मनोज राठौर ' मनुज '
क्या क्या न कागजों में ही होता रहा यहाँ?
लिक्खा था पहरेदार जो सोता रहा यहाँ?
ऊँचे मकान सिर्फ मुलाजिम के बन गये,
लेकिन गरीब भूख से रोता रहा यहाँ।
सूखे की राहतें तो करोंडों की बँट गयीं,
फिर भी किसान कर्ज को ढोता रहा यहाँ।
भरता रहा धुआँ का हवाओं में जहर पर,
गुलशन वो सिर्फ पेन से बोता रहा यहाँ।
सूखी पड़ी जमीन तरक्की की आज भी,
स्याही से लब्ज ही वो भिंगोता रहा यहाँ।
जिसका रहा मनुज् न हकीकत से वास्ता,
उन झूठे आँकड़ों में वो खोता रहा यहाँ।
मनोज राठौर ' मनुज '
आगरा मोबा. 8168940401
क्या क्या न कागजों में ही होता रहा यहाँ?
लिक्खा था पहरेदार जो सोता रहा यहाँ?
ऊँचे मकान सिर्फ मुलाजिम के बन गये,
लेकिन गरीब भूख से रोता रहा यहाँ।
सूखे की राहतें तो करोंडों की बँट गयीं,
फिर भी किसान कर्ज को ढोता रहा यहाँ।
भरता रहा धुआँ का हवाओं में जहर पर,
गुलशन वो सिर्फ पेन से बोता रहा यहाँ।
सूखी पड़ी जमीन तरक्की की आज भी,
स्याही से लब्ज ही वो भिंगोता रहा यहाँ।
जिसका रहा मनुज् न हकीकत से वास्ता,
उन झूठे आँकड़ों में वो खोता रहा यहाँ।
मनोज राठौर ' मनुज '
आगरा मोबा. 8168940401
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