लेखक परिचय
मनीष कुमार सिंह
जन्म पटना के निकट खगौल (बिहार)
में हुआ। प्राइमरी के बाद की
शिक्षा इलाहाबाद में।भारत सरकार,भारत सरकार, सड़क
परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय
में प्रथम श्रेणी अधिकारी। पहली कहानी1987में ‘नैतिकता का पुजारी’ लिखी। विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं यथा - हंस , कथादेश , समकालीन
भारतीय साहित्य , साक्षात्कार , पाखी , दै निक भास्कर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका,
अक्षरपर्व , लमही, कथाक्रम , परिकथा, शब्दयोग,
अनभै सॉचा इत्यादि में कहानियॉ प्रकाशित।
पॉच कहानी - संग्रह ‘आखिरकार’(2009),’धर्मसंकट’( 2009), ‘अतीतजीवी’(2011),‘वामन अवतार’(2013) और ‘आत्मविश्वास’ (2014) प्रकाशित।
इंटरव्यू देने के लिए मुम्बई आया था। वैसे कभी न आता लेकिन नौकरी का सवाल था। वरना कहॉ इलाहाबाद और कहॉ मुम्बई। मैंने घर में पहले ही साफ कर दिया था कि अगर कम्पनी वाले मुझे आसपास पोस्टिंग दे देगें तो ठीक है वरना मुम्बई वगैरह नहीं जाऊगॉ। माता.पिता अपलक मुझे देखते रहे। उनकी निगाहों से लगता था कि वे सोच रहे थे कि कैसा इंसान है। अभी नौकरी लगी भी नहीं और नखरे शुरु कर दिए। भला मर्द और पंछी को बिना घर त्यागे दाना - पानी मिलता है। छोटी जगहों पर रहने वालों के लिए बड़े शहरों के प्रति एक धारणा होती है। शायद ऐसी ही पूर्वनिश्चित विचार उन शहरों के लोगों की भी इधर के बारे में होगी। कुछ भी हो मैं किसी को बुरा नहीं कहता लेकिन यदि यूपी के किसी शहर में नौकरी मिलती तो अच्छा था। घर नजदीक पड़ता। थोड़ा अपना कल्चर रहता।
पिताजी ने रहने का इंतजाम करवा दिया। उनकी सर्विस के बैचमेट चढ़ढा साहब माहिम में रहते थे। दोनों ट्रेनिंग में साथ थे। एक ही ऑफिस में कुछ साल पोस्टिंग भी थी। उनकी जुबान से कुछ मित्रों के संस्मरण घर में सुने जाते थे। इनमें चढ़ढा साहब भी थे। बाद में उन्होंने समय पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर अब किसी एम.एन.सी. में कनसल्टेंट थे। काफी पैसे मिलते थे। इधर काफी समय से पिताजी का उनसे सम्पर्क नहीं था परंतु एक बार उन्हीं के मुख से मैंने सुना था कि चढ़ढा तो अब नोटों पर सोता है।
'' तुम वहीं रुक जाना।'' वे मुझसे बोले। मैं अनजान लोगों में बहुत संकोच करता हू। बेहतर हो किसी मिडिल क्लॉस के ठीक - ठाक होटल में ठहरू। इंटरव्यू देकर एकाध जगह घूमघाम कर घर वापस। पिताजी ने उसी दिन चढ़ढा साहब के यहॉ फोन पर बात की। फोन पहले उनकी पत्नी ने उठाया। पति - पत्नी से काफी देर तक बात करने के बाद मुस्कराते हुए कहने लगे '' जाओ भाई बॉम्बे भी घूम आना।'' बात से साफ लगा कि मामला जम गया है।
मॉ ने मेजबान के घर के लिए लड़डू और नमकीन जैसी चीजें बनानी शुरु कर दीं। पुराने ख्यालों और रिवाजों में पली थीं। ऐसे माहौल में अतिथि को भगवान तथा कहीं जाने पर घर की बनी चीजें भेंट में देना अपनेपन की पहचान मानी जाती थी। मेरे लिए रास्ते में खाने हेतु चीजें बनाने लगीं। मैं उनके भोलेपन और सादगी पर मन ही मन हॅसने लगा। जब न रहा गया तो बोल पड़ा '' मॉ वहॉ लोगों को यह सब क्या पसंद आएगा।''
वे काम जारी रखती हुई बोलीं - '' बेटा दिल से कुछ भी करो तो भगवान हो या इंसान सभी को अच्छा लगेगा।'' मॉ की बातें तर्क से नहीं भावना से सराबोर होती थीं।
मुम्बई पहुंचकर मुझे पानी के सड़ने और मछली जैसी गंध का आभास हुआ। अपनी संवेदनशील नाक को समझाता हुआ मैं पिताजी के दिए पते के सहारे चढ़ढा साहब के घर पहुचा। वे नहीं थे। लेकिन उनकी धर्मपत्नी ने मुझे पहचान लिया कि मैं ही वह व्यक्ति हू जिसे आना था। वे एक अधेड़ उम्र की थोड़ी शरीर वाली महिला थीं। मेरे नमस्ते का सर हिलाकर जवाब देने के बाद उन्होंने घर में नौकर को मेरा सामान एक कमरे में पहुचाने का आदेश दिया। उनका फ्लैट बड़ा और आरामदेह था। मैं ड्राइंग रुम में सोफे पर बैठ गया। सामने नौकर ने पानी रख दिया। थोड़ी देर बाद कोल्ड़ड्रिंक भी। मिसेज चढ़ढा किसी काम में तल्लीन थीं। मुझे लगा कि वे फुरसत पाकर बातचीत करेगीं। ड्राइंग रुम बेहद सलीके से सजा हुआ था। दीवार पर दो जगह मार्डन आर्ट की पेंटिंग टॅगी थी। थोड़ी देर बाद मिसेज चढ़ढा अन्दर से निकली और बस बाहर चली गयीं। कुछ पल बाद पूछने पर नौकर ने बताया कि मेमसाहब किसी जरुरी काम से गयी हैं। शाम तक आएगीं।
उसे निर्देश दिया गया था कि वह मेरा ख्याल रखे। झल्लाहट का भाव मेरे मन में आया। शायद अपमान का भी। इससे अच्छा तो स्टेशन के पास का कोई होटल होता। अपनी मर्जी से रहो और खाली करो। घर बड़ा लेकिन खाली था। मुझे मालूम था कि चढ़ढा साहब के दो बेटे और एक बेटी थी। नौकर ने बताया कि बड़ा वाला बिजनेस कर रहा है। बेहद व्यस्त रहता है। लड़की कॉलेज में अभी पढ़ रही थी। छोटा वाला अभी.अभी फस्ट इअर में गया था। परसों इंटरव्यू था। मुझे लगा कि मैं कुछ पहले आ गया हॅू।
एक बार मन में आया कि सारा घर देख डालू लेकिन आंटी यानि मिसेज चढ़ढा का रुखा - सूखा स्वागत देखकर ऐसी हिम्मत नहीं कर पाया। पिताजी तो बस... । सबको अपने जैसा समझते हैं। अचानक ध्यान आया कि मॉ ने खाने की कुछ चीजें भिजवायी थीं। आंटी तो चली गयी अब किसे दू। नौकर ने मेरा कमरा और बिस्तर तैयार कर दिया। मैं फ्रेश होने चला गया।
थोड़ी देर बाद खाने के लिए बुलाने पर जब मैं ड्राइनिंग टेबल पर पहुचा तो देखा कि एक हट्टा - कट्टा युवक पहले से ही बैठा था। वह चढ़ढा साहब का बड़ा लड़का था। '' हैलो '' मैंने खुद ही पहल की। उसने मुझे सरसरी निगाह से देखते हुए हाथ मिलाया। '' सौरभ '' बस इतना ही उसके बड़े मुख से निकला। हॉफ स्लीव वाली टी.शर्ट और जिंस में वह बेहद कसरती दिख रहा था। गले में एक मोटी सी चेन थी। सोने की ही होगी। दाहिनी कलाई पर ब्रेसलेट पहने था। टी शर्ट के सारे बटन खुले और सेंट की जबरदस्त गंध आ रही थी। शायद अभी - अभी नहा कर आया था।
- आप यहॉ इंटरव्यू के लिए आए हैं।''
- जी हॉ।'' मैं जल्दी से बोला। जैसे इस बात से उपकृत हो गया हूं कि वह इस तथ्य से पूर्वपरिचित है। वह पहले से ही खाना खा रहा था। प्लेट में कुछ अपरिचित व्यंजन पड़ा था जिसे वह कांटे चम्मच के सुन्दर समन्वय द्वारा गटक रहा था। एकाध बार मिनरल वॉटर की बोतल से जल गिलास में निकाल कर पीता। मेरा खाना रोटी - चांवल, राजमा, दाल जैसी भली - भॉति परिचित पदार्थ थे। घर के बने। मैंने बिना किसी के अनुरोध किए खाना शुरु किया। जल्दी से भोजन समाप्त कर वह खड़ा हुआ। '' ओ. के. मिस्टर '' '' मैं राजेश...।''
- यस राजेश सी.यू.।'' वह चला गया।
अपने कमरे में जाकर मैं कुछ इम्पॉरटेंट पाइन्टस् दुहराने लगा। अपने रिजूइम को गौर से दुबारा निरीक्षण किया। थोड़ी देर बाद मेरी ऑख लग गयी।
शाम में घर में कुछ चहल - पहल सुनी। चढ़ढा साहब और उनकी पत्नी दोनों थे। मेरी नमस्ते का एक ठीक - ठाक हैलो से जवाब देकर उन्होंने घर का हालचाल पूछा। मेरे पिता के ही उम्र के थोड़े नाटे व भारी शरीर के चढ़ढा साहब हाव.भाव से सफल व्यक्ति दिख रहे थे। उन दोनों के पीछे उनकी बेटी थी। मोबाइल पर कुछ कर रही थी। एस.एम.एस. वगैरह। मैंने सबको पाकर मॉ की भेजी चीजें सामने रख दीं। घर की मिठाई और नमकीन। चढ़ढा साहब के बदन में हॅसी की तरंगें दौड़ गयी। स्वीहॉट इज दिस।''
- मॉ ने भेजी हैं सर।'' मैं संकुचा गया। मिसेज चढ़ढा कुछ नहीं बोलीं। बेटी ने सरसरी तौर पर उन्हें देखा और दुबारा अपने कार्य में लीन हो गयी। किसी ने उसका परिचय न कराया और न ही उसने मुझसे कुछ कहा।
तभी सामने के कमरे से एक लड़का प्रकट हुआ। दुबला - पतला,बाल बिखरे,दाढ़ी शायद दो - तीन दिन से नहीं बनायी गयी थी। घर का ही लगता था। '' ममी मेरी नयी शर्ट कहॉ रखी है '' मिसेज चढ़ढा के मुख पर जहॉ तक मैं देख पाया झुझलाहट उभरी। '' अरे तुम्हारे वार्डरोब में ही होगा। ''
लड़के ने हाथ झटके - होता तो मैं क्यों पूछता।''
- चलो मैं ढूढ़ देती हू।'' वे उदारता का परिचय देती हुई बोलीं।
अचानक उसकी नजर मुझ पर पड़ी। '' हैलो सर! आई एम शलभ चढ़ढा।'' उसने गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया। घर के माहौल और उनके बांशिंदों का मिजाज देखकर मुझे उसकी गर्मजोशी कृत्रिम दिखी। लेकिन मैंने भी हाथ मिलाते हुए अपना परिचय दिया। उसका हाथ सौरभ के मुकाबले बेहद कोमल था। फिर वह मुझसे आने का मकसद, कब तक रुकने का इरादा है वगैरह बातें पूछने लगा। मैं उसके प्रश्नों का उत्तर देने लगा। तभी उसकी नजर मेरी लाई चीजों पर पड़ी। वह बिना पूछे उसे खोल कर देखने लगा। वंडरफुल! उसने लड़डू का एक टुकड़ा मुह में डाल लिया। शायद यह हरकत मिसेज चढ़ढा को कुछ जॅची नहीं। उसने बिना कोई ध्यान दिए एक और टुकड़ा मुह में डाला और मेरा हाथ पकड़ कर एक ओर ले गया। दरअसल अपने कमरे में '' यहॉ बैठो और प्लीज फील फ्री।'' वह उन्मुक्त भाव से बोला। मैं उसके बिस्तर पर ही बैठ गया। '' जूते - चप्पल उतार कर पैर ऊपर कर लो फ्रैंड।'' मैंने वही किया।
- मेरे घर का नाम शैंकी है।'' यही नाम उसकी मॉ ने लिया था। '' भाई एम.बी.ए.करने का प्लान है।''
'' अच्छा।'' मैंने उत्सुकता दिखायी। कहॉ से...''
- एक रिपुटेट कॉलेज से। कई एम.एन.सी.यहॉ से लड़के - लड़कियों को छॉट कर ले जाते हैं। मेरे ख्याल से हर इंसान को जिंदगी में दो चीजें जरुर करनी चाहिए। एक एम. बी. ए. और दूसरी एल. एल. बी.।'' मैं बस मुस्कराया। उसकी बातों से लगता था कि वह दोनों में से किसी के प्रति सीरियस नहीं है। जाना है तो एक तरफ जाए। घरवालों के पास ढ़ेर सारा पैसा है। क्या करेगा कुछ करके। कमरा बिखरा - बिखरा था। दीवाल पर कहीं सड़क की पटरी पर बिकते पोस्टर लगे थे तो कहीं हाथ से बनी पेंटिंग। एक जगह एक कैलेन्डर टॅगा था जिसमें कई धर्मो के चिन्ह थे। सेल्फ पर म्यूजिक सिस्टम और कुछ सी. डी. पड़े थे। किसी पोस्टर पर मानवों के चित्र थे तो किसी में अंग्रेजी में सकारात्मक जीवन और मित्रता पर कुछ बातें लिखी थीं। सजावट ड्राइंग रुम से नितांत भिन्न थी। कमरे से लगे बॉलकनी में कुछ खाली डिब्बे और कागज के ढ़ेर दिखे। हवादार और अच्छा कमरा था। लेकिन मुझे लगा कि इधर शैंकी को छोड़कर कोई आता नहीं है।
- नौकरी मिलने पर कितनी सैलेरी मिलेगी।'' उसने पूछा। '' पता नहीं, देखो।'' मैंने कहा।
- ज्यादा ही हो तो ठीक है। यहॉ मॅहगाई काफी है।'' उसने सिगरेट निकाली। मुझे बढ़ाया। ''थैंक्स, मैं नहीं पीता।''
- अच्छा '' वह हॅसा। मैंने उसे स्पष्ट किया कि मैं यहॉ नहीं रहना चाहता। '' क्यों। '' वह आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला। वाई यार, यहॉ कितनी रंगीनियॉ हैं ? मुझे उसकी बेतकल्लुफी और आत्मीयता देखकर हैरानी हो रही थी। उसने सामने आलमारी से बिस्कुट का एक पैकेट निकाला। रैपर खोलकर मुझसे कहा - कुछ लो।'' मैं मुस्करा कर खाने लगा। '' यहॉ तुम्हें बन्द डिब्बे वाली चीजें ही मिलेगीं। घर की नहीं। वैसे जब तक तुम इंटरव्यू से लौटोगे तुम्हारी सारी मिठाई और नमकीन मैं चट कर चुका होऊगॉ। घर में सभी से मिल लिए।'' उसने अचानक पूछा। '' हॉ '' मैंने अनायास कहा। बोलने के बाद सोचने लगा कि उसकी बात का कोई अर्थ है। '' तब तो बड़ी नाइस मीटिंग हुई होगी।'' वह हॅसने लगा। अब मुझे अर्थ कुछ समझ में आने लगा। कितनी देर की मीटिंग थी। पॉच सेकंड,पन्द्रह या पच्चीस सेकंड की।'' वह अभी भी हॅस रहा था। मैं उसे निर्निमेष देखता रहा। वह मेरी किंकर्तव्यविमूढ़ता देखकर खुद ही उससे मुझे निकालता हुआ बोला - चलो छोड़ो।'' अपने घर के बारे में किसी बाहरी से बेबाक टिप्पणी करने वाला इंसान पहली बार देख रहा था। पल भर में कई बातें मुझे सुस्पष्ट हो गयीं।
- तुम इंटरव्यू पर कन्संट्रेट करो। इसके बाद हम मुम्बई दर्शन करेंगे।'' उसने बिना औपचारिकता के बैठक समाप्त की। वह मुझे समय देना चाहता था।
मेहनत रंग लायी। किस्मत भी अच्छी निकली। बोर्ड ने मुझे सेलेक्ट कर लिया। कहॉ पोस्टिंग होगी इस बारे में अभी कुछ नहीं बताया। नौकरी मिल जाने के बाद किसी दूसरे विकल्प के उसे छोड़ना अकलमंदी नहीं थी। मैं इतना गैरजिम्मेवार नहीं था।
चढ़ढा साहब के घर मैं मिठाई लेकर खुशखबरी देने आया। पति.पत्नी ने मुस्करा कर मुबारकबाद दी। शैंकी मुझसे लिपटकर जोर से बोला - कॉनग्रैट! अब देखना तुम कितनी जल्दी तरक्की के रास्ते पर बढ़ोगे। लेकिन माई डियर जौपुर और आजमगढ़ मत जाना। यहॉ जितने मौके हैं उतना कहीं नहीं है।'' उसके फक्कड़ स्वभाव को देखते हुए लगता नहीं कि वह सांसारिक चीजों को इतना महत्व देता है। पर मुझे ऐसी सलाह दे रहा था। मैं बस मुस्कराया। '' पैसे कमाओगे तो मेरे साथ तफरीह करने चलोगे ना।'' वह बड़ी आत्मीयता से मेरे कंधे पर हाथ रखकर ऐसे बोला मानो हमारी बड़ी पुरानी जान पहचान है।
हमारे बीच यह सब चल रहा था तब तक चढ़ढा परिवार के शेष सदस्य इस घटना को लगभग भूलाकर रुटीन में आ गए थे। '' आंटी मुझे कल लौटना है।'' मैंने यह बताकर उनका ध्यान खींचना चाहा। उन्होंने शायद सुना नहीं। दुबारा कहने पर ठंड़े स्वर में बोलीं - ओ.के.''
मैं अपने कमरे में आ गया। थोड़ी देर आराम करके चैतन्य हुआ ही था कि शोर सुनकर ध्यान आकृष्ट हुआ। झगड़े जैसी कोई बात लग रही थी। मैं कमरे से बाहर आया। घटनास्थल की तरफ जाना एक मेहमान के लिए उचित नहीं था। उत्सुकता को दबाना भी मुश्किल था। इसलिए अपने स्थान से कान लगाकर समझने का प्रयास किया। शैंकी, उसके ममी - डैडी और उसकी बहन की आवाजें आ रही थीं। '' हाउ डेयर यू '' बहन चीखी। '' वाई आई एम ऑलसो दी मेम्बर ऑफ दिस फैमिली।'' शैंकी का जवाब था। '' काम डाउन।'' यह मॉ - बाप की सम्मिलित ध्वनि थी। '' बेटी तेरा भाई है वह भला - बुरा समझा सकता है।'' मिसेज चढ़ढा ने जाने दो माफ करो वाले अंदाज में समझाया। '' तुम्हें पता है इस भाई के इलाज में मेरी कमाई के कितने पैसे खर्च हुए हैं।'' छन छन ! जैसे कोई नाजुक सामान टूटने से कुछ देर तक सन्नाटा व्याप्त हो जाता है कुछ वैसा ही हुआ। सारी ध्वनियॉ शांत हो गयीं। केवल इसी के टूटने की प्रतिध्वनि व्याप्त रही। टूटने वाली चीज काफी समय से सॅभालकर रखी गयी थी।
उतनी दूर से मुझे कुछ खास नहीं पता चला। लेकिन अस्पस्ट सी आवाजों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुचा कि यह व्यसक शैंकी के सुबकने की आवाज हो सकती थी। अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके वही अन्दर बंद हो गया। '' तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। इटस् टू मच।'' चढ़ढा साहब घर के बुजुर्ग की हैसियत से बोले। मुझे उनकी बात में बेटे के दुख की अभिव्यक्ति नहीं लगी। वे मात्र माहौल का तनाव और झगड़ा बंद करना चाहते थे। '' हॉ - हॉ आप सब लोग मुझे ही दोषी ठहराएगें।'' बहन ने प्रयत्न करके अपने गले को रुआंसा किया और घटनास्थल से चलती बनी।
सहज बुद्वि यह कहती थी कि पराए मामले में पड़ना ठीक नहीं है। सो मैं चुप रहा। शाम को सब सामान्य दिख रहा था। शैंकी मेरे पास आया। '' आर यू फ्री..''
- हॉ.हॉ कहो।''
- चलो तफरीह करने चलते हैं।'' वह बालसुलभ उत्साह से कह रहा था। मुझे वैसे भी कल रवाना होना था। समय का इससे अच्छा सदुपयोग और क्या हो सकता था। मुम्बई के समुन्दर, रंगीनियों के बारे में सुना था। बेपरवाह शैंकी ने बस की बजाए टैक्सी की और हम सड़कों पर यूं ही घूमते - घूमते चौपाटी पहुचे। वहॉ समुद्र भूरे रंग का था। लोग बड़ी तादाद में थे। वह सीधा लहरों के पास पहुच गया। अपने जूते उतार कर उसने पानी को उछालना शुरु किया। मैं यह सब देखकर भी दूर रहा। उसने मुझे बुलाया। थोड़ी देर तक पानी के बीच रहकर हम बालू पर बैठ गए। मेरे मन में दोपहर वाली बात के बारे में जिज्ञासा थी। फिर भी अपनी तरफ से कुछ कहना नहीं चाहता था। उसने नारियल के पानी वाले दो डाब मॅगाए। डाब पीते हुए वह बोला - यार बड़े काबिल और जहीन लोग हैं। लेकिन इंसानों से इन्हें एलर्जी है।''
- क्या बात हुई। '' मैं अपनी उत्सुकता रोक न सका।
वह खामोश रहा। लेकिन उसकी सूरत से लग रहा था कि असमंजस यह है कि कहॉ से शुरु करे न कि यह कि कैसे बताए। '' डॉली का कई आवारा किस्म के लड़कों से अफेयर है। मैंने उसे ऐसा करते देखा था। यह बात ममी - डैडी को पहले भी कई बार बता चुका हू। आज कहा तो तूफान मच गया।'' उसके चेहरे पर विषाद फैल गया। न जाने कहॉ से मैं अपना संकोच और पराए घर की अंदरुनी बातें जानने की जिज्ञासा त्याग कर सच्ची आत्मीयता से उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला - जाने दो ना ... तुम्हें क्या। जो लोग तुम्हारी बात नहीं समझते उनसे क्यों बात करें।'' कुछ पल पहले का खिलन्दा शैंकी इतनी सी सहानुभूति पाकर रोनी सूरत वाले बच्चों की तरह हो गया। थोड़ी देर बाद उसने कहा - पर हैप्स् यू आर राइट।'' वह जिसे बहन समझकर भला - बुरा समझा रहा था वह बहन उसे अपनी आमदनी का उसके ऊपर हुए खर्च का हिसाब - किताब समझाने लगी।
मैं शुरु से ही अपने गोल को लेकर सीरियस नहीं रहा। वह बोलने लगा - पेंटिंग और आट्स में इंस्ट्रेस्ट था सो उसका कोर्स भी किया। घरवाले इस पर मॅुह बिचकाते थे। वे चाहते थे कि मैं बिजनेस में कुछ करु। मेरी भी गलती थी। जिस तरफ रुचि थी उधर भी कुछ खास नहीं कर पाया। फिर एम. बी. ए. करने की सोची। देखो, मैं सोचता रहा। ऐसा लग रहा था कि जमाने के हिसाब से जितना होशियार या चालाक होना चाहिए उतना वह नहीं बन पाया था। असफल व्यक्ति और लॅगडे घोड़े को झुण्ड़ नकार देता है। कुछ ऐसी ही अवस्था यहॉ थी। मेरे अन्दर शैंकी के प्रति कई तरह के भाव उठ रहे थे। हमदर्दी के , दया के भी। साथ - साथ एक और तथ्व भी था। उसके दुख को मैं अन्दर से महसूस कर रहा था।'' हमारा घर सबसे अच्छा है।'' शैंकी विद्रुपता से मुस्कराया अच्छी लोकेशन में है। सब कुछ नजदीक है। कॉलेज, एयरपोर्ट, स्टेशन, होटल, अस्पताल।जहॉ जाना हो जाइए। बीमार हैं तो अस्पताल मे भर्ती हो जाइए। ठीक होने पर घर तशरीफ ले आइए।'' वह बोलते - बोलते हॅसने लगा। थोड़ी देर बाद मेरी तरफ मुड़कर बोला - आज मैं घर नहीं जाऊगॉ। मैं अन्डर प्रोटेस्ट हॅू। मेरे फ्रैंड के साथ घर के लोगों ने अच्छा व्यवहार नहीं किया है। दिस इज नॉट दी वे टू बिहेव विद ए गेस्ट।''
मैं घबरा गया। अगर वह कंट्रोल से बाहर हो गया तो इस शहर में उसे कहॉ सॅभालूगा।
वातावरण को हल्का - फुल्का बनाने की गरज से मैंने विषर्यान्तर जरुरी समझा। '' अच्छा, शैंकी बताओ तुम्हारी कौन - कौन से शौक हैं।''
- हॅू...। शौक यानि हॉबिज।'' कुछ पल सोचने की मुद्रा में लीन रहने के बाद कहने लगा म्यूजिक, सेवेंटीस् के हिन्दी फिल्मों के सॉगस्, किताबें, घूमना, गर्ल फ्रैंड बनाना। अब तक कोई बनी नहीं। वह खुद ही हॅसने लगा। और बचपन के कुछ शौक अभी भी चले आ रहे हैं। फ्रैंडशिप करना, पुराने फ्रैंडस् को याद करना।'' वह अपने दुबले - पतले शरीर को उमंग से हिला रहा था। इससे मुझे कुछ याद आया। '' तुम्हारी तबियत पहले से ठीक नहीं थी ना। '' वह हौले से हॅसा कहा- '' कब ठीक थी।''
- मतलब '' मैं आशंकित हुआ। '' मतलब तो मुझे भी कभी समझ में नहीं आया न डॉक्टरों को। कभी कहते हैं पेट में अल्सर है। कोई फैंसी सा मेडिकल नेम बताते हैं। कमबख्त कभी याद नहीं रहता। इसके अलावा दूसरी बीमारियॉ भी बताते हैं।''
- कैसी बीमारियॉ ''
- यार जब तक शरीर रहेगा बीमारियॉ रहेगी ही।'' वह दार्शनिक अंदाज में बात को उड़ाने लगा। अपने दो पल के साथी को मैं अपलक निहारता रहा। कल सुबह मैं चला जाऊगॉ। वह इस बात को जानता है। शायद दुबारा ही कभी न मिले। मैं उसके तरफ अभी भी देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि उसे एक दोस्त की जरुरत है। एक भाई की भी। शायद एक बहन और मॉ - बाप इन सबकी।वह समुद्र की लहरों को देखकर मुस्करा रहा था। अंधेरा होने को था। मैं लौटना चाहता था। सुबह की ट्रेन थी। पर शैंकी को घर लौटने की कोई जल्दी नहीं दिख रही थी। वैसे भी मुझे लगा कि उसके लिए वहॉ कुछ है नहीं। न घर, न संवेदना, आत्मीयता,रिश्तों का जीवंत स्पंदन कुछ नहीं। बस अन्दर दाखिल होकर कमरे में पड़े रहना।टी.वी. देखना, किताबों को दुबारा - तिबारा पढ़ना और यही सब। जहॉ तक मैं भॉप पा रहा था दरअसल वह उसका घर था ही नहीं। उसे दो - चार पल का और साथ देने के लिए मैं भी बैठा रहा।
पिताजी ने रहने का इंतजाम करवा दिया। उनकी सर्विस के बैचमेट चढ़ढा साहब माहिम में रहते थे। दोनों ट्रेनिंग में साथ थे। एक ही ऑफिस में कुछ साल पोस्टिंग भी थी। उनकी जुबान से कुछ मित्रों के संस्मरण घर में सुने जाते थे। इनमें चढ़ढा साहब भी थे। बाद में उन्होंने समय पूर्व सेवानिवृत्ति लेकर अब किसी एम.एन.सी. में कनसल्टेंट थे। काफी पैसे मिलते थे। इधर काफी समय से पिताजी का उनसे सम्पर्क नहीं था परंतु एक बार उन्हीं के मुख से मैंने सुना था कि चढ़ढा तो अब नोटों पर सोता है।
'' तुम वहीं रुक जाना।'' वे मुझसे बोले। मैं अनजान लोगों में बहुत संकोच करता हू। बेहतर हो किसी मिडिल क्लॉस के ठीक - ठाक होटल में ठहरू। इंटरव्यू देकर एकाध जगह घूमघाम कर घर वापस। पिताजी ने उसी दिन चढ़ढा साहब के यहॉ फोन पर बात की। फोन पहले उनकी पत्नी ने उठाया। पति - पत्नी से काफी देर तक बात करने के बाद मुस्कराते हुए कहने लगे '' जाओ भाई बॉम्बे भी घूम आना।'' बात से साफ लगा कि मामला जम गया है।
मॉ ने मेजबान के घर के लिए लड़डू और नमकीन जैसी चीजें बनानी शुरु कर दीं। पुराने ख्यालों और रिवाजों में पली थीं। ऐसे माहौल में अतिथि को भगवान तथा कहीं जाने पर घर की बनी चीजें भेंट में देना अपनेपन की पहचान मानी जाती थी। मेरे लिए रास्ते में खाने हेतु चीजें बनाने लगीं। मैं उनके भोलेपन और सादगी पर मन ही मन हॅसने लगा। जब न रहा गया तो बोल पड़ा '' मॉ वहॉ लोगों को यह सब क्या पसंद आएगा।''
वे काम जारी रखती हुई बोलीं - '' बेटा दिल से कुछ भी करो तो भगवान हो या इंसान सभी को अच्छा लगेगा।'' मॉ की बातें तर्क से नहीं भावना से सराबोर होती थीं।
मुम्बई पहुंचकर मुझे पानी के सड़ने और मछली जैसी गंध का आभास हुआ। अपनी संवेदनशील नाक को समझाता हुआ मैं पिताजी के दिए पते के सहारे चढ़ढा साहब के घर पहुचा। वे नहीं थे। लेकिन उनकी धर्मपत्नी ने मुझे पहचान लिया कि मैं ही वह व्यक्ति हू जिसे आना था। वे एक अधेड़ उम्र की थोड़ी शरीर वाली महिला थीं। मेरे नमस्ते का सर हिलाकर जवाब देने के बाद उन्होंने घर में नौकर को मेरा सामान एक कमरे में पहुचाने का आदेश दिया। उनका फ्लैट बड़ा और आरामदेह था। मैं ड्राइंग रुम में सोफे पर बैठ गया। सामने नौकर ने पानी रख दिया। थोड़ी देर बाद कोल्ड़ड्रिंक भी। मिसेज चढ़ढा किसी काम में तल्लीन थीं। मुझे लगा कि वे फुरसत पाकर बातचीत करेगीं। ड्राइंग रुम बेहद सलीके से सजा हुआ था। दीवार पर दो जगह मार्डन आर्ट की पेंटिंग टॅगी थी। थोड़ी देर बाद मिसेज चढ़ढा अन्दर से निकली और बस बाहर चली गयीं। कुछ पल बाद पूछने पर नौकर ने बताया कि मेमसाहब किसी जरुरी काम से गयी हैं। शाम तक आएगीं।
उसे निर्देश दिया गया था कि वह मेरा ख्याल रखे। झल्लाहट का भाव मेरे मन में आया। शायद अपमान का भी। इससे अच्छा तो स्टेशन के पास का कोई होटल होता। अपनी मर्जी से रहो और खाली करो। घर बड़ा लेकिन खाली था। मुझे मालूम था कि चढ़ढा साहब के दो बेटे और एक बेटी थी। नौकर ने बताया कि बड़ा वाला बिजनेस कर रहा है। बेहद व्यस्त रहता है। लड़की कॉलेज में अभी पढ़ रही थी। छोटा वाला अभी.अभी फस्ट इअर में गया था। परसों इंटरव्यू था। मुझे लगा कि मैं कुछ पहले आ गया हॅू।
एक बार मन में आया कि सारा घर देख डालू लेकिन आंटी यानि मिसेज चढ़ढा का रुखा - सूखा स्वागत देखकर ऐसी हिम्मत नहीं कर पाया। पिताजी तो बस... । सबको अपने जैसा समझते हैं। अचानक ध्यान आया कि मॉ ने खाने की कुछ चीजें भिजवायी थीं। आंटी तो चली गयी अब किसे दू। नौकर ने मेरा कमरा और बिस्तर तैयार कर दिया। मैं फ्रेश होने चला गया।
थोड़ी देर बाद खाने के लिए बुलाने पर जब मैं ड्राइनिंग टेबल पर पहुचा तो देखा कि एक हट्टा - कट्टा युवक पहले से ही बैठा था। वह चढ़ढा साहब का बड़ा लड़का था। '' हैलो '' मैंने खुद ही पहल की। उसने मुझे सरसरी निगाह से देखते हुए हाथ मिलाया। '' सौरभ '' बस इतना ही उसके बड़े मुख से निकला। हॉफ स्लीव वाली टी.शर्ट और जिंस में वह बेहद कसरती दिख रहा था। गले में एक मोटी सी चेन थी। सोने की ही होगी। दाहिनी कलाई पर ब्रेसलेट पहने था। टी शर्ट के सारे बटन खुले और सेंट की जबरदस्त गंध आ रही थी। शायद अभी - अभी नहा कर आया था।
- आप यहॉ इंटरव्यू के लिए आए हैं।''
- जी हॉ।'' मैं जल्दी से बोला। जैसे इस बात से उपकृत हो गया हूं कि वह इस तथ्य से पूर्वपरिचित है। वह पहले से ही खाना खा रहा था। प्लेट में कुछ अपरिचित व्यंजन पड़ा था जिसे वह कांटे चम्मच के सुन्दर समन्वय द्वारा गटक रहा था। एकाध बार मिनरल वॉटर की बोतल से जल गिलास में निकाल कर पीता। मेरा खाना रोटी - चांवल, राजमा, दाल जैसी भली - भॉति परिचित पदार्थ थे। घर के बने। मैंने बिना किसी के अनुरोध किए खाना शुरु किया। जल्दी से भोजन समाप्त कर वह खड़ा हुआ। '' ओ. के. मिस्टर '' '' मैं राजेश...।''
- यस राजेश सी.यू.।'' वह चला गया।
अपने कमरे में जाकर मैं कुछ इम्पॉरटेंट पाइन्टस् दुहराने लगा। अपने रिजूइम को गौर से दुबारा निरीक्षण किया। थोड़ी देर बाद मेरी ऑख लग गयी।
शाम में घर में कुछ चहल - पहल सुनी। चढ़ढा साहब और उनकी पत्नी दोनों थे। मेरी नमस्ते का एक ठीक - ठाक हैलो से जवाब देकर उन्होंने घर का हालचाल पूछा। मेरे पिता के ही उम्र के थोड़े नाटे व भारी शरीर के चढ़ढा साहब हाव.भाव से सफल व्यक्ति दिख रहे थे। उन दोनों के पीछे उनकी बेटी थी। मोबाइल पर कुछ कर रही थी। एस.एम.एस. वगैरह। मैंने सबको पाकर मॉ की भेजी चीजें सामने रख दीं। घर की मिठाई और नमकीन। चढ़ढा साहब के बदन में हॅसी की तरंगें दौड़ गयी। स्वीहॉट इज दिस।''
- मॉ ने भेजी हैं सर।'' मैं संकुचा गया। मिसेज चढ़ढा कुछ नहीं बोलीं। बेटी ने सरसरी तौर पर उन्हें देखा और दुबारा अपने कार्य में लीन हो गयी। किसी ने उसका परिचय न कराया और न ही उसने मुझसे कुछ कहा।
तभी सामने के कमरे से एक लड़का प्रकट हुआ। दुबला - पतला,बाल बिखरे,दाढ़ी शायद दो - तीन दिन से नहीं बनायी गयी थी। घर का ही लगता था। '' ममी मेरी नयी शर्ट कहॉ रखी है '' मिसेज चढ़ढा के मुख पर जहॉ तक मैं देख पाया झुझलाहट उभरी। '' अरे तुम्हारे वार्डरोब में ही होगा। ''
लड़के ने हाथ झटके - होता तो मैं क्यों पूछता।''
- चलो मैं ढूढ़ देती हू।'' वे उदारता का परिचय देती हुई बोलीं।
अचानक उसकी नजर मुझ पर पड़ी। '' हैलो सर! आई एम शलभ चढ़ढा।'' उसने गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया। घर के माहौल और उनके बांशिंदों का मिजाज देखकर मुझे उसकी गर्मजोशी कृत्रिम दिखी। लेकिन मैंने भी हाथ मिलाते हुए अपना परिचय दिया। उसका हाथ सौरभ के मुकाबले बेहद कोमल था। फिर वह मुझसे आने का मकसद, कब तक रुकने का इरादा है वगैरह बातें पूछने लगा। मैं उसके प्रश्नों का उत्तर देने लगा। तभी उसकी नजर मेरी लाई चीजों पर पड़ी। वह बिना पूछे उसे खोल कर देखने लगा। वंडरफुल! उसने लड़डू का एक टुकड़ा मुह में डाल लिया। शायद यह हरकत मिसेज चढ़ढा को कुछ जॅची नहीं। उसने बिना कोई ध्यान दिए एक और टुकड़ा मुह में डाला और मेरा हाथ पकड़ कर एक ओर ले गया। दरअसल अपने कमरे में '' यहॉ बैठो और प्लीज फील फ्री।'' वह उन्मुक्त भाव से बोला। मैं उसके बिस्तर पर ही बैठ गया। '' जूते - चप्पल उतार कर पैर ऊपर कर लो फ्रैंड।'' मैंने वही किया।
- मेरे घर का नाम शैंकी है।'' यही नाम उसकी मॉ ने लिया था। '' भाई एम.बी.ए.करने का प्लान है।''
'' अच्छा।'' मैंने उत्सुकता दिखायी। कहॉ से...''
- एक रिपुटेट कॉलेज से। कई एम.एन.सी.यहॉ से लड़के - लड़कियों को छॉट कर ले जाते हैं। मेरे ख्याल से हर इंसान को जिंदगी में दो चीजें जरुर करनी चाहिए। एक एम. बी. ए. और दूसरी एल. एल. बी.।'' मैं बस मुस्कराया। उसकी बातों से लगता था कि वह दोनों में से किसी के प्रति सीरियस नहीं है। जाना है तो एक तरफ जाए। घरवालों के पास ढ़ेर सारा पैसा है। क्या करेगा कुछ करके। कमरा बिखरा - बिखरा था। दीवाल पर कहीं सड़क की पटरी पर बिकते पोस्टर लगे थे तो कहीं हाथ से बनी पेंटिंग। एक जगह एक कैलेन्डर टॅगा था जिसमें कई धर्मो के चिन्ह थे। सेल्फ पर म्यूजिक सिस्टम और कुछ सी. डी. पड़े थे। किसी पोस्टर पर मानवों के चित्र थे तो किसी में अंग्रेजी में सकारात्मक जीवन और मित्रता पर कुछ बातें लिखी थीं। सजावट ड्राइंग रुम से नितांत भिन्न थी। कमरे से लगे बॉलकनी में कुछ खाली डिब्बे और कागज के ढ़ेर दिखे। हवादार और अच्छा कमरा था। लेकिन मुझे लगा कि इधर शैंकी को छोड़कर कोई आता नहीं है।
- नौकरी मिलने पर कितनी सैलेरी मिलेगी।'' उसने पूछा। '' पता नहीं, देखो।'' मैंने कहा।
- ज्यादा ही हो तो ठीक है। यहॉ मॅहगाई काफी है।'' उसने सिगरेट निकाली। मुझे बढ़ाया। ''थैंक्स, मैं नहीं पीता।''
- अच्छा '' वह हॅसा। मैंने उसे स्पष्ट किया कि मैं यहॉ नहीं रहना चाहता। '' क्यों। '' वह आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला। वाई यार, यहॉ कितनी रंगीनियॉ हैं ? मुझे उसकी बेतकल्लुफी और आत्मीयता देखकर हैरानी हो रही थी। उसने सामने आलमारी से बिस्कुट का एक पैकेट निकाला। रैपर खोलकर मुझसे कहा - कुछ लो।'' मैं मुस्करा कर खाने लगा। '' यहॉ तुम्हें बन्द डिब्बे वाली चीजें ही मिलेगीं। घर की नहीं। वैसे जब तक तुम इंटरव्यू से लौटोगे तुम्हारी सारी मिठाई और नमकीन मैं चट कर चुका होऊगॉ। घर में सभी से मिल लिए।'' उसने अचानक पूछा। '' हॉ '' मैंने अनायास कहा। बोलने के बाद सोचने लगा कि उसकी बात का कोई अर्थ है। '' तब तो बड़ी नाइस मीटिंग हुई होगी।'' वह हॅसने लगा। अब मुझे अर्थ कुछ समझ में आने लगा। कितनी देर की मीटिंग थी। पॉच सेकंड,पन्द्रह या पच्चीस सेकंड की।'' वह अभी भी हॅस रहा था। मैं उसे निर्निमेष देखता रहा। वह मेरी किंकर्तव्यविमूढ़ता देखकर खुद ही उससे मुझे निकालता हुआ बोला - चलो छोड़ो।'' अपने घर के बारे में किसी बाहरी से बेबाक टिप्पणी करने वाला इंसान पहली बार देख रहा था। पल भर में कई बातें मुझे सुस्पष्ट हो गयीं।
- तुम इंटरव्यू पर कन्संट्रेट करो। इसके बाद हम मुम्बई दर्शन करेंगे।'' उसने बिना औपचारिकता के बैठक समाप्त की। वह मुझे समय देना चाहता था।
मेहनत रंग लायी। किस्मत भी अच्छी निकली। बोर्ड ने मुझे सेलेक्ट कर लिया। कहॉ पोस्टिंग होगी इस बारे में अभी कुछ नहीं बताया। नौकरी मिल जाने के बाद किसी दूसरे विकल्प के उसे छोड़ना अकलमंदी नहीं थी। मैं इतना गैरजिम्मेवार नहीं था।
चढ़ढा साहब के घर मैं मिठाई लेकर खुशखबरी देने आया। पति.पत्नी ने मुस्करा कर मुबारकबाद दी। शैंकी मुझसे लिपटकर जोर से बोला - कॉनग्रैट! अब देखना तुम कितनी जल्दी तरक्की के रास्ते पर बढ़ोगे। लेकिन माई डियर जौपुर और आजमगढ़ मत जाना। यहॉ जितने मौके हैं उतना कहीं नहीं है।'' उसके फक्कड़ स्वभाव को देखते हुए लगता नहीं कि वह सांसारिक चीजों को इतना महत्व देता है। पर मुझे ऐसी सलाह दे रहा था। मैं बस मुस्कराया। '' पैसे कमाओगे तो मेरे साथ तफरीह करने चलोगे ना।'' वह बड़ी आत्मीयता से मेरे कंधे पर हाथ रखकर ऐसे बोला मानो हमारी बड़ी पुरानी जान पहचान है।
हमारे बीच यह सब चल रहा था तब तक चढ़ढा परिवार के शेष सदस्य इस घटना को लगभग भूलाकर रुटीन में आ गए थे। '' आंटी मुझे कल लौटना है।'' मैंने यह बताकर उनका ध्यान खींचना चाहा। उन्होंने शायद सुना नहीं। दुबारा कहने पर ठंड़े स्वर में बोलीं - ओ.के.''
मैं अपने कमरे में आ गया। थोड़ी देर आराम करके चैतन्य हुआ ही था कि शोर सुनकर ध्यान आकृष्ट हुआ। झगड़े जैसी कोई बात लग रही थी। मैं कमरे से बाहर आया। घटनास्थल की तरफ जाना एक मेहमान के लिए उचित नहीं था। उत्सुकता को दबाना भी मुश्किल था। इसलिए अपने स्थान से कान लगाकर समझने का प्रयास किया। शैंकी, उसके ममी - डैडी और उसकी बहन की आवाजें आ रही थीं। '' हाउ डेयर यू '' बहन चीखी। '' वाई आई एम ऑलसो दी मेम्बर ऑफ दिस फैमिली।'' शैंकी का जवाब था। '' काम डाउन।'' यह मॉ - बाप की सम्मिलित ध्वनि थी। '' बेटी तेरा भाई है वह भला - बुरा समझा सकता है।'' मिसेज चढ़ढा ने जाने दो माफ करो वाले अंदाज में समझाया। '' तुम्हें पता है इस भाई के इलाज में मेरी कमाई के कितने पैसे खर्च हुए हैं।'' छन छन ! जैसे कोई नाजुक सामान टूटने से कुछ देर तक सन्नाटा व्याप्त हो जाता है कुछ वैसा ही हुआ। सारी ध्वनियॉ शांत हो गयीं। केवल इसी के टूटने की प्रतिध्वनि व्याप्त रही। टूटने वाली चीज काफी समय से सॅभालकर रखी गयी थी।
उतनी दूर से मुझे कुछ खास नहीं पता चला। लेकिन अस्पस्ट सी आवाजों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुचा कि यह व्यसक शैंकी के सुबकने की आवाज हो सकती थी। अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके वही अन्दर बंद हो गया। '' तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। इटस् टू मच।'' चढ़ढा साहब घर के बुजुर्ग की हैसियत से बोले। मुझे उनकी बात में बेटे के दुख की अभिव्यक्ति नहीं लगी। वे मात्र माहौल का तनाव और झगड़ा बंद करना चाहते थे। '' हॉ - हॉ आप सब लोग मुझे ही दोषी ठहराएगें।'' बहन ने प्रयत्न करके अपने गले को रुआंसा किया और घटनास्थल से चलती बनी।
सहज बुद्वि यह कहती थी कि पराए मामले में पड़ना ठीक नहीं है। सो मैं चुप रहा। शाम को सब सामान्य दिख रहा था। शैंकी मेरे पास आया। '' आर यू फ्री..''
- हॉ.हॉ कहो।''
- चलो तफरीह करने चलते हैं।'' वह बालसुलभ उत्साह से कह रहा था। मुझे वैसे भी कल रवाना होना था। समय का इससे अच्छा सदुपयोग और क्या हो सकता था। मुम्बई के समुन्दर, रंगीनियों के बारे में सुना था। बेपरवाह शैंकी ने बस की बजाए टैक्सी की और हम सड़कों पर यूं ही घूमते - घूमते चौपाटी पहुचे। वहॉ समुद्र भूरे रंग का था। लोग बड़ी तादाद में थे। वह सीधा लहरों के पास पहुच गया। अपने जूते उतार कर उसने पानी को उछालना शुरु किया। मैं यह सब देखकर भी दूर रहा। उसने मुझे बुलाया। थोड़ी देर तक पानी के बीच रहकर हम बालू पर बैठ गए। मेरे मन में दोपहर वाली बात के बारे में जिज्ञासा थी। फिर भी अपनी तरफ से कुछ कहना नहीं चाहता था। उसने नारियल के पानी वाले दो डाब मॅगाए। डाब पीते हुए वह बोला - यार बड़े काबिल और जहीन लोग हैं। लेकिन इंसानों से इन्हें एलर्जी है।''
- क्या बात हुई। '' मैं अपनी उत्सुकता रोक न सका।
वह खामोश रहा। लेकिन उसकी सूरत से लग रहा था कि असमंजस यह है कि कहॉ से शुरु करे न कि यह कि कैसे बताए। '' डॉली का कई आवारा किस्म के लड़कों से अफेयर है। मैंने उसे ऐसा करते देखा था। यह बात ममी - डैडी को पहले भी कई बार बता चुका हू। आज कहा तो तूफान मच गया।'' उसके चेहरे पर विषाद फैल गया। न जाने कहॉ से मैं अपना संकोच और पराए घर की अंदरुनी बातें जानने की जिज्ञासा त्याग कर सच्ची आत्मीयता से उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला - जाने दो ना ... तुम्हें क्या। जो लोग तुम्हारी बात नहीं समझते उनसे क्यों बात करें।'' कुछ पल पहले का खिलन्दा शैंकी इतनी सी सहानुभूति पाकर रोनी सूरत वाले बच्चों की तरह हो गया। थोड़ी देर बाद उसने कहा - पर हैप्स् यू आर राइट।'' वह जिसे बहन समझकर भला - बुरा समझा रहा था वह बहन उसे अपनी आमदनी का उसके ऊपर हुए खर्च का हिसाब - किताब समझाने लगी।
मैं शुरु से ही अपने गोल को लेकर सीरियस नहीं रहा। वह बोलने लगा - पेंटिंग और आट्स में इंस्ट्रेस्ट था सो उसका कोर्स भी किया। घरवाले इस पर मॅुह बिचकाते थे। वे चाहते थे कि मैं बिजनेस में कुछ करु। मेरी भी गलती थी। जिस तरफ रुचि थी उधर भी कुछ खास नहीं कर पाया। फिर एम. बी. ए. करने की सोची। देखो, मैं सोचता रहा। ऐसा लग रहा था कि जमाने के हिसाब से जितना होशियार या चालाक होना चाहिए उतना वह नहीं बन पाया था। असफल व्यक्ति और लॅगडे घोड़े को झुण्ड़ नकार देता है। कुछ ऐसी ही अवस्था यहॉ थी। मेरे अन्दर शैंकी के प्रति कई तरह के भाव उठ रहे थे। हमदर्दी के , दया के भी। साथ - साथ एक और तथ्व भी था। उसके दुख को मैं अन्दर से महसूस कर रहा था।'' हमारा घर सबसे अच्छा है।'' शैंकी विद्रुपता से मुस्कराया अच्छी लोकेशन में है। सब कुछ नजदीक है। कॉलेज, एयरपोर्ट, स्टेशन, होटल, अस्पताल।जहॉ जाना हो जाइए। बीमार हैं तो अस्पताल मे भर्ती हो जाइए। ठीक होने पर घर तशरीफ ले आइए।'' वह बोलते - बोलते हॅसने लगा। थोड़ी देर बाद मेरी तरफ मुड़कर बोला - आज मैं घर नहीं जाऊगॉ। मैं अन्डर प्रोटेस्ट हॅू। मेरे फ्रैंड के साथ घर के लोगों ने अच्छा व्यवहार नहीं किया है। दिस इज नॉट दी वे टू बिहेव विद ए गेस्ट।''
मैं घबरा गया। अगर वह कंट्रोल से बाहर हो गया तो इस शहर में उसे कहॉ सॅभालूगा।
वातावरण को हल्का - फुल्का बनाने की गरज से मैंने विषर्यान्तर जरुरी समझा। '' अच्छा, शैंकी बताओ तुम्हारी कौन - कौन से शौक हैं।''
- हॅू...। शौक यानि हॉबिज।'' कुछ पल सोचने की मुद्रा में लीन रहने के बाद कहने लगा म्यूजिक, सेवेंटीस् के हिन्दी फिल्मों के सॉगस्, किताबें, घूमना, गर्ल फ्रैंड बनाना। अब तक कोई बनी नहीं। वह खुद ही हॅसने लगा। और बचपन के कुछ शौक अभी भी चले आ रहे हैं। फ्रैंडशिप करना, पुराने फ्रैंडस् को याद करना।'' वह अपने दुबले - पतले शरीर को उमंग से हिला रहा था। इससे मुझे कुछ याद आया। '' तुम्हारी तबियत पहले से ठीक नहीं थी ना। '' वह हौले से हॅसा कहा- '' कब ठीक थी।''
- मतलब '' मैं आशंकित हुआ। '' मतलब तो मुझे भी कभी समझ में नहीं आया न डॉक्टरों को। कभी कहते हैं पेट में अल्सर है। कोई फैंसी सा मेडिकल नेम बताते हैं। कमबख्त कभी याद नहीं रहता। इसके अलावा दूसरी बीमारियॉ भी बताते हैं।''
- कैसी बीमारियॉ ''
- यार जब तक शरीर रहेगा बीमारियॉ रहेगी ही।'' वह दार्शनिक अंदाज में बात को उड़ाने लगा। अपने दो पल के साथी को मैं अपलक निहारता रहा। कल सुबह मैं चला जाऊगॉ। वह इस बात को जानता है। शायद दुबारा ही कभी न मिले। मैं उसके तरफ अभी भी देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि उसे एक दोस्त की जरुरत है। एक भाई की भी। शायद एक बहन और मॉ - बाप इन सबकी।वह समुद्र की लहरों को देखकर मुस्करा रहा था। अंधेरा होने को था। मैं लौटना चाहता था। सुबह की ट्रेन थी। पर शैंकी को घर लौटने की कोई जल्दी नहीं दिख रही थी। वैसे भी मुझे लगा कि उसके लिए वहॉ कुछ है नहीं। न घर, न संवेदना, आत्मीयता,रिश्तों का जीवंत स्पंदन कुछ नहीं। बस अन्दर दाखिल होकर कमरे में पड़े रहना।टी.वी. देखना, किताबों को दुबारा - तिबारा पढ़ना और यही सब। जहॉ तक मैं भॉप पा रहा था दरअसल वह उसका घर था ही नहीं। उसे दो - चार पल का और साथ देने के लिए मैं भी बैठा रहा।
पता-
एफ-2, 4/273, वैशाली,
गाजियाबाद,
उत्तर प्रदेश। पिन-201010
मोबाइल: 09868140022
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