मनोज कुमार शुक्ल ’ मनोज’
दोस्त देखकर आँखें चुराने लगे हैं।
मित्रता की तराजू झुकाने लगे हैं।।
सौगंध खाई निभाने की खूब मगर,
सीढ़ियांँ जब चढ़ीं तो गिराने लगे हैं।
खाए कभी सुदामा ने छिपाकर चने,
गरीब को चुभे दंश रुलाने लगे हैं।
कन्हैया सा दोस्त, अब मिलेगा कहाँ,
प्रतीकों में बनकर लुभाने लगे हैं।
भूल जाने की आदत सदियों से रही,
आज फिर नेक सपने सुहाने लगे हैं।
स्वार्थ की बेड़ियों में बँथे हैं सभी,
खोटे - सिक्कों को सब भुनाने लगे हैं।
तस्वीरें बदली हैं इस तरह देखिए,
चासनी लगा बातें,सुनाने लगे हैं।
इस अंक के रचनाकार
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सोमवार, 29 नवंबर 2021
दोस्त देखकर आँखें ...
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