भावसिह हिरवानी
जब से सेवानिवृत्त हुए थे, माखन लाल की दिन - चर्या बदल गयी थी। नींद खुल जाती मगर देर तक अलसाये से बिस्तर पर पड़े रहते। उनकी पत्नी वन्दना उठने को कहती तो वे कहते - अब किस बात की जल्दी है? कौन सा दफ्तर जाना है मुझे, जो देर हो जायेगी? सेवा निवृत्ति का मतलब आराम, सिर्फ आराम। और वे मुंह ढांप कर सोने का स्वांग करते।
उनकी पत्नी अक्सर मुस्कुराती हुई खीझ उठती - ठीक है, मैं नहाने जा रही हूं। चाय रख दिया है। ठंडी हो जाये तो बहू से कह कर गर्म करवा लेना या खुद ही गर्म कर लेना। इतना सुनते ही वे हड़बड़ा कर उठ बैठते - अरे नहीं, लाओ चाय पी ही लेता हूं। प्राय: इसी तरह उनकी दिनचर्या की शुरुआत होती। कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा लेकिन बाद में महसूस होने लगा इस तरह जीना तो बहुत मुश्किल है। जब तक नौकरी में रहे समय की कमी थी। अब समय बिताना एक बड़ी समस्या थी। शुरु - शुरु में यार दोस्तों के घर जाते रहे किन्तु वहां भी बार - बार जाना संभव नहीं था।
इसके बाद संगे सबंधियों के यहां भी घूम आये। तीन - चार बार तीर्थाटन करके भी पुण्य कमा लिया। अंत में फिर वही खालीपन उनके सामने पांव पसार कर बैठ गया। और उन्हें लगने लगा कि अब तो करने को कुछ भी बाकी नहीं है। समय कैसे बितेगा, कितना सोयेंगे, कितना घूमेंगे, रोज - रोज किसके पास बैठेंगे? वे अन्य सेवानिवृत्त व्यक्तियों के विषय में जानकारी लेने लगे। मालूम पड़ा, एक दो को छोड़कर सबकी यही दशा है। देवशरण बाबू तो रिटायरमेंट के दो साल बाद ही परलोकी हो गये। नौकरी में थे तो दिन भर में आठ - दस बार मुफ्त की चाय पी जाते थे। घर बैठना हुआ तो सब छूट गया। अब कोई पूछने वाला न था। धीरे - धीरे अवसाद ग्रस्त हो गये और एक दिन नींद की गोली खाकर सदा के लिए सो गये।
परमा साहब प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उनका अहंकार उन्हें घर से बाहर निकलने नहीं देता था। बड़े अधिकारी थे, छोटे - मोटे काम करेंगे तो लोग क्या कहेंगे? सो दिन भर घर में पड़े रहते। सारा दिन पेपर पढ़ते या टी.वी. देखते। पहले आँखों में मोतियाबिंद उतर आया फिर कान से सुनाई देना ही बंद हो गया। ब्लड प्रेशर और शुगर तो पहले से ही था। एक दिन अचानक बे्रन हेमरेज हुआ और चल बसे। साफ नजर आ रहा था कि जितना अधिक आराम करेंगे मौत उतनी तेजी से वार करेगी।
लोगों की दशा देख उनके भीतर उथल - पुथल होने लगी। जिंदगी की इस आखिरी पारी को किस तरह व्यवस्थित ढंग से जीयें कि शेष जीवन सुख पूर्वक कट जाये। उनकी पत्नी उनके मानसिक द्वन्द्व को अच्छी तरह महसूस कर रही थी, पर बोली कुछ नहीं। आखिर एक दिन माखन लाल ने अपनी पत्नी से पूछ ही लिया - मुझे इस खालीपन से घबराहट होने लगी है। तुम्हीं बताओ, मैं क्या करुं?
माखन लाल के सवाल का जवाब उनकी पत्नी ने सवाल से ही दिया था - अच्छा ये बताओ, आपके रिटायमेंट से मुझे क्यों फर्क नहीं पड़ा?
उन्होंने कहा - क्योंकि तुम पहले की भांति आज भी घर - गृहस्थी के कामों में लगी रहती हो।
- तो आप भी घर गृहस्थी के कामों में क्यों नहीं लग जाते? आपका मन भी लगा रहेगा, समय बीतेगा और शरीर भी स्वस्थ रहेगा। उनकी पत्नी बोली थी।
- जब करने लायक था तब तो कुछ नहीं किया, अब तुम मुझे घर - गृहस्थी का काम करने को कहती हो। यह सब मुझसे नहीं होगा। माखन लाल उखड़ गये थे।
- तो फिर आराम से पड़े रहो न, कौन आपको काम करने को कहता है। आपने पूछा तो मैंने बताया। उनकी पत्नी मुस्कराती हुई वहां से चली गयी थी।
माखन लाल सोच में डूब गये, और उनका अतीत उनकी स्मृति पटल पर चलचित्र भांति उभरता चला गया था - पढ़ाई के बाद उनकी पहली नियुक्ति नायब तहसीलदार के रुप में हुई थी। इस तरह वे शुरु से ही साहब बन गये और जिंदगी भर साहबी का लबादा ओढ़े जीते रहे। बाद में उनका प्रमोशन तहसीलदार के पद पर हो गया था। इस तरह उन्होंने घर गृहस्थी के कार्यों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। उन्हें कभी इसकी जरुरत ही पड़ी। पहले उनके खाने - पीने की व्यवस्था कर्मचारी संभालते रहे, शादी के बाद उनकी पत्नी संभालने लगी। उनकी जिम्मेदारी पत्नी को समय पर राशि उपलब्ध कराने तक ही सीमित थी। बाकी व्यवस्था उनकी पत्नी कहां से केसे करती हैं, इसकी चिंता उन्हें कभी नहीं रही। उन्होंने कभी एक गिलास पानी भी स्वयं निकाल कर नहीं पीया। सब कुछ पहले से ही मेज पर रखा मिलता यहां तक कि बच्चों के परवरिश की जिम्मेदारी भी उन्होंने पत्नी के ऊपर छोड़ दिया था।
उनकी पहली संतान लड़की थी जिसे वे लक्ष्मी कह कर पुकारते थे। लक्ष्मी अपने माँ - बाप की लाड़ली थी। उसके जन्म के पांच साल बाद उनका बेटा रोशन पैदा हुआ था। दोनों बच्चे पूरी सुख - सुविधा के बीच पले - बढ़े। समय बीतता गया और लक्ष्मी कॉलेज तक पहुंच गयी। लेकिन दुर्भाग्य, अंतिम वर्ष की पढ़ाई के बाद एक दिन वह चुपचाप एक विजातीय लड़का के साथ भाग गयी।
इस अप्रत्याशित घटना ने माखनलाल और उनकी पत्नी को भीतर तक झकझोर कर रख दिया। उनकी पत्नी कई दिनों तक बदहवास - सी बनी रही। बहुत सोचने पर भी उन्हें समझ नहीं आता था कि लक्ष्मी ने ऐसा क्यों किया? अपने कलेजे के टुकड़े के लिए उन्होंने कैसे - कैसे सपने संजोये थे। किन्तु एक झटके में उस नादान लड़की ने उन्हें मानो आकाश से जमीन पर ला पटका था। उनकी दशा पिंजरे की उस पंछी की तरह हो गयी थी जो बाहर से खामोश बना रहता है लेकिन भीतर ही भीतर रोता है। उन्हें लगता था वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहे। इस तरह हमेशा हंसते - मुस्कुराते रहने वाले माखन लाल ने अपने को घर और दफ्तर के बीच तक सीमित कर लिया।
वक्त धीरे - धीरे हर घाव भर देता है। समय के साथ उनकी जिंदगी फिर पटरी पर लौट आयी। यद्यपि लक्ष्मी की याद वे कभी भुला नहीं पाये, पर यह सोच कर तसल्ली कर लिया कि जो भाग्य में लिखा वही हुआ। अब उनकी सारी आशा - आकांक्षा रोशन पर आकर टिग गयी थी। सौभाग्य से रोशन ने उन्हें कभी निराश नहीं किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे घर के पास ही शिक्षक की नौकरी मिल गयी। इसके बाद उन्होंने रोशन की शादी कर दी। माखन लाल के सेवा निवृति के वक्त रोशन के बेटा - बेटी दोनों हाईस्कूल में पहुंच गये।
अब बेटा, बहू और पोता - पोती के संग में माखनलाल को बहुत आनंद आ रहा था किन्तु कुछ समय बाद वे खालीपन के एहसास से उकताने लगे। और अब जीवन के अंतिम पड़ाव में आकर उन्हें घर - गृहस्थी के काम करने की बात आयी तो वे सोच में पड़ गये। कैसा लगेगा जब वे थैला लेकर बाजार जायेंगे? दुकान में जाकर धनिया - मिर्च या तेल नून खरीदेंगे? क्या लोग हंसेगे नहीं? देखो बेचारे तहसीलदार साहब को रिटायरमेंट के बाद झोला लेकर सामान खरीदने जाना पड़ता है। डिब्बा लेकर दूध लेने जाना क्या उन्हें अजीब नहीं लगेगा? नहीं, यह सब नहीं होगा उनसे। वे कई दिनों तक उहापोह की स्थिति में डूबे रहे कि क्या करें, क्या नहीं करे? अंत में वे इसी नतीजे पर पहुंचे कि घर का काम करने में कोई बुराई नहीं है। लोग हंसते हैं तो हंसते रहे।
उन्होंने अपने निर्णय की जानकारी पत्नी को दी तो खुशी के मारे उसका चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। उन दोनों के बीच पानी मिले दूध से लेकर कई बार चर्चा हो चुकी थी। दूध वाले को बहुत बार बोल चुके थे कि कीमत बढ़ा लो पर शुद्ध दूध दिया करो, किन्तु वह मानता ही नहीं था। मजबूरी में उसी से गुजारा करना पड़ता। घर से दो किलोमीटर दूर डेयरी से शुद्ध दूध मिल सकता था मगर रोज जाकर लाना एक बड़ी समस्या थी। माखन लाल ने कहा - आज दूध वाले का हिसाब कर दो। कल से डेयरी जाकर दूध मैं लाऊंगा। और बाजार जाकर बर्तन दुकान से दो डिब्बा खरीद लाये। उनके इस कदम से घर में खुशी की लहर दौड़ गयी। बच्चे हंसने लगे - अच्छा, दादा दूध लेने जायेंगे। पहले दिन कुछ अजीब लगा, पर धीरे - धीरे सब सामान्य हो गया। एक तो बुजुर्ग, दूसरा साहब, सब लोग आदर करते। कोई दादा कहता, कोई बाबूजी, कोई सर जी कह कर संबोधित करता तो उन्हें बहुत अच्छा लगता।
धीरे - धीरे उनकी पूरी दिन चर्या ही बदल गयी। मनिहारी का सामान लाना होता तो बहू लिस्ट बनाकर बच्चों के हाथ भिजवा देती और वे कार लेकर सामान खरीद लाते। सब्जी खरीदनी होती तो बाइक या स्कूटर लेकर चले जाते। एक दिन वे तेल लेने जा रहे थे कि रास्ते में उनके बचपन के मित्र रघुनंदन मिल गये। वे पेशे से वकील थे। उन्होंने गाड़ी रोक दी और सड़क किनारे खड़े होकर बतियाने लगे। बातों - बातों में रघुनंदन ने पूछ लिया - इधर कहां जा रहे हैं? माखनलाल बोले - तेल लेने।
उनकी बात सुन कर रघुनंदन जोरों से हंस पड़े - तो अब नौबत यहां तक आ गयी?
- अरे हां भाई, समय - समय की बात है। वे भी उनके साथ हंसने लगे। उसी दौरान रघुनंदन बोले - अरे यार, आपने सुना सुखीराम ने दूसरी कर ली, वह भी साठ साल की उम्र में?
- अरे नहीं, यह आप कह रहे हैं। यह भी कोई उम्र है शादी करने की? इसके अलावा उसकी पत्नी अभी जीवित है। इतना जरुर सुना था कि दोनों का संबंध मधुर नहीं है। उसकी पत्नी, बेटा - बहू के पास रायपुर में रहती है और सुखीराम यहां किराये के मकान में अकेला रहता है। माखनलाल को घोर आश्चर्य हो रहा था।
- एकदम सच कह रहा हूं। अभी महीना भर भी नहीं हुआ है उसे दूसरी पत्नी लाये। अब गौर करना इस बुढ़ापे में भी वह कैसे सजा - धजा सड़क पर घूमता रहता है। रघुनंदन अब भी चहक रहे थे।
- लेकिन उसने ऐसी बेवकूफी क्यों की? रघुनंदन की बातों पर उन्हें अब भी विश्वास नहीं हो रहा था।
- उसका तर्क था कि पत्नी साथ रहना नहीं चाहती और वह बेटा - बहू के साथ नहीं रह सकता। अकेले रहने में ढेरों परेशानियां हैं। दो रहेंगे तो वक्त जरुरत में एक दूसरे का सहारा रहेगा। वह भी अकेली थी, खुशी - खुशी चली आयी। अच्छा, अब आप तेल लेने जाइये, मैं भी चलता हूं। रघुनंदन बोले और चलते बने।
अब उन्हें घर के छोटे मोटे कार्यों को निपटाने में मजा आने लगा। वे जहां रहते थे, वह न गांव था न शहर। उनकी जिंदगी बेटा - बहू तथा पोता - पोती संग मस्ती से गुजरने लगी। इसी बीच बेटे रोशन का प्रमोशन जिला से बाहर काफी दूर एक स्कूल में हो गया तो उनके सामने एक साथ कई परेशानियां आ खड़ी हुई। बहुत सोच - विचार कर निर्णय लिया गया कि बेटा - बहू दोनों नई जगह पर चले जायें। बच्चों को वहां ले जाना ठीक नहीं रहेगा क्योंकि दोनों को ही इस वर्ष बोर्ड की परीक्षा देनी है।
इस कस्बा से शहर पच्चीस किलोमीटर दूर था, जहां वे पढ़ते थे। स्कूल बस की सुविधा होने से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी। बेटा - बहू के चले जाने से बच्चों की व्यवस्था की जिम्मेदारी अब माखन लाल और उनकी पत्नी के ऊपर आ गयी। बाहर का काम तो वे कर ही रहे थे, उनकी पत्नी काम वाली बाई के साथ घर का काम निबटाने लगी। जरुरत पड़ने पर वे स्वयं भी पत्नी का हाथ बंटाने लगे। जब मम्मी - पापा थे तो बच्चे कई दफा मन पसंद खाने की जिद्द किया करते किन्तु अब सयानों की तरह व्यवहार करने लगे, जानते थे ज्यादा काम का बोझ दादा - दादी के लिए तकलीफ देह है अत: उन्होंने जिद्द करना छोड़ दिया। अवकाश मिलते ही बेटा - बहू घर आ जाते या बीच में वे स्वयं बच्चों को लेकर उनसे मिल आते।
इसी समय एक दिन उनके पोते ने कहा - दादा,मैं ट्यूशन पढ़ना चाहता हूं। उन्होंने हामी भर दी। पर जब शिक्षकों से संपर्क किया तो मालूम पड़ा कि एक स्कूल शुरु होने से पहले पढ़ायेंगे और दूसरे छुट्टी के बाद। अब समस्या आने - जाने की थी क्योंकि स्कूल बस तो स्कूल समय से चलती थी अत: पोता के लिए उन्होंने स्कूटर खरीद दिया और चलाना भी सिखाया। ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए भी उन्हें भाग दौड़ करना पड़ा। इसके कुछ दिनों बाद उनकी पोती भी ट्यूशन पढ़ने के लिए बोली। ना कहने की तो बात ही नहीं थी। तत्काल उसके लिए भी एक स्कूटर खरीद कर चलाना सिखाया और लाइसेंस भी बनवाया। अब दोनों बच्चे अपने समय से स्कूल पहुंच जाते और लौट आते। जरुरत पड़ने पर ही वे उनको सहयोग करते। बच्चों को दौड़ते - भागते और अपनी पढ़ाई में व्यस्त देख उनको बहुत सुकून मिलता था। बुढ़ापा में भी उनकी इस कदर व्यस्तता एवं जिंदादिली देख आश्चर्य मिश्रित खुशी प्रकट करते - इस अवस्था में भी आपकी यह सक्रियता सचमुच आश्चर्य जनक है। जवाब में वे केवल मुस्कुरा कर रह जाते। इस तरह उनके जीवन की आखिरी पारी भी बड़े मजे से बीत रही थी।
एक दिन दोपहर में जब दोनों पति - पत्नी आराम से बैठे चाय की चुस्की ले रहे थे, तभी उनके दरवाजे की घंटी बजने लगी। जब उन्होंने दरवाजा खोला तो हैरत से उनकी आंखें फटी की फटी रह गयीं। उन्हें महसूस हुआ था जैसे पच्चीस साल पहले गायब हुई उनकी सुधा लौट आयी है। सामने खड़ी लड़की का चेहरा - मोहरा, कद - काठी सब कुछ सुधा की तरह ही थी। लेकिन वे जानते थे, यह सुधा नहीं है। वह तो आज पैंतालीस साल की हो चुकी होगी। कुछ क्षण पश्चात उन्होंने अपने को संभालते हुए पूछा था - क्या बात है?
सामने खड़ी लड़की के चेहरे पर न जाने कितने ही तरह के भाव गड्मड् हो रहे थे। वह कुछ असहज और संशकित भी थी, फिर भी हिम्मत बटोर कर बोली थी - मैं आप लोगों से मिलने आयी हूं। और इसी के साथ माखन लाल के पैरों पर झुक गयी थी।
माखन लाल उसे खुश रहने का आर्शीवाद दिया और दरवाजा से हटते हुए बोले - अच्छा,आ जाओ। मगर उनके भीतर अब भी उथल - पुथल मची हुई थी।
भीतर जाकर उस लड़की ने उनकी पत्नी के प्रति भी वैसा ही सम्मान प्रकट किया था। किन्तु वह भी उस लड़की को देख कर हक्की - बक्की रह गयी। उसके मने में एक हूक सी उठी थी, कहीं यह सुधा की लड़की तो नहीं है? उन्होंने उसे अपने पास बिठा कर पूछा था - बेटी, तुम कौन हो, यहां क्यों आयी हो?
लड़की सहमी सी कांपती आवाज में बोली थी - नानी, मैं आपकी बेटी सुजाता हूं।
इतना सुनते ही माखन लाल और उनकी पत्नी भौचक्के रह गये। उनकी पत्नी भावुक हो गयी और सुजाता को अपनी बाहों में भरकर रोने लगी मानो वर्षों से बिछुड़ी उसकी सुधा उसे अचानक मिल गयी हो। माखन लाल अचंभित अवाक सुजाता को निहारने लगे। मन में विश्मय भी था और खुशी भी थी। पच्चीस साल पहले का हादशा एक बार फिर उनकी आंखों में उभर आया। कुछ ही पलों में वे जैसे सुधा से जुड़ी सारी जिंदगी जी गये। एक बार फिर अपनी लाडली बेटी के लिए उनका मन रोया था। वे भी सुजाता के करीब सरक आये और उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। पहली बार नाना - नानी का प्यार पाकर सुजाता निहाल हो गयी थी। वह बहुत देर तक खामोश अपनी नानी से लिपटी रही।
कुछ क्षण पश्चात जब वे सहज हो गये तो सुजाता से कुशल क्षेम पूछने लगे। जवाब में सुजाता ने जो कुछ कहा उसे सुनकर उनका हृदय एक बार और व्यथित हो गया। सुजाता बोली - नाना, कुछ भी अच्छा नहीं है। मम्मी बताती है, जब मैं पांच वर्ष की थी तभी मेरे पापा हमें छोड़कर चुपचाप कहीं चले गये। मम्मी उनकी प्रतीक्षा करती अकेली जिंदगी से जूझती रही। मेरे दादा - दादी तो शुरु से ही मम्मी के खिलाफ थे, सो उन्होंने हमारी कभी पूछ - परख नहीं की। चूंकि मम्मी यहां से चुपचाप भाग कर गयी थी, आप लोगों को फिर मुंह दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। जब वह बिलकुल अकेली हो गयी तब उसे अपनी भूल का एहसास हुआ था। मैंने जब भी आप लोगों के विषय में पूछा, मम्मी को एक अपराध बोध की पीड़ा से तड़फते देखा। वह बस यही कहती थी - मैं अभागन बेटी थी जो अपने माँ - बाप का तिरिस्कार करके भाग आयी। शायद हमारे भाग्या में सुख लिखा ही नहीं था।
मम्मी बिलकुल नहीं चाहती थी कि मैं आप लोगों से मिलूं। बहुत जिद्द के बाद मैं यहां आ पायी। मम्मी बारहवीं के बाद मुझे पढ़ाना नहीं चाहती। कहती है - इससे अधिक पढ़ाने की हैसियत मेरी नहीं है। नाना, मैं पढ़ना चाहती हूं। क्या करुं ? कहते - कहते उसका गला रुंध गया और वह सुबकने लगी - ऐसा क्यों होता है नाना कि मां - बाप की करनी का फल उसकी संतान को भोगना पड़ता है?
जवाब में माखन लाल कुछ नहीं बोले। सुजाता के इस सवाल में उसके विगत और आगत दोनों वक्तों का समूचा दर्द समाया हुआ था। सुजाता और सुधा की हालत जान लेने के बाद उन्होंने एक बार फिर सुजाता के सिर पर हाथ रख दिया- बेटी, मैं तुम्हारा भाग्य नहीं बदल सकता। तुम्हारी मम्मी का भाग्य भी कहां बदल पाया। हां, जब तक जिंदा हूं, तुम दोनों की हर जरुरत पूरी करने की कोशिश करुंगा। तुम्हारी पढ़ाई की सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूं। अपनी मम्मी को फोन कर दो कि तुम कल लौटोगी।
सुजाता ने यंत्र चालित - सा अपनी मम्मी को सूचना देकर मोबाइल बंद कर दिया। अब माखन लाल अपनी पत्नी की ओर लक्ष्य करके बोले - अभी तक हम बातों में ही उलझे रहे। सुजाता को कुछ खाने - पीने को दो, फिर हम दोनों बाजार जाकर इसके लिए कुछ कपड़े वगैरह खरीद लाते हैं। कल इसके घर जायेंगे और दोनों मां बेटी की जरुरत के सामान खरीदेंगे। कुछ क्षण पश्चात उन्होंने सुजाता से पूछा - तुम पढ़ने किससे जाती हो?
- सायकिल से ...। सुजाता ने बताया।
- अच्छा, कल तुम्हारे लिए भी स्कूटर खरीदेंगे। चलाना तो सीख लोगी न? माखन लाल अब पूरी तरह सहज हो गये थे।
- हां। सुजाता का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा था।
थोड़ी देर बाद वे सुजाता को लेकर बाजार जाने के लिए निकल पड़े, एक और जिम्मेदारी का निर्वहन करने। वे सोच कर मुस्करा रहे थे कि लगता है, जब तक शरीर में शक्ति है, उनकी आखिरी पारी खत्म नहीं होगी। मुझे भी लगता है, वे एकदम ठीक सोच रहे थे। आपका क्या ख्याल है।
उनकी पत्नी अक्सर मुस्कुराती हुई खीझ उठती - ठीक है, मैं नहाने जा रही हूं। चाय रख दिया है। ठंडी हो जाये तो बहू से कह कर गर्म करवा लेना या खुद ही गर्म कर लेना। इतना सुनते ही वे हड़बड़ा कर उठ बैठते - अरे नहीं, लाओ चाय पी ही लेता हूं। प्राय: इसी तरह उनकी दिनचर्या की शुरुआत होती। कुछ दिनों तक ऐसे ही चलता रहा लेकिन बाद में महसूस होने लगा इस तरह जीना तो बहुत मुश्किल है। जब तक नौकरी में रहे समय की कमी थी। अब समय बिताना एक बड़ी समस्या थी। शुरु - शुरु में यार दोस्तों के घर जाते रहे किन्तु वहां भी बार - बार जाना संभव नहीं था।
इसके बाद संगे सबंधियों के यहां भी घूम आये। तीन - चार बार तीर्थाटन करके भी पुण्य कमा लिया। अंत में फिर वही खालीपन उनके सामने पांव पसार कर बैठ गया। और उन्हें लगने लगा कि अब तो करने को कुछ भी बाकी नहीं है। समय कैसे बितेगा, कितना सोयेंगे, कितना घूमेंगे, रोज - रोज किसके पास बैठेंगे? वे अन्य सेवानिवृत्त व्यक्तियों के विषय में जानकारी लेने लगे। मालूम पड़ा, एक दो को छोड़कर सबकी यही दशा है। देवशरण बाबू तो रिटायरमेंट के दो साल बाद ही परलोकी हो गये। नौकरी में थे तो दिन भर में आठ - दस बार मुफ्त की चाय पी जाते थे। घर बैठना हुआ तो सब छूट गया। अब कोई पूछने वाला न था। धीरे - धीरे अवसाद ग्रस्त हो गये और एक दिन नींद की गोली खाकर सदा के लिए सो गये।
परमा साहब प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उनका अहंकार उन्हें घर से बाहर निकलने नहीं देता था। बड़े अधिकारी थे, छोटे - मोटे काम करेंगे तो लोग क्या कहेंगे? सो दिन भर घर में पड़े रहते। सारा दिन पेपर पढ़ते या टी.वी. देखते। पहले आँखों में मोतियाबिंद उतर आया फिर कान से सुनाई देना ही बंद हो गया। ब्लड प्रेशर और शुगर तो पहले से ही था। एक दिन अचानक बे्रन हेमरेज हुआ और चल बसे। साफ नजर आ रहा था कि जितना अधिक आराम करेंगे मौत उतनी तेजी से वार करेगी।
लोगों की दशा देख उनके भीतर उथल - पुथल होने लगी। जिंदगी की इस आखिरी पारी को किस तरह व्यवस्थित ढंग से जीयें कि शेष जीवन सुख पूर्वक कट जाये। उनकी पत्नी उनके मानसिक द्वन्द्व को अच्छी तरह महसूस कर रही थी, पर बोली कुछ नहीं। आखिर एक दिन माखन लाल ने अपनी पत्नी से पूछ ही लिया - मुझे इस खालीपन से घबराहट होने लगी है। तुम्हीं बताओ, मैं क्या करुं?
माखन लाल के सवाल का जवाब उनकी पत्नी ने सवाल से ही दिया था - अच्छा ये बताओ, आपके रिटायमेंट से मुझे क्यों फर्क नहीं पड़ा?
उन्होंने कहा - क्योंकि तुम पहले की भांति आज भी घर - गृहस्थी के कामों में लगी रहती हो।
- तो आप भी घर गृहस्थी के कामों में क्यों नहीं लग जाते? आपका मन भी लगा रहेगा, समय बीतेगा और शरीर भी स्वस्थ रहेगा। उनकी पत्नी बोली थी।
- जब करने लायक था तब तो कुछ नहीं किया, अब तुम मुझे घर - गृहस्थी का काम करने को कहती हो। यह सब मुझसे नहीं होगा। माखन लाल उखड़ गये थे।
- तो फिर आराम से पड़े रहो न, कौन आपको काम करने को कहता है। आपने पूछा तो मैंने बताया। उनकी पत्नी मुस्कराती हुई वहां से चली गयी थी।
माखन लाल सोच में डूब गये, और उनका अतीत उनकी स्मृति पटल पर चलचित्र भांति उभरता चला गया था - पढ़ाई के बाद उनकी पहली नियुक्ति नायब तहसीलदार के रुप में हुई थी। इस तरह वे शुरु से ही साहब बन गये और जिंदगी भर साहबी का लबादा ओढ़े जीते रहे। बाद में उनका प्रमोशन तहसीलदार के पद पर हो गया था। इस तरह उन्होंने घर गृहस्थी के कार्यों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। उन्हें कभी इसकी जरुरत ही पड़ी। पहले उनके खाने - पीने की व्यवस्था कर्मचारी संभालते रहे, शादी के बाद उनकी पत्नी संभालने लगी। उनकी जिम्मेदारी पत्नी को समय पर राशि उपलब्ध कराने तक ही सीमित थी। बाकी व्यवस्था उनकी पत्नी कहां से केसे करती हैं, इसकी चिंता उन्हें कभी नहीं रही। उन्होंने कभी एक गिलास पानी भी स्वयं निकाल कर नहीं पीया। सब कुछ पहले से ही मेज पर रखा मिलता यहां तक कि बच्चों के परवरिश की जिम्मेदारी भी उन्होंने पत्नी के ऊपर छोड़ दिया था।
उनकी पहली संतान लड़की थी जिसे वे लक्ष्मी कह कर पुकारते थे। लक्ष्मी अपने माँ - बाप की लाड़ली थी। उसके जन्म के पांच साल बाद उनका बेटा रोशन पैदा हुआ था। दोनों बच्चे पूरी सुख - सुविधा के बीच पले - बढ़े। समय बीतता गया और लक्ष्मी कॉलेज तक पहुंच गयी। लेकिन दुर्भाग्य, अंतिम वर्ष की पढ़ाई के बाद एक दिन वह चुपचाप एक विजातीय लड़का के साथ भाग गयी।
इस अप्रत्याशित घटना ने माखनलाल और उनकी पत्नी को भीतर तक झकझोर कर रख दिया। उनकी पत्नी कई दिनों तक बदहवास - सी बनी रही। बहुत सोचने पर भी उन्हें समझ नहीं आता था कि लक्ष्मी ने ऐसा क्यों किया? अपने कलेजे के टुकड़े के लिए उन्होंने कैसे - कैसे सपने संजोये थे। किन्तु एक झटके में उस नादान लड़की ने उन्हें मानो आकाश से जमीन पर ला पटका था। उनकी दशा पिंजरे की उस पंछी की तरह हो गयी थी जो बाहर से खामोश बना रहता है लेकिन भीतर ही भीतर रोता है। उन्हें लगता था वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहे। इस तरह हमेशा हंसते - मुस्कुराते रहने वाले माखन लाल ने अपने को घर और दफ्तर के बीच तक सीमित कर लिया।
वक्त धीरे - धीरे हर घाव भर देता है। समय के साथ उनकी जिंदगी फिर पटरी पर लौट आयी। यद्यपि लक्ष्मी की याद वे कभी भुला नहीं पाये, पर यह सोच कर तसल्ली कर लिया कि जो भाग्य में लिखा वही हुआ। अब उनकी सारी आशा - आकांक्षा रोशन पर आकर टिग गयी थी। सौभाग्य से रोशन ने उन्हें कभी निराश नहीं किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे घर के पास ही शिक्षक की नौकरी मिल गयी। इसके बाद उन्होंने रोशन की शादी कर दी। माखन लाल के सेवा निवृति के वक्त रोशन के बेटा - बेटी दोनों हाईस्कूल में पहुंच गये।
अब बेटा, बहू और पोता - पोती के संग में माखनलाल को बहुत आनंद आ रहा था किन्तु कुछ समय बाद वे खालीपन के एहसास से उकताने लगे। और अब जीवन के अंतिम पड़ाव में आकर उन्हें घर - गृहस्थी के काम करने की बात आयी तो वे सोच में पड़ गये। कैसा लगेगा जब वे थैला लेकर बाजार जायेंगे? दुकान में जाकर धनिया - मिर्च या तेल नून खरीदेंगे? क्या लोग हंसेगे नहीं? देखो बेचारे तहसीलदार साहब को रिटायरमेंट के बाद झोला लेकर सामान खरीदने जाना पड़ता है। डिब्बा लेकर दूध लेने जाना क्या उन्हें अजीब नहीं लगेगा? नहीं, यह सब नहीं होगा उनसे। वे कई दिनों तक उहापोह की स्थिति में डूबे रहे कि क्या करें, क्या नहीं करे? अंत में वे इसी नतीजे पर पहुंचे कि घर का काम करने में कोई बुराई नहीं है। लोग हंसते हैं तो हंसते रहे।
उन्होंने अपने निर्णय की जानकारी पत्नी को दी तो खुशी के मारे उसका चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। उन दोनों के बीच पानी मिले दूध से लेकर कई बार चर्चा हो चुकी थी। दूध वाले को बहुत बार बोल चुके थे कि कीमत बढ़ा लो पर शुद्ध दूध दिया करो, किन्तु वह मानता ही नहीं था। मजबूरी में उसी से गुजारा करना पड़ता। घर से दो किलोमीटर दूर डेयरी से शुद्ध दूध मिल सकता था मगर रोज जाकर लाना एक बड़ी समस्या थी। माखन लाल ने कहा - आज दूध वाले का हिसाब कर दो। कल से डेयरी जाकर दूध मैं लाऊंगा। और बाजार जाकर बर्तन दुकान से दो डिब्बा खरीद लाये। उनके इस कदम से घर में खुशी की लहर दौड़ गयी। बच्चे हंसने लगे - अच्छा, दादा दूध लेने जायेंगे। पहले दिन कुछ अजीब लगा, पर धीरे - धीरे सब सामान्य हो गया। एक तो बुजुर्ग, दूसरा साहब, सब लोग आदर करते। कोई दादा कहता, कोई बाबूजी, कोई सर जी कह कर संबोधित करता तो उन्हें बहुत अच्छा लगता।
धीरे - धीरे उनकी पूरी दिन चर्या ही बदल गयी। मनिहारी का सामान लाना होता तो बहू लिस्ट बनाकर बच्चों के हाथ भिजवा देती और वे कार लेकर सामान खरीद लाते। सब्जी खरीदनी होती तो बाइक या स्कूटर लेकर चले जाते। एक दिन वे तेल लेने जा रहे थे कि रास्ते में उनके बचपन के मित्र रघुनंदन मिल गये। वे पेशे से वकील थे। उन्होंने गाड़ी रोक दी और सड़क किनारे खड़े होकर बतियाने लगे। बातों - बातों में रघुनंदन ने पूछ लिया - इधर कहां जा रहे हैं? माखनलाल बोले - तेल लेने।
उनकी बात सुन कर रघुनंदन जोरों से हंस पड़े - तो अब नौबत यहां तक आ गयी?
- अरे हां भाई, समय - समय की बात है। वे भी उनके साथ हंसने लगे। उसी दौरान रघुनंदन बोले - अरे यार, आपने सुना सुखीराम ने दूसरी कर ली, वह भी साठ साल की उम्र में?
- अरे नहीं, यह आप कह रहे हैं। यह भी कोई उम्र है शादी करने की? इसके अलावा उसकी पत्नी अभी जीवित है। इतना जरुर सुना था कि दोनों का संबंध मधुर नहीं है। उसकी पत्नी, बेटा - बहू के पास रायपुर में रहती है और सुखीराम यहां किराये के मकान में अकेला रहता है। माखनलाल को घोर आश्चर्य हो रहा था।
- एकदम सच कह रहा हूं। अभी महीना भर भी नहीं हुआ है उसे दूसरी पत्नी लाये। अब गौर करना इस बुढ़ापे में भी वह कैसे सजा - धजा सड़क पर घूमता रहता है। रघुनंदन अब भी चहक रहे थे।
- लेकिन उसने ऐसी बेवकूफी क्यों की? रघुनंदन की बातों पर उन्हें अब भी विश्वास नहीं हो रहा था।
- उसका तर्क था कि पत्नी साथ रहना नहीं चाहती और वह बेटा - बहू के साथ नहीं रह सकता। अकेले रहने में ढेरों परेशानियां हैं। दो रहेंगे तो वक्त जरुरत में एक दूसरे का सहारा रहेगा। वह भी अकेली थी, खुशी - खुशी चली आयी। अच्छा, अब आप तेल लेने जाइये, मैं भी चलता हूं। रघुनंदन बोले और चलते बने।
अब उन्हें घर के छोटे मोटे कार्यों को निपटाने में मजा आने लगा। वे जहां रहते थे, वह न गांव था न शहर। उनकी जिंदगी बेटा - बहू तथा पोता - पोती संग मस्ती से गुजरने लगी। इसी बीच बेटे रोशन का प्रमोशन जिला से बाहर काफी दूर एक स्कूल में हो गया तो उनके सामने एक साथ कई परेशानियां आ खड़ी हुई। बहुत सोच - विचार कर निर्णय लिया गया कि बेटा - बहू दोनों नई जगह पर चले जायें। बच्चों को वहां ले जाना ठीक नहीं रहेगा क्योंकि दोनों को ही इस वर्ष बोर्ड की परीक्षा देनी है।
इस कस्बा से शहर पच्चीस किलोमीटर दूर था, जहां वे पढ़ते थे। स्कूल बस की सुविधा होने से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी। बेटा - बहू के चले जाने से बच्चों की व्यवस्था की जिम्मेदारी अब माखन लाल और उनकी पत्नी के ऊपर आ गयी। बाहर का काम तो वे कर ही रहे थे, उनकी पत्नी काम वाली बाई के साथ घर का काम निबटाने लगी। जरुरत पड़ने पर वे स्वयं भी पत्नी का हाथ बंटाने लगे। जब मम्मी - पापा थे तो बच्चे कई दफा मन पसंद खाने की जिद्द किया करते किन्तु अब सयानों की तरह व्यवहार करने लगे, जानते थे ज्यादा काम का बोझ दादा - दादी के लिए तकलीफ देह है अत: उन्होंने जिद्द करना छोड़ दिया। अवकाश मिलते ही बेटा - बहू घर आ जाते या बीच में वे स्वयं बच्चों को लेकर उनसे मिल आते।
इसी समय एक दिन उनके पोते ने कहा - दादा,मैं ट्यूशन पढ़ना चाहता हूं। उन्होंने हामी भर दी। पर जब शिक्षकों से संपर्क किया तो मालूम पड़ा कि एक स्कूल शुरु होने से पहले पढ़ायेंगे और दूसरे छुट्टी के बाद। अब समस्या आने - जाने की थी क्योंकि स्कूल बस तो स्कूल समय से चलती थी अत: पोता के लिए उन्होंने स्कूटर खरीद दिया और चलाना भी सिखाया। ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए भी उन्हें भाग दौड़ करना पड़ा। इसके कुछ दिनों बाद उनकी पोती भी ट्यूशन पढ़ने के लिए बोली। ना कहने की तो बात ही नहीं थी। तत्काल उसके लिए भी एक स्कूटर खरीद कर चलाना सिखाया और लाइसेंस भी बनवाया। अब दोनों बच्चे अपने समय से स्कूल पहुंच जाते और लौट आते। जरुरत पड़ने पर ही वे उनको सहयोग करते। बच्चों को दौड़ते - भागते और अपनी पढ़ाई में व्यस्त देख उनको बहुत सुकून मिलता था। बुढ़ापा में भी उनकी इस कदर व्यस्तता एवं जिंदादिली देख आश्चर्य मिश्रित खुशी प्रकट करते - इस अवस्था में भी आपकी यह सक्रियता सचमुच आश्चर्य जनक है। जवाब में वे केवल मुस्कुरा कर रह जाते। इस तरह उनके जीवन की आखिरी पारी भी बड़े मजे से बीत रही थी।
एक दिन दोपहर में जब दोनों पति - पत्नी आराम से बैठे चाय की चुस्की ले रहे थे, तभी उनके दरवाजे की घंटी बजने लगी। जब उन्होंने दरवाजा खोला तो हैरत से उनकी आंखें फटी की फटी रह गयीं। उन्हें महसूस हुआ था जैसे पच्चीस साल पहले गायब हुई उनकी सुधा लौट आयी है। सामने खड़ी लड़की का चेहरा - मोहरा, कद - काठी सब कुछ सुधा की तरह ही थी। लेकिन वे जानते थे, यह सुधा नहीं है। वह तो आज पैंतालीस साल की हो चुकी होगी। कुछ क्षण पश्चात उन्होंने अपने को संभालते हुए पूछा था - क्या बात है?
सामने खड़ी लड़की के चेहरे पर न जाने कितने ही तरह के भाव गड्मड् हो रहे थे। वह कुछ असहज और संशकित भी थी, फिर भी हिम्मत बटोर कर बोली थी - मैं आप लोगों से मिलने आयी हूं। और इसी के साथ माखन लाल के पैरों पर झुक गयी थी।
माखन लाल उसे खुश रहने का आर्शीवाद दिया और दरवाजा से हटते हुए बोले - अच्छा,आ जाओ। मगर उनके भीतर अब भी उथल - पुथल मची हुई थी।
भीतर जाकर उस लड़की ने उनकी पत्नी के प्रति भी वैसा ही सम्मान प्रकट किया था। किन्तु वह भी उस लड़की को देख कर हक्की - बक्की रह गयी। उसके मने में एक हूक सी उठी थी, कहीं यह सुधा की लड़की तो नहीं है? उन्होंने उसे अपने पास बिठा कर पूछा था - बेटी, तुम कौन हो, यहां क्यों आयी हो?
लड़की सहमी सी कांपती आवाज में बोली थी - नानी, मैं आपकी बेटी सुजाता हूं।
इतना सुनते ही माखन लाल और उनकी पत्नी भौचक्के रह गये। उनकी पत्नी भावुक हो गयी और सुजाता को अपनी बाहों में भरकर रोने लगी मानो वर्षों से बिछुड़ी उसकी सुधा उसे अचानक मिल गयी हो। माखन लाल अचंभित अवाक सुजाता को निहारने लगे। मन में विश्मय भी था और खुशी भी थी। पच्चीस साल पहले का हादशा एक बार फिर उनकी आंखों में उभर आया। कुछ ही पलों में वे जैसे सुधा से जुड़ी सारी जिंदगी जी गये। एक बार फिर अपनी लाडली बेटी के लिए उनका मन रोया था। वे भी सुजाता के करीब सरक आये और उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। पहली बार नाना - नानी का प्यार पाकर सुजाता निहाल हो गयी थी। वह बहुत देर तक खामोश अपनी नानी से लिपटी रही।
कुछ क्षण पश्चात जब वे सहज हो गये तो सुजाता से कुशल क्षेम पूछने लगे। जवाब में सुजाता ने जो कुछ कहा उसे सुनकर उनका हृदय एक बार और व्यथित हो गया। सुजाता बोली - नाना, कुछ भी अच्छा नहीं है। मम्मी बताती है, जब मैं पांच वर्ष की थी तभी मेरे पापा हमें छोड़कर चुपचाप कहीं चले गये। मम्मी उनकी प्रतीक्षा करती अकेली जिंदगी से जूझती रही। मेरे दादा - दादी तो शुरु से ही मम्मी के खिलाफ थे, सो उन्होंने हमारी कभी पूछ - परख नहीं की। चूंकि मम्मी यहां से चुपचाप भाग कर गयी थी, आप लोगों को फिर मुंह दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। जब वह बिलकुल अकेली हो गयी तब उसे अपनी भूल का एहसास हुआ था। मैंने जब भी आप लोगों के विषय में पूछा, मम्मी को एक अपराध बोध की पीड़ा से तड़फते देखा। वह बस यही कहती थी - मैं अभागन बेटी थी जो अपने माँ - बाप का तिरिस्कार करके भाग आयी। शायद हमारे भाग्या में सुख लिखा ही नहीं था।
मम्मी बिलकुल नहीं चाहती थी कि मैं आप लोगों से मिलूं। बहुत जिद्द के बाद मैं यहां आ पायी। मम्मी बारहवीं के बाद मुझे पढ़ाना नहीं चाहती। कहती है - इससे अधिक पढ़ाने की हैसियत मेरी नहीं है। नाना, मैं पढ़ना चाहती हूं। क्या करुं ? कहते - कहते उसका गला रुंध गया और वह सुबकने लगी - ऐसा क्यों होता है नाना कि मां - बाप की करनी का फल उसकी संतान को भोगना पड़ता है?
जवाब में माखन लाल कुछ नहीं बोले। सुजाता के इस सवाल में उसके विगत और आगत दोनों वक्तों का समूचा दर्द समाया हुआ था। सुजाता और सुधा की हालत जान लेने के बाद उन्होंने एक बार फिर सुजाता के सिर पर हाथ रख दिया- बेटी, मैं तुम्हारा भाग्य नहीं बदल सकता। तुम्हारी मम्मी का भाग्य भी कहां बदल पाया। हां, जब तक जिंदा हूं, तुम दोनों की हर जरुरत पूरी करने की कोशिश करुंगा। तुम्हारी पढ़ाई की सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूं। अपनी मम्मी को फोन कर दो कि तुम कल लौटोगी।
सुजाता ने यंत्र चालित - सा अपनी मम्मी को सूचना देकर मोबाइल बंद कर दिया। अब माखन लाल अपनी पत्नी की ओर लक्ष्य करके बोले - अभी तक हम बातों में ही उलझे रहे। सुजाता को कुछ खाने - पीने को दो, फिर हम दोनों बाजार जाकर इसके लिए कुछ कपड़े वगैरह खरीद लाते हैं। कल इसके घर जायेंगे और दोनों मां बेटी की जरुरत के सामान खरीदेंगे। कुछ क्षण पश्चात उन्होंने सुजाता से पूछा - तुम पढ़ने किससे जाती हो?
- सायकिल से ...। सुजाता ने बताया।
- अच्छा, कल तुम्हारे लिए भी स्कूटर खरीदेंगे। चलाना तो सीख लोगी न? माखन लाल अब पूरी तरह सहज हो गये थे।
- हां। सुजाता का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा था।
थोड़ी देर बाद वे सुजाता को लेकर बाजार जाने के लिए निकल पड़े, एक और जिम्मेदारी का निर्वहन करने। वे सोच कर मुस्करा रहे थे कि लगता है, जब तक शरीर में शक्ति है, उनकी आखिरी पारी खत्म नहीं होगी। मुझे भी लगता है, वे एकदम ठीक सोच रहे थे। आपका क्या ख्याल है।
पता
ग्राम - कोलिहामार, पो. - गुरुर
जिला - बालोद (छ.ग.) 491227
मोबा. 09407732943
जिला - बालोद (छ.ग.) 491227
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