हें बुरी तरह लताड़ती एवं फटकारती सरिता कोरी। मेरी तो उसको देखते ही हालत खराब हो जाया करती थी। एक तो उसका बहुुमुखी मुखर व्यक्तित्व का रौब ऊपर से बेमिशा हुश्न, दोनों मिलकर मेरे भीतर दहशत पैदा किया करते थे। उसको देखकर काश ... सोचने वाला एवं आहें भरने वाला मैं भी था। आज वही मेरी पत्नी के रुप में मेरे साथ है। पता नहीं सरिता कोरी ने मेरे में क्या देखा की मेरे जैसे दब्बू से घुलती चली गयी और अंत में कुमारी सरिता कोरी से मिसेज राजीव सिंह बन गयी। एक दिन मैंने पूछा तो सरो ने बताया - राजी, तम्हीं ऐसे थे जो मेरे तलुवे सहलाने को आतुर नहीं रहते थे। स्वाभाविक है तुममें कुछ ऐसा अपना था, जो औरों में नहीं था। सरो, सरिता मुझे बिस्तर को छोड़ कर कभी - कभी पत्नी नहीं नजर आती है। सिर्फ एक सच्ची दोस्त ही लगती है।
- राजी एक बात कहूं? मैं तुम्हारे साथ चलना चाहती हूं।
- ऐं ... ये क्या कह रही है सरो? आवाक सा देखता रह जाता हूं। उसकी आँखों में टटोलने लग जाता हूं। उसकी कही बातों का अर्थ? सरो, उस घर में जाने को कह रही है जहां उसके साथ सम्बंध होने की वजह से ही अपने लड़के को पनाह नहीं लेने दी। सारे संबंध मृत हो गये थे। मेरे एक निर्णय से मेरे घर में भूचाल आ गया था। दादा की तानाशाही सत्ता को पहली बार चुनौती मिली थी।
दादा बेचैनी से टहल रहे हैं। आँखों एवं पोर - पोर से चिनगारियाँ छूट रही है। बार - बार उनका हाथ लाठी की चांदी वाली मूठ पर चला जाता है मगर पता नहीं क्यों वापस हो जाता है? गालियों की अनवरत श्रृंखला जारी है। जिसका निशाना मैं कम, सरो ज्यादा बन रही है। मैं सामने दीवाल से टेक लगाये खड़ा हूं। अम्मा जमीन में बैठी है। पति और बेटे की हरकतों को सशंकित दृष्टि से निहारते हुए। किसी भावी आशंका से भयभीत उनका चेहरा सहमा सा लग रहा है। बाहर बरामदे में भइया भाभी एवं गुड़िया बैठी है। अपलक कमरे की ओर आँख और कान लगाये। जिनके लिए दादा की इच्छा के सामने सर झुका देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। घर के सभी लोग ये मानते हैं कि माँ - बाप जो कुछ करते हैं अपने बच्चों के भले के लिए ही करते हैं। भगवान जो कुछ करता है अच्छा ही करता है। इस बात से मुझे भी इन्कार नहीं है। मगर मैं ये भी मानता हूं कि हर मामले में माँ - बाप ही सही होगें, जरुरी नहीं है। बच्चे भी अपने लिए बेहतर सोच सकते हैं। कर सकते हैं।
दादा गरज रहे हैं - रंडी, कुतिया के चक्कर में पड़ा है साला घोंचू। सरो, सरिता रंडी है। कुतिया है। शब्द कान में प्रवेश करते हैं और शरीर की धमनियाँ और शिराओ में फैलते चले जाते हैं। खून उबल - उबल कर निकलने लगता है और हाथों की पोरों में इकठ्ठा होने लगता है। ऐसा लगता है कि हाथ लोहे के हो गये हैं। दादा, दादा नहीं लगते हैं। सामने सिर्फ नजर आता है सरो, सरिता का दुश्मन। रोम - रोम से घृणा का सैलाब धकियाता है सामने खड़े व्यक्ति का गला घोंट देने के लिए। आंखें सामने गला देखती है फिर मुड़ती है। अम्मा का झक सफेद कपड़े के मानिंद चेहरा देखती है। शर्मिंदगी की एक लहर उठती है जो आँखों से प्रवेश करके शरीर में उतर जाती है। शरीर का सारा खून पानी बन जाता है। असहायता के बोझ के कारण शरीर दोहरा होता चला जाता है। मैं उसी कोने में लद्द सा गिर पड़ता हूं। अपना चेहरा दोनों हाथों से छिपाये।
दादा एक पल रुकते हैं। देखते हैं, फिर चालू हो जाते हैं- चोप्पा कहीं का? कुछ बोलता नहीं है और हरकतें ऐसी करता है कि बड़ों - बड़ों के कान काट ले। सूर्यवंशी ठाकुर की औलाद, चमार से शादी करेगें। हिस्स ... थूं ....और जमीन पर थूक देते हैं .... बदजात शर्म, हया सब मर गयी है।
- क्या चमारों में खून नहीं होता? या फिर उनका खून दोयम दर्जे का होता है? उनके संस्कार किसी उच्च जाति के लड़की से कम नहीं होते। मेरी आत्मा एवं पढ़ाई एक साथ बोल उठती है।
- मादर ... ज्ञान बघारता है। दादा रौद्र रुप में आ गये थे। उनकी एक लात उठी थी, मेरे शरीर को गड्ड - मड्ड कर देने के लिए कि बीच में अम्मा आ गयी। दादा की लात लहराती रह गयी और फिर वापस। भइया, भाभी एवं गुड़िया भाग कर कमरे में आ गये थे। किसी अनहोनी को टालने की गर्ज से। अब दादा की गालियों का प्रकोप अम्मा पर कहर बनकर टूट रहा था। सब मुझे घेरे बैठे थे। दादा कमरे से बाहर निकल गये थे ....।
- ऐं, क्या सोचने लगे ? सरो की आवाज आती है और दीमाग को झकझोर कर रख देती है। मैंने कहा - चाहता तो मैं भी हूं सरो कि तुम साथ चलो। कम से कम एक बार घर वाले तुम्हें देख ले, बात कर लें तो उनकी जातिगत वैशिष्टता का काला जाला साफ हो सके। मगर ...।
- अगर - मगर कुछ नहीं। मैं नहीं मानती तुम्हारे घर वाले तुमसे अलग नेचर के होगें। हमें उनका विश्वास जीतना चाहिए। फिर राजी, अगर उन लोगों ने हमारा तिरस्कार किया है तो हम लोगों ने भी उनकी घृणा एवं तिरस्कार का जवाब उसी भाषा में नहीं दिया है क्या ? सोचो और सोच कर देखो। क्या हम लोगों ने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है कि उनकी घृणा एवं तिरस्कार को कम किया जाय? नि:संदेह नहीं। राजी, बच्चे के पैदा होते ही मानव उससे अपेक्षायें एवं कल्पनाएं करने लगता है और उनसे जुड़ी सुख - सुविधाओं से अपने भविष्य को सजाता है। सदैव उसी के अनुरुप उनका प्रयास रहता है। इसलिये अपने एवं समाज के संस्कार लादने लगता है। जब कोई बच्चा उसकी अपेक्षाओं एवं कल्पनाओं के विपरीत आचरण करता है। उनके संस्कारों को ठोकर मारता है तो उस व्यक्ति का तिलमिलाना स्वाभाविक ही है। ये व्यक्ति विशेष एवं उसके संस्कारों पर निर्भर करता है कि उसकी अपने विद्रोही लड़के के प्रति क्या प्रतिक्रिया होती, कितनी गहरी एवं व्यापक ? फिर भी कोई व्यक्ति सदैव उसी तिक्तता से नहीं रह सकता जितनी भावनाओं के चोट पहुँचने के समय होती है। गैरों के साथ तो ये भी कुछ हद तक सम्भव है परन्तु अपन खून के प्रति ऐसा सम्भव नहीं हो पाता है। सरो अपनी बात कह चुकी थी और मुझे वर्षों पीछे ढकेल गई थी।
मैं देख रहा हूं, दादा मेरी अँगुली थामें सारे गाँव में घूम रहे हैं। सबसे कह रहे हैं - रजुआ को मैं डाक्टर बनाऊंगा। एक ऊंचे दर्जे का डाक्टर। बड़कवा तो कुछ खास पढ़ नहीं पायेगा। कुछ दीमाग बोदा लगता है। उसके लिये खेती - बाड़ी ठीक रहेगी। आखिर कोई न कोई तो इस जायदाद को सम्हालने वाला चाहिए.. दादा मिठाई बाँट रहे हैं। उसके अच्छे नम्बरों से पास होने पर ... याद आता है ... रात - भर खुशी में रंडी का नाच होता रहा था।
एक उमस - सी महसूस होती है। लगता है - इस उमस में मैं घुटकर मर जाऊंगा ... दादा कह रहे हैं - रजुआ की शादी अपने से भी ऊँचे खानदान में करुँगा और दहेज ... हंस पड़ते हैं। जिस साले की हजार दफे गरज होगी, देकर शादी करेगा। जी भर के लूंगा। मेरी रजुआ एकदम अंग्रेज लगता है। एकदम राजों - महराजों जैसा .....।
दादा का अपने प्रति लगाव सालने लगता है। वही रजुआ आज उससे रुठा बैठा है। भावनाओं का ज्वार प्रबल हो उठता है। मैं एक झटके से उठ बैठता हूं। एक नजर सरो की तरफ देखता हूं और उसकी तौलती नजरों का शिकार हो जाता हूं।
मैं हथियार डाल देता हूं। परन्तु आत्म - समर्पण करने वाले के दिल में जो भाव होते हैं वे फिर आखिरी क्षण प्रकट हो उठते हैं। मगर, सरों कहीं तुम्हारे कयाश झूठे पड़ गये और तुम्हारे साथ भी ऐसा - वैसा कुछ हो गया जिसकी मैं आशंका करता हूं तो मैं सह नहीं पाऊंगा। और कुछ गलत - सलत हो गया तो न मैं अपने आप को माफ कर पाऊंगा ना ही तुम अपने को।
- हौसला रखो राजी, ऐसा कुछ नहीं होगा जिसकी आशंका से तुम ग्रसित हो। जहां आपदायें डेरा डाली पड़ी हो वहां झूठी मानसिकतायें कहां टिकती है? फिर तुम मेरे लिये इतनी ताड़ना - प्रताड़ना सह सकते हो तो मैं क्यों नहीं? आखिर अनागत के प्रति विषाद क्यों?
मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा था। कड़ुवाहट घुल रही थी। सरो के प्रति कृतज्ञता का भाव भर आया था। उसके उदार दिल - दीमाग ने मेरी सारी नसें ढीली कर दी थी। हम दोनों गाँव जाने की तैयारी करने लगे थे...।
पता
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