- डॉ0 ज़ियाउर रहमान जाफरी
इसमें कोई दो राय नही है कि हिन्दी कविता को रूचिकर और लोकप्रिय बनाने में दोहों और ग़जलों का बहुत बड़ा स्थान रहा। ये दोहे किसी धार्मिक ग्रंथ की तरह लोगों में अच्छे और बुरे की तमीज सिखते थे। इसमें नीति, उपदेश तो था ही जिंदगी जीने के सलीके के भी मौजूद थेहिन्दी साहित्य के दृष्टिकोण से देखें तो दोहे भक्तिकाल में अधिक लिखे गए।रीतिकाल में भी दोहे की प्रचुरता रही लेकिन आधुनिक साहित्य में काव्य की इतनी प्रवृतियां विकसित हुईं कि दोहे कहीं न कहीं मंद पर गए। उनकी जगह पर उन कविताओं ने अपना स्थान बना लिया, जिसे छायावादी, प्रगतिवादी या प्रयोगवादी आदि कविताओं के नाम से जाना जाता है। यह अलग बात है कि इन कविताओं का जन सामान्य पर वो असर नहीं रहा जो रहीम, वृंद या कबीर के दोहों में था।
हिन्दी के दोहाकारों में रहीम की स्थिति थोड़ी भिन्न है। एक कवि के रूप में ही नहीं, एक योद्धा, एक सैनिक एक दानी और एक भाषाविद् के रूप में भी वो हमारे सामने आते हैं। उनके दोहो की लोकप्रित्रता का तो ये आलम था कि ये हिन्दुस्तान ही नहीं अरब, और ईरान तक इसकी खुशबू फैल चुकी थी।रहीम के दोहे हमें इसलिए भी मुतासिर करते हैं कि उनके अधिकतर दोहे अपनी जिन्दगी के तजुर्बों से लिए गए हैं। रहीम ने बहुत ऐश-व-आराम के दिन भी देखे और मोहताजी के दिन के भी गवाह बने।एक-एक दोहे पर पैसे लुटाने वाले रहीम पैसे-पैसे के भी मोहताज बने। तब रहीम ने लिखा-
बढ़त रहीम धनाढय धन धनौ धनी को जाइ
धटै बढै वाको कहा भीख मांगि जो खाइ
रहीम का जब बुरा वक्त आया तो उनके अपने दोस्तों ने भी किनाराकशी अख्तियार कर लिया-
ये रहीम दर-दर फिरे मांग मधुकरी खांहि
यारों यारी छांडिए अब रहीम वे नांहि
असल में अकबर की मृत्यु के बाद सलीम राजगद्दी पर बैठा। रहीम अकबर के सेनापति थे। अकबर और सलीम के बीच जब अनबन थी तो रहीम ने अकबर का साथ दिया था। इसलिए जब सलीम राजगद्दी पर बैठा तो उनके मन में रहीम के प्रति विद्वेष का भाव जग गया। रहीम ने कभी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। कई युद्धों में बहादुरी दिखाने के बाद अकबर ने जो रहीम को सम्मान बख्शा उससे उनके राजदरबारी को जो पहले से नाखुश थे, सलीम के गद्दी पर बैठते ही मोका मिला गया था।
रहीम बेहद ही नेक दिल इंसान थे। सबकी मदद करते थे। वो हिन्दू और मुसलमान दोनों के चहेते थे। तुलसी से उनकी मित्रता थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि तुलसी के वचनों के समान रहीम के वचन भी हिन्दी भाषी भूभाग में सर्वसाधारण के मुंह पर होते हैं ( 1 )
रहीम हिन्दी के समकालीन दोहाकारों में सबसे ज्यादा भाषाओं के ज्ञाता थे। हिन्दी, संस्कृत पर तो उनकी पकड़ थी ही उनहोनें वाकयात बावरी का तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद भी किया था। उनके बरबौ जहां अवधी बोली में है, वहीं मदनाषृक खड़ी बोली में रचित है।
हिन्दी कविता की परंपरा में रहीम के नीति विषयक दोहे सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। उनके ज़्यादातर दोहों में समाज परिवार और मानवता को बचाए रखने की कोशिश है। यही कारण है कि एक रामस्वरूप चतुर्वेदी उन्हें जातीय जीवन के प्रतिनिधि कवि के रूप में देखते हैं ( 2 )। डॉ0 नगेन्द्र का भी विचार है कि-इनकी नीति संबंधी दोहे सर्वप्रसिद्ध हैं और उनमें जीवन की विविध अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण हुआ हैं ( 3) ।
कहते हैं कि रहीम की लिखावट बहुत सुंदर थी, और उन्हें पुस्तकों का बड़ा शौक था। रहीम ने एक पुस्तकालय की स्थापना की थी, उसके रूप का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें लगभग तीन सौ कर्मचारी काम करते थे।
रहीम का सबसे व्यवहार दोस्ताना था। उनके दोहों की भाषा ऐसी होती थी कि पढ़ते ही याद हो जाए। डॉ0 सत्य प्रकाश मिश्र रहीम के बारे में लिखते हुए कहते हैं कि- अवघी,व्रज,फारसी और संस्कृत भाषाओं का समान प्रयोग करने वाले रहीम को व्रज और अवधी दोनों काव्य भाषाओं पर समान अधिकार था (4 ) । रहीम की इसी प्रतिभा की प्रशंसा विजयेन्द्र स्नातक ने की है- " इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने भाषाज्ञान और नैसर्गिक प्रतिभा के कारण रहीम ऐसे कात्य की सृष्टि कर सके, जिसका सानी मुश्किल से ही मिलता था 5 ।
रहीम की लगभग आठ किताबें है, लेकिन लोक-प्रियता की दृष्ठि से दोहावली का प्रथम स्थान है। नगर शोभा जहां उनका एक श्रृंगार ग्रंथ है, वहीं बरवे नायिका भेद मे बरंवे छंद में नायिका भेद का वर्णन है। बरबै रहीम का प्रिया छंद था, और तुलसीदास का भी। कुछ लोग रासपंचाध्यायी के रचयिता भी रहीम को मानते हैं, पर इसके कोई पुष्ट आधार नहीं है। रहीम की जिंदगी में जो उथल-पुथल हैा वो उनके दोहों में नही दिखते। रहीम को लिखने का बहुत कम समय मिला उनका ज्यादातर वक्त युद्ध-भूमि में सिपहसालार या सेनापति बनकर बीत गया। रहीम ऐसे मानवतावदी कवि थे, जो हमेशा सांप्रदायिक संकीर्णता से दूर रहे। वो इस्लाम धर्म के साथ हिन्दू धर्म के भी पूरे जानकार थे। रहीम के नीति विषयक दोहों में भी विविधताएं मौजूद हैं। जहां वो प्रेमपंथ को कठिन मानते हैं -
रहीमन मैने तुरंग चढ़ि चलिवौ पावकमांहि
प्रेमपंथ ऐसो कठिन सब कोउ निबहत नांहि
बही उन्होंने सत्संगति और कुसंगति के विषय में में अपने विचार बढ़े स्पष्ट शब्दों में रखे हैं -
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग
चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रहीम उस मानवीय मूल्यों के कवि हैं, जहां मनुष्यता का स्थान सबसे ऊपर है। वास्तव में पूरे भक्तिकाल में तुलसी के बाद रहीम ही सांस्कृतिक समन्वय के महामानव और महाकवि हैं। उनके जीवन की पाठशाला में सच्चे भारतीय के जीवन दिखाई देते हैं जो वंश,धर्म और रंग भूलकर सबको आदमीयत का पाठ पढ़ाता है।
संदर्भ
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ -147
2. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास - रामस्वरूप चतुर्वेदी पृष्ठ-52
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास- डॉ0 नगेन्द्र पृष्ठ- 247
4. मध्यकालीन काव्य धाराएं- डॉ0 सत्यप्रकाश मिश्र, पृष्ठ-136
5. रहीम- विजयेन्द्र स्नातक पृष्ठ - 25-26
6. रहीम ग्रंथावली - विद्यानिवास मिश्र, पृष्ठ- 43
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इसमें कोई दो राय नही है कि हिन्दी कविता को रूचिकर और लोकप्रिय बनाने में दोहों और ग़जलों का बहुत बड़ा स्थान रहा। ये दोहे किसी धार्मिक ग्रंथ की तरह लोगों में अच्छे और बुरे की तमीज सिखते थे। इसमें नीति, उपदेश तो था ही जिंदगी जीने के सलीके के भी मौजूद थेहिन्दी साहित्य के दृष्टिकोण से देखें तो दोहे भक्तिकाल में अधिक लिखे गए।रीतिकाल में भी दोहे की प्रचुरता रही लेकिन आधुनिक साहित्य में काव्य की इतनी प्रवृतियां विकसित हुईं कि दोहे कहीं न कहीं मंद पर गए। उनकी जगह पर उन कविताओं ने अपना स्थान बना लिया, जिसे छायावादी, प्रगतिवादी या प्रयोगवादी आदि कविताओं के नाम से जाना जाता है। यह अलग बात है कि इन कविताओं का जन सामान्य पर वो असर नहीं रहा जो रहीम, वृंद या कबीर के दोहों में था।
हिन्दी के दोहाकारों में रहीम की स्थिति थोड़ी भिन्न है। एक कवि के रूप में ही नहीं, एक योद्धा, एक सैनिक एक दानी और एक भाषाविद् के रूप में भी वो हमारे सामने आते हैं। उनके दोहो की लोकप्रित्रता का तो ये आलम था कि ये हिन्दुस्तान ही नहीं अरब, और ईरान तक इसकी खुशबू फैल चुकी थी।रहीम के दोहे हमें इसलिए भी मुतासिर करते हैं कि उनके अधिकतर दोहे अपनी जिन्दगी के तजुर्बों से लिए गए हैं। रहीम ने बहुत ऐश-व-आराम के दिन भी देखे और मोहताजी के दिन के भी गवाह बने।एक-एक दोहे पर पैसे लुटाने वाले रहीम पैसे-पैसे के भी मोहताज बने। तब रहीम ने लिखा-
बढ़त रहीम धनाढय धन धनौ धनी को जाइ
धटै बढै वाको कहा भीख मांगि जो खाइ
रहीम का जब बुरा वक्त आया तो उनके अपने दोस्तों ने भी किनाराकशी अख्तियार कर लिया-
ये रहीम दर-दर फिरे मांग मधुकरी खांहि
यारों यारी छांडिए अब रहीम वे नांहि
असल में अकबर की मृत्यु के बाद सलीम राजगद्दी पर बैठा। रहीम अकबर के सेनापति थे। अकबर और सलीम के बीच जब अनबन थी तो रहीम ने अकबर का साथ दिया था। इसलिए जब सलीम राजगद्दी पर बैठा तो उनके मन में रहीम के प्रति विद्वेष का भाव जग गया। रहीम ने कभी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। कई युद्धों में बहादुरी दिखाने के बाद अकबर ने जो रहीम को सम्मान बख्शा उससे उनके राजदरबारी को जो पहले से नाखुश थे, सलीम के गद्दी पर बैठते ही मोका मिला गया था।
रहीम बेहद ही नेक दिल इंसान थे। सबकी मदद करते थे। वो हिन्दू और मुसलमान दोनों के चहेते थे। तुलसी से उनकी मित्रता थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि तुलसी के वचनों के समान रहीम के वचन भी हिन्दी भाषी भूभाग में सर्वसाधारण के मुंह पर होते हैं ( 1 )
रहीम हिन्दी के समकालीन दोहाकारों में सबसे ज्यादा भाषाओं के ज्ञाता थे। हिन्दी, संस्कृत पर तो उनकी पकड़ थी ही उनहोनें वाकयात बावरी का तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद भी किया था। उनके बरबौ जहां अवधी बोली में है, वहीं मदनाषृक खड़ी बोली में रचित है।
हिन्दी कविता की परंपरा में रहीम के नीति विषयक दोहे सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। उनके ज़्यादातर दोहों में समाज परिवार और मानवता को बचाए रखने की कोशिश है। यही कारण है कि एक रामस्वरूप चतुर्वेदी उन्हें जातीय जीवन के प्रतिनिधि कवि के रूप में देखते हैं ( 2 )। डॉ0 नगेन्द्र का भी विचार है कि-इनकी नीति संबंधी दोहे सर्वप्रसिद्ध हैं और उनमें जीवन की विविध अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण हुआ हैं ( 3) ।
कहते हैं कि रहीम की लिखावट बहुत सुंदर थी, और उन्हें पुस्तकों का बड़ा शौक था। रहीम ने एक पुस्तकालय की स्थापना की थी, उसके रूप का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें लगभग तीन सौ कर्मचारी काम करते थे।
रहीम का सबसे व्यवहार दोस्ताना था। उनके दोहों की भाषा ऐसी होती थी कि पढ़ते ही याद हो जाए। डॉ0 सत्य प्रकाश मिश्र रहीम के बारे में लिखते हुए कहते हैं कि- अवघी,व्रज,फारसी और संस्कृत भाषाओं का समान प्रयोग करने वाले रहीम को व्रज और अवधी दोनों काव्य भाषाओं पर समान अधिकार था (4 ) । रहीम की इसी प्रतिभा की प्रशंसा विजयेन्द्र स्नातक ने की है- " इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने भाषाज्ञान और नैसर्गिक प्रतिभा के कारण रहीम ऐसे कात्य की सृष्टि कर सके, जिसका सानी मुश्किल से ही मिलता था 5 ।
रहीम की लगभग आठ किताबें है, लेकिन लोक-प्रियता की दृष्ठि से दोहावली का प्रथम स्थान है। नगर शोभा जहां उनका एक श्रृंगार ग्रंथ है, वहीं बरवे नायिका भेद मे बरंवे छंद में नायिका भेद का वर्णन है। बरबै रहीम का प्रिया छंद था, और तुलसीदास का भी। कुछ लोग रासपंचाध्यायी के रचयिता भी रहीम को मानते हैं, पर इसके कोई पुष्ट आधार नहीं है। रहीम की जिंदगी में जो उथल-पुथल हैा वो उनके दोहों में नही दिखते। रहीम को लिखने का बहुत कम समय मिला उनका ज्यादातर वक्त युद्ध-भूमि में सिपहसालार या सेनापति बनकर बीत गया। रहीम ऐसे मानवतावदी कवि थे, जो हमेशा सांप्रदायिक संकीर्णता से दूर रहे। वो इस्लाम धर्म के साथ हिन्दू धर्म के भी पूरे जानकार थे। रहीम के नीति विषयक दोहों में भी विविधताएं मौजूद हैं। जहां वो प्रेमपंथ को कठिन मानते हैं -
रहीमन मैने तुरंग चढ़ि चलिवौ पावकमांहि
प्रेमपंथ ऐसो कठिन सब कोउ निबहत नांहि
बही उन्होंने सत्संगति और कुसंगति के विषय में में अपने विचार बढ़े स्पष्ट शब्दों में रखे हैं -
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग
चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रहीम उस मानवीय मूल्यों के कवि हैं, जहां मनुष्यता का स्थान सबसे ऊपर है। वास्तव में पूरे भक्तिकाल में तुलसी के बाद रहीम ही सांस्कृतिक समन्वय के महामानव और महाकवि हैं। उनके जीवन की पाठशाला में सच्चे भारतीय के जीवन दिखाई देते हैं जो वंश,धर्म और रंग भूलकर सबको आदमीयत का पाठ पढ़ाता है।
संदर्भ
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ -147
2. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास - रामस्वरूप चतुर्वेदी पृष्ठ-52
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास- डॉ0 नगेन्द्र पृष्ठ- 247
4. मध्यकालीन काव्य धाराएं- डॉ0 सत्यप्रकाश मिश्र, पृष्ठ-136
5. रहीम- विजयेन्द्र स्नातक पृष्ठ - 25-26
6. रहीम ग्रंथावली - विद्यानिवास मिश्र, पृष्ठ- 43
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